आयुर्वेद का नाम आते ही काढ़ा , चूर्ण , खरल या बडी-बडी पुडियों का चित्र आपके सामने उभर आता है , लेकिन नहीं , अब आपको पेटेंट विलायती दवाओं की...
आयुर्वेद का नाम आते ही काढ़ा, चूर्ण, खरल या बडी-बडी पुडियों का चित्र आपके सामने उभर आता है, लेकिन नहीं, अब आपको पेटेंट विलायती दवाओं की तरह चांदी के पत्त्ाे में त्रिशुल की गोलियां और सुंदर प्लास्टिक की शीशी में लिव-52 मिल सकती है, यह तरीका आयुर्वेदिक दवाओं को सुलभ और लोकप्रिय बना रहा है, त्रिशुल, लिवोमिन फेमिप्लेक्स, हरबोलेक्स, वेदना निग्रहरस, मेनाल माल्ट, कृमिनल, लिव-52, टेंटेक्स फोर्ट, गेसेक्स, लसोना, ल्यूकोट, लूनारेक्स आदि औषधियों में से अधिकांश प्राचीन शास्त्रीय विधियों से न बना कर संस्थानों द्वारा नवीन खोजों के आधार पर तैयार की जाती है। साथ ही औषधियां कम समय में प्रयुक्त हों, मात्रा कम हो, स्वाद अच्छा हो, आदि बातों का ध्यान रखने के लिए इन्हें कैपसूल टेबलेट, सिरप या कणों के रूप में नवीन, आकर्षक नाम दे कर बेचा जाता है, आइए, यह जानने की कोशिश करें कि इन औषधियों के इस रूप परिवर्तन से रोगियों को क्या मिला है ?
महर्षि चरक ने सूत्रस्थान के पहले अध्याय में कहा है ः-
तदैव युक्तं भेषज्यं,
यदा रोग्याय कलमते।
स एवं भिषजां श्रेष्ठा,
रोगेभ्योयः प्रमोचयेतु॥
औषध वही अच्छी है जो स्वास्थ्य अच्छा करें तथा वैधों में उत्त्ाम वही वैद्य है जो रोगों से मुक्ति दिलायें दूसरी ओर ड्रग की परिभाषा देते हुए बताया बया है, यह वह रासायनिक पदार्थ है जो जीवित जीव द्रव्य को प्रभावित कर, रोग के निदान, इलाज तथा रोग से दूर रहने में प्रयुक्त किया जा सके।
बहरहाल सामान्य रोगी के लिए चरक के अनुसार दवा वही श्रेष्ठ है, जो रोग से उसे मुक्ति दिलायें।
आयुर्वेद के साथ जुड़ता ग्लैमर ः-
रोग से मुक्ति हेतु पुराने समय में काम आनेवाली ज्यादातर औषधियां पेड़ पौधों से प्राप्त की जाती थी। जड़ी बूटियों का ज्ञान प्रत्येक वैद्य को ही नहीं, घर के बड़े बूड़ों को भी रहता था। वैद्य व उसके सहायक स्वयं वनों से औषधियां लाते थे और रोगों का इलाज करते थे। लेकिन नागार्जुन ने आयुर्वेदिक रसशास्त्र की नींव डाली, जिसमें जड़ी बूटियों के अलावा धातुओं तथा जीवों ओर पृथ्वी पर उपलब्ध अन्य औषधियों को भी शामिल किया गया।
लोहा, पारा, गधंक आदि से बनी आयुर्वेदिक औषधियां अत्यंत लोकप्रिय होने लगी।
रस चिकित्सा के प्रचलन के संबंध में नागार्जुन का मत था कि ये औषधियां सभी प्रकार के रोगों पर विजय पानेवाली, पुरूषार्थ देनेवाली, बालक, वृद्ध एवं तरूण सभी को अनुकूल, लंबे समय तक गुणकारी, मात्रा में कम, शिशुओं की भी देने में सुलभ एवं जड़ी बूटियों की अपेक्षा सस्ती है। ये रस औषधियां असाध्य रोगों में भी कार्य करती है।
धीरे धीरे इन औषधियों के प्रयोग का आधार रोगों के लक्षण होने लग गये। उस काल में औषधियों को प्रयुक्त करने के लिए उनका रस निकाल कर कई बार औषधियों का काढ़ा, ठंडा काढ़ा आदि बना कर देते थे। इसके अलावा सूखी हुई दवाओं का भी प्रयोग होता था। दवाएं चूर्ण, गोली, चटनी, आसव, घी, तेल, क्षार, क्षारसूत्र तथा भस्मों के रूप में दी जाती थी।
लेकिन समय के साथ साथ ज्ञान समाप्त होने लगा और आयुर्वेद विज्ञान में विवादास्पद औषधियों, जड़ी बटियों का बाहुल्य होने लगा।
एक ही दवा के अलग-अलग नाम तथा अलग अलग जड़ी बूटियों के एक ही नाम वैज्ञानिक समाज को भ्रमित तो करते ही है, साथ ही इस विज्ञान के प्रति आस्था और श्रद्धा भी कम करते है।
अतः इन आयुर्वेदिक औषधियों के प्रमाणीकरण तथा मानकीकरण की ओर ध्यान देना अधिक उपयुक्त होगा। दवाओं के मानकीकरण के संबंध में अलग अलग स्थानों के विशेषज्ञों से जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया।
राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, पुणे के डाँ․डी․डी․ नाणवटी लंबे समय से आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों पर कार्य कर रहे है। शरपुंखा (घमासा) पर उनका कार्य उल्लेखनीय रहा है। उसके अनुसार आजकल बाजार में जों औषधियां आ रही रही है, उनके मानकीकरण की व्यवस्था अलग से करनी होगी। औषध नियंत्रक तथा राज्य सरकारों को कुछ करना चाहिए। इनके लिए अलग से औषध अधिनियम विस्तार से बनना चाहिए।
जब मैंने आयुर्वेदिक औषधियों के साथ जुडे रहे पाश्चात्य ग्लैमर की चर्चा की तो वे कहने लगे इट इज पम्प ऐड शो, वे दवाइयों को बेकार में महंगी बना रहे है।
इसी संबंध में आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय, जामनगर में भी कार्य हो रहा है। वे अलग अलग औषधियों के रासायनिक, भौतिक, भेषजिकीय तथा वानस्पतिक गुणों का अध्ययन कर रहे है। तदुपरांत वे औषधियों के स्तरीकरण तथा मानकीकरण हेतु निश्चित पैरामीटर अना रहे है।
एक प्रसिद्ध औषध-निर्माण संस्थान ने बताया कि ः-
· उत्त्ाम घटकों का चयन कर निर्माण करते है।
· समय के अनुसार आसानी से रूचिकर आकार में लेने लायक दवाओं को बनाया जाता है।
· सिरप, कैपसूल व छोटी गोलियों के रूप में दवा बनाने से इनको बनाते समय हाथ से नहीं छूना पड़ता और शुद्धता बनी रहती है। रोगी को लेने में कोई परेशानी नहीं होती तथा उत्त्ाम और आकर्षक स्वरूप होने के कारण पसंद की जाती है।
इसी संदर्भ में आधुनिक युग में समय की कमी, स्वाद, कम मात्रा आदि ऐसे कारण है, जिससे औषधियों को नवीन रूप दिया जाता है। न तो रोगी और न ही वैद्य वनों में जा कर औषधियां ला सकता हैं बाजार में उपलब्ध कच्ची औषधियों की शुद्धता पर संदेह होता है। न ही कोई रोगी घर पर 2 घंटे सुबह शाम काढ़ा उबाल कर पीने को ही तैयार मिलता हैं।
अतः औषधियों को नवीन रूप दिया जा रहा है। लेकिन इस नवीनीकरण के नुकसान भी है, उदाहरणार्थ अधिकांश औषधियां अगर मौलिक रूप में दी जाती है तो व जबान पर रखते ही अपना प्रभाव दिखाने लग जाती है, जबकि कैपसूल, टेबलेट या सिरप अपना प्रभाव पेट में पहुंचने के बाद ही दिखा सकते है। इसी प्रकार गरम काढ़े का प्रयोग गले को राहत पहुंचाता है, लेकिन क्वाथ कणों से यह प्रभाव कम हो जाता है।
अकसर यह कहा जाता हैं कि आयुर्वेद औषधियां बहुत धीरे धीरे असर करती हैं लेकिन चूंकि इनके अन्य खतरनाक प्रभाव नहीं है, अतः इन्हें धीरे धीरे पसंद किया जा रहा है। साथ ही तीव्र प्रभाववाली आयुर्वेदिक औषधियां भी है, जो कम प्रयुक्त होती है। आयुर्वेद में पौधा या उसके किसी भाग का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है, जबकि पाश्चात्य चिकित्सा में रासायनिक संगठन में से औषधि के ऐक्टिव प्रिंसिपल (क्रियाशील घटक) का शोध कर उसका उपयोग किया जाता है।
औषधियों पर शोध आवश्यक ः-
अतः इन औषधियों के परीक्षण तथा मानकीकरण की विधियां पाश्चात्य दवाइयों की परीक्षण-विधियों से सर्वथा अलग होगी। इसी कारण नवीन परीक्षण-विधियों की खोज आवश्यक है। नवीन रूपों में प्रयुक्त औषधियां डॉक्टरों द्वारा अधिक पसंद की जाती है। कंपनी की बिक्री बढ़ती है, इस कारण भी दवाइयां नवीन रूप में दी जाती है।
भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं होम्योपैथी की केंद्रीय अनुसंधान परिषद की स्थापना के पश्चात प्रत्येक राज्य से प्राप्त औषधियों के प्रमाणीकरण तथा मानकीकरण हेतु अलग इकाइयों की स्थापना की जानी चाहिए।
इसी प्रकार प्रत्येक औषधि को बाजार में भेजने से पूर्व उसके रूप आदि पर संतोषजनक शोध अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा दवा नुकसानदेह साबित हो सकती है।
वनौषधियों के लिए प्रत्येक राज्य में औषध खेत (हर्बल फार्म्स) व औषध रोपणी (हर्बल नरसरी) बनायी जानी चाहिए।
कम मिलनेवाली औषधियों के बीज तथा नवपादप उपलब्ध कराये जाने चाहिए। कच्ची औषधियों के भंडार राजकीय स्तर पर रखें जाने चाहिए। नवीन रूप में औषधियों के प्रयुक्त होने के साथ इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि औषधि आयुर्वेदिक ही रहे, उसके ऐक्टिव प्रिंसिपल निकाल कर औषधि बनाने से औषध का स्वरूप बिगड़ जाने के साथ साथ औषध के खतरनाक प्रभाव बढ़ जाते हे।
वर्तमान में औषधियों के पेटेंट कराने के क्षेत्र में होड़ मची हुई है रोगों को दूर करने की दृष्टि से पेटेंट दवाइयां ज्यादा लाभकारी साबित नहीं हुई है। हां औषधियों को घर में रखने में आसानी होती हे। तथा दवा खाने में आसानी होती हैं।
अतः औषधियों के पेटेंटीकरण से पूर्व औषध की संपूर्ण रूप से जांच आवश्यक है।
आशा है कि कैंद्र सरकार व चिकित्सा परिषद इन सुझावों पर ध्यान देंगी तथा जनमानस को सस्ती, उपयोगी, हानि-रहित औषधियां दिला कर राष्ट्र के स्वास्थ्य को समुन्नत करेगी।
'''''''''
यशवन्त कोठारी
86,लक्ष्मी नगर ब्रहमपुरी बाहर, जयपुर-302002
फोनः-0141-2670596
एक बढ़िया आलेख, किन्तु यह भी स्वीकारना होगा कि वि्ज्ञापनों के द्वारा ही यह जीवित भी रह सका है...
जवाब देंहटाएंगुरुदेव सादर नमन ! औषधि निर्माण का आधुनिकीकरण एक सीमा तक तो ठीक है पर पूरी तरह निर्माण प्रक्रिया को आधुनिक बना देना निश्चित ही औषधि की गुणवत्ता को प्रभावित करता है, औषधि मानकीकरण आवश्यक है इससे विश्वसनीयता बढ़ेगी. और चिकित्सकों का आत्म विश्वास भी. .
जवाब देंहटाएं