हिं दी का विकास क्रमशः प्राकृत और अपभ्रंश के अनंतर हुआ है। पर पिछली अपभ्रंश में भी हिंदी के बीज बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं इसी लिये ...
हिंदी का विकास क्रमशः प्राकृत और अपभ्रंश के अनंतर हुआ है। पर पिछली अपभ्रंश में भी हिंदी के बीज बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं इसी लिये इस मध्यवर्त्ती नागर अपभ्रंश को विद्वानों ने पुरानी हिंदी माना है। यद्यपि अपभ्रंश की कविता बहुत पीछे की बनी हुई भी मिलती है परंतु हिंदी का विकास चंदबरदाई के समय से स्पष्ट देख पड़ने लगता है। इसका समय बारहवीं शताब्दी का अंतिम अर्ध भाग है परंतु उस समय भी इसकी भाषा अपभ्रंश से बहुत भिन्न हो गई थी। अपभ्रंश का यह उदाहरण लीजिए -
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेज्जं तु वयंसिअह जै भग्गा घरु एंतु।। 1।।
पुत्ते जाएं कवण् गुणु अवगुणु कवणु मुएण।
जा बप्पी की भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण।। 2।।
दोनों दोहे हेमचंद्र के हैं। हेमचंद्र का जन्म संवत् 1145 में और मृत्यु सं0 1229 में हुई थी। अतएव यह माना जा सकता है कि ये दोहे सं0 1200 के लगभग अथवा उसके कुछ पूर्व लिखे गये होंगे। अब हिंदी के आदि कवि चंद के कुछ छंद लेकर मिलाइए और् देखिए दोनों में कहाँ तक समता है।
उच्चिष्ठ छंद चंदह बयन सुनत सुजंपिय नारि।
तनु पवित्त पावन कविय उकति अन्ठ उधारि।।
ताड़ी खुल्लिय ब्रह्म दिक्खि इक असुर अदब्भुत।
दिग्ध देह चख सीस मुष्ष करुना जस जप्पत।।
हेमचंद्र और चंद की कविताओं को मिलाने से यह स्पष्ट विदित होता है कि हेमचंद्र की कविता प्राचीन है और चंद की उसकी अपेक्षा बहुत अर्वाचीन। हेमचंद्र ने अपने व्याकरण में अपभ्रंश के कुछ उदाहरण दिए हैं जिनमें से ऊपर के दोनों दोहे लिये गए हैं पर ये सब उदाहरण स्वयं हेमचंद्र के बनाए हुए ही नहीं है। संभव है कि इसमें से कुछ स्वयं उनके बनाए हुए हों पर अधिकांश अवतरण मात्र हैं और इसलिए उसके पहले के हैं।
विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में वर्तमान महाराज भोज का पितृव्य द्वितीय वाक्पतिराज परमार मुंज जैसा पराक्रमी था वैसा ही कवि भी था। एक बार वह कल्याण के राजा तैलप के यहाँ कैद था। कैद ही में तैलप की बहन मृणालवती से उसका प्रेम हो गया आर उसने कारागृह से निकल भागने का अपना भेद अपनी प्रणयिनी को बतला दिया। मृणालवती ने मुंज का मंसूबा अपने भाई से कह दिया जिससे मुंज पर और अधिक कड़ाई होने लगी। निम्नलिखित दोहे_ मुंज की तत्कालीन रचना हैं
जा मति पच्छई सपज्जइ सा मति पहिली होइ।
मुंज भणै मुणालवइ विधन न बेढइ कोइ।।
( जो मति पीछे संपन्न होती है वह यदि पहले हो तो मुंज कहता है, हे मृणालवती कोई विघ्न न सतावे। )
सायर खाई लंक गढ़ गढ़वई दससिरि राउ।
भगग्क्त्यय सो भजि गय मु ज म कत् ?साउ।।
( सागर खाई लंका गढ़ राढ़पति दशकंधर राजा भाग्य क्षय होने पर सब चौपट हो गए। मुंज विषाद मत कर। )
ये दोहे हिंदी के कितने पास पहुँचते हैं यह इन्हें पढ़ते ही पता लग जाता है। इनकी भाषा साहित्यिक है अतः रूढ़ि के अनुसार इनमें कुछ ऐसे शब्दों के प्राकृत रूप भी रखे हुए है_ जो बोलचाल में प्रचलित न थे जैसे संपज्जइ, सायर, मुणालवइ, बिसाउ। इन्हें यदि निकाल दें तो भाषा और भी स्पष्ट हो जाती है।
इस अवस्था में यह माना जा सकता है कि हेमचंद्र के समय से पूर्व हिंदी का विकास होने लग गया था और चंद के समय तक उसका कुछ रूप स्थिर हो गया था अतएव हिंदी का आदिकाल हम सं0 1050 के लगभग मान सकते हैं। यद्यपि इस समय के पूर्व के कईं हिंदी कवियों के नाम बताए जाते हैं परंतु उनमें से किसी की रचना का कोई उदाहरण कहीं देखने में नहीं आता। इस अवस्था में उन्हें हिंदी के आदि काल के कवि मानने में संकोच होता है। पर चंद को हिंदी का आदि कवि मानने में किसी को संदेह नहीं हो सकता। कुछ लोगों का यह कहना है कि चंद का पृध्वीराज रासो बहुत पीछे का बना हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि इस रासो में बहुत कुछ प्रक्षिप्त अंश है पर साथ ही उसमें प्राचीनता के चिह्न भी कम नहीं हैं। उसके कुछ अंश अवश्य प्राचीन जान पड़ते हैं।
चंद का समकालीन जगनिक कवि हुआ है जो बुंदेलखंड के प्रतापी राजा परमाल के दरबार में था। यद्यपि इस समय उसका बनाया कोई ग्रंथ नहीं मिलता पर यह माना जाता है कि उसके बनाए ग्रंथ के आधार पर ही आरंभ में “आल्हाखंड” की रचना हुई थी। अभी तक इस ग्रंथ की कोई प्राचीन प्रति नहीं मिली है पर संयुक्त प्रदेश और बुंदेलखंड में इनका बहुत प्रचार है और यह बराबर गाया जाता है। लिखित प्रति न होने तथा इनका रूप सर्वथा आल्हा गानेवालों की स्मृति पर निर्भर होने के कारण इसमें बहुत कुछ प्रक्षिप्त अंश भी मिलता गया है और भाषा में भी फेरफार होता गया है।
हिंदी के जन्म का समय भारतवर्ष के राजनीतिक उलटफेर का था। उसके पहले ही से यहाँ मुसलमानों का आना आरंभ हो गया था और इस्लाम धर्म के प्रचार तथा उत्कर्षवर्धन में उत्साही आर दृढ़संकल्प मुसलमानों के आक्रमणों के कारण भारतवासियों को अपनी रक्षा की चिता लगी हुई थी। ऐसी अवस्था में साहित्य कला की वृद्धि की किसको चिंता हो सकती थी। ऐसे समय में तो वे ही कवि सम्मानित हो सकते थे जो केवल कलम चलाने में ही निपुण न हों वरन् तलवार चलाने में भी सिद्धहस्त हों तथा सेना के अग्रभाग में रहकर अपनी वाणी द्वारा सैनिकों का उत्साह बढ़ाने में भी समर्थ हों। चंद और जगनिक ऐसे ही कवि थे इसीलिये उनकी स्मृति अब तक बनी है। परंतु उनके अनंतर कोई सौ वर्ष तक हिंदी का सिंहासन सूना देख पड़ता है। अतएव हिंदी का आदि काल संवत् 1050 के लगभग आरंभ होकर 1375 तक चलता है। इस काल में विशेषकर वीर काव्य रचे गए थे। ये काव्य दो प्रकार की भाषाओं में लिखे जाते थे। एक भाषा का ढाँचा तो बिलकुल राजस्थानी या गुजराती का होता था जिसमे प्राकृत के पुराने शब्द भी बहुतायत से मिले रहते थे।
यह भाषा जो चारणों में बहुत काल पीछे तक चलती रही है डिंगल कहलाती है। दूसरी भाषा एक सामान्य साहित्यिक भाषा थी जिसका व्यवहार ऐसे विद्वान् कवि करते थे जो अपनी रचना को अधिक देशव्यापक बनाना चाहते थे। इसका ढाँचा पुरानी ब्रजभाषा का होता था जिसमें थोड़ा बहुत खड़ी या पंजाबी का भी मेल ही जाता था। इसे पिंगल भाषा कहने लगे थे। वास्तव में हिंदी का सबंध इसी भाषा से है। पृथ्वीराज रासो इसी साहित्यिक सामान्य भाषा में लिखा हुआ है। बीसलदेव रासो की भाषा साहित्यिक नहीं है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि उसके कवि ने जगह जगह अपनी राजस्थानी बोली में इस सामान्य साहित्यिक भाषा (हिंदी) को मिलाने का प्रयत्न अवश्य किया है।
डिंगल के ग्रंथों में प्राचीनता की झलक उतनी नहीं है जितनी पिंगल ग्रंथों में पाई जाती है। राजस्थानी कवियों ने अपनी भाषा को प्राचीनता का गौरव देने के लिये जान बूझकर प्राकृत अपभ्रंश के रूपों का अपनी कविता में प्रयोग किया है। इससे वह भाषा वीरकाव्योपयोगी अवश्य हो जाती है, पर साथ ही उसमें दुरूहता भी आ जाती है।
इसके अनंतर हिंदी के विकास का मध्य काल आरंभ होता है जो 525 वर्षों तक चलता है। भाषा के विचार से इस काल को हम दो मुख्य भागो में विभक्त कर सकते हैं - एक सं0 1375 से 1700 तक और दूसरा 1700 से 1900 तक। प्रथम भाग में हिंदी की पुरानी बोलियाँ बदलकर ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण करती हैं; और दूसरे भाग में उनमें प्रौढ़ता आती है तथा अंत में अवधी और ब्रजभाषा का मिश्रण सा हो जाता है और काव्य भाषा का एक सामान्य रूप खड़ा हो जाता है। इस काल के प्रथम भाग में राजनीतिक स्थिति डाँवाँडोल थी। पीछे से उसमें क्रमशः स्थिरता आई जो दूसरे भाग में दृढ़ता को पहुँचकर पुनः डाँवाँडोल हो गई। हिंदी के विकास की चौथी अवस्था संवत् 1900 में आरभ होती है। उसी समय से हिंदी गद्य का विकास नियमित रूप से आरभ हुआ है और खड़ी बोली का प्रयोग गद्य और पद्य दोनों में होने लगा है।
मध्य काल के पहले भाग में हिंदी की पुरानी बोलियों ने विकसित होकर ब्रज अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण किया और ब्रज तथा अवधी ने साहित्यिक बाना पहनकर प्रौढ़ता प्राप्त की। पुरानी बोलियों ने किस प्रकार नया रूप धारण किया इसका अबद्ध विवरण देना अत्यन्त कठिन है पर इसमें संदेह नहीं कि वे एक बार ही साहित्य के लिये स्वीकृत न हुई होंगी। इस अधिकार और गौरव को प्राप्त करने में उनको न जाने कितने वर्षों तक साहित्यिकों की तोड़-मरोड़ सहनी तथा उन्हें घटाने बढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता दे रखनी पड़ी होगी।
मध्य युग में धार्मिक प्रचार सबंधी आंदोलन ने प्रचारकों को जनता के हृदय तक पहुँचने की आवश्यकता का अनुभव कराया। इसके लिए जन साधारण की भाषा का ज्ञान और उपयोग उन्हें अनिवार्य ज्ञात हुआ। इसी आवश्यकता के वशीभूत होकर निर्गुणपंथी संत कवियों ने जन साधारण की भाषा को अपनाया आर उसमें कविता की परंतु वे उस कविता को माधुर्य आदि गुणों से अलंकृत न कर सके और न किसी एक बोली को अपनाकर उसके शुद्ध रूप का उपयोग कर सके। उनके अपढ़ होने स्थान स्थान के साधु संतों के सत्संग आर भिन्न भिन्न प्रांतों तथा उसके उपखंडों में जिज्ञासा की तृप्ति के लिये पर्यटन एवं प्रवास ने उनकी भाषा में एक विचित्र खिचड़ी पका दी। काशी निवासी कबीर के प्रभाव से विशेष कर पूरबी भाषा (अवधी ) का ही उसमें प्राबल्य रहा यद्यपि खड़ी बोली और पंजाबी भी अपना प्रभाव डाले बिना न रहीं। इन साधु संतों द्वारा प्रयुक्त भाषा को हम सधुक्कडी अवधी अथवा साहित्य में प्रयुक्त उसका असंस्कृत अपरिमार्जित रूप कह सकते हैं।
आगे चलकर इसी अवधी को प्रेमाख्यानक मुसलमान कवियों ने अपनाया और उसको र्किचित् परिमार्जित रूप में प्रयुक्त करने का उद्योग किया। इसमें उनको बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हुई। अंत में स्वाभाविक कोमलता और सगुण भक्ति की रामोपासक शाखा के प्रमुख प्रतिनिधि तुलसीदास ने उसे प्रौढ़ता प्रदान करके साहित्यिक आसन पर सुशोभित किया। प्रेमाख्यानक कवियों ने नित्य के व्यवहार में आनेवाली भाषा का प्रयोग किया और तुलसीदास ने संस्कृत के योग से उसको परिमार्जित और प्रांजल बनाकर साहित्यिक भाषा का गौरव प्रदान किया।
ब्रजभाषा एक प्रकार से चिर प्रतिष्ठित प्राचीन काव्य भाषा का विकसित रूप है। पृथ्त्रीराज रासो में ही इसके ढाँचे का बहुत कुछ आभास मिल जाता है “तिहि रिपुजय पुरहरन को भए प्राथ राज नरिंद।”
सूरदास के रचना काल का आरंभ संवत् 1575 के लगभग माना जाता है। उस समय तक काव्य-भाषा ने ब्रजभाषा का पूरा पूरा रूप पकड़ लिया था फिर भी उसमें क्या क्रिया, क्या सवर्नाम और क्या अन्य शब्द सबमें प्राकृत तथा अपभ्रंश का प्रभाव दिखाई देता है। पुरानी काव्य भाषा का प्रभाव ब्रजभाषा में अब तक लक्षित होता है। रत्नाकर जी की कविता में भी अभी तक ‘मुक्ताहल’ और ‘नाह’ ऐसे न जाने कितने शब्द मिलते हैं। तुलसीदासजी की रचना में जिस प्रकार अवधी ने प्रौढ़ता प्राप्त की उसी प्रकार अष्टछाप के कवियों की पदावली में ब्रजभाषा भी विकसित हुई। घनानंद बिहारी और पद्माकर की कविता में तो उसका पूर्ण परितोष हुआ।
यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार अवधी में मिश्रण के कारण साधुसंत हुए उसी प्रकार ब्रजभाषा में मिश्रण के कारण राजा लोग हुए। यह ऊपर कहा जा चुका है कि ब्रजभाषा पुरानी सार्वदेशिक काव्य-भाषा का विकसित रूप है। उत्तर भारत की संस्कृत का केंद्र सदा से उसका पश्चिम भाग रहा। बड़ी बड़ी राजधानियाँ तथा समृद्धशालिनी नगरियाँ, जहाँ राजा लोग मुक्त हस्त होकर दान देने के प्रभाव से दूर दूर देश के कवि-कोविदों को खींच लाते थे, वहीं थीं। इसी से वहीं की भाषा ने काव्य भाषा का रूप प्राप्त किया साथ ही दूर दूर देशों की प्रतिभा ने भी काव्य भाषा के एकत्व स्थापित करने में योग दिया। इस प्रकार का कल्पित एकत्व प्रायः विशुद्धता का विरोधी होता है। यही कारण है कि ब्रजभाषा भी बहुत काल तक मिश्रित रही। रासो की भाषा भी मिश्रित ही है। चंद ने स्वयं कहा है – “षट् भाषा पुरानं च कुरानं कथितं मया।“
इस षट् भाषा का अर्थ स्पष्ट करने के लिये भिखारीदास का निम्नलिखित पद्यांश विचारणीय है।
“ब्रज मागधी मिलै अमर नाग यमन भाखानि।
सहज पारसी हू मिलै षट विधि कहत बखानि।।“
मागधी से पूर्वी ( अवधी से बिहारी का तात्पर्य है अमर से संस्कृत का, और यमन से अरबी का, पर नागभाषा कौन सी है यह नहीं जान पड़ता। जो कुछ हो, पर यह मिश्रण ऐसा नहीं होता था कि भाषा अपनापन छोड़ दे।
ब्रज भाषा भाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोइ।
मिलै संस्कृत पारस्यौ पै अति प्रगट जु होइ।।
प्रत्येक कवि की रचनाओं में इस प्रकार का मिश्रण मिलता है, यहाँ तक कि तुलसीदास और गंग भी, जिनका काव्य साम्राज्य में बहुत ऊँचा स्थान है, उससे न बच सके। भिखारीदासजी ने इस संबंध में कहा है-
तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार।
जिनकी कविता में मिली भाषा बिबिध प्रकार।।
अब तक तो किसी चुने उपयुक्त विदेशी शब्द को ही कविगण अपनी कविता में प्रयुक्त करते थे परन्तु इसके अनंतर भाषा पर अधिकार न रहने, भावों के अभाव तथा भाषा की आत्मा और शक्ति की उपेक्षा करने के कारण अरुचिकर रूप से विदेशी शब्दों का उपयोग होने लगा और भाषा का नैसर्गिक रूप भी परिवर्तन के आवर्त्त में फंस गया। फारसी के मुहाविरे भी ब्रजभाषा में अजीब स्वाँग दिखाने लगे। इसका फल यह हुआ कि ब्रजभाषा में भी एक विशुद्धतावादी आंदोलन का आरंभ हो गया। हिंदी भाषा के मध्यकालीन विकास के दूसरे अंश की विशेषता ब्रजभाषा की विशुद्धता है। भाषा की इस प्रगति के प्रमुख प्रतिनिधि घनानंद हैं। ब्रजभाषा का यह युग अब तक चला आ रहा है यद्यपि यह अब क्षीणप्राय दशा में है। वर्तमान युग में इस विशुद्धता के प्रतिनिधि पंडित श्रीधर पाठक बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर और पंडित रामचंद्र शुक्र आदि बताए जा सकते हैं।
किसी समय भी बोलचाल की ब्रजभाषा का क्या रूप था इसका पता लगाना कठिन है। गद्य के जो थोड़े बहुत नमूने चौरासी वैष्णवों और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता तथा वैद्यक और साहित्य के ग्रंथों की टीका में मिलते हैं वे संस्कृत गर्भित हैं। उनसे इस कार्य में कोई विशेष सहायता नहीं मिल सकती।
ब्रज और अवधी के ही समान प्राचीन होने पर भी खड़ी बोली साहित्य के लिये इतनी शीघ्र नहीं स्वीकृत हुई यद्यपि बहुत प्राचीन काल से ही वह समय समय पर उठ उठकर अपने अस्तित्व का परिचय देती रही है। मराठा भक्त प्रवर नामदेव का जन्म संवत् 1192 में हुआ था। उनकी कविता में पहले पहल शुद्ध खड़ी बोली के दर्शन होते हैं –
“ पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी।
लैकरि ढेंगा टँगरी तोरी लंगत लंगत जाती थी।“
इसके अनंतर हमको खड़ी बोली के अस्तित्व का बराबर पता मिलता है। इसका उल्लेख हम यथास्थान करेंगे।
कुछ लोगों का यह कहना है कि हिंदी की खड़ी बोली का रूप प्राचीन नहीं है। उनका मत है कि सन् 1800 ई0 के लगभग लल्लूजीलाल ने इसे पहले पहल अपने गद्य ग्रंथ प्रेमसागर में यह रूप दिया और तब से खड़ी बोली का प्रचार हुआ। ग्रियर्सन साहब लालचंद्रिका की भूमिका में लिखते हैं –
“सच ए लैंग्वेज डिड नाट एक्जिस्ट इन इंडिया बिफ़ोर... व्हेन, देयरफ़ोर, लल्लूजीलाल रोट हिस प्रेमसागर इन हिंदी, ही वाज इनवेंटिंग एन आलटुगेदर न्यू लैंग्वेज.”
अर्थात् “इस प्रकार की भाषा का इससे पहले भारत में कहीं पता न था। अतएव जब लल्लूजीलाल ने प्रेमसागर लिखा तब वे एक बिलकुल ही नई भाषा गढ़ रहे थे।“
इसी बात को लेकर उक्त महोदय अपनी लिंग्विस्टिक सर्वे ( भाषाओ की जाँच) की रिपोर्ट के पहले भाग में लिखते हैं-
“अतः यह हिंदी (संस्कृत बहुल हिंदुस्तानी अथवा कम से कम वह हिंदुस्तानी जिसमें फारसी शब्दों का मिश्रण नहीं है ) जिसे कभी कभी लोग उच्च हिंदी कहते हैं; उन हिंदुओ की गद्य साहित्य की भाषा है जो उर्दू का प्रयोग नहीं करते। इसका आरंभ हाल में हुआ है और इसका व्यवहार गत शताब्दी के आरंभ से अँगरेजी प्रभाव के कारण होने लगा है। ...लल्लूलाल ने डा0 गिलक्रिस्ट की प्रेरणा से सुप्रसिद्ध प्रेमसागर लिखकर ये सब परिवर्त्तन किए थे। जहाँ तक गद्य भाग का संबंध है वहा तक यह ग्रंथ ऐसी उर्दूभाषा में लिखा गया था जिसमें उन स्थानों पर भारतीय आर्य्य शब्द रख दिए गए थे जिन स्थानों पर उर्दू लिखने वाले लोग फारसी शब्दों का व्यवहार करते हैं.”
ग्रियर्सन साहब ऐसे भाषातत्वविद् की लेखनी से ऐसी बात न निकलनी चाहिए थी। यदि लल्लूजीलाल नई भाषा गढ़ रहे थे तो क्या आवश्यकता थी कि उनकी गढ़ी हुई भाषा उन साहबों को पढ़ाई जाती जो उस समय केवल इसी अभिप्राय से हिंदी पढ़ते थे कि इस देश की बोली सीखकर यहाँ के लोगों पर शासन करें? प्रेमसागर उस समय जिस भाषा में लिखा गया वह लल्लूजीलाल की जन्मभूमि ‘आगरा’ की भाषा थी जो अब भी बहुत कुछ उससे मिलती जुलती बोली जाती है।
उनकी शैली में ब्रजभाषा के मुहाविरों का जो पुट देख पड़ता है वह उसकी स्वतंत्रता प्रचलन और प्रौढ़ता का द्योतक है। यदि केवल अरबी फारसी शब्दों के स्थान में संस्कृत शब्द रखकर भाषा गढ़ी गई होती तो यह बात असंभव थी। कल के राजा शिवप्रसाद की भाषा में उर्दू का जो रंग है वह प्रेमसागर की भाषा में नहीं पाया जाता। इसका कारण स्पष्ट है। राजा साहब ने उर्दूभाषा को हिंदी का कलेवर दिया है और लल्लूजीलाल ने पुरानी ही खोल ओढ़ी है। एक लेखक का व्यक्तित्व उसकी भाषा में प्रतिबिंबित है तो दूसरे का उसके लोकव्यवहार ज्ञान में। दूसरे लल्लूजीलाल के समकालीन और उनके कुछ पहले के सदल मिश्र, मुंशी सदासुख, और सैयद इंशाउल्लाखाँ की रचनाएँ भी तौ खड़ी बोली में ही हैं। उसमें ऐसी प्रौढ़ता और ऐसे विन्यास का आभास मिलता है जो नई गढ़ी हुई भाषा में नहीं, किंतु प्रचुर प्रयुक्त तथा शिष्टपरिगृहीत भाषाओं में ही पाया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त तेरहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान अमीर खुसरो ने अपनी कविता में इसी भाषा का प्रयोग किया है। पहले गद्य की सृष्टि होती है, तब पद्य की। यदि यह भाषा उस समय प्रचलित होती तो अमीर खुसरो ऐसा “घटमान” कवि इसमें कभी कविता न करता। स्वयं उसकी कविता इसकी साक्षी देती है कि वह चलती रोजमर्रा में लिखी गई है, न कि सोचकर गढ़ी हुई किसी नई बोली में।
कविता में खड़ी बोली का प्रयोग मुसलमानों ने ही नहीं किया है, हिंदू कवियों ने भी किया है। यह बात सच है कि खड़ी बोली का मुख्य स्थान मेरठ के आस पास होने के कारण आर भारतवर्ष में मुसल मानी राजशासन का केंद्र दिल्ली होने के कारण पहले पहल मुसलमानों और हिंदुओं की पारस्परिक बातचीत अथवा उनमें भावों और विचारों का विनिमय इसी भाषा के द्वारा आरंभ हुआ और उन्हीं की उत्तेजना से इस भाषा का व्यवहार बढ़ा। इसके अनंतर मुसलमान लोग देश के अन्य भागों में फैलते हुए इस भाषा को अपने साथ लेते गए और उन्होंने इसे समस्त भारतवर्ष में फैलाया। पर यह भाषा यहीं की थी और इसी में मेरठ प्रांत के निवासी अपने भाव प्रकट करते थे। मुसलमानों के इसे अपनाने के कारण यह एक प्रकार से उनकी भाषा मानी जाने लगी। अतएव मध्यकाल में हिंदी भाषा तीन रूपों में देख पड़ती है ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली। जैसे आरंभ काल की भाषा प्राकृत प्रधान थी वैसे ही इस काल की तथा इसके पीछे की भाषा संस्कृत प्रधान हो गई। अर्थात जैसे साहित्य की भाषा की शोभा बढाने के लिये आदि काल में प्राकृत शब्दों का प्रयोग होता था वैसे मध्य काल में संस्कृत शब्दों का प्रयोग होने लगा। इससे यह तात्पर्य नहीं निकलता कि शब्दों के प्राकृत रूपों का अभाव हो गया। प्राकृत के कुछ शब्द इस काल में भी बराबर प्रयुक्त होते रहे जैसे भुआल, सायर, गय, बसह, नाह, लोयन आदि।
उत्तर या वर्त्तमान काल में साहित्य की भाषा में ब्रजभाषा और अवधी का प्रचार घटता गया और खड़ी बोली का प्रचार बढ़ता गया। इधर इसका प्रचार इतना बढ़ा है कि अब हिंदी का समस्त गद्य इसी भाषा में लिखा जाता है और पद्य की रचना भी बहुलता से इसी में हो रही है।
आधुनिक हिंदी गद्य या खड़ी बोली के आचार्य शुद्धता के पक्षपाती थे। वे खड़ी बोली के साथ उर्दू या फारसी का मेल देखना नहीं चाहते थे। इंशाउल्ला तक की यही सम्मति थी। उन्होंने “हिंदी छुट किसी की पुट” अपनी भाषा में न आने दी, यद्यपि फारसी रचना की छूत से वे अपनी भाषा को न बचा सके। इसी प्रकार आगरा निवासी लल्लूलाल की भाषा में ब्रज का पुट है और सदल मिश्र की भाषा में पूरबी की छाया वर्तमान है, परंतु सदासुखलाल की भाषा इन दोषों से मुक्त? है। उनकी भाषा व्यवस्थित, साधु और बे-मेल होती थी। आजकल की खड़ी बोली से सीधा संबंध इन्हीं की भाषा का है, यद्यपि हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में हम इंशाउल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र की उपेक्षा नहीं कर सकते।
आगे चलकर 'जब मुसलमान खड़ी बोली का मुश्किल जबान कहकर विरोध करने लगे आर अँगरेजों को भी शासन संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार तथा राजनीतिक चालों की सफलता के उद्देश्य से शुद्ध हिंदी के प्रति उपेक्षा भाव उत्पन्न ही गया तब राजा शिवप्रसाद, समय और स्थिति की प्रगति का अनुभव कर उसे फारसी मिश्रित बनाने में लग गए और इस प्रकार उन्होंने हिंदी की रक्षा कर ली।
इसी समय भाषा में राष्ट्रीयता की एक लहर उठ पड़ी जिसके प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे। अभी कुछ ही दिन पहले मुसलमान भारतवर्ष के शासक थे। इस बात को वे अभी भूले नहीं_ थे। अतएव उनका इस राष्ट्रीयता के साथ मिलना असंभव सा था। इसलिये राष्ट्रीयता का अर्थ हिंदुत्व की वृद्धि था। लोग सभी बातों के लिये प्राचीन हिंदू संस्कृति की ओर झुकते थे। भाषा की समृद्धि के लिये भी बँगला के अनुकरण पर संस्कृत शब्द लिए जाने लगे क्योंकि प्राचीन परंपरा का गौरव और संबंध सहज में उच्छिन्न नहीं किया जा सकता। उसको बनाए रखने में भविष्य की उन्नति का मार्ग प्रशस्त, परिमार्जित और सुदृढ़ हो सकता है। यही कारण है कि राजा शिवप्रसाद को अपने उद्योग में सफलता न प्राप्त हुई और भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलकर हिंदी ऊंचा सिर किए हुए आगे बढ़ रही है। इस समय साहित्यिक हिंदी संस्कृत गर्भित हो रही है।
परंतु अब राष्ट्रीय आंदोलन में मुसलमानों के आ मिलने से तथा हिंदुओं के उनका मन रखने की उद्विग्नता के कारण एक नई स्थिति उत्पन्न हो गई है। वही राष्ट्रीयता जिसके कारण पहले शुद्ध हिंदी का आंदोलन चला था, अब मिश्रण की पक्षपातिनी हो रही है और अपनी गौरवान्वित परंपरा को नष्ट कर राजनीतिक स्वर्गंलाभ की आशा तथा आकांक्षा करती है। अब प्रयत्न यह हो रहा है कि हिंदी और उर्दू में लिपिभेद के अतिरिक्त और कोई भेद न रह जाय और ऐसी मिश्रित भाषा का नाम हिंदुस्तानी रखा जाय। हिंदी यदि हिंदुस्तानी बनकर देश में एकछत्र राज्य कर सके तो नाम और वेशभूषा का यह परिवर्त्तन महँगा न होगा, पर आशंका इस बात की है कि अध्रुव के पीछे पड़कर हम ध्रुव को भी नष्ट न कर दें!
क इस एकता के साथ साथ साहित्य और बोलचाल तथा गद्य आर पद्य की भाषा को एक करने का उद्योग वर्तमान युग की विशेषता है।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है उसका विशेष संबंध साहित्य की भाषा से है। बोलचाल में तो अब तक अवधी ब्रजभाषा आर खड़ी बोली अनेक स्थानिक भेदों और उपभेदों के साथ प्रचलित है पर साधारण बोलचाल की भाषा खड़ी बोली ही है।
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