प्रमोद भार्गव का आलेख : जातीय जनगणना और सामाजिक सुरक्षा

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देश के लोकतांत्रिक सदनों में अब मामले इस दृष्‍टि से ज्‍यादा उछाले जाते हैं जिससे विपक्षी दलों के सांसदों का चेहरा प्रचार का हिस्‍सा बने, अन...

देश के लोकतांत्रिक सदनों में अब मामले इस दृष्‍टि से ज्‍यादा उछाले जाते हैं जिससे विपक्षी दलों के सांसदों का चेहरा प्रचार का हिस्‍सा बने, अन्‍यथा कोई ऐसी जरुरत नहीं थी कि जातीय जनगणना के मुद्‌दे को फिर से उठाया जाता। दरअसल यूपीए सरकार पहले ही जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला ले चुकी है। हालांकि अब खासतौर से पिछड़े तबके से जुड़े लालू, मुलायम और शरद यादव जैसे सांसदों का कहना है कि केवल जाति की गणना से काम चलने वाला नहीं है बल्‍कि जातियों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्‍थिति का भी पता लगाना चाहिए। जिससे यह साफ कि सामाजिक सुरक्षा कि वास्‍तविक स्‍थिति क्‍या है। जातिगत गिनती के साथ सामाजिक सुरक्षा से जुड़े पहलुओं के आंकड़े सामने आते हैं तो इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।

गणना की इस प्रणाली से कई अहं और नए पहलू सामने आएंगे। बृहत्तर हिन्‍दू समाज (हिन्‍दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्‍यवस्‍था का दुश्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्‍यवस्‍था कितनी पुख्‍ता है, इसका खुलासा होगा। मुसलिम समाज में भी जातिप्रथा पर पर्दा डला हुआ है। आभिजात्‍य मुसलिम वर्ग यही स्‍थिति बहाल रखना चाहता है, जिससे सरकारी योजनाओं के जो लाभ हैं वे पूर्व से ही संपन्‍न लोगों को मिलते रहें। जबकि मुसलमानों की सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना का आधार धर्म और लिंग है। अल्‍पसंख्‍यक समुदायों में से एक पारसियों की घटती आबादी की स्‍थिति भी जातीय गणना से साफ होगी। क्‍योंकि हाल ही में इस समुदाय को प्रजनन सहायता योजना चलाकर जनसंख्‍या वृद्धि दर बढ़ाने के लिए प्रोत्‍साहित किया गया है। पिछड़ों की समृद्ध जातियां जाति आधारित जनगणना कराए जाने पर इसलिए दबाव डालती चली आ रही हैं जिसमें पिछड़ों को उनकी जातीय प्रतिशत के हिसाब से आरक्षण सुविधा का लाभ मिले। आर्थिक और शैक्षिक आंकड़े सामने आने पर आरक्षण की सुविधा से यदि धनी पिछड़ों को अलग किया जाता है तो इन आंकड़ों की महत्‍ता सार्थक होगी।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि जाति ब्राह्मणवादी व्‍यवस्‍था का कुछ ऐसा दुश्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से छोटी जाति मिल जाती है। यह ब्राह्मणवाद नहीं है बल्‍कि पूरी की पूरी साइकिल है। अगर यह जातिचक्र एक सीधी रेखा में होता तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है। इसका कोई अंत नहीं है। जब इससे मुक्‍ति का कोई उपाय नहीं है तो जाति आधारित जनगणना पर आपत्ति किसलिए ? वैसे भी धर्म के बीज-संस्‍कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में जन्‍मजात संस्‍कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्‍थिति में जातीय संस्‍कार भी नादान उम्र में में उंड़ेल दिए जाते हैं।

इस तथ्‍य को एकाएक नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्‍त कुठाराघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, ‘इस अनंत संसार में कामदेव अलंध्‍य हैं। कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्‍पना किसलिए ? इसलिए संकीर्ण योनि होने से भी जातियां दुष्‍ट, दूषित या दोषग्रस्‍त ही हैं, इस कारण जाति एवं धर्म को छोड़कर स्‍वेच्‍छा का आचरण करो।' गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्‍यवस्‍था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्‍य ने जन्‍म और जातिगत श्रेष्‍ठता को तिलांजलि देते हुए व्‍यक्‍तिगत योग्‍यता को मान्‍यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्‍य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्‍यान। महात्‍मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्‍होंने ‘अछूतोद्धार' जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर उसे आचरण में आत्‍मसात किया। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्‍या जाति टूट पाई ? नहीं, क्‍योंकि कुलीन हिन्‍दू मानसिकता, जातितोड़क कोशिशों के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्‍मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। इसी मूल की प्रतिच्‍छाया हम पिछड़ों और दलितों में देख सकते हैं। मुख्‍यधारा में आने के बाद न पिछड़ा, पिछड़ा रह जाता है और न दलित, दलित। वह उन्‍हीं ब्राह्मणवादी हथकंड़ों को हथियार के रूप में इस्‍तेमाल करने लगता है, जो ब्राह्मणवादी व्‍यवस्‍था के हजारों साल हथकंडे रहे।

जातिवार जनगणना और उससे वर्तमान आरक्षण पद्धति में परिवर्तन की उम्‍मीद को लेकर पिछड़े तबके के अलंबदार लालू-मुलायम-शरद का जोर है कि पिछड़ी जातियों की गिनती अनुसूचित जाति व जनजातियों की तरह कराई जाए। क्‍योंकि आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्‍छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए यह पहल जरूरी है। लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्‍थान का मूल कभी नहीं बन सकता। क्‍योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्‍ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और अब ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्‍सेदारी से जुड़ गई हैं। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्‍न जाति अथवा आय के स्‍तर पर पिछले छोर पर बैठे व्‍यक्‍ति के जीवन स्‍तर में सुधार नहीं आ सकता। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि पूंजीवाद की पोषक सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्‍यों होगी ? वैसे भी हमारा संविधान उस साठ फीसदी गरीब आबादी की वकालत नहीं करता जिसे दो जून की रोटी भी वक्‍त पर नसीब नहीं होती। क्‍योंकि यही वह संविधान है जो प्रत्‍येक देशवासी को भोजन का अधिकार तो देता है लेकिन भूमि के व्‍यावसायिक अधिग्रहण को जायज ठहराता है। साधारण नमक और कंपनियों को पानी का अधिकार देकर बुनियादी हकों की समस्‍याएं खड़ी करता है।

मुसलिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्‍लाम में जातिप्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए ज्‍यादातर मुसलमान जाति के आधार पर जनगणना को नकारते हुए जनगणना प्रारूप में केवल धर्म और लिंग दर्ज करते हैं। जाति का खाना अकसर खाली छोड़ दिया जाता है अथवा उसमें मुसलमान लिख कर कर्त्तव्‍य की इतिश्री कर ली जाती है। जबकि एम एजाज अली के मुताबिक मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्‍च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्‍दुल्‍ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां सुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुसलिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्‍य धोबी, नट, बंजारा, बक्‍खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी, डोम, मेहतर, मोची, पासी, खटीक, जोगी, फकीर आदि हैं।

मुसलिमों में ये ऐसी प्रमुख जातियां हैं जो पूरे देश में लगभग इन्‍हीं नामों से जानी जाती हैं। इसके अलावा देश के राज्‍यों में ऐसी कई जातियां हैं जो क्षेत्रीयता के दायरे में हैं। जैसे बंगाल में मण्‍डल, विश्‍वास, चौधरी, राएन, हलदार, सिकदर आदि। यही जातियां बंगाल में मुसलिमों में बहुसंख्‍यक हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में मरक्‍का, राऊथर, लब्‍बई, मालाबारी, पुस्‍लर, बोरेवाल, गारदीय, बहना, छप्‍परबंद आदि। उत्तर-पूर्वी भारत के असम, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि में विभिन्‍न उपजातियों के क्षेत्रीय मुसलमान हैं। राजस्‍थान में सरहदी, फीलबान, बक्‍सेवाले आदि हैं। गुजरात में संगतराश, छीपा जैसी अनेक नामों से जानी जाने वाली बिरादरियां हैं। जम्‍मू-कश्‍मीर में ढोलकवाल, गुडवाल, बकरवाल, गोरखन, वेदा (मून) मरासी, डुबडुबा, हैंगी आदि जातियां हैं। इसी प्रकार पंजाब में राइनों और खटिकों की भरमार है।

इतनी प्रत्‍यक्ष जातियां होने के बावजूद मुसलमानों को लेकर यह भ्रम की स्‍थिति बनी हुई है कि ये जातीय दुश्चक्र की गुंजलक में नहीं जकड़े हैं। दरअसल जाति-विच्‍छेद पर आवरण कुलीन मुसलिमों की कुटिल चालाकी है। इनका मकसद विभिन्‍न मुसलिम जातियों को एक सूत्र में बांधना कतई नहीं है। गोया ये इस छद्‌म आवरण की ओट में सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर एकाधिकार रखना चाहते हैं। जिससे इनका और इनकी पीढ़ियों को लाभ मिलता रहे। इसलिए धर्म आधारित मुसलिम जनगणना में जाति का खाना भी सुनिश्‍चित करने की पैरवी सांसदों को करनी थी। इससे तय होता कि किस श्रेणी की कितनी मुसलिम आबादी है। इनकी शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्‍थिति भी स्‍पष्‍ट होती। मुसलिमों के जो सच्‍चे रहनुमा हैं उन्‍हें कोशिश करनी चाहिए कि उनकी गिनती जाति आधारित हो। 1931 में हुई जनगणना में बिहार और ओड़ीशा में मुसलमानों की तीन बिरादरियों का जिक्र है, मुसलिम डोम, मुसलिम हलालखोर और मुसलिम जुलाहे। बाकी जातियों को किस राजनीतिक जालसाजी के तहत हटाया गया, इसकी पड़ताल हो तो अच्‍छा है। यदि ऐसा होता है तो वास्‍तविक रूप से आर्थिक बद्‌हाली झेल रही जातियों को सरकारी लाभ योजनाओं से जोड़ा जा सकेगा।

अल्प-संख्‍यक समूहों में इस वक्‍त हमारे देश में पारसियों की घटती जनसंख्‍या चिंता का कारण है। इस आबादी को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने प्रजनन सहायता योजना समेत तीन योजनाओं को इसी वित्तीय वर्ष में लागू किया है। राष्‍ट्रीय अल्‍पसंख्‍यक आयोग के एक सर्वे के मुताबिक पारसियों की जनसंख्‍या 1941 में 1,14000 के मुकाबले 2001 में केवल 69000 रह गई। इस समुदाय में लंबी उम्र में विवाह की प्रवृत्ति के चलते भी यह स्‍थिति निर्मित हुई है। बीते दस साल में इनकी आबादी किस हाल में है इसका खुलासा भी जातीय गणना से होगा। इस जाति का देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास में महत्‍वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्ध टाटा परिवार इसी समुदाय से है।

2011 में की जाने वाली जाति आधारित जनगणना में ऐसे उपायों का भी सख्‍ती से पालन होना चाहिए था जिससे बांग्‍लादेशी घुसपैठिए इस पंजी में दर्ज न हो पाते ?लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इन घुसपैठियों की भी गिनती होगी। ये घुसपैठिए देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने और सुरक्षा की दृष्‍टि से भारी बोझ हैं। केंद्र सरकार ने स्‍वीकार किया है कि देश में दो करोड़ से अधिक बांग्‍लादेशी नाजायज तौर से रह रहे हैं। यह संख्‍या विश्‍व के एक सौ सड़सठ देशों से अधिक है। आस्‍ट्रेलिया और श्रीलंका की आबादी से भी यह संख्‍या ज्‍यादा है। वोट बैंक के मद्‌देनजर राजनीतिक दल और यूपीए की केंद्र सरकार प्रत्‍यक्ष और परोक्ष रूप से घुसपैठ को बढ़ावा दे रही है।

अपने मूल स्‍वरूप में जनसंख्‍या में बदलाव एक जैविक घटना होने के साथ समाज में सामाजिक, सांस्‍कृतिक, शैक्षिक व आर्थिक आधारों को प्रभावित करती है। राष्‍ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, मध्‍यान्‍ह भोजन, बीपीएल और एपीएल के माध्‍यम से आहार का आधार बनाए जाने के कारण भी सटीक जनगणना जरूरी है। इसलिए जातिवार जनसंख्‍यात्‍मक लक्ष्‍य देश के गरीब व वंचित वर्ग को खाद्य और पेयजल जैसी सुरक्षा का उपाय तो बनेंगे ही, सरकारी सेवाओं में आरक्षण किस जाति और वर्ग के लिए जरूरी है, इसकी भी झलक मिलेगी। इस लिहाज से अंतिम छोर पर बैठे मुसलिम समाज के रहनुमाओं को भी अपने समाज की जातिवार जनगणना पर जोर देना चाहिए।

प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।

लेखक के अन्य आलेख आप पढ़ सकते हैं इनके ब्लॉग - आम आदमी पर यहाँ -

http://bhartiya-aamaadami.blogspot.com/

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. शानदार पोस्ट
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये

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  2. अब तो किसी चीज से कोई परेशानी ही नहीं. जो ईश्वर ने लिख रखा है वह तो होकर ही रहेगा... यदि विघटन, अराजकता आनी है तो आयेगी ही, चाहे किसी भी स्वरूप में आये, कोई भी लाये...

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख : जातीय जनगणना और सामाजिक सुरक्षा
प्रमोद भार्गव का आलेख : जातीय जनगणना और सामाजिक सुरक्षा
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