काम के लिहाज से पहला दिन था. मैं दफ़्तर जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हो कर सुबह साढ़े नौ बजे घर से बाहर निकला. 16 जून को अचानक मेरा स्थ...
काम के लिहाज से पहला दिन था. मैं दफ़्तर जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हो कर सुबह साढ़े नौ बजे घर से बाहर निकला.
16 जून को अचानक मेरा स्थानांतरण इलाहाबाद से बांदा के लिए हो गया था. स्थानांतरण आदेश में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ था कि मुझे तत्काल कार्य भार ग्रहण करना होगा. दूसरे दिन बांदा जाकर कर मैंने निर्धारण अधिकारी के पद का कार्य भार ग्रहण कर लिया. कार्य भार ग्रहण करने के बाद मैं देर रात में वापस इलाहाबाद आ गया था.
बांदा में कोई विभागीय आवास नहीं था, लिहाजा बांदा में काम करने वाले विभागीय अधिकारी एवं कर्मचारी किराये के मकानों में रहते थे अथवा बांदा में उनके अपने मकान थे. अपने लिए आवास की व्यवस्था करने के लिए दो दिन बाद मैं पुनः बांदा चला गया. कार्यालय के दो कर्मचारियों के सहयोग से मुझे आवास विकास कालोनी में तीन हजार रूपये मासिक किराये पर तीन कमरे का एक फ्लैट मिल गया. आवास उपलब्ध होते ही मैं इलाहाबाद जाकर घरेलू सामान और बीबी-बच्चों को बांदा लाया.
कार्यभार ग्रहण करने के बाद मैं पहली बार दफ़्तर जा रहा था.
मैं टहलते हुए तिंदवारी चौराहे पर आ गया. चौराहे पर दूसरी तरफ कई रिक्श्ोवाले खड़े थे. उनमें से कुछ ने मेरी तरफ संभावना भरी दृष्टि से देखा. मैंने एक रिक्श्ोवाले को हाथ के इशारे से पास बुलाया. वह लगभग पचास साल का था. उसके बाल उलझे हुए थे और उसकी खिचड़ी दाढ़ी बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई थी. वह अपने रिक्श्ो के साथ मेरे सामने आकर खड़ा हो गया. रिक्शेवाला बहुत थका हुआ और कमजोर लग रहा था. देखने से लगता था, जैसे वह वक्त से पहले ही बूढ़ा हो चुका है. तत्काल मेरी प्रत्युत्पन्न मति ने मुझे सचेत किया-‘‘ यह रिक्शेवाला तो बहुत धीरे-धीरे रिक्शा चलाएगा, इसके चलते मुझे दफ़्तर पहुँचने में विलंब भी हो सकता है.''
‘‘ तुम रहने दो!...'' मैंने प्रकट रूप से रिक्श्ोवाले से कहा.
वह मुझे निरीह दृष्टि से देखने लगा.
कुछ दूरी पर खड़ा एक हट्टा-कट्टा रिक्शेवाला मेरी तरफ गौर से देख रहा था. मैंने उस रिक्श्ोवाले को पास आने के लिए इशारा किया.
मेरे पास खड़े बूढ़े रिक्श्ोवाले ने बुझी हुई दृष्टि से मुझे देखते हुए कहा-
‘‘ बैठिए साहब! मैं भी आप को जल्दी पहुँचा दूँगा...''
मैं उसके ही रिक्श्ो पर बैठ गया. रिक्शेवाला उछल-उछल कर रिक्शा चलाने लगा. रिक्शा भी रिक्श्ो वाले की तरह जर्जर हालत में था. सीट फटी हुई थी और उसकी गद्दी धंसी हुई थी. सीट के अंदर भरी हुई नारियल की जटाएं बाहर निकल आई थीं. रिक्श्ो का पैडल टूटा हुआ था जिसके चलते रिक्श्ोवाले का रिक्शा खींचने में अतिरिक्त श्रम करना पड़ रहा था. उस रिक्श्ो पर बैठने में मुझे असुविधा हो रही थी. रिक्शेवाला लगातार रिक्शा चलाए जा रहा था. रिक्श्ोवाले ने ठीक दस बजे मुझे दफ्तर पहुँचा दिया.
‘‘ कितना हुआ ? '' मैंने धीरे से पूछा.
‘‘ दस रूपये...'' रिक्श्ोवाले ने हाँफते हुए कहा.
दूरी और श्रम के लिहाज से मुझे किराया उचित लगा. मैंने दस रूपये का नोट रिक्श्ोवाले की तरफ बढ़ा दिया.
शाम साढ़े पाँच बजे घर जाने के लिए दफ्तर से बाहर निकला तो देखा, वही रिक्शेवाला दफ्तर के गेट के पास खड़ा था.
‘‘ चलिए साहब! आपको घर तक छोड़ देता हूँ. '' रिक्श्ोवाले ने मुझसे कहा.
मैं चुपचाप रिक्श्ो पर बैठ गया. जब रिक्शा बाबूलाल चौराहे से आगे बढ़ा, मैंने एकाएक रिक्श्ोवाले से पूछा-‘‘ कहाँ के रहने वाले हो ? ''
‘‘ बबेरू के पास एक गाँव है अकोला...वहीं का हूँ. लेकिन आठ-दस साल से बांदा में ही रह रहा हूँ...'' रिक्श्ोवाले ने मुझे बताया.
‘‘ तुम्हारा रिक्शा तो बहुत पुराना हो चुका है...इसे बदल क्यों नहीं देते...''
‘‘ मैं रिक्शा किराये पर लेकर चलाता हूँ. गेराज का मालिक दूसरा रिक्शा देता ही नहीं है. कहता है कि मेरे लिए यही ठीक है. मुझसे केवल तीस रुपया ही किराया लेता है...और रिक्श्ोवालों से चालीस लेता है...'' रिक्श्ोवाले ने कहा.
‘‘ तुम्हारा नाम क्या है ? '' मैंने रिक्श्ोवाले से आख़िरी सवाल किया.
‘‘ रामलाल...'' रिक्श्ोवाले ने सिर मोड़ कर मुझे देखते हुए कहा.
प्रायः रोज ही मैं रामलाल के रिक्श्ो पर बैठ कर दफ़्तर जाने लगा और शाम को वापस घर आने लगा. धीरे-धीरे रामलाल मुझसे काफी घुलमिल गया. मैं उससे दिल खोल कर बातें करने लगा.
एक दिन दफ़्तर जाने के लिए जब मैं चौराहे पर आया तो रामलाल वहाँ नहीं मिला. मेरी निगाहें रामलाल को खोजने लगीं. चौराहे पर कई रिक्श्ोवाले खड़े थे. शायद रामलाल किसी सवारी को छोड़ने गया होगा, कुछ देर बाद आ ही जाएगा,ऐसा सोच कर मैं रामलाल का इंतजार करने लगा. लेकिन पौने दस बजे तक वह नहीं आया, तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. मैं एक दूसरे रिक्श्ो पर बैठ कर दफ़्तर के लिए रवाना हुआ. रास्ते भर मैं रामलाल के बारे में ही सोचता रहा. पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि रामलाल अपने रिक्श्ो के साथ चौराहे पर मेरा इंतजार करता हुआ न मिला हो... उस दिन मैं लगभग पंद्रह मिनट विलंब से दफ़्तर पहुँचा.
अगले दिन जब मैं दफ्तर जाने के लिए चौराहे पर आया तो देखा रामलाल अपने रिक्श्ो के साथ चौराहे पर खड़ा था. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैं उत्साह से भरकर उसके पास जाकर शिकायती लहजे में पूछा-‘‘ कल कहाँ गुम हो गए थे तुम...मैं काफी देर तक तुम्हारा इंतजार करता रहा...''
‘‘ तबीयत बहुत खराब हो गई थी साहब!...'' रामलाल ने बेहद मरी हुई आवाज में कहा.
‘‘ लेकिन तुम्हारी तबीयत तो आज भी ठीक नहीं लग रही है. किसी डॉक्टर को दिखाए कि नहीं...? '' मैंने रामलाल से पूछा.
‘‘ दवा की दुकान से दवा खरीद लिया था. दिन में तो बुखार उतर गया था, लेकिन सुबह फिर तेज बुखार हो गया था. अब कुछ ठीक लग रहा है...'' रामलाल ने हाँफते हुए कहा. उसके चेहरे का रंग पीला हो गया था.
‘‘ तुम्हारी तबीयत तो अभी भी ठीक नहीं लग रही है और तुम इस हालत में रिक्शा चलाने आ गए हो. तुम्हें आराम करना चाहिए...'' मैंने झल्लाते हुए रामलाल से कहा. वह कुछ देर तक असमंजस की स्थिति में मुझे देखता रहा.
‘‘ सोचा, एक-दो चक्कर लगा लूँगा तो कुछ पैसों का इंतजाम हो जाएगा...'' रामलाल ने धीरे से कहा.
‘‘ अरे! नहीं...आज तुम रिक्शा नहीं चलाओगे किसी डॉक्टर को दिखा लो!...'' कहने के बाद मैंने जेब से पचास रुपये का एक नोट निकाल कर रामलाल की तरफ बढ़ा दिया.
रामलाल एकटक मुझे देखने लगा. जब उसने नोट लेने के लिए मेरी तरफ हाथ नहीं बढ़ाया तो मैंने फिर कहा-‘‘ इसे तुम उधार समझ कर रख लो! ठीक होने के बाद वापस कर देना.''
रामलाल ने झिझकते हुए नोट ले लिया.
‘‘ ठीक होने के बाद मैं जल्दी ही पटा दूँगा.'' कह कर रामलाल चला गया.
मैं दूसरे रिक्श्ो पर बैठ कर दफ़्तर की तरफ चल दिया.
अगले दिन भी रामलाल चौराहे पर नहीं आया. शायद रामलाल पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुआ था.
जुलाई की सड़ी हुई गर्मी से जन जीवन बेहाल था. पसीना जल्दी सूखता ही नहीं था. कभी-कभी बदली घिर आती, मौसम सुहावना हो जाता तो कभी सूरज आग उगलने लगता. दफ्तर जाने के लिए चौराहे पर आया तो देखा कि रामलाल अपने मैले-कुचैले गमछे से गले का पसीना पोंछ रहा था. वह स्वस्थ लग रहा था.
‘‘ अब कैसी तबीयत है ? '' मैंने मुस्कुराते हुए रामलाल से पूछा.
‘‘ ठीक है साहब!...बैठिए! '' रामलाल ने रिक्श्ो की तरफ देखते हुए कहा.
मैं झट से रिक्श्ो पर बैठ गया. रामलाल उछल-उछल कर रिक्शा खींचने लगा.
दफ्तर पहुँचने के बाद रामलाल को किराए के तौर पर दस रूपये देने लगा तो उसने किराया लेने से मना कर दिया.
मैं एकटक रामलाल को देखने लगा.
‘‘ साहब! आपका उधार भी तो लौटाना है. इसी तरह से दो-तीन दिन में पटा दूँगा...'' रामलाल ने झिझकते हुए कहा.
मैं समझ गया. फिर भी मैंने बेपरवाही से कहा-‘‘ अरे! मुझे कोई जल्दी नहीं है. उसे तुम बाद में पटा देना. अभी रख लो!...'
'' नहीं साहब! उधार जितना जल्दी पट जाए उतना ही अच्छा...जब तक पट नहीं जाता, आपसे किराया नहीं लूँगा. मैं अब ठीक हो गया हूँ. आज दिन भर रिक्शा चला लूँगा तो कोई दिक्कत नहीं आएगी...'' कहते हुए रामलाल ने रिक्शा आगे बढ़ा दिया.
मैंने चुपचाप दस रूपये का नोट जेब में रख लिया.
तीसरा दिन था. पिछले दो दिन रामलाल ने मुझे दफ़्तर तक छोड़ने और वापस घर तक पहुँचाने के लिए किराया नहीं लिया था.
चौराहे पर पहुँचते ही मेरी आँखें रामलाल को खोजने लगीं. सड़क के किनारे रामलाल एक नए रिक्श्ो के पास खड़ा था. मुझे देखते ही रामलाल उस रिक्श्ो को लेकर मेरे पास आ गया. मैं हतप्रभ था.
‘‘ क्या बात है! आज तो एकदम नया रिक्शा लेकर आए हो. '' मैंने रामलाल को गौर से देखते हुए कहा.
‘‘ हाँ साहब!...इस तरह के छः रिक्श्ो परसों ही नागपुर से आए हैं. मैंने गैरेज मालिक से बहुत मिन्नत किया कि एक रिक्शा मुझे भी चलाने के लिए दे दे. पहले तो वह नहीं मान रहा था. लेकिन जब मैं बहुत ज़िद करने लगा तो मान गया. फिर उसने कहा कि इसके लिए तीस रूपये देने होंगे. मैं इसके लिए भी तैयार हो गया.'' रामलाल ने बच्चों की तरह मचलते हुए बताया.
रिक्शा एकदम नया था. सामान्य रिक्शों की तुलना में कुछ अधिक ऊँचा था. मैंने रिक्श्ो की सीट को दबा कर देखा. गद्दी मोटी और आरामदेह थी.
मैं इत्मीनान के साथ रिक्श्ो पर बैठ गया.
‘‘ इसकी छतरी भी काफी बड़ी है साहब! इससे आपको धूप नहीं लगेगी. '' रामलाल ने रिक्श्ो की छतरी को तानते हुए कहा.
गर्मी काफी बढ़ गई थी. रामलाल चुपचाप रिक्शा चला रहा था. उसका कुर्ता पसीने से चिपचिपाने लगा था. रिक्शा ओवरब्रिज पर आ चुका था. ओवरब्रिज पर शुरूआत में काफी चढ़ाई थी. रामलाल रिक्श्ो से उतर कर रिक्श्ो को धकियाते हुए आगे खींचने लगा.
‘‘ रिक्शा रोको! मैं अभी उतर जाता हूँ. चढ़ाई ख़त्म हो जाएगी तो फिर बैठ जाऊँगा.'' मैंने रामलाल से कहा.
‘‘ आप बैठे रहिए साहब!...मैं चढ़ा लूँगा...'' रामलाल ने धीरे से कहा.
दफ़्तर के गेट के सामने पहुँच कर रामलाल ने रिक्श्ो को एक झटके के साथ रोका. वह पसीने से लथपथ था.
अपने मैले-कुचैले गमछे से पसीना पोंछते हुए रामलाल ने मुझसे पूछा-‘‘ इस रिक्श्ो पर बैठ कर कैसा लगा साहब! आराम तो था न!..''
‘‘ ये रिक्शा तो बहुत ही आरामदेह है. बहुत मजा आया...'' मैंने चहकते हुए कहा.
रामलाल का चेहरा हर्षोन्माद से खिल गया.
मैंने रामलाल की ओर दस रूपये का नोट बढ़ाते हुए कहा-‘‘ लेकिन आज तो तुम्हें किराया लेना ही पड़ेगा...''
‘‘ अभी तो आपका दस रूपये पटाना बाकी है,आज पट जाएगा... '' रामलाल ने किराया लेने से मना कर दिया.
मुझे अच्छा नहीं लगा. रामलाल को किराया न देना बेगार लेने जैसा लग रहा था.
‘‘ अरे! रख लो!...समझ लो उधार पट गया. '' मैंने बेपरवाही से मुस्कुराते हुए कहा.
‘‘ अरे! ऐसे कैसे पट जाएगा ?...'' रामलाल ने रिक्श्ो को आगे बढ़ाते हुए कहा.
मैं सहसा गंभीर हो गया. रामलाल के रिक्श्ो के सामने अकड़ कर खड़ा हो गया. मैं किराया देने की कोशिश करने लगा. रामलाल किराया लेने के लिए कतई तैयार नहीं था.
दफ्तर के सामने खड़े रिक्श्ोवाले एवं चाय-पान के दुकानदार हम दोनों को ऐसे देख रहे थे जैसे वे कोई तमाशा देख रहे हों.
‘‘ जिद मत करो! रख लो!..ये रिक्शा भी तो नया है. इसके लिए तुम्हें कुछ अधिक किराया भी तो देना पड़ेगा. '' मैंने फुसफुसाते हुए रामलाल से कहा.
‘‘ इससे क्या होता है साहब! नया रिक्शा होने से मैं किराया थोड़े ही बढ़ा दूँगा. जो सब लेते हैं, वही मैं भी लूँगा...'' रामलाल ने बौड़म की तरह हंसते हुए कहा.
मेरा आखिरी तर्क भी बेकार चला गया.
‘‘ ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी...'' मैंने दस रूपये के नोट को जेब में रखते हुए कहा.
रामलाल अपने रिक्शे के साथ सड़क की तरफ बढ़ गया. मैं मंथर गति से दफ़्तर की तरफ चल दिया.
मेन गेट से दफ़्तर के अंदर घुसते हुए अचानक मेरे मन में आया-‘‘ किसी के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाने का आख़िर मुझे क्या हक़ है ? ''
(समाप्त)
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लेखक-लक्ष्मीकांत
पता-14/260, इंदिरा नगर,लखनऊ.
‘ किसी के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाने का आख़िर मुझे क्या हक़ है ? ''
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह कहानी ....
सही कहा हमे किसी के भी आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाने का हक नही है।
जवाब देंहटाएंshukriya!...dil se...laxmi Kant.
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