प्रमोद भार्गव का आलेख : पुलिस को मानवतावादी बनाने की जरूरत

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हाल ही में दिल्‍ली की एक अदालत ने एक न्‍यायसंगत फैसला सुनाते हुए पुलिस का चेहरा बदलने की कोशिश की है। भ्रष्‍टाचार और निर्ममता से पुलिस ये द...

हाल ही में दिल्‍ली की एक अदालत ने एक न्‍यायसंगत फैसला सुनाते हुए पुलिस का चेहरा बदलने की कोशिश की है। भ्रष्‍टाचार और निर्ममता से पुलिस ये दो चरित्रजन्‍य विकार हैं। अदालत ने वर्ष 2010 में लूट और नाजायज हथियार रखने के जुर्म में चार गरीब युवकों को आरोपी बनाया था। लेकिन अदालत ने इस मामले को झूठा पाते हुए न केवल आरोपियों को बरी किया बल्‍कि संबंधित पुलिस वालों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही करने की हिदायद भी दी। साथ ही सभी युवकों को 50-50 हजार रूपये मुआवजा दिए जाने का आदेश भी दिया। जिससे इनकी आर्थिक, मानसिक, शारीरिक और सामाजिक हुई हानि की भरपाई की जा सके। पुलिस का यह चरित्र बन गया है कि वह किसी भी व्‍यक्‍ति को हिरासत में लेकर प्रताड़ित तो करती ही है, अधिकारियों और राजनेताओं को खुश करने के लिए भी फर्जी मामलों की कूट रचना कर डालती है। इस तरह के काम पुलिस व्‍यक्‍तिगत उपलब्‍धियों की फेहरिश्‍त लंबी कर पदोन्‍नति हासिल करने के लिए भी करती है। इन षड्‌यंत्रकारी कोशिशों पर सख्‍ती से अंकुश लगाए बिना पुलिस का चेहरा मानवतावादी नहीं हो सकता। इस बाबत सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्‍य सरकारों को पुलिस एक्‍ट में बदलाव के लिए कई बार हिदायतें दी हैं।

पुलिस की कार्यप्रणाली प्रजातांत्रिक मूल्‍यों और संवैधानिक अधिकारों के प्रति उदार, खरी व जवाबदेह हो इस नजरिये से सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने करीब पांच साल पहले राज्‍य सरकारों को मौजूदा पुलिस व्‍यवस्‍था में फेरबदल के लिए कुछ सुझाव दिए थे, इन पर अमल के लिए कुछ राज्‍य सरकारों ने आयोग और समितियों का गठन भी किया। लेकिन किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ये कोशिशें आईएएस बनाम आईपीएस के बीच उठे वर्चस्‍व के सवाल और अह्‌म के टकराव में उलझकर रह गईं। लिहाजा पांच साल बाद एक बार फिर उच्‍चतम न्‍यायालय को पुलिस व्‍यवस्‍था में जरूरी सुधार के लिए हिदायत देने को मजबूर होना पड़ा है। किंतु ब्रितानी हुकूमत के दौरान 1861 में वजूद में आए ‘पुलिस एक्‍ट' में बदलाव लाकर कोई ऐसा कानून अस्‍तित्‍व में आए जो पुलिस को कानून के दायरे में काम करने को तो बाध्‍य करे ही, पुलिस की भूमिका भी जनसेवक के रूप में चिन्‍हित हो क्‍या ऐसा नैतिकता और ईमानदारी के बिना संभव है ? पुलिस राजनीतिकों के दखल के साथ पहुंच वाले लोगों के अनावश्‍यक दबाव से भी मुक्‍त रहते हुए जनता के प्रति संवेदनशील बनी रहे, ऐसे फलित तब सामने आएंगे जब कानून के निर्माता और नियंता ‘अपनी पुलिस बनाने की बजाय अच्‍छी पुलिस' बनाने की कवायद करें।

पुलिस को समर्थ व जवाबदेह बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ के एक मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय ने पुलिस व्‍यवस्‍था को व्‍यावहारिक बनाने की दृष्‍टि से सोराबजी समिति की सिफारिशें लागू करने की हिदायत राज्‍य सरकारों को दी थी। लेकिन पुलिस की कार्यप्रणाली को जनतांत्रिक मूल्‍यों के अनुरूप बनाने की पहल देश की किसी भी राज्‍य सरकार ने नहीं की। लिहाजा सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने एक बार फिर पांच साल पुराने निर्देशों को दोहरा कर सुप्‍त पड़ी राज्‍य सरकारों को चेताया है। चूंकि ‘पुलिस' राजनीतिकों के पास एक ऐसा संवैधानिक औजार है जो विपक्षियों को कानूनन फंसाने अथवा उन्‍हें जलील व उत्‍पीड़ित करने के आसान तरीके के रूप में पेश आती है। इसीलिए पुलिस तो पुलिस, सीवीसी और सीबीआई को भी विपक्षी दल सत्ताधारी हाथों का खिलौना कहते नहीं अघाते। लेकिन जब इसे बदलकर जनहितकारी बनाए जाने की हिदायत देश की सर्वोच्‍च न्‍यायालय दे रही है तब कांग्रेस और साम्‍यवादी राज्‍य सरकारों की बात तो छोड़िए उन तथाकथित राष्‍ट्रवादी दलों की सरकारें भी इस ब्रिटिश एक्‍ट को पलटने की उदारता नहीं दिखा रहीं, जो पानी पी-पीकर फिरंगी हुकूमत को कोसती रहती हैं। इससे जाहिर होता है सभी राजनीतिक दलों की फितरत कमोबेश एक जैसी है। नौकरशाही की तो डेढ़ सौ साल पुराने इसी कानून के बने रहने में बल्‍ले-बल्‍ले है। सो पूरे देश में यथा राजा, तथा प्रजा की कहावत फलीभूत हो रही है।

इसे देश का दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि आजादी के 63 साल बाद भी पुलिस की कानूनी संरचना, संस्‍थागत ढांचा और काम करने का तरीका औपनिवेशिक नीतियों का पिछलग्‍गू है। इसलिए इसमें परिवर्तन की मांग न केवल लंबी है बल्‍कि लाजिमी भी है। लिहाजा इसी क्रम में कई समितियां और आयोग वजूद में आए और उन्‍होंने सिफारिशें भी कीं। परंतु सर्वोच्‍च न्‍यायालय के बार-बार निर्देश देने के बावजूद राज्‍य सरकारें सिफारिशों को लागू करने की राजनीतिक इच्‍छाशक्‍ति का परिचय देने की बजाय इन्‍हें टालती रही हैं। बल्‍कि कुछ सरकारें तो सर्वोच्‍च न्‍यायालय की इस कार्यवाही को विधायिका और कार्यपालिका में न्‍यायपालिका के अनावश्‍यक दखल के रूप में देखती हैं। इसीलिए सोराबजी समिति ने पुलिस विधेयक का जो आदर्श प्रारूप तैयार किया है, वह ठण्‍डे बस्‍ते में है।

पुलिस की स्‍वच्‍छ छवि के लिए जरूरी है उसे दबाव मुक्‍त बनाया जाए। क्‍योंकि पुलिस काम तो सत्ताधारियों के दबाव में करती है, लेकिन जलील पुलिस को होना पड़ता है। झूठे मामलों में न्‍यायालय की फटकार का सामना भी पुलिस को ही करना होता है। पुलिस के आला-अधिकारियों की निश्‍चित अवधि के लिए तैनाती भी जरूरी है। क्‍योंकि सिर पर तबादले की तलवार लटकी हो तो पुलिस भयमुक्‍त अथवा भयनिरपेक्ष कानूनी कार्रवाई को अंजाम देने में सकुचाती है। कई राजनेताओं के मामलों में तो जांच कर रहे पुलिस अधिकारी का ऐन उस वक्‍त तबादला कर दिया जाता है, जब जांच निर्णायक दौर में होती है। जब प्रभावित होने वाला नेता यह भांप लेता है कि जांच में वह प्रथम दृष्टया आरोपी साबित होने वाला है तो वह अपनी ताकत व पहुंच का बेजा इस्‍तेमाल कर जांच अधिकारी को बेदखल करा देता है। हालांकि जांच और अभियोजना के लिए पृथक एजेंसी की जरूरत भी सिफारिशों में हैं। ऐसा होता है तो पुलिस लंबी जांच प्रक्रिया से मुक्‍त रहते हुए, कानून-व्‍यवस्‍था को चुस्‍त बनाए रखने में ज्‍यादा ध्‍यान दे पाएगी।

पुलिस का एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्‍यकारी बनाए जाने की कवायद भी सिफारिशों में शामिल है। क्‍योंकि पुलिस कमजोर व पहुंच विहीन व्‍यक्‍ति के खिलाफ तो तुरंत एफआईआर लिख लेती है, लेकिन ताकतवर के खिलाफ ऐसा तत्‍काल नहीं करती। इसलिए नाइंसाफी का शिकार बने लोग अदालत के लिए मामलों को संज्ञान में ला रहे हैं। ऐसे मामलों की संख्‍या पूरे देश में लगातार बढ़ रही है। इस वजह से पहली नजर में जो दायित्‍व पुलिस का है उसका निर्वहन अदालतों को करना पड़ रहा है। अदालतों पर यह अतिरिक्‍त बोझ है। अदालतों में ऐसे मामले अपवाद के रूप में ही पेश होने चाहिए। न्‍यायालय ने तो निर्देशित भी किया है कि पुलिस किसी भी फरियादी को एफआईआर दर्ज करने से मना नहीं कर सकती। दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय ने तो एफआईआर की प्रति भी अनिवार्य रूप से फरियादी को देने और उसे फौरन वेबसाइट पर डालने की हिदायत दी है।

राष्‍ट्रीय पुलिस आयोग भी पुलिस की मौजूदा कार्यप्रणाली से संतुष्‍ट नहीं है। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 60 फीसदी ऐसे लोगों को हिरासत में लिया जाता है, जिन पर लगे आरोप सही नहीं होते। कारागारों में बंद 42 फीसदी कैदी इसी श्रेणी के हैं। दिल्‍ली अदालत का चार युवकों को बरी करने का मामला ऐसे ही मामलों में शामिल हैं। ऐसे ही कैदियों के रखरखाव और भोजन पानी पर सबसे ज्‍यादा धनराशि खर्च होती है। आरूषि हत्‍याकाण्‍ड, असीमानंद की गिरफ्तारी और बांदा में बसपा विधायक द्वारा बलात्‍कार की शिकार नाबालिग किशोरी की हिरासत कुछ ऐसे ताजा मामले हैं। जिनमें सीबीआई और पुलिस की नाकामी जाहिर तो हुई ही, निर्दोषों को प्रताड़ना भी झेलनी पड़ी है। इसलिए राज्‍य सरकारों को पुलिस व्‍यवस्‍था में सुधार की जरूरत को नागरिक हितों की सुरक्षा के तईं देखने की जरूरत है, न कि पुलिस को राजनीतिक हित-साध्‍य के लिए खिलौना बनाने की ?

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प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551

लेखक वरिष्‍ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख : पुलिस को मानवतावादी बनाने की जरूरत
प्रमोद भार्गव का आलेख : पुलिस को मानवतावादी बनाने की जरूरत
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