इक्कीसवीं सदी की ओर अग्रसर विज्ञानी मानव अनेक अभिशापों से ग्रसित है। बेरोज़गारी उनमें से एक भयंकर अभिशाप है। वर्तमान आर्थिक युग में जीविको...
इक्कीसवीं सदी की ओर अग्रसर विज्ञानी मानव अनेक अभिशापों से ग्रसित है। बेरोज़गारी उनमें से एक भयंकर अभिशाप है। वर्तमान आर्थिक युग में जीविकोपार्जन ही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य रह गया है। किसी देश में कम से कम बेरोज़गारों का होना वहाँ की आर्थिक प्रगति और विकास का परिचायक होता है। जब जनसंख्या की वृद्धि आर्थिक विकास वृद्धि से अधिक हो जाती है, तब बेरोज़गारी का उदय होता है। बेरोज़गारी का अर्थ काम के अवसरों की कमी है।
भारत में बेरोज़गारी का रूप भयंकर बन गया है। साधारण या उच्च शिक्षा प्राप्त अनेक युवक-युवतियाँ रोज़गार कार्यालयों में लाईन लगाकर कई दिनों तक दस बजे से पाँच बजे तक खड़े रहने पर भी, केवल बेरोज़गारी में नाम ही लिखा पाता है। फलस्वरूप उसके मन में इस देश और समाज के प्रति विरक्ति की भावना उत्पन्न होती है। इसी भावना का फल है कि भारत जैसे आध्यात्मिक देश में भी आत्महत्याओं की अधिकता होती है। बेरोज़गार युवक देश के लिए विनाशकारी, अनुशासन हीन, विद्रोही और क्रांतिकारी बन जाते हैं। इसलिए देश का सर्वप्रथम कर्तव्य बेरोज़गारी दूर करना है और जन-सामान्य को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अवसर प्रदत्त करना होता है। गुप्तजी ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से समाज में प्रचलित बेरोज़गारी का चित्रण किया है।
भारतीय गाँवों में युवक पढ़-लिखकर बड़े हो जाते हैं, तब उनके सामने नौकरी की समस्या खड़ी हो जाती है। वे नौकरी के लिए कोशिश करते हैं, किन्तु नौकरी न मिलने से वे बेकार रहते हैं। गुप्तजी के सती मैया का चौरा उपन्यास में मुन्नी ने बेरोज़गारी के प्रति अपना विचार व्यक्त किया है। मुन्नी सोचता है- ओह! बेकारी कितना बड़ा अभिशाप है! यह इन्सान को मुर्दा बना देता है‘ 1। अन्त में गाँव में काम न मिलने पर माँ-बाप को बिना बताए गाँव छोड़कर मुन्नी नौकरी की तलाश में मद्रास जाने की तैयारी करता है।
समाज में आज पढ़े-लिखे युवकों के सामने बेरोज़गारी एक प्रश्न चिह्न है। पढ़ाई के समय युवक यही महत्वाकांक्षा रखते हैं कि अध्ययन के बाद उन्हें कहीं न कहीं नौकरी मिलेगी। पर पढ़ाई के बाद नौकरी न मिलने पर वे दुःखी बन जाते हैं। उनकी आशाएँ टूट जाती हैं।
-तुम ने अपनी महत्वाकांक्षा के संबन्ध में क्या बताया-आफ़ताब ने पूछा।
-मैं ने बताया कि मेरी कोई भी महत्वाकांक्षा नहीं है-सरल ने बताया-मुझे एक नौकरी चाहिए, कोई भी 2‘।
हमारे समाज में शिक्षित और अशिक्षित सभी प्रकार के बेरोज़गार देखे जा सकते हैं। पर उनमें शिक्षितों की संख्या अधिक रहती है। इसका उल्लेख करते हुए छोटी सी शुरुआत उपन्यास में सरल कहता है- मैं नौकरी के लिए एक जमाने से भूखा हूँ। लेकिन आज तक किसी ने एक नेवाला भी मेरी थाल में नहीं डाला! मैं नौकरी तलाशते हुए पढ़ाई आगे बढ़ाता रहा। नौकरी नहीं मिली और मैं परीक्षा पर परीक्षा पास करता गया‘ 3।
ज्योतिष कहानी में गुप्तजी ने समाज में व्याप्त बेरोज़गारी का गंभीर रूप चित्रण किया है। कहानी में सदानन्द के पिता ने उन्हें इसलिए पढ़ाया कि पढ़-लिखकर सदानन्द को नौकरी मिलेगा, तब परिवार से गरीबी हट जाएगी। लेकिन वैसा नहीं हुआ तो घर की हालत से आजिज आकर पिताजी ने सदानन्द से कहा- तू पढ़ा-लिखा होकर हमारे साथ यहाँ क्यों भूखों मर रहा है? जाकर कहीं कोई नौकरी-चाकरी क्यों नहीं ढूँढ़ता? आँख से ओझल कहीं तू भूखों मर भी जायेगा तो हमें उतना दुःख नहीं होगा जितना यहाँ तुझे भूखे देखकर होता है‘ । यह सुनकर सदानन्द कहता है- मैं क्या करता, कहाँ जाता?‘ 4
अपरिचय का घेरा कहानी में बेकारी की समस्या मुख्य रूप से दिखाई पड़ती है। कहानी में कई युवक बेकारी के कारण जीवन से जैसे हारे हुए लगते हैं। इसी तरह गाँव का लछमन भी बेकार है। घर में माँ-बाप, भैया-भाभी लछमन को डाँटा करते हैं कि वह किसी काम पर जाए। खाना खाते समय, उठते-बैठते समय यहाँ तक कि हर समय उसे डाँट खानी पड़ती थी। असह्य लछमन काम की तलाश में गाँव छोड़कर मद्रास चला जाता है। वहाँ पर जाकर घरेलु बच्चों को पढ़ाने के काम में लग जाता है, जिससे कमाई भी अच्छी होने लगती है। लछमन को बार-बार गाँव की याद आती थी। शहर में हर तरह की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी लछमन अपने आप को अकेला महसूस कर रहा था। गाँव जाने की सोचता, लेकिन फिर उसे लगता कि अगर वह गाँव लौटेगा तो घरवालों से फिर बेकारी के कारण ताने-बाने सुनने होंगे, यह सोचकर मज़बूरन उसे मद्रास में ही रहना पड़ता है।
समाज में आज नौकरी मिलना है तो सिर्फ शिक्षित होना ही नहीं बल्कि घूस भी देना पड़ता है। छोटी सी शुरुआत उपन्यास में गुप्तजी ने सरल के भाई द्वारा इसका उल्लेख किया है। सरल का भाई कहता है- नौकरी की तलाश में तो वह मिडिल पास करने के बाद से ही लगा है। उसे नौकरी कहाँ मिलेगी? दो बार तो यहाँ की पुलिस ही उसके खिलाफ रिपोर्ट कर चुकी है। डाक खाने में और फिर रेलवे में वह चुन लिया गया था। पुलिस रिपोर्ट भेजने के लिए पाँच हज़ार और दस हज़ार रुपये माँगे थे। इतने रुपये बड़े भैया कहाँ से देते, वे एक हज़ार और पाँच सौ तक देने को तैयार थे। लेकिन नायब ने इनकार करते हुए कहा, मैं ने आपकी औकात को ध्यान में रखकर ही कम से कम माँगा है। रेलवे में टी.टी की जगह है, लड़के की नियुक्ति हो गयी, तो वह एक-दो महीने में ही दस हज़ार पीट लेगा। डाक खाने की नौकरी प्रतिष्ठा की और उन्नति की दृष्टि से बहुत अच्छी है। यों तो उसे नैकरी मिलेगी नहीं‘5।
संक्षेप में, मनुष्य की आवश्यकताओं को यदि संतुष्ट किया जाना है तो उन्हें रोज़गार मिलना चाहिए। बेरोज़गारी केवल दरिद्रता एवं दुःखों को ही जन्म नहीं देती, अपितु सामाजिक संगठन पर प्रतिकूल प्रभाव भी डालती है।
यद्यपि बेरोज़गारी सर्वत्र व्याप्त है, तथापि भारत में यह अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त, बेरोज़गारी का दुखदायी स्वरूप यह है कि पंचवर्षीय योजनाओं के उपरान्त भी बेरोज़गारों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। शिक्षित वर्ग में बेरोज़गारी गंभीर रूप धारण किए हुए हैं।
संदर्भ
1 . सती मैया का चौरा पृष्ठ सं 85
2. छोटी सी शुरुआत पृष्ठ सं 62
3. वही, पृष्ठ सं 24
4. ज्योतिष (मंगली की टिकुली कहानी संग्रह) पृष्ठ सं 85
5. छोटी सी शुरुआत पृष्ठ सं 72
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Dr. Raju. C.P,
Asst.Professor in Hindi,
St.Thomas’ College Thrissur, Kerala
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