विस्फोटक उर्जा पर नियंत्रण का खेल कितना विध्वंसकारी हैं। इसका अनुभव दुनिया जापान में परमाणु रिएक्टर संयंत्र में लगी आग को देख कर कर रही ...
विस्फोटक उर्जा पर नियंत्रण का खेल कितना विध्वंसकारी हैं। इसका अनुभव दुनिया जापान में परमाणु रिएक्टर संयंत्र में लगी आग को देख कर कर रही हैं। हालांकि जापान परमाणु विस्फोट की विभीषिका से 1945 में सामना कर चुका है। जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागाशाकी दो बड़े शहरों पर परमाणु हमला किया था। इस तबाही ने साबित कर दिया था कि परमाणु विकिरण का असर न केवल तात्कालिक रुप में भयावह है, बल्कि कई भावी पीढ़ियों को भी इसका अभिशाप झेलना होता है। रुस के चेरनोबिल परमाणु संयंत्र में 26 अप्रैल 1986 में घटी दुर्घटना ने भी लाखों लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया था। इन दुष्परिणामों के बावजूद दुनिया खतरनाक परमाणु शक्ति को काबू करने से बाज नहीं आ रही। अभी तक हम यह मानकर चल रहे थे कि जब तक तीसरे विश्वयुद्ध का शंखनाद नहीं होता और उसमें भी परमाणु शस्त्र- अस्त्रों का इस्तेमाल नहीं होता तो दुनिया का बाल भी बांका होने वाला नहीं है। लेकिन चेरेनोबिल और जापान के परमाणु संयंत्रों में घटी घटनाओं ने साबित कर दिया है कि अचानक हुआ परमाणु हादसा भी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध की परिकल्पनाओं की तरह झकझोर सकता है।
वैज्ञानिक प्रगतियों के तमाम अनुकूल-प्रतिकूल संसाधनों पर नियंत्रण के बावजूद प्राकृतिक आपदा के सामने हम कितने बौने हैं यह जापान में महज दस सेकेंड के लिए आई विराट आपदा ने तय कर दिया है। सृष्टि को संजीवनी देने वाले तत्व हवा, पानी और आग जब अपनी न्यूनतम मर्यादाओं की सीमा लांघकर भीषण विराटता रचते हैं तो दशों दिशाओं में सिर्फ और सिर्फ विनाश लीला का मंजर दिखाई देता है। प्राकृतिक आपदा तो तबाही मचाकर खुद अपनी सीमाओं में सिमटती जा रही है। अब संकट मानव निर्मित कृत्रिम आपदा है। जापान में कुल पांच परमाणु बिजली घर हैं। जिनमें से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र भूकम्प व सुनामी की त्रासदी की चपेट में आकर विंध्वसक ज्वालामुखी का रुप धारण कर चुका है। रिएक्टरों के धमाके के साथ फटने से परमाणु रिसाव का संकट मुंहुबाए खड़ा है। इस संकट पर काबू नहीं पाया गया तो इस विकिरण से पैदा होने वाले रेडियोधर्मी तत्व लाखों लोगों को तिल-तिल मरने को विवश कर देंगे और भविष्य में कई पीढ़िया कुरुप व अपाहिज संतति पैदा करने को अभिशप्त होंगी। हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल परमाणु विकिरण से पैदा होने वाले दुष्परिणामों के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
फुकुशिमा से फैल रहा रेडियोधर्मी रिसाव चेरनोबिल से भी ज्यादा खतरनाक माना जा रहा है। क्योंकि इन संयंत्रों का ताप कम करने के लिए जो रेडियोधर्मी भाप निकाली गई है, वह इतनी बड़ी मात्रा में है, जितनी एक साल में सामान्य तौर से संयंत्र संचालन के दौरान निकलती है, उतनी एक घंटे में निकाली गई है। मसलन विकिरण कई हजार गुना ज्यादा वायुमण्डल में फैल रहा है। इसलिए जापान सरकार ने संयंत्र के आसपास रहने वाली आबादी को 20 से 40 किलोमीटर तुरंत दूर चले जाने का संदेश दे दिया है।
इन परमाणु बिजलीघरों में ग्रेफाइट मॉडरेट के रुप में इस्तेमाल होता है। जिसमें पानी की बहुत थोड़ी मात्रा विलय करने से हाइडोजन और ऑक्सीजन के विखण्डन के समय बहुत अधिक तापमान के साथ उर्जा निकलती है। इस उर्जा का दबाव टरबाइन को तीव्रतम गति से घुमाने का काम करता है, नतीजतन बिजली उत्पन्न होती है। रिएक्टरों के इस उच्चतम तापमान को एक निश्चित सेंटीग्रेट तक काबू में रखने के लिए रिएक्टरों पर ठंडे पानी की निरंतर प्रबल धाराएं छोड़ी जाती हैं। हालांकि प्राकृतिक अथवा कृत्रिम संकट की घड़ी में ये परमाणु संयंत्र अचूक कंप्युटर प्रणाली से संचालित व नियंत्रित होने के कारण खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं। लेकिन यहां विरोधाभास यह रहता है कि जल से हाइडोजन और ऑक्सीजन का नाभिकीय विखण्डन तो थम जाता है लेकिन अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं व भौतिक दबाव एकाएक नहीं थमते। लिहाजा जलधारा का प्रवाह बंद होते ही रिएक्टरों का तापमान 5000 डिग्री सेंटीग्रेट से बढ़कर 10,000 डि.सें. तक पहुंच जाता है। यह तापमान जीव-जंतुओं को तो क्या स्टील जैसी ठोस धातु को भी पलभर में गला देता है। यही कारण रहा कि फुकुशिमा रिएक्टर में धमाका होते ही संयंत्र की छत और दीवारें हवा में टुकड़े-टुकड़े होकर छितरा गईं।
दुर्घटना के समय तापमान को नियंत्रित करने की दृष्टि से अमेरिका की मदद से हेलिकॉप्टरों के जरिये परमाणु संयंत्र के उपर बोरिक एसिड, सीसा और शीत पदार्थें ;कुलैंटद्ध का छिड़काव भी किया गया, लेकिन रिएक्टर ठंडा करने के ये उपाय कारगर साबित नहीं हुए। इससे यहां यह सवाल खड़ा होता है कि मानव समुदायों को खतरे परोसने वाली तकनीक पर काबू पाने के तकनीकी उपाय मजबूत व सार्थक नहीं हैं। फुकुशिमा के नाभिकीय खतरे की परिणति को इस दृष्टि से विकास के विंध्वसकारी नमूने के तौर पर देखा जाना चाहिए।
इस सिलसिले में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र मुंबई में कार्यरत परमाणु वैज्ञानिक प्रदीप भार्गव का कहना है कि परमाणु विकिरण का फैलाव एक बड़े दायरे में होगा। इसके दुष्प्रभावों का एकाएक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि रिएक्टर में विस्फोट होने से पूर्व ही परमाणु संयंत्र के बाहर रेडियोधर्मी तत्व फीजियम पहुंच गया था। इसके प्रमाण मिल चुके हैं। तय है यह तत्व सुनामी लहरों के मार्फत समुद्र और वायुमण्डल में फैलकर बहुत बड़े इलाके को प्रभावित करेगा। लिहाजा रेडियोधर्मी तत्वों की घातकता का तत्काल आकलन करना नमुमकिन है।
कोयला, पानी और तेल भंडारों की लगातार होती जा रही कमी के चलते इस समय पूरी दुनिया के समुद्र तटीय इलाकों में बिजली की कमी दूर करने के लिए परमाणु रिएक्टरों का जाल फैलाया जा रहा है। भारत के तटीय इलाकों में भी कई नए परमाणु संयंत्र रोपे जा रहे हैं। परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना तो एक अलग बात है, इनसे निकलने वाले परमाणु कचरे में यूरेनियम, प्लूटोनियम और विखण्डित तत्व इतनी बड़ी मात्रा में होते हैं, जिनमें उच्च स्तर की रेडियोधर्मीता होती है। वैज्ञानिकों का मनना है कि इसके दुष्परिणामों का वजूद पांच लाख सालों तक कायम रह सकता है। डॉ धर्मवीर भारती के काव्य-नाटक ‘अंधायुग' में ब्रहमास्त्र की विभीषिका का संकेत देते हुए अश्वत्थामा अर्जुन और विमानों पर सवार देवगणों को आगाह कर कहता है कि ब्रहमाशास्त्र का प्रभाव एक क्या करोड़ों कृष्ण भी सालों तक मिटा नहीं पाएंगे। जाहिर है परमाणु विभीषिका का ताण्डव तो हम रच सकते है लेकिन उस पर काबू पाने की तकनीक इजाद करने में विज्ञान अभी सक्षम नहीं हुआ हैं। हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल रेडियोधर्मी विकिरण से आज भी मुक्त नहीं हो पाए हैं।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
परमाणु विकिरण का संकट विध्वंसकारी है। यह सच है कि हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल रेडियोधर्मी विकिरण से आज भी मुक्त नहीं हो पाए हैं।
जवाब देंहटाएं......तथा यह भी सच है कि रेडियोधर्मी तत्वों की घातकता का तत्काल आकलन करना नमुमकिन है।
बहुत अच्छा मुद्दा उठाया आपने ..........
सार्थक लेखन के साथ विचारणीय प्रश्न भी ......
सटीक और सार्थक लेख....
जवाब देंहटाएंAcche Likhe. Bohut Sohi kohe apne.
जवाब देंहटाएंबहुत चिन्ता का विषय हो गया है.
जवाब देंहटाएंयह तो प्राकृतिक आपदा है, जिस पर किसी का बस नहीं. लेकिन धर्म के नाम पर कत्ल तो पूरी मानवता के लिये कलंक है, ऐसे कातिलों के लिये कोई निन्दा क्यों नहीं करता.
जवाब देंहटाएंयह एक घोर चिंता का विषय हो गया ....इससे न केवल जापान बल्कि वे सब प्रभावित होंगे जहां तक यह विकिरण जा सकेगा .......आग तो जला ली पर बुझाने का तरीका अभी तक नहीं खोज पाए ........ऐसे खतरों से निपटने के तरीकों पर शोध करने के लिए इन देशों के पास पैसे की कमी पड़ जाती है. भारतीय आर्ष ग्रंथों में इन प्राकृतिक विराट शक्तियों की वन्दना की गयी है ....भाव यह है कि जब हम किसी की वन्दना करते हैं तो उसका दुरुपयोग नहीं करते ...और उन पर विजय प्राप्त करने की बात तो सोच भी नहीं सकते .........जो सोचते हैं उन्हें दुष्परिणाम भोगना होगा ....चाहे वह कोई भी क्यों न हो ......यूं जापान की जनता के दुःख दर्द की इस घड़ी में हम भी उनके साथ हैं ...पर चिंतनीय विषयों पर दो टूक बात करनी ही होगी. जापान की इस घटना ने पूरे विश्व को सचेत कर दिया है कि वह ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के बारे में एक बार फिर गहन अध्ययन करे.
जवाब देंहटाएंअछा आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी
आभार .