वैश्वीकरण और बाजारवाद जैसी वजहों से उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में तेजी आई है। कई योरोपीय देशों की डूबती अर्थव्यवस्था को संवारने क...
वैश्वीकरण और बाजारवाद जैसी वजहों से उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में तेजी आई है। कई योरोपीय देशों की डूबती अर्थव्यवस्था को संवारने का आधार भी विदेशी शिक्षा बन रही है। इस कारण शिक्षा के व्यापारीकरण और बाजारीकरण को अमेरिका जैसा सख्त मिजाज देश भी प्रोत्साहित कर रहा है। नतीजतन वहां के केलिफोर्निया जैसे मशहूर शहर में ट्राई-वैली नामक एक पूरा का पूरा फर्जी विश्वविद्यालय वजूद में आ गया। यह विवि बाकायदा विज्ञापन देकर विदेशी छात्रों को रिझाने में वर्षों से लगा था। बाद में पता चला कि विवि फर्जी था। वह उच्च शिक्षा के बहाने विदेशी मुद्रा कमाने के गोरखधंधे में लगा था। विदेशी शिक्षा की मृगतृष्णा ने हजारों भारतीय व एशियाई देशों के छात्रों के भविष्य पर ग्रहण तो लगाया ही, वहां की सरकार ने भारतीय छात्रों के टखनों में रेडियो कॉलर पहनाकर पशुवत अमानवीय व्यवहार भी किया। कमोबेश ऐसा आचरण जंगली जानवरों पर नजर रखने के लिए वनाधिकारी रखते हैं। अमेरिकी अधिकारी इसे परदेशगमन ;इमीग्रेशन में धोखाधड़ी का मामला बता रहे हैं। लेकिन इसमें छात्रों का दोष कैसे चिन्हित होता हैं ? यह तो संस्थागत विवि का दोष है। यह कार्यवाही वाकई अमेरिका के उस मुखौटे का प्रतीक है, जिसके पीछे नस्लभेदी मानसिकता उपस्थित है। दुनिया को मानवाधिकारों की सीख देने वाला अमेरिका खुद कितना मानवाधिकारों का हितैषी है, यह घटना इस दृष्टिकोण को भी जताती है।
शिक्षा के वैश्विक बाजार में इस समय उछाल आया हुआ है, जो कई योरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को समृद्ध बना रही है। विकासशील देशों के हरेक साल हजारों छात्र, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी और कनाडा उच्च शिक्षा हासिल करने जाते हैं। भारत और चीन के छात्र विदेशी शिक्षा अध्ययन में सबसे ज्यादा रुचि दिखा रहे हैं। विदेश जाने वाले विद्यार्थियों में से 81 प्रतिशत छात्रों के पसंदीदा देश अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं। अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा यज्ञ में आहुति देने का प्रमुख योगदान भारत और चीन का है। 2006 के आंकड़ों का आकलन करें तो ऐसे छात्रों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 18 अरब डॉलर और ऑस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था में करीब 8 अरब डॉलर का योगदान किया है। मंदी के दौर में लड़खड़ाती अर्थ व्यवस्थाओं को स्थिरता देने में इस विपुल धनराशि का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्तमान में करीब 24 लाख छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं। इनकी संख्या में और इजाफा हो इसलिए कई नामचीन देश शिक्षा नीतियों को शिथिल तो कर ही रहे हैं, शिक्षा-वीजा को भी आसान बना रहे हैं। लिहाजा विदेश पढ़ने जाने वाले छात्रों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
यह मामला इसलिए संगीन, पक्षपाती और दंभी आचरण का प्रतीक है क्योंकि इसमें निरपराध और निरीह छात्रों को रेडियो पट्टा पहनाकर अपराधियों जैसी बद्सलूकी की गई। जबकि यह मामला संस्थागत दोष का था। ट्राई वैली विवि बाकायदा विज्ञापन देकर गैरकानूनी शिक्षा व्यापार में एक दशक से भी ज्यादा समय से छात्रों को छलपूर्वक ठगने में लगा था। लेकिन अमेरिकी प्रशासन ने अपने देश के दोषियों के विरुद्ध कोई सख्त कानूनी कार्यवाही करने की बजाय, उन मासूम छात्रों के साथ औपनिवेशिक अमानवीयता बरती जो भूल से भी यह नहीं सोच सकते कि अमेरिका जैसे देश में भी कोई विश्वस्तरीय फर्जी विवि अस्तित्व में हो सकता है। हालांकि फर्जीवाड़ा उजागर होने के बाद इस विवि की मान्यता रद्द कर दी गई है। यहां करीब डेढ़ हजार छात्र-छात्राएं अध्ययनरत थे, जिनमें से 95 प्रतिशत भारतीय विद्यार्थी थे। इस त्रासदी के बाद इन छात्रों का मनोबल तो टूटा ही गुलामों जैसा बर्ताव किए जाने से कई छात्र निश्चित रुप से ऐसे हीनता-बोध के शिकार भी हुए होंगे जो उन्हें आत्मघाती कदम उठाने को विवश कर सकता है।
यहां यह भी सोचनीय पहलू है कि भारतीय छात्र कोई घुसपैठिए नहीं थे। उन्हें बाकायदा ट्राई वैली विवि ने प्रतिस्पर्धा परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दाखिला दिया था। इसी बिना पर अमेरिका दूतावास ने तय अवधि के लिए शिक्षा वीजा भी दिया था। यह वीजा न तो ट्राई वैली विवि ने जारी किया था और न ही भारत सरकार ने ? इस विवि पढ़ने वाले छात्रों के लिए वीजा कोई पहली मर्तबा जारी नहीं किया था, करीब 10 साल से यही व्यवस्था जारी थी। अब तक तो न जाने कितने छात्र इस फर्जी विवि की डिग्री हासिल कर अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देशों में नौकरी भी पा चुके होंगे। अब इस धोखाधड़ी के खुलासे के बाद उनके भविष्य पर खतरे के बादल मंडरा रहें होंगे।
इस घटना के लिए वह भारतीय मानसिकता भी दोषी है, जो हरहाल में विदेशी शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानती है। इसी सोच व आकांक्षा का लाभ छोटे-बड़े विदेशी शिक्षा संस्थान उठा रहे हैं। विदेशों में पढ़ाई एक ऐसी होड़ बन गई है कि वहां के शिक्षा संस्थानों में प्रवेश दिलाने के दृष्टिगत भारत में कई एजेंसियां भी वजूद में आ गई हैं। ये एजेंसियां दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चैन्नई, बैंगलोर और हैदराबाद जैसे महानगरों में छात्रों को दाखिला दिलाने से लेकर पासपोर्ट व वीजा बनाने तक का काम ठेके पर लेती हैं। अमेरिका अथवा ऑस्ट्रेलिया में कौन सा महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय फर्जी है इसकी जानकारी इन एजेंसियों के कर्ताधर्ताओं को भी नहीं होती। लिहाजा बिचौलिये इनकी हैसियत का मूल्यांकन बढ़-चढ़कर करके विदेशों में पढ़ने वाले छात्रों की मंशा को सरलता से भुना लेते हैं। यही नही ऑस्ट्रेलिया में तो ऐसे संस्थान भी वजूद में हैं जो परदेशियों को सिलाई, कढ़ाई, बाल कटाई, रसोई जैसे कार्यों के कौशल दक्षता के पाठ पढ़ा रहे हैं। मोटर मैकेनिक और कंप्यूटर के बुनियादी प्रशिक्षण जैसे मामूली पाठ्यक्रम भी यहां विदेशी पूंजी कमाने के लाभकारी माध्यम बने हुए हैं।
हैरानी तो तब है जब ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में भारतीय छात्रों पर लगातार जानलेवा हमलों के बावजूद भारतीय छात्र इन देशों में पढ़ने के लिए उतावले हैं। जबकि ऑस्ट्रेलिया में तो पिछले साल ही करीब एक दर्जन से ज्यादा छात्र नस्लभेदी हमलों का शिकार होकर अपनी जान गंवा चुके हैं। भारतीय छात्रों के साथ कुछ हादसे अमेरिका में भी हुए हैं। दरअसल भारतीयों की श्रमसाध्य कर्तव्यनिष्ठा का लोहा हरेक देश मान रहा है। लेकिन भारतीयों की यही शालीनता और समर्पित भाव की स्थिति कुछ स्थानीय चरमपंथी समूहों के लिए नागवार हालात पैदा करती रही है। नतीजतन वे इसे स्थानीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन के रुप में देखते हैं और हिंसक बर्ताव के लिए मजबूर हो जाते हैं। लेकिन सरकारी स्तर पर छात्रों के टखनों में पट्टा डालने का आचरण जरुर उस अहंकार का प्रतीक है जो अमेरिका और योरोपीय देशों के गोरों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ मानव प्रजाति साबित करने का भ्रम प्रदान करती है। दुनिया में मानवाधिकारों की वकालत करने वाले अमेरिका जैसे देश के शासन-प्रशासन को इस अमानवीय घटना प्रदर्शन के बाद तो ऐसा लगता है कि उसे खुद अभी मानवीय आचरण का पाठ पढ़ने की जरुरत है जिससे ऐसे क्रूर दुराचरण की पुनरावृत्ति न हो।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
लेखक वरिष्ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।
प्रमोद भार्गव जी!
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही फरमाया है। "दुनिया में मानवाधिकारों की वकालत करने वाले अमेरिका जैसे देश के शासन- प्रशासन को इस अमानवीय घटना प्रदर्शन के बाद तो ऐसा लगता है कि उसे खुद अभी मानवीय आचरण का पाठ पढ़ने की जरुरत है जिससे ऐसे क्रूर दुराचरण की पुनरावृत्ति न हो।"
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जानदार और शानदार विवेचना हेतु आभार।
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कृपया पर्यावरण संबंधी इस दोहे का रसास्वादन कीजिए।
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी