व्यंग्य शहर में भैंस डॉ.आर.वी.सिंह भैंस और शहर का रिश्ता बहुत पुराना है। इधर पश्चिमी तर्ज़ के पब्लिक स्कूलों में पढ़े-लिखे नौकरशाहों को यह ...
व्यंग्य
शहर में भैंस
डॉ.आर.वी.सिंह
भैंस और शहर का रिश्ता बहुत पुराना है। इधर पश्चिमी तर्ज़ के पब्लिक स्कूलों में पढ़े-लिखे नौकरशाहों को यह ऐतिहासिक तथ्य कभी-कभी विस्मृत हो जाता है, तो वे अपनी झख में आदेश जारी कर देते हैं कि इन भैंसों को शहर से निकाल बाहर करो। लेकिन शुक्र है कि अपने नेताओं को भैंस से बड़ा प्यार है। उनमें से अधिकतर का डील-डौल भी भैंसों जैसा ही होता है और वे जानते हैं कि शहर और भैंस का नाता बहुत गहरा है। इसलिए शहर में अब भी भैंसें कायम हैं, पूरी शान-ओ-शौकत के साथ।
हिन्दी में कहावत मशहूर है, जिसकी लाठी उसकी भैंस। अब आप सोचिए कि यदि शहर में भैंस न हो तो दबंग लोग अपनी लाठी का इस्तेमाल कहाँ और किस पर करेंगे? जिसके पास लाठी हो, उसके आस-पास हाँकने के लिए भैंस तो होनी ही चाहिए। यदि मौके पर भैंस नहीं मिली और लाठी वाले के मन में हाँकने का विचार आ गया तो भले आदमियों की तो शामत ही समझिए। इसलिए बेहतर है कि जब तक लाठी कायम है तब तक भैंस को भी कायम रहने दें। इधर सुनने में आता है कि अमुक-अमुक जगह पर पुलिस वालों ने लोगों की भीड़ पर लाठियाँ बरसाईं। यही तो परेशानी है कि शहर में सही मौके पर भैंसें नहीं उपलब्ध होती हैं तो पुलिस वाले आम जनता को ही भैंस की तरह धुनने लगते हैं। इसका एक ही उपाय है कि पुलिस थानों के बगल में भैंसों की खटाल बनाई जाएँ और जब-जब पुलिस वालों को डंडा भांजने का मन करे वे भैंसों पर अपनी भड़ास निकाल लिया करें।
वैसे बताते चलें कि अपने अधिसंख्य पुलिस सिपाही जब भर्ती होते हैं तो छैल-छबीले, बांके जवान होते हैं। लेकिन धीरे-धीरे इतनी चर्बी चढ़ा लेते हैं कि मोटापे में उनकी प्रतिस्पर्धा केवल भैंस से ही हो सकती है। अभी हाल में उत्तर प्रदेश में सिपाहियों की दीवान के रूप में पदोन्नति के लिए शर्त रखी गई- जो सिपाही नब्बे मिनट में दस किलोमीटर की दौड़ पूरी करेगा, उसी को पदोन्नति मिलेगी। सच कहें तो नब्बे मिनट में दस किलोमीटर का फासला तय करने के लिए दौड़ने की जरूरत ही नहीं है। कुछ तेज कदम बढ़ाकर चलने से भी यह काम पूरा हो जाएगा। और मोटी से मोटी भैंस भी इसे अंजाम दे सकती है। लेकिन जिन पुलिस वालों का काम ही अपराधियों के पीछे दौड़ना है, वे यह शर्त पूरी नहीं कर पाए। दो लोग तो इस कोशिश में जान से ही हाथ गंवा बैठे। अपने यमराज भी भैंसे की सवारी करते हैं। अब आप सोचें कि मिथकीय दृष्टि से भी भैंस का कितना महत्त्व है। लिहाजा भैंस की स्पृहणीयता में कोई कमी नहीं है।
अब दिक्कत यह है कि भैंस जैसे भारी-भरकम जानवर को रखा कहाँ जाए। शहरों में आदमियों के रहने के लिए ही जगह कम पड़ने लगी है। नगरों के विकास प्राधिकरण और निजी बिल्डर, दोनों अब प्लॉट और स्वतंत्र मकान बेचने के बजाय फ्लैट बनाकर बेचने में अधिक रुचि लेने लगे हैं। ऐसे में हम अपनी भैंस को कहाँ रखेंगे? उसे लिफ्ट में घुसा नहीं सकते, और सीढियों के रास्ते ऊपर ले जा नहीं सकते। मान लें कि किसी तरह पार्किंग लॉट में या सीढ़ी के नीचे या गली में भैंस को रख भी लिया तो उसे क्या खिलाएँगे? क्या पिलाएँगे? और कैसे नहलाएँगे?
भैंस पिजा-बर्गर तो खाती नहीं। चाउमिन और मंचूरियन से भी उसका पेट नहीं भरने वाला। पानी हम लोग खुद बोतल वाला पीते हैं। भैंस के लिए कहाँ से लाएंगे? यही हालत नहाने की है। अपने नहाने के लिए पानी ही नहीं मिलता। तो भैंसिया को कौन से तालाब में ले जाएंगे नहलाने?
इस सब असुविधा के बावजूद शहर में भैंस का होना बहुत जरूरी है। अपने देश में और सारी बातों पर बहुत बल दिया जा रहा है। बस पढ़ाई-लिखाई वाला विभाग थोड़ा पिछड़ गया है। स्कूल और शिक्षक तो बहुत हो गए हैं। सरकारी स्कूल भी खूब बन गए हैं। और उनको बनाने की प्रक्रिया में बहुत से लोग खुद बन गए। लेकिन इन दो कमरे की इमारतों में पढ़ाई के अलावा और सब कुछ होता है। पुरुषार्थी गुरुजी लोगों की मेहरबानी से अब भी अपने देश में लगभग पैंतीस से चालीस प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। ऐसे लोगों के लिए मुहावरा प्रचलित है- काला अक्षर भैंस बराबर। अब आप सोचें कि यदि भैंस ही न रही तो काला अक्षर किसके बराबर होगा? एक मुहावरा यों ही डिक्शनरी से बाहर हो जाए, यह भला कौन चाहेगा? निरक्षरता तो मानवता का श्रृंगार है। निरक्षर लोग हमारे समाज की शान हैं। निरक्षर हैं तो भैंस की कमी होकर भी महसूस नहीं होती। दोनों को गाहे ब गाहे हाँककर डंडा रखने का शौक पूरा किया जा सकता है। इसलिए निरक्षरों और भैंसों, दोनों को समाज में ज्यादा से ज्यादा संख्या में बनाए रखना बेहद जरूरी है। अनपढ़ आदमी भैंस चराता है और भैंस अनपढ़ आदमी की पूँजी है। दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। और इसी आधार पर अनपढ़ आदमी की जिससे उपमा दी जाती है, उस भैंस का समाज, गाँव और शहर में रहना भी बेहद जरूरी है। इति सिद्धम।
हिन्दी में एक मुहावरा और है- भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस खड़ी पगुराए। अब बताइए यदि भैंस न रही तो किसके आगे बीन बजाइएगा? और पगुराने की प्रक्रिया को समझाने के लिए क्या उदाहरण दीजिएगा? हालांकि अपने हिन्दुस्तान में कोई-कोई आदमी भी निरन्तर पान मसाला, तंबाकू आदि का चर्वण ऐसे ही करते रहते हैं, जैसे पगुरा रहे हों। लेकिन भैंस के पगुराने में और इनके पगुराने में अंतर है। भैंस पगुराती है अपने खाए हुए चारे को और बारीक पीसने तथा वापस उसे पेट में पहुँचाने के लिए। इन्सान पगुराता है, इधर उधर गंदगी फैलाने और न पगुराने वाले इन्सानों को वमन कराकर उनके पेट का चारा बाहर निकलवाने के लिए। लिहाजा पगुराने के मामले में इन्सान भैंस से दो कदम आगे, और डार्विन चचा के शब्दों में उच्चतर ऑर्डर की प्रजाति है।
चारा, भैंस और मुष्य- ये एक ही पारितंत्र के तीन महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं। यदि भैंस है तो उसका एक मंत्रालय और एक अदद विभाग है। उसके लिए पशु-चारा है। चारा खरीदने की परिकल्पना है, प्रावधान है। सरकारी निधि है। यह बिल्कुल ऐसे ही है, जैसे बच्चे हैं तो कुपोषण है, पुष्टाहार योजना है, सरकारी बजट है। और जहाँ सरकारी निधि या बजट है, वहाँ घोटाला है। घोटाला अपने देश में वैसे ही सर्वव्यापी है जैसे भगवान। यदि गीता आज के युग में लिखी गई होती तो कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते कि हे पार्थ जैसे घोटाला भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र व्याप्त है, वैसे ही मैं भी सर्वत्र व्याप्त हूँ। चूंकि भैंस की खुराक अधिक होती है, इसलिए उसके चारे की मात्रा भी अधिक और चारे से जुड़ा घोटाला भी उसी के आनुपातिक आधार पर बड़ा ही होगा। खाना ही है तो बड़ा खाओ। थिंक बिग। बड़ी सोच का बड़ा जादू। इसलिए शहर में यदि बड़ी सोच का चलता-फिरता कोई प्रतिमान है तो वह भैंस ही है। यदि शहर से भैंस को रुख्सत कर दिया जाए तो बड़े सोच के लिए हम किसका उदाहरण देंगे?
कुछ जो बेहद पिछड़े और गँवार टाइप के लोग हैं, उनके तईं भैंस दूध देनेवाला प्राणी है। बस दूध के लालच में वे सोचते हैं कि भैंस का शहर में होना जरूरी है। भैंस को शहर में रहना ही चाहिए, ऐसा तो हम भी मानते हैं। लेकिन सिर्फ दूध के वास्ते रहना चाहिए, ऐसा सोचने वालों से अपना मत-वैभिन्न्य है। शहर के बच्चों ने दूध पीना अब लगभग छोड़ दिया है। ज्यादातर बच्चे दूध नहीं, बल्कि तरह-तरह के दूसरे पौष्टिक पेय पीते हैं, जिससे उनके शरीर और मस्तिष्क, दोनों का बहुत तेज गति से विकास होता है। कम से कम टेलीविजन पर प्रसारित विज्ञापनों का तो यही दावा है। इसलिए दूध के लिए भैंस रखना कोई समझदारी का काम नहीं है। और सच पूछें तो भैंस पाले बिना यदि दूध मयस्सर हो जाए तो यह जहमत कोई क्यों मोल ले?
हाँ दूध के अलावा और सभी वजूहात से भैंस को शहर में होना ही चाहिए। भैंसें शहर की सड़कों पर वाहन चालकों से प्रतिस्पर्धा करती हैं। इससे लोगों में स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना का विकास होता है। भैंसों के गोबर से शहर की सड़कें बिलकुल द्वापर-कालीन कुंज गलियाँ लगती हैं। भैंसें हमें हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती हैं। अमूमन भैंसों का डील-डौल अच्छा होता है। इसलिए खा-खाकर बेडौल हो चले शहराती अपने माहौल में जब भैंसों को देखते हैं तो उनको अपने मुटापे पर आत्म-ग्लानि नहीं होती। बल्कि तसल्ली होती है कि चलो कम से कम अभी हम भैंस से तो दुबले हैं। इधर सुनने में आ रहा है कि मानव मस्तिष्क पहले के बनिस्बत लगभग दस प्रतिशत सिकुड़ गया है। किन्तु इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। भैंस के रहते हमें अपनी अक्ल के छोटा होने की चिंता नहीं है, क्योंकि हिन्दी में प्रश्नसूचक एक मुहावरा है- अक्ल बड़ी या भैंस। यानी अक्ल भैंस से हमेशा बड़ी ही होती है। अब सोचिए.. यदि शहर से भैंस लुप्त हो गई तो हमारी अक्ल कितनी बड़ी है, इसका पैमाना खोजने किस संग्रहालय में जाएँगे?
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आर.वी.सिंह/R.V. Singh
उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001
ईमेल/email-rvsingh@sidbi.in
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आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (26.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
जवाब देंहटाएंचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
आपकी रचना मैंने पहली बार पढ़ी| यह मेरा दुर्भाग्य है, व्यंग्य की तलवार जो अपने चलाई है वह हमारे नेताओं पर काम नहीं करेगी बहुत जोरदार, बधाई
जवाब देंहटाएंवाह..क्या खूब ...कटाक्ष किया है...
जवाब देंहटाएंकरारा व्यंग.....
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार व्यंग्य
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