वर्तमान समय में धार्मिक पर्व त्यौहारों से लेकर राष्ट्रीय पर्वों तक को औपचारिकता के रूप में मनाने का प्रचलन बढ़ रहा है। कुछ विशिष्ट समुदा...
वर्तमान समय में धार्मिक पर्व त्यौहारों से लेकर राष्ट्रीय पर्वों तक को औपचारिकता के रूप में मनाने का प्रचलन बढ़ रहा है। कुछ विशिष्ट समुदाय तक सिमट रहे हैं, तो कुछ संस्थाओं-संगठनों तक। जिसको देखकर लगता है शायद यह सब औपचारिकताओं के बढ़ते बोझ का तो परिणाम नहीं है। अधिकांश राष्ट्रीय पर्वों-स्वतंत्रता दिवस, गांधी-शास्त्री जयंती, बाल दिवस, गणतंत्र दिवस, शिक्षक दिवस, हिन्दी दिवस, पर्यावरण दिवस, वृक्षारोपण सप्ताह आदि के प्रति आज से तीन दशक पूर्व जैसा उत्साह, आम जनमानस की अभिरूचि दिखलायी पड़ती। ऊपर से आजकल अधिकांश संस्थाओं-संगठनों द्वारा अपनी स्थिति उद्देश्यों को लेकर कम से कम दो (स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस) अधिकतम पांच को मनाया जाता हो। उनमें भी पहले सी वास्तविकता, लगनशीलता व समर्पण कम औपचारिकता लकीर पीटने सा अधिक दिखलायी पड़ता है।
यह क्यों न होगा जब राष्ट्रीय पर्वों पर राष्ट्रीय एकता, प्रेम बलिदान, सांस्कृतिक गरिमा का रूप कार्यक्रम के स्थान पर फिल्मी नाच-गाने, चुहलबाजी, वन-मिनट शो, फूहड़ मनोरंजन के दृश्यों आदि की संख्या बढ़ रही हो। औपचारिकताओं के साथ-साथ बजट खपाने की मानसिकता बनती जा रही है। क्षेत्र, जाति, भाषा, धर्म, बाजार, संस्कृतिवाद ने राष्ट्र, राष्ट्रीयता व राष्ट्रभाषा से ओतप्रोत मूल्यों को ढंक दिया हो। अपने हस्ताक्षर तक हिन्दी में न करने वाले हिन्दी पखवाड़ों में लम्बे-चौड़े व्याख्यान हिन्दी के लिये देते हों। बलिदानियों, स्वतंत्रता को जीने-मरने वालों के इतिहास का अधकचरा ज्ञान रखने वाले राष्ट्रीय पर्वों पर फिल्मों का उदाहरण देने लगे हों। भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना देने वाला जन समूह तख्त के अनुदान पर तख्ती लगा देने से सन्तुष्टि-गर्व का अनुभव कर लेता हो। पाश्चात्य संस्कृति- भाषा के आगोश में पली बढ़ी आधुनिकता का आवरण डाले नयी-पीढ़ी दायित्वों के निर्वहन के स्थान पर उनको तर्क की कसौटी पर कसना चाहती हो।
यदि हम सामान्य जन मानस की बात करें तो उसकी भी अभिरूचि राष्ट्रीय पर्वों स्वतंत्रता व गणतंत्र के प्रति कम हो रही हैं। इनके प्रति ज्ञान व जिज्ञासा भी कम होती जा रही हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व में नेहरू सा कोई नहीं जो देश भर में भ्रमण कर देशवासियों से भारत माता की परिभाषा पूछे अनुत्तर की स्थिति में उनको विस्तार से बतला दे। पूर्व राष्ट्रपति ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम से बढ़कर कोई है जिसने देश के बारे में इतनी सीधी बात व सम्पर्क बालकों से किया हो; राष्ट्र के भविष्य बच्चों के मन में देश, देश के गौरव संस्कृति वास्तविक इतिहास की घूम-घूम कर बात करे। परिणामतः घटती देश व स्वकर्त्तव्य के प्रति निष्ठा कुछ स्थानों पर इन पर्वों को मौज-मस्ती व अवकाश का माध्यम बना देती हैं। शिक्षण संस्थाओं में भी कुछ जो अपने को अत्याधुनिक कहलाने का दंभ भरती हैं अधिकांश गणतंत्र दिवस पर अवकाश घोषित कर देती हैं। सरकारी व सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थायें भी पहले सा पूर्ण मनोयोग से मनाती नहीं दिख रही हैं। कुछ तो केवल औपचारिकताओं का निर्वहन कर रहीं हैं। अब पहले जैसी प्रभात फेरियां, जयधोष, गीत, नाटक देश भक्ति से ओत-प्रोत ज्वार का प्रदर्शन नहीं कर पाते। बच्चों की रूचि फिल्मी गानों, नाच-कूद, क्रिकेट की ओर अधिक हो रही है। कई बार जब रास्ता चलते लोगों से इन पर्वों के सम्बन्ध पूछा जाता हैं तो सामान्य सी जानकारी देने में असमर्थ हो जाते हैं। पिछले राष्ट्रीय पर्वों पर कई न्यूज चैनलों ने ऐसे कितने दर्शकों से सड़क पर बात की, परन्तु अधिकांश टाल गये। उनको नहीं पता था कि क्यों मनाते हैं। जिसको देखकर सोचता हूँ, कि यह वहीं देश हैं जहाँ आजादी के लिए एक आहवाहन पर समूह के समूह निकल पड़ते थे। तन,मन और धन सब देश के लिए समर्पित था। कवियों की लेखनी गुणगान करते न थकती थी।
वर्तमान स्थिति के लिए किसी को भी दोषी ठहराना उचित न होगा। अपितु नेतृत्व से समाज-परिवार, बदलती शिक्षा आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य अन्धानुकरण, मौलिक चेतना संस्कृति स्वभाषा से पलायन आदि का परिणाम हैं। शासन प्रशासन से लेकर सभी स्तर के लोगों में दायित्व निर्वहन में बढ़ती शिथिलता शिक्षा का प्रसार घटते ज्ञान स्तर का भी फल है। दोष उस आदत का भी हैं जो किसी भी कार्य को औपचारिकतावश करने की पड़ रही हैं। मिशन ने कमीशन का अवतार धारण कर लिया हैं। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा दशकों पूर्व बिगड़ी व्यवस्था के दशअवतारों के प्रकटीकरण की बात सच हो रही हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि इसी भांति पर्वों को औपचारिकता के बोझ तले दबाने की प्रक्रिया रुके। वरना हम अपनी अगली पीढ़ी तक अपनी विरासत, संस्कृति भाषा को सुरक्षित नहीं पहुंचा सकेंगे। जिसके लिए हमे सुधार-परिष्कार का मार्ग अपनाना होगा। सुधारों का श्री गणेश यदि ऊपर से नीचे की ओर चले तो परिणाम सार्थक, प्रेरक तो होगा ही शीघ्र प्रभावी भी होगा। साधारण जनमानस तेजी से अनुकरण करेगा।
पहला कदम देश की शिक्षा पद्धति पाठ्यक्रमों की विविधता व विषयवस्तु को उच्च, मध्य व निम्नवर्ग की खाइयों से निकाल समानता, समरसता, समान मूल्यों पर भारतीय मूल्यों भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में अपनी संस्कृति भाषा के सापेक्ष लाना पड़ेगा। धर्म, समुदाय, धनलोलुपता, आधुनिकता से ऊपर राष्ट्र को महत्व व स्थान देने वाली संस्थाओं-संगठनों को सहयोग प्रोत्साहन व इनके विपरीत आचरण वालों को हतोत्साहित, प्रतिबन्धित करना होगा। तभी देशभक्ति की भावना ही नहीं देश की प्रेरणामयी छवि का पुर्नजन्म होगा। जनमानस तक के सपने महान देशभक्तों, बलिदानियों से जुड़ जायेंगे बालक, युवा और वृद्ध सभी यह चाहेंगे कि गांधी के सपनों का भारत बनें, नेताजी सुभाषचंद्र बोस का त्याग व्यर्थ न जाये, भगत सिंह का बलिदान, चन्द्रशेखर आजाद का संघर्ष व साहस, पं. नेहरू के दूरदर्शी व्यक्तित्व की सुगन्ध देश के कण-कण से आये। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की स्वराज्य की अवधारणा पूर्णता पाये।
यही नहीं सभी के हृदय में भारतमाता की छवि अपने-अपने कर्त्तव्य को ईमानदारी से करने की प्रेरणा तो देगी ही उनमें नूतन स्फूर्ति-प्राण शक्ति भी भरेगी। साथ ही औपचारिकताओं के बढ़ते बोझ-प्रचलन पर भी अंकुश लगायेगी।
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डाँ.शशांक मिश्र ‘‘भारती''
दुबौला-रामेश्वर-2625229 पिथौरागढ़ उ.अखण्ड
दूरवाणीः-09410985048
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