समीक्षा रामचरितमानस में पत्रकारिता प्रमोद भार्गव समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा है, तुलसी के रामचरितमानस में जितने गोते लगाओ उतन...
समीक्षा
रामचरितमानस में पत्रकारिता
प्रमोद भार्गव
समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा है, तुलसी के रामचरितमानस में जितने गोते लगाओ उतनी ही बार सीप और मोतियों की उपलब्धियां होती रहती हैं। कुछ इसी तर्ज पर लेखक आरएमपी सिंह ने रामचरितमानस में डूबकियां लगाईं और मानस से पत्रकारिता के वे सूत्र खोज लाए जो सार्थक और समर्थ पत्रकारिता के लिए जरूरी हैं। वैसे भी कई दार्शनिक और मानस के गूढ़ मर्मज्ञ रामचरितमानस को मानव जीवन का संविधान बताते हैं। लिहाजा इसके मंथन से व्याख्याकार विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका जैसे तीन स्तंभों का अनुसंधान तो पहले ही कर चुके हैं, अब आरएमपी सिंह ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ‘पत्रकारिता' की खोज भी कर डाली। वैसे भी राम संवैधानिक व्यवस्था में अयोध्या के साम्राज्यवादी एकतंत्री राजा जरूर थे, लेकिन उनकी कार्यशैली लोकहितैषी प्रजातांत्रिक मूल्यों की जीवन पर्यंत संरक्षक व समर्थक रही है। जन इच्छा राम के लिए कितनी महत्वपूर्ण थी, यह एक साधारण से धोबी के कथन को अमल में लाने से ही पता चल जाता है कि राम लोक मूल्यों की रक्षा के लिए पत्नी सीता का आनन-फानन में ही परित्याग करने का ठोस, निर्मम व हृदयविदारक आत्मनिर्णय ले लेते हैं। लोक व्यवहार में नैतिक प्रदर्शन का ऐसा यथार्थ आचरण दुनिया के सम्राटों में दूसरा कोई नहीं है।
आरएमपी सिंह की रामचरितमानस के संदर्भ में पत्रकारिता से जुड़ी किताब का शीर्षक है ‘रामचरितमानस में संवाद-संप्रेषण' संवाद-संप्रेषण ही सक्षम पत्रकारिता का मूल तत्व है। मानस के शिल्प का गठन और उसके विस्तार का आधार भी अद्वितीय संवाद शैली पर अवलंबित है। प्रश्नोत्तर का आधार बनने वाली इसी बातचीत से लेखक ने बड़ी दक्षता से पत्रकारिता के वे सब गुण ढूंढ़ निकाले जो पत्रकारिता के प्रस्थान बिन्दु हैं। यही नहीं पात्रों में भी पत्रकार होने की अंतर्वस्तु तलाश ली। प्रचार-तंत्र की भूमिका एक संघर्षशील नायक के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है यह भी इस पुस्तक में निरूपित किया है। पत्रकार वार्ता, पत्रकार, रिर्पोटिंग, संपादन, संवादों का आदान-प्रदान, साक्षात्कार, फीडबैंक, संवादहीनता के दुष्परिणाम और छवि निर्माण जैसे पत्रकारिता से सभी आधार बिन्दुओं का रेखाकन तथ्यात्मक उदाहरणों के साथ इस किताब के आख्यान में दर्ज है। इस रचना की विलक्षणता यह भी है कि यह कथा और पात्रों को मनुष्य और मनुष्यता के परिप्रेक्ष्य में एक मौलिक आयाम देती है। अलैकिक दिव्यता की अनंत खोज इसमें नहीं है। शायद इसीलिए लेखक मानस में डूबकी लगाकर पत्रकारिता का यथार्थ सामने रखने में सफल हो पाए हैं।
लेखन ने मानस के गंभीर अध्ययन से उन शब्दों और उनके प्रभाव को भी मानस के दोहे-चौपाइयों से बीन लिया है जो पत्रकारिता का पर्याय हैं। मानस में पहली बार ‘समाचार' शब्द का उपयोग तब हुआ, जब सती अपने पिता के यज्ञ में अपनी आहुति देकर होम हो जातीं हैं। यह उस युग विशेष की विश्वव्यापी कारूणिक घटना है। क्योंकि सती कोई मामूली स्त्री नहीं थीं। वे त्रिलोकव्यापी भगवान शंकर की पत्नी थीं और दिग्विजयी सम्राट प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं। इसलिए इस घटना को समाचार बनते देर नहीं लगती-
समाचार सब शंकर पाये, वीरभद्र करिकोप उठाये।
जग्य विंध्वस जाये तिन्ह कीन्हा, सकल सुरन्ह विधिवत दण्ड दीन्हा।
भै जगविदित दच्छ गति सोई, जसि कछु संभु विमुख के होई।
बुरी खबर-अच्छी खबर (गुड-न्यूज, बैड-न्यूज) खबर के एक ही सिक्के के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। सती का आत्मदाह जहां बुरी खबर है, वही मानस में सती पुनर्जन्म लेकर पार्वती के रूप में अवतरित होती हैं तो उस कालखण्ड में ब्रह्माण्ड की यह अच्छी खबर बन जाती है। तुलसीदास इस घटना का प्रस्तुतिकरण एक ‘समाचार' के रूप में करते हैं-
नारद समाचार सब पाये
कौतुकही गिरि गेह सिधाये
समाचार शब्द के बहुल प्रयोग के बाद तुलसीदास ने खबर शब्द का उपयोग भी मानस में प्रमुखता से किया है-
असुर तापसिंह ‘खबरि' जनाई
दसमुख कतहूं खबरि असि पाई
सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई।
जब रावण, कुंभकरण और विभीषण संसार में आते हैं तो उन्हें खबर मिलती है कि लंका जो मय दानव की परिकल्पना के वैशिष्ट्य का साकार स्वरूप है, उसका अधिपति विष्णु की अनुकंपा से कुबेर बना बैठा है, क्यों न उस पर आक्रमण कर अपने अधिकार में ले लिया जाए।
तुलसीदास ने समाचार का पर्याय ‘सुधि' शब्द को भी बनाया है। सुधि का प्रयोग सूचना के रूप में किया गया है।
यह सुधि कोल किरातन्ह पाई, हरषे जन नव निधि घर आई।
कंदमूल फल भरि-भरि दोना, चले रंक जनु लूटन सोना॥
इसी तरह राम के वनगमन के बाद जब भरत अयोध्या लौटते हैं और उन्हें राम द्वारा राजपाट छोड़ने की जानकारी मिलती है तो व्यथित भरत राम को लौटा लाने के दृष्टि से चित्रकूट की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। जब भरत मार्ग में ऋषि भारद्वाज के आश्रम में पड़ाव डालते हैं, तब ऋषि भरत से कहते हैं मुझे अयोध्या के सब घटनाक्रमों की सूचना है-
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई
विधि करतब पर किछुन बसाई।
मसलन त्रेता युग में सूचना जंजाल बहुत व्यवस्थित था। और सूचना संप्रेषण के लिए स्थान-स्थान पर विभिन्न रूपों में लोग तैनात थे। इसी नजरिये से लंका की ओर से सूर्पनखा, खर और दूषण समुद्र पार खबरचियों और सैनिकों के रूप में अरण्यों में तैनात थे। सूर्पनखा जब दंडित होकर लंकापति रावण के पास पहुंचती है तो वह रावण की कमजोर सूचना संरचना पर अफसोस जताती हुई कहती है-
करसि पान सोअसि दिनराती।
सुधि नहीं सिर पर आराति॥
फिर राम-रावण युद्ध की पृष्ठभूमि से लेकर युद्ध के अंत तक खबरों के आदान-प्रदान का सिलसिला समाचार, खबर और सुधि शब्दों में अभिव्यक्त है।
लेखक ने बेहद गूढ़ दृष्टि अपनाते हुए समाचारों के प्रकार का अनुसंधान भी मानस से ढूंढ़ निकाला है। यथा अंगद जब दूत के रूप में संदेश देकर लंका से वानर शिविर में लौटते हैं तो लंका की कई गोपनीय जानकारियां राम को देते है। लेखक ने इन समाचारों को गोपनीय अथवा खोज-खबर का दर्जा दिया है-
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालि कुमार।
रिपु के समाचार जब पाये, रामसचिव सब निकट बुलाये॥
समाचार-पत्रों के लिए स्टोरी का अपना महत्व है। पत्रकारिता की भाषा में स्टोरी का पर्याय वृतांत से है। जबकि साहित्य में स्टोरी कहानी का पर्याय है। हनुमान कालनेमि नामक राक्षस का वध कर संजीवनी बूटी ठीक से न पहचान पाने के कारण पूरा पर्वत उखाड़ लाते हैं। और फिर संजीवनी के सेवन से लक्ष्मण की मुर्च्छा भंग हो जाती है और वे अगले दिन युद्ध को उद्यत हो जाते हैं तब यह पूरा घटनाक्रम, मसलन वृतांत अर्थात स्टोरी बन जाता है। रावण इस वृतांत को सुनकर बेचैन हो जाता है।
लेखक का तो यहां तक दावा है कि राम-युग में एक पूरा सूचना-तंत्र विकसित था। वन-वन पड़ाव डाले ऋषि-मुनि राम के प्रचार का हिस्सा थे। युद्ध के दौरान विभीषण ने बाकायदा सूचना अधिकारी का दायित्व निर्वहन बड़ी सतर्कता से किया था-
यहां विभीषण सब सुधि पायी।
सपदि जाइ रघुपति हि सुनाई॥
रावण वध उस काल विशेष में जिस दिन रावण वीरगति को प्राप्त हुआ शायद त्रिलोक की सबसे बड़ी घटना रही होगी। लेकिन राम के लिए, एक विरही पति के लिए इस घटना की सूचना सबसे पहले अपनी बिछुड़ी पत्नी को पहुंचाने की तीव्रतम इच्छा है। इसलिए रावण वध के तत्क्षण राम हनुमान से कहते हैं-
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना, लंका जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु, तासु कुसल लै तुम्हचलि आवहु॥
मानस में जब सूचना है, संदेश है और समाचार है तो फिर इनके कर्ता व कारक के रूप में व्यक्ति अर्थात पत्रकार भी होना चाहिए। अन्यथा पत्रकारिता के कर्म को अंजाम कौन देगा। सो लेखक ने बड़ी गहन कुशलता से पत्रकार और उनके पत्रकारिता मर्म व धर्म को भी ढूंढ़ निकाला है। संदेश-संप्रेषण पत्रकारिता का महत्वपूर्ण तथा मूल पहलु है। इसी वजह से व्यापार को पत्रकारिता का उद्गम माना जाता है। समुद्र मार्ग से व्यापारीगण दूसरे देशों में माल बेचने व लेने जाते थे तथा वहां के रहन-सहन घटनाक्रम, दर्शनीय स्थल और यात्रा वृतांतों का वर्णन लौटकर करते थे। लेखक पत्रकारिता की शुरूआत देशाटन की इसी स्थिति से मानते हैं। भाषा की उत्पत्ति के साथ संदेश अथवा संवाद संप्रेषण का सलिसिला शुरू हुआ। प्राग्तिैहासिक और रामायण काल में नारद को सबसे प्राचीन और प्रमुख पत्रकार लेखक ने माना है। वे पृथ्वी की घटनाओं कीे सूचना इंद्रलोक में और इंद्रलोक के निर्णयों की सूचना पृथ्वीवासियों को देते थे। इस कारण वे प्रमुख व प्रखर संवाददाता थे। नारद की सूचनाएं कभी गलत साबित नहीं हुईं, इसलिए वे सच्चाई के निकटतम पत्रकार माने गए।
लेखक ने नारद के अलावा सरस्वती, हनुमान मंथरा और शूर्पनखा को भी पत्रकारिता की भूमिका निर्वहन की दृष्टि से देखा है। विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती को लेखक तत्कालीन मीडिया घराने की स्वामिनी मानकर चलते हैं। क्योंकि इंद्र सरस्वती के माध्यम से ही राम के राज्याभिषेक में विध्न डालते हैं। उन्हें देवताओं के इस षड़यंत्र पर पीड़ा भी होती है, जिसे देवता अपने स्वार्थपूर्तियों को अंजाम देने में लगे हैं-
बार-बार गहि चरन संकोची, चली बिचारि विपुल मति पोची।
ऊंचनिवास, नीच करतूती, देखि न सकई परायी विभूति॥
अंततः सरस्वती मंथरा के जरिये देवताओं की करतूत को गति देती हैं। दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना ऊंचे पदों पर विराजमान लोगों का यथार्थ है। आज उद्योगपति राजनीति में पर्याप्त हस्तक्षेप मीडिया के बूते ही कर रहे हैं। मंथरा द्वारा कैकेयी को उकसाने के फलस्वरूप जब राम का राज्य 14 वर्ष के लिए निष्कासन हो जाता है। तत्पश्चात जब भरत और शत्रुध्न अयोध्या लौटते हैं और जब वे मंथरा की कुचालों से अवगत होते हैं तो फिर मंथरा की धतकर्म के लिए धुनाई करते हैं। पत्रकारों का राजनीतिज्ञों और बाहुबलियों से प्रताड़ित होना आज के दौर में रोजमर्रा की स्थिति हो गई है।
लेखक ने हनुमान को रचनात्मक पत्रकारिता का पोषक व प्रणेता माना है। वे हनुमान ही थे जो लंका में प्रवेश कर सीता का न केवल पता लगाते हैं बल्कि रावण की सैन्य शक्ति, उसके आयुध भण्डार, आंतरिक स्थिति और शक्ति संपन्न राज्य व राजाओं से संबंधों की पड़ताल भी करते हैं। एक अन्वेषी पत्रकार का राष्ट्रहित में यही मंतव्य होना चाहिए। लेखक ने हनुमान में खबर को सूंघन (न्यूज-नोज) की क्षमता भी दर्शाई है। अंगद को भी सुग्रीव के खबरची के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
लेखक ने मानस से साक्षात्कार भी खोज निकाले हैं और वे रामचरित में पहला साक्षात्कार पार्वती द्वारा शंकर से की गई बातचीत को मानते हैं। फिर इन साक्षात्कारों का सिलसिला राम-हनुमान के बीच, हनुमान-विभीषण के बीच, वाल्मीकि और राम के बीच तथा काग-गरूड़ के बीच देखते हैं। लेखक साक्षात्कार लेते समय पत्रकार को संयम बरतने की हिदायत देते हुए कहते हैं, प्रश्न हमेशा जिज्ञासा शांत करने के लिए होना चाहिए क्योंकि अकसर देखा जाता है घटना से जुड़े व्यक्ति का कथन लेते वक्त ही पत्रकार विवाद व संकट के दायरे में आते हैं।
लेखक ने समीक्षित पुस्तक में कहीं भी भाषाई अथवा शिल्प वैशिष्ट्म दिखाने की कोशिश नहीं की है। मूल कथा को विस्तार देना भी उनका अभीष्ठ नहीं है। इसलिए लेखक सिर्फ अपनी मानस से उन संदभों को उठाते हैं जो पत्रकारिता की पुष्टि करने वाले हैं। दिव्यता का अलौकिक अनुसंधान कर इहलोक और परलोक सुधारने की बात भी पुस्तक में कहीं नहीं है। सीधी सरल भाषा और सपाट बयानी में लिखी इस पुस्तक की शैली को भी समाचारीय तर्ज पर प्रस्तुत किया गया है। लेखक का प्रमुख व मौलिक ध्येय रामचरितमानस से पत्रकारिता से जुड़े संदर्भ खोजना है इसलिए प्रस्तुति का क्रम जरूर एक सीधी रेखा में नहीं चलता। इसके बावजूद मानस से लिए उदाहरणों और उनकी विषय सापेक्ष व्याख्या, लेखक पाठक के अंतर्मन में अपने मंतव्य को उतारने में जरूर पूरी तरह सफल रहता है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, जो मुझे जिस रूप में भजता है, मैं उसे उसी रूप में प्राप्त होता हूं। कमोबेश यही स्थिति रामचरितमानस के साथ है, उसकी अनंत गहराइयों में वह सब कुछ है, जो आपकी सोच के दायरे में है। जरूरत है लेखक आरएमपी सिंह की तरह गहरे पैठने की, उतरने की अथवा तह में जाकर मोती बटोर लाने की।
पुस्तक ः रामचरितमानस में संवाद-संप्रेषण
लेखक ः आरएमपी सिंह
प्रकाशन ः आयम प्रकाशन, 3 अंकुर कॉलोनी,
शिवाजी नगर भोपाल (म.प्र.)
मूल्य ः 250/-
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीjाम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492-232007, 233882
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