पिछले दिनों एक शहर के संयोजक नुमा व्यक्ति का पत्र आया, प्रियवर! दो वर्षों बाद पत्र दे रहा हूं। पिछले वर्ष हम कवि सम्मेलन नहीं कर स...
पिछले दिनों एक शहर के संयोजक नुमा व्यक्ति का पत्र आया,
प्रियवर!
दो वर्षों बाद पत्र दे रहा हूं। पिछले वर्ष हम कवि सम्मेलन नहीं कर सके। इस बार हमने एक कवियित्री सम्मेलन करना तय किया है। कृपया 8-10 कवयित्रियों के नाम पते भेजें। इनकी शक्ल ठीक ठाक हो। कुछ मंच पर लटके-झटके दिखा सकें। कविता रद्दी हो तो भी चलेगी। गला और चेहरा बढ़िया होना चाहिए। पारिश्रमिक की चिन्ता न करें। स्वस्थ होंगे। ‘इसे कल्पना की उड़ान न समझे।'
तो मेरे प्रिय पाठकों। आज के कवि सम्मेलन कितने गिर चुके हैं। देखा आपने। सोचिए․․․․․शायद कोई रास्ता बाकी हो जो, इस महत्वपूर्ण सांस्कृतिक ईकाई को बनाये रख सके। यह अकेला उदाहरण नहीं है। कवियों की राजनीति, राजनीतिज्ञों की कविताएं, अफसरों की मिली भगत, मठाधीश कवियों की दादागीरी, अश्लील लतीफे बाजी, सस्ती भोंडी हास्यास्पद रस की कविताएं और उपर से दूसरों की रचनाओं को अपने नाम से सुनाने वाले कवि और कवियित्रियां।
श्रोताओं, आयोजकों, कवियों और सांस्कृतिक कर्मियों ने कवि-सम्मेलनों को कहां से कहां तक पहुंचा दिया। आइये, जरा विस्तार से चर्चा करें।
प्राचीन काल में राज दरबारों में कवि पाये जाते थे। कालिदास विक्रमादित्य की सभा में नवरत्न थे। उस काल में अन्य कवि भी राज्याश्रय में थे। यह परम्परा मध्य युगीन राज दरबारों में भी बराबर चली आई। विद्यापति मिथिला के राजदरबार में थे। रीतिकाल में अनेक कवि राज्याश्रय पर जीवित थे।
भक्ति काल में काव्यपाठ का क्षेत्र मन्दिर बने। अप्टछाप के कवियों से हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी सुपरिचित हैं। इसी काल में कविता सन्तों की वाणी के माध्यम से आम आदमी तक पहुंचने लगी।
धीरे धीरे सामन्त शाही और राजदरबार नष्ट हुए, मन्दिर साम्प्रदायिकता से जकड़ गये, कीर्तनकारों ने संतों की वाणी छीन ली।
काव्य पाठ शादी ब्याह तक सीमित हो गया। वर से श्लोक सुने जाते या कविता सुनी जाती।
फिर आया उन्नीसवीं सदी का समस्या पूर्ति का दौर इस दौर में हिन्दी भाषियों ने सृजन के प्रति उत्साह दिखाया, राष्ट्रभाषा के लिए आन्दोलन किया गया। इसी दौरान स्थान स्थान पर काव्य गोष्ठियां होने लगी।
भारतीयों ने इन काव्य गोष्ठियां में न केवल अंग्रेजी सरकार का विरोध शुरु किया, वरन वे राष्ट्रीय चेतना का संवाहक बन गयी। लेकिन अभी तक कविता जन साधारण से दूर थी और केवल साधन सम्पन्न घरों तक पहुंच पाई थी।
वास्तव में विराट हिन्दी कवि सम्मेलनों की कल्पना उर्दू के मुशायरों की लोकप्रियता देखकर की गई थी। मुशायरों का जन्म भी राजदरबारों में हुआ था, लेकिन राजदरबारों के हास के साथ ये जुड़ गये। मजाहिया ‘हास्य' के लिए इन मुशायरों में कोई स्थान नहीं होता था, इस कार्य हेतु हजल नामक अन्य मजलिस होती थी।
इसी दौरान ब्रजभाषा, अवधी और रामस्यापूर्ति के कवि सम्मेलनों का आयोजन शुरु हुआ। 60-70 वर्ष पूर्व से कवि सम्मेलनों का यह सिलसिला चला। जयपुर के स्वर्गीय श्री हरि शास्त्री ने समस्या पूर्ति के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया। वे आशु-कवि के रुप में विख्यात हुए। इलाहाबाद इस काल में राजनैतिक जागरण का ही केन्द्र नहीं था, वहां पर साहित्य से सरोकार भी था। इस काल में ‘1920 से 35-40' समस्याओं के रुप में चरखा, खादी,शहीद, कैदी, विधवा आदि विषय दिये जाने लगे।
मुशायरे की परम्परा के अनुरुप कवि सम्मेलन का अध्यक्ष कोई बड़ा कवि या विद्वान होता था, आजकल की तरह कोई नेता या धन्ना सेठ नहीं। उस काल में लाला भगवानदीन, श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, जैसे कवि थे। धीरे धीरे समय बदला। समस्यापूर्ति के कवि सम्मेलन बंद हो गये। ब्रज, अवधी और उर्दू का ह्रास हुआ।
छायावादी युग
कवि सम्मेलनों का स्वरुप निखरने लगा। छायावाद काल में छायावादी कवियों तथा सुमित्रानन्दन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला', महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, राम कुमार वर्मा, भगवती चरण वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृष्ण चौहान, बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन' जैसे कवि मंच पर आए और छा गये ।इन कवियों के काव्य के लघु संस्करण भी कम दरों पर बाजार में मिलने लगे। निराला को मंच पर जमने में काफी मेहनत करनी पड़ी। लेकिन उनका दबंग व्यक्तित्व, शारीरिक सौष्ठव, स्वर की गंभीरता ने उन्हें सफल बनाया। उनकी जूही की कली, राम की शक्ति पूजा आदि कविताओं ने खूब वाह वाह लूटी।
राष्ट्रीय भावना का प्रसार
इसी काल में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कवि सम्मेलनों का शुभारम्भ हुआ। राष्ट्रीय जागरण के इस दौर में एक भारतीय आत्मा माखन लाल चतुर्वेदी की कविताओं ने कहर बर्पा कर दिया। इसी दौरान रामधारी सिंह दिनकर मंच पर आये और लम्बे समय तक गरजते रहे। इसी काल में मधुशाला को लेकर अमर गायक डॉ․ हरिवंश राय बच्चन मंच पर आये और तीन दशक तक कवि सम्मेलनों में छाये रहे। बच्चन के साथ ही नरेन्द्र, सुमित्रा कुमारी और रामेश्वर शुक्ल ‘ अंचल' भी मंच पर जमें। गिरिजा कुमार माथुर, शिवमंगल सिंह ‘सुमन' और नीरज आये नीरज सर्वाधिक लोकप्रिय हुए। गीत कविता लेकर जब भवानी प्रसाद मिश्र मंच पर चढ़े तो कवि सम्मेलन सफलता के शिखर पर था और रस सिद्ध श्रोता कवि कविता का आनन्द खूब समझने लगे थे।
छायावाद के चढ़ाव के समय हिन्दी का काव्य मंच पुराने कवियों के साथ में था, और सांध्य काल में गीतकार जमने लग गये थे। बच्चन,नेपाली,अंचल, सुमन, नीरज आदि कवियों ने छायावाद का माधुर्य, प्रणय गीतों की मादकता, गले की मिठास आदि का ऐसा सम्मिश्रण किया कि श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे।
वीर रस का सैलाब
राष्ट्रीय कविताओं के इस दौर में वीर रस को भी बहुत सुना गया। श्याम नारायण पाण्डे की हल्दी घाटी, राजस्थानी कवि मेघराज मुकुल की सेनानी, दिनकर की ओजस्वी कविताएं आदि ने घोर गर्जना का दौर चलाया। सोहन लाल द्विवेदी ने राष्ट्रीय विचारों की गांधी वादी कविताओं के कारण ख्याति पाई।
नई कविता और नव गीत
अब आया नई कविता और नव गीत का दौर ठाकुर प्रसाद सिंह वंशी और मादल लेकर मंच पर चढ़े। छायावाद के बाद प्रगतिवाद और फिर नई कविता का समय था यह। बिहार में आरसी प्रसाद सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री और हंस कुमार तिवारी मंचों पर जम गये थे।
प्रयोगवाद के काल में भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन, बालकृष्ण राव, केदार नाथ सिंह आदि प्रसिद्ध हुए।
कवि सम्मेलनों के विकास को काल क्रमानुसार देखें तो, 1932 से 40 तक का काल आरम्भिक काल था। 1940 से 60 तक का काल विकास का काल और 60 के बाद मंचों पर उमाकान्त मालवीय, माहेश्वर तिवारी, शांति सुमन, बुद्धिनाथ मिश्र, सोम ठाकुर, आत्मा प्रकाश शुक्ल, बाल कवि बैरागी आदि आए और इनके साथ ही आई हास्य-व्यंग्य की एक टोली, जिसने कवि सम्मेलनों को हास्यास्पद रस तक पहुंचा दिया।
हास्य व्यंग्य का बोलवाला
आज की स्थिति भिन्न है। हास्य व्यंग्य की सतही रचनाओं के कारण कवि सम्मेलनों की गिरावट हुई है। कवि सम्मेलनों के विकास काल में हास्य व्यंग्यकार मर्यादा का ध्यान रखते थे, इसी काल में पदमश्री गोपाल प्रसाद व्यास और पद्मश्री काका मंच पर अवतरित होकर जम गये। लेकिन सन् 60 के बाद वाले दौर में इन हास्य कलाकारों की ऐसी बाढ़ आई कि सारी मर्यादाएं, सीमाएं,बह गई, रह गई केवल हास्यास्पद रस की चाहें। उन दिनों अश्लील और भदेस रचनाओं को पढ़ना मुश्किल होता था, लेकिन कवि सम्मेलनों की बाढ़ में उफन कर ये ही कवि सबसे उपर आये। हास्य व्यंग्य के इन कवियों में शैल चतुर्वेदी, ओम प्रकाश आदित्य, माणिक वर्मा, काका हाथरसी, जैमिनी हरियाणवी, अल्हड़ बीकानेरी आदि कवि प्रमुख हो गये।
इसी दौर में राजस्थानी कविताओं के लिए विश्वनाथ शर्मा विमलेश और कन्हैयालाल सेठिया को हमेशा याद किया गया। बाद में सुरेन्द्र शर्मा भी अपनी चार लाइनों के साथ लाइन में लग गये। रामरिख मनहर लतीफों के बल पर जम गये।
हास्य से कुठाराघात
पिछले महायुद्ध के समय कवि सम्मेलन युद्धकोष में चंदा करने के लिए हुए थे। बाद में 1962, 65 व 71 की लड़ाई के दौरान भी कवि सम्मेलनों का यही प्रयोजन रहा। नगर नगर में क्रांति हो गयी, एक नया धनाढ्य वर्ग विकसित हुआ, और यहीं से छपने वाली कविता, मंच की कविता से अलग हो गयी। हिन्दी कवि सम्मेलनों का विशेष नुकसान हास्य रस के कवियों ने किया। कवि कुरूचिपूर्ण और अश्लील होने लगे। कवियित्रियों को साथ लाने लगे।
गद्य का आगमन
इस बीच मंच पर गद्य पाठ का दौर भी शुरू हुआ है, जो एक शुभ संकेत है। शरद जोशी ने इस दौरान मंचों से नव व्यंग्य का पाठ करके काफी सफलता पाई है। के․ पी․ सक्सेना ने भी गद्य पाठ में जोर आजमाइश की है। कवि-सम्मेलनों में अब गद्य पाठ भी शामिल होने लगा है।
मूर्ख, महामूर्ख सम्मेलन
हर होली पर मूर्ख, महामूर्ख सम्मेलन भी होने लगे हैं, जिनमें हास्य व्यंग्य की कविताओं के अतिरिक्त चुटकलेबाजी भी खूब होती है। विशेष रुप से हास्य व्यंग्य का एक गद्य पद्य सम्मेलन बंबई में चकल्लस के नाम से आयोजित किया जा रहा है। बंबई के एक प्रकाशक विक्रेता ने इस के कैसेट बनाकर बिक्री करने का नया प्रयोग भी शुरु किया है।
आज के कवि-सम्मेलनों को देखकर कौन कह सकता है कि ये सरस्वती की साधना के समागम हैं। आज किसी सम्मेलन में सभी रसों का भाव नहीं है। हास्य व्यंग्य के अलावा श्रोता जीवन से जुड़ने वाली कविता चाहता है, जो उसे नहीं मिल पाती।
कविता शब्द ब्रहम् की कला है और नाद सौन्दर्य से ओतप्रोत, कवि का मुख उसे वाणी देता है और बस-यदि नाद सौन्दर्य है तो कविता रूचिकर होगी ही।
हिन्दी के विकास में कवि सम्मेलन आज भी बहुत कुछ कर सकते हैं यदि वे दलबन्दी, गुटों की राजनीति, छीना झपटी से उपर उठ जायें तो।
आयोजन की अर्थलीला
कवि सम्मेलनों के लिए शहर, कस्बों में एक नवीन वर्ग में विकसित हुआ है, जो आयोजनकर्ता है। इन आयोजकों में से अधिकांश नव धनाढ्य वर्ग से आते हैं। ये वे लोग हैं जो अपनी अंगुली में साहित्य का नग भी पहनना चाहते हैं।
आजकल एक कवि सम्मेलन का खर्च 20-30 हजार से लगाकर 50-60 हजार तक का होता है। पांच राष्ट्रीय स्तर के कवियों तथा 5 स्थानीय कवियों का पारिश्रमिक, तीन तारा होटलों का खर्च, शराब आदि का व्यय कम से कम 15-20 हजार आता है।
इसके आयोजक चाहे टिकट लगाए या चन्दा करें या स्मारिका छपाये, इतना धन इकट्ठा करना अनिवार्य है। इस एकत्रित धन में से 60-70 प्रतिशत उसी सम्मेलन में व्यय हो जाता है, शेष से साल भर अपनी संस्था, अपनी पत्रिका आदि निकाली जाती है या फिर अपनी अटारी पर एक मंजिल और चढ़ा ली जाती है। कई बार कवियों को पहले से तय राशि के बजाय केवल आश्वासन मिलते हैं लेकिन कवि भी सतर्क हो गये हैं, अतः ऐसा कम होता है।
नव धनाढ्य वर्ग के आयोजक अध्यक्ष,मुख्य अतिथि,संरक्षक, स्वागत-कर्ता जैसे पदों पर अपने धनाढ्य मित्रों को रखकर चन्दा प्राप्त करते है।
दूसरी ओर कवि सम्मेलनों का संयोजक संचालन हेतु भी कवि विशेषज्ञ के रुप में मिलते है। ये कवि अपने साथ पूरी बारात लेकर चलते है, आप केवल बजट बता दें, कवियों को निमंत्रण से लगाकर बाकी की सब व्यवस्था ये संचालक कवि कर देंगे। हां, कवयित्रियों के लिए आपको विशेष रुप से लिखना होगा।
सामान्य राष्ट्रीय स्तर के कवि का पारिश्रमिक 2500 से 10,000 रू․ तक है। अधिकांश कवि प्रथम श्रेणी या हवाई जहाज का किराया, तीन सितारा होटलों में आवास तथा खाना-पीना ‘या पीना-खाना' लेते हैं। बम्बई का चकल्लस, मध्य प्रदेश का टेपा सम्मेलन, जयपुर का मूर्ख सम्मेलन व गीत चांदनी आदि प्रमुख आयोजन हैं, जिनका बजट ज्यादा रहता है।
हूटिंग हिन्दीवाद
कवि- सम्मेलनों का सबसे दिलचस्प पहलू है ‘हूटिंग' का कार्यक्रम। कई बार पूरी कविता से जितना आनन्द, रस प्राप्त नहीं होता उससे ज्यादा आनन्द हूटिंग से आ जाता है। कई लोग कवि-सम्मेलनों में मात्र हूटिंग करने के लिए ही जाते हैं। ऐसे ही हूटिंग विशेषज्ञ हैं श्री झपकलाल। ये महिला कवियों के मामले में एक्सपर्ट हैं, करना कुछ नहीं पड़ता, ज्योंही कवयित्री कविता शुरू करती है, वे कहते हैं-‘किस कवि की है यह कविता' या' अमुक कवि की है और बेचारी कवयित्री टांय-टांय फिस्स। लेकिन मंचीय कवियों की मान्यता है कि हूटिंग सड़े अण्डों, टमाटरों और जूतों-चप्पलों से तो बेहतर है।
कई अनुभवी हूटर अपने साथ माइक भी लाते हैं। वास्तव में ये अधिकांशतया असफल स्थानीय कवि होते है।
ऐसे लोग मूंगफली कुतरते हुए घात में रहते हैं। ज्योंही कवि कविता शुरू करता है, हूटर उसे किसी न किसी लोकगीत से जोड़कर और ज्यादा जोर से गाना शुरू कर देते है। बस कवि की सिट्टी पिट्टी गुम !
ज्यादा हूटर विश्वविद्यालयों में पाये जाते हैं। समानान्तर आयेजक हूटर्स को जानबूझकर कवि-सम्मेलन में भेजते हैं ताकि कुछ लोगों को उखाड़ सके। इसके विपरीत कई कवि अपने साथी चमचों को श्रोताओं में फैलाकर वाह ! वाह !! कराते हैं या ‘अमुक कविता सुनाओ' का नारा लगवाते हैं।
कुल मिलाकर हूटिंग एक मान्यता-प्राप्त कार्यक्रम है, जो कवि सम्मेलनों में चलता रहता है।
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यशवन्त कोठारी, 86,
लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर - 2,
फोन - 2670596
ykkothari3@gmail.com
मो․․09414461207
बेहद सही बात पर रोचक ढंग से कही है
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