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किसी देश की युवा पीढ़ी के लिए यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि वह आत्मनिर्भरता के निहितार्थ प्रतिस्पर्धा परीक्षा में भाग लेने जाए और हादसे का शिकार बन जाए। इस हादसे के परिप्रेक्ष्य में आईटीबीपी और प्रदेश सरकार में तमाम व्यवस्थाजन्य खामियां ढूंढी जा सकती हैं, लेकिन हमें यहां उस शिक्षा के ऐसे पहलुओं की पड़ताल करने की जरूरत है जिसकी डिग्री केवल सरकारी अथवा निजी कंपनियों की नौकरियों पर अवलंबित है। क्योंकि भर्ती में गड़बड़ियों के चलते मुजफ्फरपुर, राजौरी और लखनऊ में भी शिक्षित बेरोजगार नौकरी की कीमत, मौतों के रूप में चुका चुके है। चार सौ पदों पर भर्ती के लिए 4 लाख से भी ज्यादा बेरोजगार नौकरी पाने की लालसा रखें तो जाहिर होता है कि हमारी शिक्षा पद्धति महज डिग्रीधारी निरक्षरों की संख्या बढ़ाने का काम कर रही है। यदि वाकई शिक्षा गुणवत्तापूर्ण और रोजगारमूलक होती तो बेरोजगारों की इतनी तादाद एक तीसरे दर्जे की नौकरी के लालच में बरेली नहीं पहुंचती। लिहाजा ऐसे हादसों के बाद नीति-नियंताओं के लिए जरूरी हो जाता है कि वे शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर इसे रोजगारमूलक और लोक-कल्याणकारी बनाएं।
शिक्षा अथवा शिक्षित व्यक्ति को एक साथ तीन काम करने होते हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना पैदा करना, सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना और समाज को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप समाज परिवर्तन के लिए तैयार करना। समाज के व्याप्त साश्वत मूल्यों को जीवंत बनाए बिना हम समाज और शिक्षा की मूलभूत अवधारणाओं की रक्षा नहीं कर सकते। बीते साठ-पैंसठ सालों के भीतर हमने अपने पारंपरिक मूल्यों को नजरअंदाज किया। महात्मा गांधी के आगाह के बावजूद शिक्षा शिक्षा को श्रमसाध्य बनाने का काम नहीं किया। परिणामस्वरूप परिस्थितियों और कालांतर में आसन्न खतरा पढ़े-लिखे डिग्रीधारियों की निरक्षरता का बढ़ रहा है।
दरअसल उन डिग्रीधारियों को निरक्षर ही कहा जाएगा, जिनमें न तो पारंपरिक रोजगार से जुड़ने का साहस है, न अपनी भाषा का ज्ञान है और न ही अपने समाज की संरचना की समझ। जिनके पास यह ज्ञान और समझ है वे अंग्रेजी प्रभाव के चलते कुंठित, एकांगी और बेगाने से होकर निठल्ले हो गए हैं। ऐसे लोगों में राष्ट्रीय स्वाभिमान की ठसक का भी सर्वथा अभाव है। लिहाजा साक्षरता और शिक्षा के तमाम अभियानों के बावजूद डिग्रीधारी निरक्षरों का खतरा बढ़ रहा है। भविष्य में यह खतरा भयावह राष्ट्रीय समस्या होगी।
भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जन समुदाय की मानसिकता के आधार पर यदि सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे। उनका कहना था, ‘‘बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, आंख, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है। अर्थात् इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम और लघुत्तम मार्ग मिलता है। परंतु जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति न होती रहे, तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।''
गांधी के सिद्धांत नैतिकता और अनुभवों को सर्वथा ताक पर रखकर हम आजादी के इन 63 सालों के भीतर पूरी शिक्षा पद्धतियों को बालक के एकांगी विकास के लिए मजबूत बनाने में लगे रहे। जबकि ऐसी शिक्षा पद्धतियों को विकसित किया जाना जरूरी था जिनसे बालक का संपूर्ण विकास संभव होता। एकांगी शिक्षा को अपने आर्थिक हितों को साध्य बनाने की दृष्टि से पब्लिक स्कूलों की अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने बेवजह महत्व दिया। नतीजतन आज सुविधाजनक और आर्थिक सुरक्षा के लिए सरकारी अथवा लिमिटेड कंपनियों में नौकरी पाने वाले डिग्रीधारियों की लंबी कतारें लगी हैं। मोटी फीस वसूलने वाले पब्लिक स्कूलों ने शासन की मंशा पालने वाले और साधारण दर्जे के विद्यालयों ने लिपिक व शिक्षक बनने की इच्छा रखने वाले डिग्रीधारियों की एक पूरी फौज तैयार कर दी है। उन लोगों के लिए न तो हमारे पास कागजी घोड़े दौड़ाने वाले रोजगारमूलक ऐसे सरकारी, गैर सरकारी उपक्रम हैं जिनमें इन्हें रोजगार दिया जा सके और इन डिग्रीधारियों की न तो ऐसी स्वेच्छा है और न ही ऐसी श्रमसाध्य शिक्षा है जिससे ये स्थानीय अथवा क्षेत्रीय संसाधनों से लघु या कुटीर उद्योग स्थापित कर अपनी रोजी-रोटी के लिए साधन तैयार कर सकें। हमारा यह शिक्षित वर्ग हल की मूठ पकड़कर की जाने वाली खेती को भी तैयार नहीं है। यदि गांधी के कहे अनुसार स्वतंत्रता के साथ ही शिक्षा को श्रम से जोड़ दिया जाता और शिक्षा को बालक के संपूर्ण विकास की अनिवार्य शर्त मान ली जाती तो शिक्षा और रोजगार के बीच आज की तरह ये विडंबनापूर्ण स्थितियां संभवतः निर्मित ही नहीं होती।
गांधी का स्पष्ट मत था कि शालाओं में छह घंटे दी जाने वाली शिक्षा में से केवल दो घंटे किताबी ज्ञानार्जन के लिए निश्चित हों, शेष समय में छात्रगण श्रम आधारित कार्यों द्वारा सीखें। लेकिन हमने इस मसीहा के कहे का अनुकरण करने की बजाय उस मैकाले की शिक्षा पद्धति का अनुकरण किया जो हमारे दिमागों को गुलाम बनाने के लिए बेहद सोची-समझी साजिश के साथ लागू की गई थी। मैकाले ग्रेट ब्रिटेन का कोई ऐसा शिक्षाविद नहीं था जिसने शिक्षा में वहां नए और मौलिक आयाम दिए हों ? बल्कि वह आदतन आवारा और चालाक प्रवृति का अधिकारी था। उसे बतौर सजा भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू करने के लिए भेजा गया था।
1854 में वुड का मशहूर डिस्पैच और मैकाले के मिनट ने भारत की धरती पर विदेशी शिक्षा का एक ऐसा बीज रोपा जिसने भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रसंगहीन पश्चिमी उत्कृष्टता और दीर्घकाल से चली आ रही भारतीय सभ्यता व संस्कृति के विरूद्ध हीनता की भावना पैदा करने की शुरूआत की। इस शिक्षा पद्धति से फिरंगी हुक्मरानों ने एक साथ दो लक्ष्यों की पूर्ति की। एक ओर तो उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की कायमी की बरकरारी के लिए प्रशासक गढ़े, दूसरी ओर जनता में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जो शासकों की भाषा अंग्रेजी समझता हो और उनके सांस्कृतिक मूल्यों का हिमायती भी हो। जब यह वर्ग पाश्चात्य मूल्यों का पोषक हो गया तो मैकाले ने अंग्रेजी को बढ़ावा देने और औपनिवेशक सेवा के पदों के लिए उच्च शिक्षा पर जोर देने की सरकारी नीति अमल में लाना शुरू कर दी। इसके बाद हमारी पाठशालाएं पश्चिमी शिक्षा पद्धति का अनुसरण करने लगीं। फलस्वरूप पश्चिमी रौब-रूतबे में ढल चुका विद्यार्थी पारंपरिक शारीरिक श्रम और अनपढ़ जन समुदाय से कटता चला गया।
शिक्षाविदों के लगातार आग्रह के बाद भी सुविधा व अर्थभोगी प्रशासक मैकाले के शिक्षा तंत्र की संरचना का निरंतर विस्तार करते रहे और उसे रोजगार का आसान तरीका जताकर मजबूत भी करते रहे। हालांकि 1944 में ही शिक्षा संबंधी केंद्रीय सलाहकार मण्डल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘‘शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालकों को सामाजिक अनुभवों से गुजारना है न कि मात्र औपचारिक नसीहतें देना।''
गांधी ने खुले शब्दों में कहा था, ‘‘मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद रखी थी, उसने हमें गुलाम बना दिया। मेरा यह दृढ़ मत है कि अंग्रेजी शिक्षा जिस ढंग से दी गई है, उसने अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों को स्वत्वहीन बना दिया है। भारतीय विद्यार्थियों के दिमाग पर बहुत जोर डाला है और हमें नकलची बना दिया है।
गांधी ने साठ साल पहले ही शिक्षा को श्रम से जोड़ने के साथ ही उत्पादन से भी जोड़ने की बात कही थी। लेकिन मैकाले की शिक्षा प्रणाली के जरिये हुक्मरान बने प्रशासकों के दिमाग कुंद, पूर्वाग्रही और राष्ट्रीय स्वाभिमान से अछूते थे। इसलिए शिक्षा को उत्पादन से जोड़ने के पहलुओं को भी श्रम की तरह सर्वथा नजरअंदाज कर दिया गया। वैसे शिक्षा को आरंभ में ही श्रम से जोड़ दिया जाता तो वह उत्पादन से स्वमेव जुड़ जाती। क्योंकि गांधी जी का श्रम से आशय केवल स्वास्थ्य सुधार संबंधी कसरतों से नहीं था। विद्यार्थियों के श्रम का उपयोग खेती, कताई और शालाओं के भवन व खेल मैदानों के निर्माणों से ही जुड़ा होता तो आज हमें भवन विहीन विद्यालयों के आंकड़े तैयार करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। महाराष्ट्र में प्रसिद्ध समाजकर्मी श्री अन्ना हजारे के रालेगांव में आलीशान विद्यालय भवन और छात्रावास का निर्माण छात्रों के ही श्रमदान से हुआ है।
वर्तमान में भारतीय शिक्षा व्यवसायिक, प्रौद्योगिकी और औद्योगिक शिक्षा के बहाने संकट के दौर से गुजर रही है। जिसका हम आज आगे बढ़कर स्वागत तो जरूर कर रहे हैं लेकिन कालांतर में इसके दुष्परिणाम भोगने को भी तत्पर रहना होगा। क्योंकि शिक्षा संचालन के सूत्रधार विश्व बैंक, निजी स्कूल, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और गैर सरकारी संगठन बन बैठे है। पूरे देश में साक्षरता अभियान विश्व बैंक के ही आर्थिक योगदान से चलाया जा रहा है। एकाएक हम इनकी मंशा और निहितार्थों पर कोई शंका तो नहीं कर सकते, लेकिन इतना तो ध्यान रखना ही होगा कि साक्षरता और शिक्षा के बहाने विश्व बैंक और गैर सरकारी संगठनों का मकसद भारत को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक बाजार तैयार करना है।
युगीन परिस्थितियों के अनुरूप भी शिक्षा में बदलाव लाना जरूरी है। मौजूदा आवश्यकताओं की पूर्ति को ध्यान में रखते हुए यह तय है कि अब शिक्षा केवल ज्ञान और वैचारिक उन्नयन तक सीमित नहीं रह सकती। इसलिए आज शिक्षा का माहौल उन लोगों के बीच भी बनना शुरू हो गया है जिनकी कई पीढ़ियां शिक्षा से कटी रहीं या जिनकी सामंती मूल्यों के पोषण के चलते जानबूझकर उपेक्षा की गई। आज गरीब मजदूर भी कम्प्यूटर शिक्षा अपने बच्चे को देने की बात करने लगा है। लेकिन इनके बालकों के शिक्षार्जन के लिए गरीबी सबसे बड़ी बाधा है।
शिक्षा का जिस तेजी से आधुनिकीकरण और अंग्रेजीकरण हो रहा है, इसे एक हद तक ठीक भी कहा जा सकता है, लेकिन इस शिक्षा के दुष्परिणाम जो हैं उनके समाधान भी खोजना जरूरी हैं क्योंकि एक ओर तो यह शिक्षा कोई वैकल्पिक रोजगार के साधन मुहैया कराने में अक्षम है, दूसरी ओर यह शिक्षा परिवार के पारंपरिक पेशे से काट देती है। ऐसे में डिग्रीधारी शिक्षित बेरोजगारों की स्थिति दया के त्रिशंकु की तरह है। जो डिग्रीधारी बेरोजगार अपनी रोजी-रोटी के साधन नहीं जुटाकर आत्मनिर्भर नहीं हो पा रहे ऐसे डिग्रीधारियों को हम निरक्षर या अशिक्षित कहें तो इसमें गलत क्या है ?
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
लेखक वरिष्ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।
यही विडम्बना है..
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