प्राचीन काल के कवियों के बस दो ही प्रमुख कार्य थे एक तो ईश्वर की प्रशंसा में रचनाओं की रचना करना तथा दूसरे लोगों को समाज में व्याप्त कुरीति...
प्राचीन काल के कवियों के बस दो ही प्रमुख कार्य थे एक तो ईश्वर की प्रशंसा में रचनाओं की रचना करना तथा दूसरे लोगों को समाज में व्याप्त कुरीतियों से अवगत करवाना। उनका सारा दिन इसी उधेड़बुन में व्यतीत हो जाता था कि कहाँ क्या हो रहा है और कहॉ कोई ऐसी बात दिखाई दे जिसका उदाहरण दे कर वे लोगों को कुछ अच्छी शिक्षा दे सकें और इस का अंजाम यह होता था कि वे दोहों की रचना करते थे जबकि आज के रचनाकार अपनी रचनाओं से लोगों का दोहन करते हैं। वे अपनी रचनाओं में सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता देते थे जबकि अब सब लोग अपने समाज और सरकार को प्राथमिकता देने लगे हैं।
उनका उद्देश्य होता था कि वे ऐसे सन्देश आम आदमी तक पहुंचाएं जिससे भले उनका भला कुछ ना हो पर सबका भला हो किन्तु अब लोग ऐसे सन्देश लोगों तक पहुंचाने लगे हैं जिससे उनका स्वयं का भला होता हो।
जैसे कि एक प्रसिद्ध महापुरूष का कथन है कि ‘यदि आप का पड़ोसी सुखी है तो आप दुखी रहेंगे और यदि आप का पड़ोसी दुखी है तो आप सुखी’ ऐसे ही कुछ परोपकारी रचनाकार जो हमारे देश में भी पैदा हुए थे समय समय पर बहुत ही महत्वपूर्ण खोज करते रहते थे। उनमें से ही एक ने इस दोहे कि ‘कह रहीम कैसे निभे केर बेर कौ संग़ वे डोले मन आपनो उनके फाटें अंग’ के माध्यम से यह बात पहली दफा लोगों को बताई कि केर अर्थात केला और बेर का संग निभ नहीं सकता क्योकि बेर की काँटों भरी डालियों को तो अपना सिर मस्ती में इधर उधर हिलाने की आदत है। अब जिसके पास कांटों के हथियार हों वह तो अपनी सीमाएं लांघने की कोशिश करेगा ही दूसरी तरफ उसके पड़ोसी केर के पत्ते इतने कोमल होते है कि बेर के कॉटों से उनके फटने का खतरा हमेशा बना रहता है। वाह क्या बात है क्या दूर दृष्टी है। जब सारे कवि चॉद और चकोर प्रेयसि या शृंगार की बात कर रहे हो ये महोदय बेर के कॉटों और केले के पत्तों में काव्य तत्व और सिद्धान्तों की खोज कर रहे थे।
यही बात मेरे और मेरे पड़ोसी पर भी लागू होती है। हमारा संग भी कभी भी निभ नहीं पाया है अब यह बात समझने की है कि हम में से कौन केर है और कौन बेर। मुझे लगता है कि बेर मैं ही हॅूं तथा वह केर है क्योंकि अक्सर वह अपने तन पर जो कपड़े पहने रहता है वह जगह जगह से फटे होते हैं। उसके कपड़ों के फटे होने का संकेत यह कदापि नहीं है कि वह निर्धन है या नए कपड़े खरीदने के लिए उसके पास पैसों की कमी है अथवा यह सब हरकत मैनें ही अपने कॉटे रूपी हाथों से उसके कपड़े फाड़ कर उसे केर की उपाधि देने के लिए की है वरन् उसका मन्तव्य तो मात्र मुझे काँटे वाला बेर साबित करना ही था तथा अपनी दीन दशा दिखला कर अपने पक्ष में लोगों का सहानभूतिुपूर्ण समर्थन जुटाना ही था क्यों कि सारे सुबूत मुझे अपराधी सिद्ध करने पर तुले हुए थे फिर ‘देख सुदामा की दीन दशा जब करूणा कर के करूणानिधि भी रो सकते है तो उसकी दशा देखकर आम आदमी क्यों नहीं और इससे मुझे यहीं नुकसान हुआ कि लोग मुझे बेर समझने लगे तब मैंने जाना कि यथार्थ भले कुछ भी हो फैसला सुबूतेां के आधार पर ही होता है।
मुझे दो विपरीत प्रकृति के लोगों या यहॉ तक कि पेड़ों का संग निभ नहीं सकता इसमें कुछ सच्चाई नज़र आने लगी थी। इतनी महत्वपूर्ण खोज की सार्थकता का प्रमाण मुझे मेरे पडौस में ही मिल जाएगा मैंने कल्पना भी नहीं की थी। अब पड़ोसी चाहे मेरे हों या अपने देश के उनसे ही कौन सा संग निभ रहा है वह भी अपने कॉटे हमारे घर में डाल कर मस्ती में झूम रहा है और हम उसकी चुभन को महसूस करते हुए अपने फटे हुए अंगों और टूटे हुए दिल को देख रहे हैं।
एकाएक मेरे खुराफाती दिमाग में कुछ हलचल होने लगी । मेरा दिमाग कह रहा था कि यदि उन महाकवि के इस कथन को सत्य मान लिया जाए कि विपरीत प्रकृति वालों का संग निभ नहीं सकता तब तो इस देश में इतने सारे विपरीत प्रकृति वाले अलग अलग संस्कृति अलग अलग भाषा वाले जब लोग एक साथ रहते हैं तो उनका आपस में निर्वाह भी असंभव होता होगा किन्तु नहीं यही तो हमारी विशेषता है कि इस देश में केर और बेर की प्रकृति वाले लोग भी वर्षों से साथ साथ रहते आ रहे हैं और उनकी निभ भी रही है तो फिर उन महाशय ने यह सिद्धान्त कैसे प्रतिपादित कर दिया।
अनेकता में एकता का प्रदर्शन हमारे देश के रहने वाले युगों युगों से करते आ रहे हैं यही तो हमारे देशवासियों का सबसे बडा़ गुण है। यह बात और है कि कभी कभी कुछ बाहरी हवा के झोंकों के बहकाने पर मेरे पड़ोसी की तरह कुछ लोग भी स्वार्थवश अपने पत्ते रूपी परों को इतना अधिक फैलाने की कोशिश करने लगते हैं कि उनका कुछ अहित होने की दशा में वे बेर के कॉटों को ही दोष देना प्रारम्भ कर देते हैं।
मेरे एक मित्र जो विद्वानों की श्रेणी में आते थे क्योंकि वे अनेक साहित्यिक समारोहों की अध्यक्षता के लिए समय समय पर आमंत्रित किए जाते थे ने मुझसे कहा कि उन कवि महोदय ने यह सिद्धान्त दिया नहीं बल्कि वे तो स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं तभी तो वे पूछ रहे है कि ‘कैसे निभे केर बेर कौ संग’। आश्चर्य है कि हम लोग इस युक्ति को ही वर्षों से सच मानते आ रहे है कि वे आपस में साथ साथ नहीं रह सकते और ना ही ये गीत गा सकते हैं कि ‘हम साथ साथ है’ जब कि वास्तविकता यही है हम में से कोई भी इस प्रश्न का उत्तर या समाधान खोजने प्रयास नहीं कर रहा है।
क्या गुलाब और कॉटे एक साथ नहीं रहते हैं। क्या हमारे प्रमुख त्यौहार दीवाली पर केर और बेर का प्रसाद देवी लक्ष्मी मॉ पर एक साथ नही चढ़ाया जाता है। क्या किसी स्थान पर केर के वृक्ष लगाए जाने पर उसके द्वारा किए जाने वाले अतिक्रमण को बेर के काटों द्वारा रोके जाने का परिणाम ही तो यह नही है कि उनमें दुश्मनी पैदा की जा रही है। मेरे विचार से दोनों के जैसी विपरीत प्रकृति वालों का संग तभी निभ सकता है जब केर के पत्ते अपने पड़ोसी बेर को छाया प्रदान करें उन्हें धूप और गर्मी से बचाएं और बेर के कॉटे अपने कोमल हृदय और अंग वाले पड़ोसी की शत्रुओं से रक्षा करें ना कि उनको घायल करें। वे भले ही विपरीत प्रकृति रखते हो लेकिन एक गुण तो दोनों में समान ही है कि दोनों में मिठास विद्यमान है और एक सच्चे पड़ोसी का यही कर्तव्य होना चाहिए कि वह एक दूसरे के गुणों के ही देखे दोषों को नहीं। वह आपस में अपनी मिठास बांटे खटास नहीं। हमारे प्रयासों से असंभव को संभव तो बनाया ही जा सकता है ।
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: शरद तैलंग
240 माला रोड हाट रोड
कोटा जं राजस्थान
हमारे प्रयासों से असंभव को संभव तो बनाया ही जा सकता है ।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल बनाया जा सकता है.
Sabhee ko Gantantr Diwas kee dheron badhayee!
जवाब देंहटाएंसरस एवं प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार कीजिए और गणतंत्र-दिवस के अवसर पर मंगल कामनाएं भी।
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मुन्नियाँ देश की लक्ष्मीबाई बने,
डांस करके नशीला न बदनाम हों।
मुन्ना भाई करें ’बोस’ का अनुगमन-
देश-हित में प्रभावी ये पैगाम हों॥
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सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी