कहानी स्वप्न उस दिन सुना वह चली गई। जाना तो उसका तय था पर वह ऐसे चली जाएगी मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। दरअसल मैं उससे प्रे...
कहानी
स्वप्न
उस दिन सुना वह चली गई। जाना तो उसका तय था पर वह ऐसे चली
जाएगी मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
दरअसल मैं उससे प्रेम करता था और वह भी मुझसे उतना ही प्रेम करती थी।
यह प्रेम क्या है, क्यों, है, किसलिए है? क्यों सारी दुनिया में कोई व्यक्ति किसी
एक ही व्यक्ति पर केन्द्रित हो जाता है? क्यों उसे ब्रह्म बनाकर पूजने लगता है? उसके
क्षणिक दीदार के लिए तड़पता रहता है? सोते, जागते, उठते-बैठते, हर पल, हर घड़ी
उसी के बारे में सोचता रहता है?
यहाँ मैं इन तमाम सवालों के जवाब ढूंढ़ने जैसे पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। मैं तो
बस यहाँ इतना ही बताना चाहता हूँ कि मैं उससे बहुत प्रेम करता था। इतना कि उसके
एक इशारे पर हलाहल विष का प्याला पी सकता था। बहुमंजिली इमारत से छलांग
लगा सकता था। सारी दुनिया से बगावत कर सकता था। माँ-बाप, भाई-बहन,
नाते-रिश्तेदार, समाज सभी से पर उसने मेरे साथ दगा किया और मेरी जिन्दगी से
सदा के लिए दूर चली गई। सबसे बड़ी बात उसने मुझे इसका कारण भी बताना उचित
नहीं समझा। हाय ! वह इतनी बेदर्द बन गई, कैसे? यह जानते हुए भी कि मैं उसके
बिना जिंदा नहीं रह सकता और अगर जिंदा रह भी गया तो मेरी बाकी की जिन्दगी
मौत से भी बदतर होगी।
हाँ उसने तनिक भी इस पर विचार नहीं किया। न ही मुझ पर दया ही की। अरे कम
से कम एक प्रेमी के नाते न सही एक दोस्त या मानवता के नाते तो कुछ बताया होता
पर नहीं....कुछ भी नहीं और मुझे अपनी जिन्दगी से ऐसे निकाल फेंका जैसे कोई दूध में
पड़ी हुई मक्खी को निकाल फेंकता है।
ऐसे में मैं भला सामान्य कैसे रह पाता ? मेरी हालत पागलों सी हो गई। सारी
दुनिया से जैसे नफरत सी हो गई मुझे। सच मैं अपने आपको मिटा देना चाहता था।
इसके लिए मैंने हर सम्भव कोशिश भी की पर हर बार निगोड़ी मौत धोखा दे गई। तब
समझ में आया कि इस बेदर्द दुनिया में जीना जितना मुश्किल है, मर जाना उससे कम
मुश्किल नहीं है।
उसके बाद तो न मुझे खाने की सूध रही न सोने की। कुछ भी पहन लेता और
कहीं भी पड़ जाता जब तक कि मुझे कोई आकर दुत्कार नहीं देता।
कभी-कभी तो मैं अपने आप को कमरे में बन्द कर लेता और कई-कई दिनों तक
बिना खाए-पिए उसकी तस्वीर के सामने बैठा रोता रहता। उन चीजों को छू-छूकर
देखता रहता जिसे कभी उसने यानी कि मेरी तथाकथित प्रेमिका ने छुआ या उपयोग
किया था। खासकर उस आदमकद आइने को जिसके सामने वह अक्सर खड़ी हो जाती
और विभिन्न कोणों से अपने आप को निहारा करती।
मेरे मित्र और मेरे चाहने वाले मुझे समझा-समझाकर हार चुके थे। उनका कहना
था कि मैं उसे भूल जाऊँ। उन्होंने मेरे अन्दर उसके प्रति नफरत और घृणा पैदा करने
की भरसक कोशिश भी की पर भला आज तक कोई अपने ईश्वर से घृणा कर पाया है
जो मैं करता। हाँ वह मेरी ईश्वर थी। उसका स्थान तो मेरे मन-मंदिर में था। मैं उसके
लिए मिट सकता था, मर सकता था, पर उससे घृणा ....ना बाबा ना.....कदापि नहीं।
वह मेरी जिन्दगी में कैसे आई, क्यों आई, कहाँ से आई, इसकी भी अपनी एक
लम्बी कहानी है। यहाँ मेरे पास इस सम्बन्ध में विस्तार से बताने के लिए न तो समय है
और न ही धैर्य ही पर इतना अवश्य बताना चाहूँगा कि उसकी और मेरी पहली मुलाकात
तब हुई थी जब वह किराएदार के रूप में मेरे बगल वाले कमरे में रहने के लिए आई।
शायद यह अदृश्य सत्ता द्वारा नवनिर्मित हमारे लिए एक सुखद संयोग था। मतलब साफ
है हमारे बीच प्रेम होना था और वह हो गया और हमने एक दूसरे के साथ जीने-मरने
की न जाने कितनी ही कसमें खाईं।
वह दिल्ली के एक क्षेत्रीय टीवी चैनल में रिपोर्टर थी और मैं एक प्रतिष्ठित
चित्रकार। उसका काम था लोगों के सामने सच्ची खबरें भेजना और मेरा दुनिया की
सच्ची तस्वीर को उजागर कर समाज में सुव्यवस्था लाना। यानि समाज सेवा के इस
पावन पथ पर भी हम एक दूसरे के साथ कहीं न कहीं अवश्य जुड़ते थे।
पर इतना ही होता तो शायद मैं उसको अपने मन-मंदिर में बैठाकर भगवान का
दर्जा नहीं दे पाता। दरअसल उसमें कुछ बात ही ऐसी थी जिसके कारण मैं उसके
सामने झुकने के लिए मजबूर हो जाता था। मसलन जीवन और जगत के सम्बन्ध में
उसकी गहरी समझ, सामाजिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, जिन्दगी को अपनी शर्तों पर
भरपूर जी लेने की आकांक्षा, आदि। स्त्रियों की स्वतन्त्रता के प्रति तो वह इस कदर
आग्रही थी कि समाज और संस्कार को कूड़े में डालने वाली चीजें कहने से भी बाज
नहीं आती थी। अपने स्तर पर वह इसके लिए संघर्ष भी करती थी। दूसरी तरफ मैं
संस्कारों और अपने प्राचीन मूल्यों में अगाध आस्था रखते हुए भी उसके इस तरह के
विद्रोही विचारों का कड़ा विरोध नहीं कर पाता था। शायद यह सब उसके प्रति मेरे
अतिशय प्रेम के कारण रहा होगा।
पर इस कदर टूट कर प्यार करने के बावजूद भी वह मुझे छोड़कर चली गई। मेरा३
प्यार उसके इंसाफ के तराजू पर हल्का तूल गया। हाय ! मेरी जिन्दगी मुझसे रूठ गई
और मैं कुछ भी नहीं कर पाया। इस घटना के बाद तो जैसे मेरे ऊपर पहाड़ ही टूट
पड़ा। निष्ठुर लोग मेरी इस हालत पर तरस खाने की बजाय फब्तियाँ कसने लगे।
उनकी बातें मेरे हृदय में चूभ-चूभ जाती थी। मैं पत्थरों पर अपना सिर पटकता था और
अकेला पाकर खूब रो लेता था।
मैं उसे कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ़ा। उन टीवी चैनल वालों से पूछा जहाँ वह काम करती
थी। उसके उन समस्त मित्रों, परिचितों से मिला जिनसे वह कभी मिलती थी, बात
करती थी। यही नहीं मैं उसके घर तक गया। उसके माँ-बाप से मिलकर सारी बातें
बताई पर मुझे उसकी कहीं कोई सुराग नहीं मिली।
ऐसे ही लगभग छः सालों तक मैं उसे एक जगह से दूसरी जगह पागलों की भाँति
ढूंढ़ता भटकता रहा। तब तक मेरी हालत अर्द्धविक्षिप्तों वाली हो चुकी थी। घर परिवार
से नाता टूट चुका था और मित्र या परिचित मुझे पागल या दिवालिया घोषित करके
मुझसे किनारा कर चुके थे लेकिन तब भी मैंने आशा नहीं छोड़ी थी। पता नहीं क्यों मुझे
लग रहा था कि एक न एक दिन मैं उसे अवश्य ढ़ूंढ़ निकालूँगा। अपने इस अटूट
विश्वास के कारण ही मैं उन दिनों हिमालय की तराई में भटक रहा था। मुझे कहीं से
खबर मिली थी उसको यानि कि मेरी प्रेमिका को अन्तिम बार किसी अज्ञात व्यक्ति के
साथ इसी क्षेत्र में देखा गया है।
यह सब कुछ मेरे लिए बड़ा ही चुनौती भरा था। दिन भर उबड़-खाबड़ रास्तों पर
चलता था और रात को कोइ भी सुरक्षित जगह तलाश कर सो जाता था।
उस रात भी मैं एक अस्पताल के अहाते में विश्राम कर रहा था ताकि अगली सुबह
फिर नई ऊर्जा के साथ अपने गन्तव्य की ओर आगे बढ़ सकूँ। उस अहाते में मेरे अलावा
कुछ पेशेवर भिखमंगे, लूले-लंगड़े और कोढ़ी भी सोए हुए थे। वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर
बाई तरफ अस्पताल की मुख्य बिल्डिंग थी जिसमें कुछ मरीज और डॉक्टर इधर-उधर
टहलते हुए दीख जाते थे।
गर्मी का मौसम था और रात अधिया गई थी। मेरी नजर उस समय आकाश में टगें
हुए सितारों पर अटकी हुई थी। मैं प्रकृति के उस अद्भुत नजारे पर अभिभूत हो रहा
था। मेरे अन्दर द्वन्द्व चल रहा था कि जो ईश्वर इतने विशाल ब्रह्माण्ड की रचना कर
सकता है वह मेरी खोई हुई जिन्दगी यानी कि मेरी प्रेयसी को मेरे दामन में क्यों नहीं
डाल सकता? इसके लिए मैं मन ही मन ईश्वर को उलाहना दे रहा था, कोस रहा था।
ठीक उसी समय मैंने अस्पताल के अन्दर से दो व्यक्तियों को बाहर निकलते हुए
देखा। वे आगे बढ़कर हमारे पास ही खड़े हो गए। मैं डर गया। लगा वे दुत्कार कर हमें
हास्पिटल से बाहर निकाल देंगे पर यह अच्छी बात थी कि उनका ध्यान हमारी ओर४
नहीं गया। मैं दम साधे चुपचाप पड़ा रहा। शायद वे किसी स्त्री के सम्बन्ध में बात कर
रहे थे जिसकी अभी थोड़ी देर पहले ही मृत्यु हो गई थी। मैं ध्यान लगाकर उनकी बात
को सुनने की कोशिश करने लगा।
’क्या नाम बता रहे थे तुम उस स्त्री का?’ उनमें से एक व्यक्ति ने दूसरे से पूछा।
’रागिनी’ दूसरे ने जवाब दिया।
रागिनी नाम सुनकर मैं थोड़ा चौकन्ना हो गया।
’उसका कोई पता ठिकाना?’
’यही तो रोना है सर कि वह औरत वर्षों से हमारे अस्पताल में पड़ी हुई थी लेकिन
अपने बारे में किसी से कुछ भी नहीं बताया। कहती थी उसका इस दुनिया में कोई नहीं
है। वह अनाथ और अभागन है।’
’उसका कोई सामान वगैरह?’
’कुछ नहीं सर, सिवाय एक पत्र के जिसे उसने अपनी मृत्यु के कुछ घण्टों पहले
ही लिखा था।’
’कहाँ है वह पत्र?
’अन्दर आलमारी में।’
’पत्र किसके नाम से है?’
’शायद किसी प्रशांत के नाम से है, जो इस समय दिल्ली में रहता है।’
अपना नाम सुनते ही जैसे मेरे अन्दर हाहाकार मच गया। लगा मेरा कलेजा फट
जाएगा। साँसे रूक जाएँगी और मेरी रही-सही जिन्दगी भी खत्म हो जाएगी।
’ओय साहब जी..... प्रशांत मैं ही हूँ...मैं ही..।’ एकाएक मैं चीखा।
लम्बा कद, चिथड़े कपड़े, छाती तक बढ़ आई दाढ़ी और मूँछें, लटियाए लम्बे
बाल, भयानक शक्ल-सूरत वाले मेरे जैसे व्यक्ति को इस तरह चीखते-चिल्लाते देख एक
पल के लिए तो वे दोनों व्यक्ति डर गए पर दूसरे ही पल मुझे पागल समझकर
सुरक्षाकर्मी को आवाज देने लगे। बिगड़ती बात देख मैं उनके पैरों में जा गिरा।
लगभग आधे घण्टे तक मैं उनके सामने रोया, गिड़गिड़ाया, अपने प्रशांत होने का
सबूत दिया। तब जाकर मुझे रागिनी की लाश को देखने का मौका मिला।
उस पल मेरी प्रिया की लाश मेरी आँखों के सामने पड़ी थी। यानी कि वह मर चुकी
थी। हाय ! जिसे मैं ईश्वर समझता था वह ईश्वर में विलीन हो गई। हमारी दुनिया
छोड़कर दूसरी दुनिया में चली गई। एक ऐसी दुनिया में जहाँ कोई भी जीवित व्यक्ति
नहीं जा सकता था।
मैं उसे एकटक देख रहा था और बिलख रहा था- ’हतभाग्य मेरी जिन्दगी, यह
तुम्हें क्या हो गया? मुझे तो अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि तुम इस दुनिया में नहीं
रही। हाय ! तुम्हें मैंने कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ़ा पर तुम यहाँ, इतनी दूर....। आह ! तुम्हारा
सूरज सा चमकता चेहरा आज मुरझा क्यों गया? प्यार का अमृत बरसाने वाली तुम्हारी
बड़ी-बड़ी आँखें आज बन्द क्यों हैं? कहो, प्रिये। अरे कुछ तो बोलो। डरो नहीं। मैं यहाँ
तुम्हारी बेवफाई का कारण पूछने नहीं आया हूँ। न ही तुम्हें इस कदर टूटकर प्यार
करने का हिसाब माँगने आया हूँ। मैं तो बस तुम्हें एक नजर देखना भर चाहता था।
फूलों की पंखुड़ियों सदृश्य तुम्हारे होंठों से अपने लिए कुछ शब्द सुनना चाहता था।’
’देखिए भाई साहब, मुर्दे बोला नहीं करते। सम्भालिए अपने आप को।’ पास ही
खड़े डॉक्टर ने मुझे टोका।
’प्रशांत जी यह रहा वह पत्र जिसे हमें आप तक पहुँचाने के लिए कहा गया था।’
थोड़ी देर बाद दूसरे डॉक्टर ने मेरे हाथ में एक लिफाफा थमाते हुए कहा।
लिफाफा लेकर सबसे पहले तो मैं उसे उलट-पलटकर देखा। फिर उन अक्षरों को
स्पर्श करके देखा जिन्हें रागिनी ने अपने हाथों से लिखा था। पत्र में लिखा था-
’ओह प्रशांत !
जब तक यह पत्र तुम्हारे हाथों में होगा तब तक मैं इस दुनिया से कूच कर चुकी
हूँगी। चलो, एक अर्थ में यह मेरे लिए अच्छा ही होगा क्योंकि आज मैं जो कुछ तुम्हें इस
पत्र के माध्यम से बताने जा रही हूँ उसे शायद मैं जिन्दा रहते कभी न बता पाती।
हाँ प्रशांत, मैं इस दुनिया में एक ऐसी गंदी मिसाल छोड़कर जा रही हूँ जिस पर
जितनी थू-थू हो कम होगा। ओह ! कितनी गलत थी मैं .....सोचती थी जो मैं सोचती
हूँ, करती हूँ वही सत्य है और बाकी सब झूठ। यह सब कुछ मेरे अन्दर कहाँ से आया
प्रशांत ! क्या तुम सोच सकोगे ? ओह तुम हमेशा मुझे अमृत देते रहे और मैं .....।
जानते हो प्रशांत, मुझे इस बात का दुख नहीं है कि आज मैं इस स्थिति में हूँ।
मुझे एड्स का रोग हो गया है और मैं तिल-तिल मर रही हूँ बल्कि दुख इस बात का है
कि मैंने तुम्हें धोखा दिया। तुम्हारे साथ विश्वासघात किया और उस पुरूष के साथ सोई
जो तुमसे रूतबे में, धन-दौलत में, हर चीज में आगे था। यह जानते हुए भी कि तुम
मुझे पागलों की तरह प्यार करते हो। तुम्हारी हर साँस में, हर धड़कन में सिर्फ मेरा ही
नाम है।
खैर छोड़ो, अब इन बातों को दोहराने से क्या फायदा। कहा जाता है न कि जो
जैसा करता है उसे इस संसार में वैसा ही भरना पड़ता है। तब मैं सोचती थी यह सब
बकवास है, झूठ है पर आज ......हाँ प्रशान्त आज मैं अपने इसी पाप की कीमत वसूल
रही हूँ।
प्रशान्त, मैं अभागिन थी जो तुम्हारे प्यार के काबिल न बन सकी। उल्टे तुम्हें दुःख
ही दुःख दिया हैं मैंने। इसलिए तुम मुझे कभी माफ मत करना। हमेंशा घृणा करना,
घृणा। तभी मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।’
’तुम्हारी अभागिन’
’रागिनी’
पत्र समाप्त होते ही मैं बेसुध होकर नीचे गिर पड़ा था।
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लघु कथा
प्रवृत्ति
एक शाम मैं अपने विश्वविद्यालय के सबसे हाट प्लेस शाप-कॉम में टहल रहा था। मौसम
खुशगवार था और मेरे इर्द-गिर्द विश्वविद्यालय के छात्र और छात्राएं चाय की चुस्कियाँ लेते हुए
कहकहे लगा रहे थे।
’अरे भाई साहब.........।’ तभी एक परिचित आवाज से मैं चौका।
मैंने देखा हमारे दाई तरफ मेरे कुछ मित्र खड़े मुस्करा रहे थे। मैं कुछ कहता कि उनके बीच से
दूसरा सवाल उछला - ’ लगता है आप कुछ तलाश रहे हैं?’
’अरे नहीं-नहीं ......बस ऐसे ही...।’ मैंने सफाई दी।
’तो उधर एक टक क्या घूर रहे थे?’
’ किधर ?’
’ उधर’
उन्होंने बाई तरफ खड़े कुछ नए लड़के और लड़कियों की तरफ शरारतपूर्ण ढ़ंग से इशारा
करते हुए कहा।
’मुझे समझते देर नहीं लगी कि वे सब रंग में हैं और मेरी खिंचाई करना चाहते हैं। ऐसे में
अब मैं भी उन्हीं के स्तर पर उतर आया और बिन्दास जवाब दिया -’ भई इसमें छिपाने जैसी क्या
बात है। सभी की तरह मैं भी मनुष्य हूँ और एक मनुष्य की प्रवृत्ति है कि वह अपने विपरीत सेक्स
की तरफ ही आकर्षित होता है।’
’लेकिन भाई साहब, आज मनुष्य की प्रवृत्ति काफी हद तक बदल चुकी है। न्यायालय ने भी
आज ३७७ की धारा को समाप्त करके इसे मान्यता प्रदान कर दी है। ऐसे में हम लोग यह कैसे
अन्दाजा लगा सकते हैं कि उन सामने के लड़के और लड़कियों में विपरीत सेक्स से आप का क्या
मतलब है। क्या आप इसका खुलासा करने का कष्ट करेंगे ?’
मैं उनके इस दिल्लगी पर अवाक रह गया।
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SHYAM NARAIN 'KUNDAN'
102-O-NRS, HOSTEL
UNIVERSITY OF HYDERABAD
GACHI BOWLI
HYDERABAD-500046
PH-09640375758
email-shyam.kundan@gmail.com
अति उत्तम कहानियां।
जवाब देंहटाएंदोस्तों
जवाब देंहटाएंआपनी पोस्ट सोमवार(10-1-2011) के चर्चामंच पर देखिये ..........कल वक्त नहीं मिलेगा इसलिए आज ही बता रही हूँ ...........सोमवार को चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराएँगे तो हार्दिक ख़ुशी होगी और हमारा हौसला भी बढेगा.
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