मुनाफे की हवस में बदलता दवा करोबार प्रमोद भार्गव देशी-विदेशी दवा कंपनियां देश और रोगियों के साथ किस बेशर्मी की हद तक छल कर रही हैं इसका...
मुनाफे की हवस में बदलता दवा करोबार
प्रमोद भार्गव
देशी-विदेशी दवा कंपनियां देश और रोगियों के साथ किस बेशर्मी की हद तक छल कर रही हैं इसका खुलासा नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने हाल ही में किया है। इन दवा कंपनियों ने सरकार द्वारा दी उत्पाद शुल्क का लाभ तो लिया लेकिन दवाओं की कीमतों में कटौती नहीं की। इस तरह से ग्राहकों को करीब 43 करोड़ का चूना लगाया साथ ही 183 करोड़ रूपये का गोलमाल सरकार को राजस्व न चुकाकर किया। इस धोखाधड़ी को लेकर सीएजी ने सरकार को दवा मूल्य नियंत्रण अधिनियम में संशोधन का सुझाव दिया है। यह सरकार की ढिलाई का ही परिणाम है कि उत्पाद शुल्क में छुट लेने के बावजूद कंपनियों ने कीमतें तो कम की नहीं, उल्टे नकली व स्तरहीन दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी बाजार में मजबूती से कारोबार फैला लिया। नतीजतन लाखों गरीब लोग हर साल उपचार के अभाव में दंम तोड़ रहे हैं। चिकित्सकों को कंपनियों द्वारा महंगे उपहार देने और विदेश यात्रा कराने पर भी अंकुश नहीं लगा पाई।
इंसान की जीवन-रक्षा से जुड़ा दवा करोबार अपने देश में तेजी से मुनाफे की अमानवीय व अनैतिक हवस में बदलता जा रहा है। चिकित्सकों को महंगे उपहार देकर रोगियों के लिए मंहगी और गैर जरुरी दवाएं लिखवाने का प्रचलन लाभ का धंधा हो गया है। इस गोरखधंधे पर लगाम लगाने के नजरिये से कुछ समय पहले केन्द्र सरकार ने दवा कंपनियों से ही एक आचार संहिता लागू कर उसे कड़ाई से अमल में लाने की अपील की थी। लेकिन संहिता का जो स्वरुप सामने लाया गया, वह राहत देने वाला नहीं था। संहिता में चिकित्सकों को उपहार व रिश्वत देकर न तो अनैतिक कारगुजारियों को लेकर कोई साफगोई है और न ही संहिता की प्रस्तावित शर्तें कानून बाध्यकारी हैं। इन प्रस्तावों को लेकर दवा संघों में भी मतभेद हैं।
विज्ञान की प्रगति और उपलब्धियों के सरोकार आदमी और समाज के हितों में निहित हैं। लेकिन हमारे देश में मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो आगमन हुआ, उसके तईं जिस तेजी से व्यक्तिगत व व्यवसायजन्य अर्थ-लिप्सा और लूटतंत्र का विस्तार हुआ है, उसके शिकार चिकित्सक तो हुए ही सरकारी और गैर सरकारी ढांचा भी हुआ। नतीजतन देखते-देखते भारत के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की 70 प्रतिशत से भी ज्यादा की भागीदारी हो गई। इनमें से 25 फीसदी दवा कंपनियां ऐसी हैं जिन पर व्यवसायजन्य अनैतिकता अपनाने के कारण अमेरिका भारी आर्थिक दण्ड दे चुका है।
सिंतबर 2008 में भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की तीस जेनेरिक दवाओं को अमेरिका ने प्रतिबंधित किया था। रैनबैक्सी की देवास (मध्यप्रदेश) और पांवटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) में बनने वाली दवाओं के आयात पर अमेरिका ने रोक लगाई थी। अमेरिका की सरकारी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) का दावा था कि रैनबैक्सी की भारतीय इकाइयों से जिन दवाओं का उत्पादन हो रहा है उनका मानक स्तर अमेरिका में बनने वाली दवाओं से घटिया है। ये दवाएं अमेरिकी दवा आचार संहिता की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरी। जबकि भारत की रैनबैक्सी ऐसी दवा कंपनी है जो अमेरिका को सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाओं का निर्यात करती है। रैनबैक्सी एक साल में करीब पौने दो सौ करोड़ डॉलर की दवाएं बेचने का कारोबार करती है। ऐसी ही बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी आचार संहिता के पालन के पक्ष में नहीं हैं। किसी बाध्यकारी कानून को अमल में लाने में भी ये रोड़ा अटकाने का काम करती हैं। क्योंकि ये अपना कारोबार विज्ञापनों व चिकित्सकों को मुनाफा देकर ही फैलाये हुए हैं। छोटी दवा कंपनियों के संघ का तो यहां तक कहना है कि चिकित्सकों को उपहार देने की कुप्रथा पर कानूनी तौर से रोक लग जाए तो दवाओं की कीमतें 50 फीसदी तक कम हो जाएंगी। चूंकि दवा का निर्माण एक विशेष तकनीक के तहत किया जाता है और रोग व दवा विशेषज्ञ चिकित्सक ही पर्चे पर एक निश्चित दवा लेने को कहते हैं। दरअसल इस तथ्य की पृष्ठभूमि में यह मकसद अंतर्निहित है कि रोगी और उसके अविभावक दवाओं में विलय रसायनों के असर व अनुपात से अनभिज्ञ होते हैं इसलिए वे दवा अपनी मर्जी से नहीं ले सकते। इस कारण चिकित्सक की लिखी दवा लेना जरूरी होती है।
ऐसे हालात में चिकित्सक अनैतिकता और दवा कंपनियां केवल लाभ का दृष्टिकोण अपनाएंगी तो आर्थिक रूप से कमजोर तबका तो स्वास्थ्य चिकित्सा से बाहर होगा ही, जो मरीज दवा ले रहे हैं उनके मर्ज की दवा सटीक दी जा रही हैं अथवा नहीं इसकी गारंटी भी नहीं रह जाएगी। इस कारण सरकार ने 2009 के आरंभ में दवा कंपनियों के संघ से स्वयं एक आचार संहिता बनाकर अपनाने को कहा था। साथ ही सरकार ने यह हिदायत भी दी थी कि यदि कंपनियां इस अवैध गोरखधंधे पर अंकुश नहीं लगातीं तो सरकार को इस बाबत कड़ा कानून लाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
लेकिन सरकारी चेतावनी की परवाह किए बिना दवा कंपनियों का संघ जो नई आचार संहिता सामने लाया उसमें उपहार के रूप में रिश्वत देने का केवल तरीका बदला गया। मसलन तोहफों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। संहिता में केवल दवा निर्माताओं से उम्मीद जताई गई है कि वे चिकित्सकों को टीवी, फ्रिज, एसी, लेपटॉप, सीडी, डीवीडी जैसे इलेक्ट्रोनिक उपकरण व नकद राशि नहीं देंगे। वैज्ञानिक सम्मेलन, कार्यशालाओं और परिचर्चाओं के बहाने भी तोहफे देने का सिलसिला और चिकित्सकों की विदेश यात्राएं जारी रहेंगी। जाहिर है आचार संहिता के बहाने चिकित्सक और उनके परिजनों को विदेश यात्रा की सुविधा को परंपरा बनाने का फरेब संहिता में जानबूझकर डाला गया।
नकली दवाओं को प्रतिबंधित करने की भी इस संहिता में कोई कोशिश नहीं की गई। जबकि ये दवाएं इंसान की सेहत और उसकी जान के साथ खिलवाड़ करती हैं। नकली दवाओं का निर्यात करने में भी भारत अव्वल है। यहां हर साल करीब पेंतीस हजार करोड़ की दवाओं का निर्यात किया जाता है। विकसित देशों का ऐसा अनुमान है कि नकली दवाओं के रूप में जो दवाएं पकड़ी जाती हैं उनमें से 75 फीसदी दवाएं भारत द्वारा निर्यात की हुई होती हैं। इस सिलसिले में नकली दवा बनाने वाले दूसरे देश के दवा का निर्माता भारत को बताकर उसे बदनाम भी करते हैं। ऐसा एक मामला नाइजीरिया में पकड़ा भी गया था। ये नकली दवाएं आईं तो चीन से थीं लेकिन इन पर लिखा ’मेड इन इंडिया’ था। इस क्रम में विश्व स्वास्थ्य संगठन का तो यहां तक मानना है कि भारत में महानगरों व बड़े शहरों में बिकने वाली दवाओं में से हरेक पांचवी दवा नकली है। बहरहाल भारत न तो दवा निर्माता कंपनियों की नकेल कसने में सक्षम दिख रहा और न ही वह चिकित्सकों को किसी बाध्यकारी कानूनी संहिता से बांध पा रहा। ऐसे में चिकित्सा क्षेत्र में दवा कंपनियों का अवैद्य कारोबार धड़ल्ले से परवान चढ़ रहा है। ये हालात उस देश की गरीब व अशिक्षित आबादी के लिए खतरनाक हैं जिसकी 42 फीसदी आबादी दो जून की रोटी भी न जुटा पाती हो।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
प्रमोद भार्गव
देशी-विदेशी दवा कंपनियां देश और रोगियों के साथ किस बेशर्मी की हद तक छल कर रही हैं इसका खुलासा नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने हाल ही में किया है। इन दवा कंपनियों ने सरकार द्वारा दी उत्पाद शुल्क का लाभ तो लिया लेकिन दवाओं की कीमतों में कटौती नहीं की। इस तरह से ग्राहकों को करीब 43 करोड़ का चूना लगाया साथ ही 183 करोड़ रूपये का गोलमाल सरकार को राजस्व न चुकाकर किया। इस धोखाधड़ी को लेकर सीएजी ने सरकार को दवा मूल्य नियंत्रण अधिनियम में संशोधन का सुझाव दिया है। यह सरकार की ढिलाई का ही परिणाम है कि उत्पाद शुल्क में छुट लेने के बावजूद कंपनियों ने कीमतें तो कम की नहीं, उल्टे नकली व स्तरहीन दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी बाजार में मजबूती से कारोबार फैला लिया। नतीजतन लाखों गरीब लोग हर साल उपचार के अभाव में दंम तोड़ रहे हैं। चिकित्सकों को कंपनियों द्वारा महंगे उपहार देने और विदेश यात्रा कराने पर भी अंकुश नहीं लगा पाई।
इंसान की जीवन-रक्षा से जुड़ा दवा करोबार अपने देश में तेजी से मुनाफे की अमानवीय व अनैतिक हवस में बदलता जा रहा है। चिकित्सकों को महंगे उपहार देकर रोगियों के लिए मंहगी और गैर जरुरी दवाएं लिखवाने का प्रचलन लाभ का धंधा हो गया है। इस गोरखधंधे पर लगाम लगाने के नजरिये से कुछ समय पहले केन्द्र सरकार ने दवा कंपनियों से ही एक आचार संहिता लागू कर उसे कड़ाई से अमल में लाने की अपील की थी। लेकिन संहिता का जो स्वरुप सामने लाया गया, वह राहत देने वाला नहीं था। संहिता में चिकित्सकों को उपहार व रिश्वत देकर न तो अनैतिक कारगुजारियों को लेकर कोई साफगोई है और न ही संहिता की प्रस्तावित शर्तें कानून बाध्यकारी हैं। इन प्रस्तावों को लेकर दवा संघों में भी मतभेद हैं।
विज्ञान की प्रगति और उपलब्धियों के सरोकार आदमी और समाज के हितों में निहित हैं। लेकिन हमारे देश में मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो आगमन हुआ, उसके तईं जिस तेजी से व्यक्तिगत व व्यवसायजन्य अर्थ-लिप्सा और लूटतंत्र का विस्तार हुआ है, उसके शिकार चिकित्सक तो हुए ही सरकारी और गैर सरकारी ढांचा भी हुआ। नतीजतन देखते-देखते भारत के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की 70 प्रतिशत से भी ज्यादा की भागीदारी हो गई। इनमें से 25 फीसदी दवा कंपनियां ऐसी हैं जिन पर व्यवसायजन्य अनैतिकता अपनाने के कारण अमेरिका भारी आर्थिक दण्ड दे चुका है।
सिंतबर 2008 में भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की तीस जेनेरिक दवाओं को अमेरिका ने प्रतिबंधित किया था। रैनबैक्सी की देवास (मध्यप्रदेश) और पांवटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) में बनने वाली दवाओं के आयात पर अमेरिका ने रोक लगाई थी। अमेरिका की सरकारी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) का दावा था कि रैनबैक्सी की भारतीय इकाइयों से जिन दवाओं का उत्पादन हो रहा है उनका मानक स्तर अमेरिका में बनने वाली दवाओं से घटिया है। ये दवाएं अमेरिकी दवा आचार संहिता की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरी। जबकि भारत की रैनबैक्सी ऐसी दवा कंपनी है जो अमेरिका को सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाओं का निर्यात करती है। रैनबैक्सी एक साल में करीब पौने दो सौ करोड़ डॉलर की दवाएं बेचने का कारोबार करती है। ऐसी ही बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी आचार संहिता के पालन के पक्ष में नहीं हैं। किसी बाध्यकारी कानून को अमल में लाने में भी ये रोड़ा अटकाने का काम करती हैं। क्योंकि ये अपना कारोबार विज्ञापनों व चिकित्सकों को मुनाफा देकर ही फैलाये हुए हैं। छोटी दवा कंपनियों के संघ का तो यहां तक कहना है कि चिकित्सकों को उपहार देने की कुप्रथा पर कानूनी तौर से रोक लग जाए तो दवाओं की कीमतें 50 फीसदी तक कम हो जाएंगी। चूंकि दवा का निर्माण एक विशेष तकनीक के तहत किया जाता है और रोग व दवा विशेषज्ञ चिकित्सक ही पर्चे पर एक निश्चित दवा लेने को कहते हैं। दरअसल इस तथ्य की पृष्ठभूमि में यह मकसद अंतर्निहित है कि रोगी और उसके अविभावक दवाओं में विलय रसायनों के असर व अनुपात से अनभिज्ञ होते हैं इसलिए वे दवा अपनी मर्जी से नहीं ले सकते। इस कारण चिकित्सक की लिखी दवा लेना जरूरी होती है।
ऐसे हालात में चिकित्सक अनैतिकता और दवा कंपनियां केवल लाभ का दृष्टिकोण अपनाएंगी तो आर्थिक रूप से कमजोर तबका तो स्वास्थ्य चिकित्सा से बाहर होगा ही, जो मरीज दवा ले रहे हैं उनके मर्ज की दवा सटीक दी जा रही हैं अथवा नहीं इसकी गारंटी भी नहीं रह जाएगी। इस कारण सरकार ने 2009 के आरंभ में दवा कंपनियों के संघ से स्वयं एक आचार संहिता बनाकर अपनाने को कहा था। साथ ही सरकार ने यह हिदायत भी दी थी कि यदि कंपनियां इस अवैध गोरखधंधे पर अंकुश नहीं लगातीं तो सरकार को इस बाबत कड़ा कानून लाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
लेकिन सरकारी चेतावनी की परवाह किए बिना दवा कंपनियों का संघ जो नई आचार संहिता सामने लाया उसमें उपहार के रूप में रिश्वत देने का केवल तरीका बदला गया। मसलन तोहफों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। संहिता में केवल दवा निर्माताओं से उम्मीद जताई गई है कि वे चिकित्सकों को टीवी, फ्रिज, एसी, लेपटॉप, सीडी, डीवीडी जैसे इलेक्ट्रोनिक उपकरण व नकद राशि नहीं देंगे। वैज्ञानिक सम्मेलन, कार्यशालाओं और परिचर्चाओं के बहाने भी तोहफे देने का सिलसिला और चिकित्सकों की विदेश यात्राएं जारी रहेंगी। जाहिर है आचार संहिता के बहाने चिकित्सक और उनके परिजनों को विदेश यात्रा की सुविधा को परंपरा बनाने का फरेब संहिता में जानबूझकर डाला गया।
नकली दवाओं को प्रतिबंधित करने की भी इस संहिता में कोई कोशिश नहीं की गई। जबकि ये दवाएं इंसान की सेहत और उसकी जान के साथ खिलवाड़ करती हैं। नकली दवाओं का निर्यात करने में भी भारत अव्वल है। यहां हर साल करीब पेंतीस हजार करोड़ की दवाओं का निर्यात किया जाता है। विकसित देशों का ऐसा अनुमान है कि नकली दवाओं के रूप में जो दवाएं पकड़ी जाती हैं उनमें से 75 फीसदी दवाएं भारत द्वारा निर्यात की हुई होती हैं। इस सिलसिले में नकली दवा बनाने वाले दूसरे देश के दवा का निर्माता भारत को बताकर उसे बदनाम भी करते हैं। ऐसा एक मामला नाइजीरिया में पकड़ा भी गया था। ये नकली दवाएं आईं तो चीन से थीं लेकिन इन पर लिखा ’मेड इन इंडिया’ था। इस क्रम में विश्व स्वास्थ्य संगठन का तो यहां तक मानना है कि भारत में महानगरों व बड़े शहरों में बिकने वाली दवाओं में से हरेक पांचवी दवा नकली है। बहरहाल भारत न तो दवा निर्माता कंपनियों की नकेल कसने में सक्षम दिख रहा और न ही वह चिकित्सकों को किसी बाध्यकारी कानूनी संहिता से बांध पा रहा। ऐसे में चिकित्सा क्षेत्र में दवा कंपनियों का अवैद्य कारोबार धड़ल्ले से परवान चढ़ रहा है। ये हालात उस देश की गरीब व अशिक्षित आबादी के लिए खतरनाक हैं जिसकी 42 फीसदी आबादी दो जून की रोटी भी न जुटा पाती हो।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
एक उच्चकोटि का स्तरीय लेख. दवा के इस घिनौने कारोबार को मैंने भी करीब से देखा है क्योंकि मेरा भाई दवा की कम्पनी में काम करता है.डॉक्टर इस हद तक नीचे गिरते है उपहार लेने में की मै बता नही सकती.उसके बाद मरीजों को गैर जरूरी दवाईया देकर कम्पनी को खुश किया जाता है ताकि आगे और महंगे गिफ्ट मिल सके.नफरत है इस मकडजाल से जिसमे फंसा है आम आदमी.इस मुद्दे को उठाने के लिए धन्यवाद और बधाई.
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