झाबुआ का ऐतिहासिक परिचय झाबुआ जिला मध्यप्रदेश के दक्षिण पश्चिम छोर पर स्थित एक आदिवासी बहुल्य जिला है। अपनी विशिष्ट भौगोलिक एव...
झाबुआ का ऐतिहासिक परिचय
झाबुआ जिला मध्यप्रदेश के दक्षिण पश्चिम छोर पर स्थित एक आदिवासी बहुल्य जिला है। अपनी विशिष्ट भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण न केवल मध्यप्रदेश बल्कि पूरे देश में अपनी पृथक पहचान बनाये रखता है। मई 1948 में जब मध्यभारत बना था तब झाबुआ जिला अस्तित्व में आया। उस समय झाबुआ जिला अलीराजपुर, जोबट, कठीवाडा, माठवार और पेटलावद परगने से मिलकर बना। धार जिले के कनवाडा को भी इसमें शामिल किया गया। जब हम झाबुआ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जब हम देखे तो झाबुआ जिले की स्थापना 1584 में केशवदास राठौर ने की थी। 1618 में इनकी जागीर मुगल सल्तनत से मिल गई, लेकिन 1642 में पुन: शाहजंहा ने केशवदास के भतीजे को राज्य सौंप दी।[1]
वर्तमान झाबुआ 15 वीं 16 वीं शताब्दी में तीन राज्यों से मिलकर बना था, अलीराजपुर, जोबट, और झाबुआ। झाबुआ की स्थापना जहांगीर के शासन काल में श्री केशवदास राठौर ने की थी। जिन्होंने लगभग 23 वर्षों तक शासन किया इसके पश्चात करनसिंह, ने तीन साल राज्य किया। इसके बाद क्रमश: मानसिंह, कुशलसिंह, अनुपसिंह, बहादुर सिंह, भीमसिंह, प्रतापसिंह, रतनसिंह और अंत में गोपालसिंह ने शासन किया। सन् 1857 की क्रांति के समय गोपालसिंह केवल 17 वर्ष के थे। 1943 में अनेकों राजनीतिक परिवर्तनों के बाद ब्रिट्रिश सरकार द्वारा दिलीपसिंह को शासन की बागडोर पूर्णरूप से सौंप दी।
झाबुआ का भौगोलिक परिचय
मध्यप्रदेश को सबसे बड़ा जनजातीय प्रदेश कहना गलत न होगा। है। यह पश्चिमी छोर पर मालवा के पठार उत्तर में नर्मदा नदी से घिरा है। यह जिला 21अंश 55 20 उत्तरी अक्षांश और 23 14 52 उत्तरी अक्षांश के समानान्तर और 74 2 15 पूर्वी देशांश और 75 1 पूर्वी देशांश पर स्थित है। झाबुआ उत्तर में बांसवाडा(राजस्थान) और रतलाम जिले से दक्षिण में पश्चिम खानदेश(धूलिया) महाराष्ट्र से, पूर्व में धार जिले से और बडौदा जिला गुजरात और पंचमहाल्स से दक्षिण से घिरा हुआ है। इस तरह इस जिले की सीमाएं राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र व प्रदेश के रतलाम, धार और बड़वानी जिले को छूती है। इसकी समुद्र तल से उंचाई 826 मीटर है। (भीलांचल में मनवाधिकार, डॉ. बीना भूरिया, प्रकाशक नाकोड़ा ग्राफिक्स झाबुआ 2006) यह न केवल इसलिये कि यहां जनजातियों की बड़ी आबादी निवास करती है बल्कि पदेश के मध्य चौहदी तक फैली दर्जन भर से अधिक जनजातियों की भिन्न भिन्न संस्कृतियां, जीवनशैलियां ही मूलत: इस प्रदेश की पहचान है। यही वजह है कि राज्य गठन के साथ ही राज्य सरकार ने प्रदेश में जनजातियों के सर्वांगीण विकास पर विचार करना, योजनाएं बनाना और उन पर अमल करना प्रारंभ कर दिया है।[2](वन्या संदर्भ अंक 1से 24 फरवरी 2005 आदिमजाति अनुसंधान संस्थान: जनजातियों के विकास मार्ग का सहयात्री, दीपशिखा सौमित्र 09-10) झाबुआ मध्यप्रदेश का सबसे छोटा जिला है। लेकिन मध्यप्रदेश का आदिवासी बहुल सबसे बड़ा जिला है। झाबुआ जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्र 6781 वर्ग किलो मीटर है। जो कि प्रदेश का 1.53 प्रतिशत क्षेत्र है। सम्पूर्ण जिले की जनसंख्या 667811 है जिसमें 565705 अनुसूचित जनजाति के लोग और 18259 अनुसूचित जाति की जनसंख्या है जो कि मध्यप्रदेश की कुल जनसंख्या का 1.6 प्रतिशत ही है। पुर्नगठित मध्यप्रदेश में लगभग 96;27 लाख जनजातीय आबादी निवास करती है। यहां गौंड और भील जनजातियों की आबादी अधिक है। कहा जाता है कि झाबुआ जिला भीलों का जिला है जहां 80 प्रतिशत भीलों का निवास है। जनसंख्या की दृष्टि से भील को भारत वर्ष की सबसे बड़ी जनजाति माना जा सकता है। सभी उप जातियों सहित भील जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 60 लाख है[3](भीलांचल में मानवाधिकार, डॉ. बीना भूरिया प्रकाशन नाकोड़ा ग्राफिक मेधनगर झाबुआ 2006)। जबकि आंध्र और बिरहोर जनजातियां नगण्य है।[4]()
प्रशासनिक व्यवस्था के अर्न्तगत जिले को 5 राजस्व अनुभागों, 8 तहसीलों व 12 विकास खण्डों में बांटा गया है। जिले में 612 ग्राम पंचायतें व 1326 आबाद ग्राम है ((भीलांचल में मानवाधिकार, डॉ. बीना भूरिया प्रकाशन नाकोड़ा ग्राफिक मेधनगर झाबुआ 2006, झाबुआ जिला-एक परिचय) । झाबुआ जिले में जो आठ तहसील हैं वे इस प्रकार है-- झाबुआ, रानापुर, अलीराजपुर, भाबर, जोबट, थांदला, मेघनगर, और पेटलावद। जिले के दक्षिणी एवं उत्तरी भाग पर नर्मदा और माही नदी बहती है। नर्मदा जिले की सबसे बड़ी नदी है। यह पूर्व से पश्चिम की और जिले के दक्षिणी किनारे से बहती है। जिले की हथनी नदी नर्मदा की मुख्य सहायक नदी है।
झाबुआ का सांस्कृतिक परिचय
भील मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे देश में सबसे बडी जनजातियों में से एक है भीली कला संस्कृति व परम्परा भारत की जनजातीय पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसे जानने और समझने की जिज्ञासा देश में ही नहीं विदेशों में भी है। यहां की कला संस्कृति को देश विदेश में खासी लोकप्रियता मिल रही है। उत्सवप्रियता सम्पूर्ण भारतीय समाज एवं संस्कृति की विशेषता है। इसी उत्सव धर्मी स्वभाव के चलते पूरे देश में अनेक प्रकार के तीज त्योहार प्रतिवर्ष मनाये जाते हैं। जो न केवल जीवन को हल्का फुल्का एवं आनंदमय बनाता है बल्कि जीवन के कठिन पलों में भी सकारात्मक भाव बनाये रखने की प्रेरणा भी देता है। आदिवासी संस्कृति की अपनी विशिष्ठ परम्पराएं रही हैं। संस्कार औपचारिक मात्र नहीं है बल्कि उनके जीवन की वास्तविकता के धरातल पर सही मायने में जीने की कला है। जिनमें जन्म विवाह मृत्यु संस्कार इन्हें आपसी संबंधों को प्रगाढ बनाये रखने की सामान्य अभिव्यक्ति है। अन्य समाजों की तरह भील समाज में भी शादी की विशिष्ट प्रथाएं हैं। सामान्यत: शादी तय करने के लिये लड़के वालों को ही बातचीत के लिये पहल करनी होती है। माता पिता की सहमति से विधिवत विवाह संस्कार के अतिरिक्त विवाह की अन्य प्रथाएं भी भीली समाज में प्रचलित है जैसे- घरजवाई, भगोरिया विवाह, लुगडा लाडी विवाह, धरणाविवाह, नातरा विवाह इत्यादि।[5](सम्पदा,मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृतिक परम्परा का साक्ष्य ,सम्पादक डॉ. कपिल तिवारी,पृष्ठ 223) इसी परम्परा की कड़ी है भीलों का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन भगोरिया है जो होली के एक सप्ताह पूर्व से शुरू होने वाले यह भगोरिया हाट भीलांचल के लिये नई उमंग प्रणय-निवेदन के साथ मेल मिलाप के समारोह होते हैं। यह भीलों के देवता भगोर देव के नाम पर मनाया जाता है। झाबुआ जिला में दाहोद के पास भगोर के भीलों ने यह त्योहार शुरू किया। इन आदिवासियों को भगोरिया भील के नाम से जाना जाता था। वर्तमान समाज में जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं आदिवासी परिवार की यह प्राचीन परम्परा रही है। इतिहास जो भी हो आज यह पर्व आदिवासी परिवारों के उत्साह को मनाने का पर्व बन गया है।[6] ( वन्या संदर्भ वर्ष 2 अंक 21, 10 फरवरी 2007 प्रणय का पर्व है भगोरिया, संजय सक्सेना पृष्ठ 01) इस पर्व में प्रणय निवेदन से हटकर इन हाट बाजारों में गीत संगीत के साथ मांदल, ढोल, और बांसुरी की मधुर संगीत की भी अपनी पृथक पहचान है। भगोरिया मेला बालपुर का सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
आस्था और विश्वास की एक अन्य कडी में आदिवासी जनजातियों की मनौती पूरी करने वाले गल बाबा का स्थान भी इनके जीवन में अहम स्थान रखता है। झाबुआ के आसपास कतिपय भील ग्रामों में गल भरने की प्रथा है। होली के दूसरे दिन गल बाबा की पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है जहां गाजे बाजे, नृत्य, गीत से वातावरण महक उठता है। गल बाबा ऐसे देव है जिनके न मंदिर होते हैं और नहीं पूजा का कोई स्थायी स्थान होता है, फिर भी इनकी पूजा अर्चना सभी कुछ फलदायी होता है। गल नरसिंह भगवान का स्वरूप माना जाता है। जो हर साध पूरी करते हैं, यह संरक्षक देव है इसलिये गल देवता को पितृदेव भी कहते हैं। भील अपने परिवार में किसी की रोग-व्याधी से मुक्ति हेतु अथवा हर छोटी बडी विपत्तियों में या किसी कार्य सिद्धि होने प्रयोजन से ली गई मनौतियां गल डेहर के दिन उतारते हैं।[7] जान जोखिम में डाल कर हवा में झूलना, गलबाबा के विश्वास से ही संभव है, वे ही व्यक्ति को शक्ति और आत्मबल प्रदान करते हैं,और संकटमय जीवन को सुखमय बना देने की प्रबल आस्था रखते हैं। किसी की भी मनौती खाली नहीं जाती है इसलिये भील अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये इनकी मनौती करता है।[8](वन्या संदर्भ 10 मार्च 2007 पृष्ठ 5) होली के बारहवें तेरहवे दिन गढ का आयोजन किया जाता है, गढ विजय का प्रतीक है जो झाबुआ में ही विशेष रूप से राजाओं के समय में आयोजित होता था। जिसमें एक तेल से चिकने चालीस पचास फिट लम्बे व मोटे खम्बे पर आदिवासी युवक को चढ कर गुड की पोटलियां बांधनी होती है इस अवसर पर आदिवासी युवतिंया हांथों में बेत लेकर इन युवकों को चढने से रोकती है। जो युवक सबसे पहले चढकर शीर्ष पर पोटली बांधता है उसे विजेता माना जाता है। ढोडी वर्षा के आव्हान से संबंधित इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिये भील युवा-युवतियों का उत्सव है। कृषि की प्रारंभिक तैयारी के बाद वर्षा न होने की स्थिति में ज्येष्ठ अमावस की रात्रि में मनाया जाता है। जातर हर भीली गांव में नवाई के पूर्व मनाया जाता है, इसे वर्ष में दो बार मनाया जाता है, एक बार तब जबकि बुवाई के बाद मक्का के पौधे कुछ बड़े हो जाते हैं और दूसरी बार उस समय जब मकई में दाने आ जाते हैं। पहली बार को नांदर जातक और दूसरी बार को नवई जातर कहते हैं। नवई नये अनाज के प्रथम उपयोग का त्योहार है। जब मूंग नवला मक्का में दूधिया दाने आ जाते हैं उसी समय भील अनाज को पकाकर सामूहिक तौर पर खाते हैं। दिवासा पावस ऋतु के शुरू होते ही भील श्रवण माह की आमावस्या को इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिये मनाते हैं। इन्द्रदेव को बाबा देव भी कहते हैं। नवणी या नवरात्रा भीलों का आनुष्ठानिक पर्व है जिसमें वे अपने कुलदेवी की पूजा करते हैं। इसे कुंआर माह में शुक्लपक्ष की पडवा से प्रारंभ होता है। जिसमें जवारा(गेहू के पौधे वाली टोकरी) बोते हैं जिन्हें नवमी को संध्या पूजन कर विधिविधान से नदी पर विसर्जित करते हैं। अगहन कार्तिक के मध्य इंदल का आयोजन किया जाता है यह भीलों में किसी कार्य के निर्विघ्न पूर्ण होने पर मानता लेने का और उसके पूर्ण हो जाने पर आयोजित करता है।[9] इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म की तीज त्योहारों को जैसे दीवाली दशहरा इत्यादि भी हर्षोल्लास से मनाते हैं।
भीलों की हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में महाभारत, रामायण, शबरी, घटोत्कच्छ, एकलव्य की कथा, बौद्धकालीन और जैन कालीन कथा साहित्य में भी इनकी चर्चा मिलती है। हल्दी घाटी में महाराणाप्रताप के साथ भील लड़े थे। राजपूत राजाओं के राजतिलक करने का अधिकार भी इसी जाति को रहा है किसी समय इस जनजाति की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता थी और मध्य भारत में भील सरदारों के कई छोटे छोटे राज्य फैले हुए थे। कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, भीलवाड़ा इत्यादि आज भी हमें भीलों के उस काल की यादों को ताजा करते हैं। धर्म और संस्कृति की दृष्टि से पश्चिमी निमाड़ क्षेत्र हिन्दु प्रधान ही कहलाएगा क्यों कि जनसंख्या यहां हिन्दू समाज की ही है।[10] अब जैसे जैसे आधुनिकता के प्रभाव से जीवन शैली में परिवर्तनों का सिलसिला निरन्तर जारी है वैसे वैसे सामूहिक पर्वोत्सव का उत्साह कम होता जा रहा है। लेकिन आदिवासी जन-जीवन में इसका महत्व अब भी बरकरार है। लोक जीवन को सरस, सप्राण बनाये रखने में इन पर्वोत्सव की महती भूमिका है जो लोक जीवन से विस्मृत नहीं हो सकती। झाबुआ जिले की जनसंख्या को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस जिले में आदिवासी जन-जातियों का बाहुल्य है। जिनकी अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा है। यहां की जनजाति अपनी विशिष्ट वेशभूषा, संस्कृति, रहन-सहन के लिये प्रसिद्ध है। यहां का फाग उत्सव भगोरिया सम्पूर्ण देश और विदेश में भी प्रसिद्ध है। यहां के मूल आदिवासी भील-भिलाला और पटलिया हैं। जिनकी प्राथमिक और अनिवार्य आवश्यकता जीवन निर्वाह होता है, जिसका उनके जीवन शैली पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
भीलों की उत्पत्ति के संदर्भ में विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में भिन्न भिन्न तथ्य मिलते हैं। रामचरित मानस के अतिरिक्त प्राचीन वांगमय में अनेक स्थानों पर इस जनजाति का उल्लेख मिलता है। महाभारत का एकलव्य भील चरित्र था। जिसने द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या का ज्ञान न देने पर उनकी प्रतिमा का निर्माण कर उसे ही गुरु मान कर धनुर्विद्या में निपुणता हासिल की। कृष्ण की कथाओं के साथ भी भील जनजाति का नाम जुडा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भील जनजाति भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक है। एक अन्य पौराणिक आख्यान के अनुसार भीलों की उत्पत्ति असग के पुत्र वेन से हुई। विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण में कथा है कि एक बार वेन के मन में पाप जागृत हुआ तब ऋषि मुनि उसके पास पहुंचे। वेन ने ऋषियों को अपना हाथ उठाकर वहां से हट जाने का संकेत दिया। इस ऋषि अंगीरा ने उसे श्राप दिया। जिसके परिणाम स्वरूप उसका वह हाथ दही बिलोने की मथानी बन गया। जिससे निषाद की उत्पत्ति हुई। उन्होंने बांये हाथ से भी मथने का उपक्रम किया। तब उसमें से भी तीन मानवों की उत्पत्ति हुई, मुशाहन्तरा, कोल्ल, बिल्ल। ये ही तीनों मुशाहन्तरा, तथा कोल तथा भीलों के आदि पूर्वज हुए।[11] एक अन्य भील कथा के आधार पर भीलो की उत्पत्ति के संदर्भ में यह तथ्य मिलता है कि राजा मनु के वंशज राजा अंग का पुत्र वेन बहुत दुष्ट और क्रूर था। जब उसका अत्याचार बढ़ता गया तो ऋषियों ने अपने श्राप से उसका अंत कर दिया। राजा के शरीर को औषधि से सुरक्षित रखा गया। इसके इस शरीर के दक्षिण जांघ का मंथन किया गया इससे छोटे कद का काल छोटे छोटे हाथ, चपटी नाक तथा नीले नेत्र वाला बालक पैदा हुआ। इसे निषाद राजा के नाम से जाना गया किवदंती है कि भील इन्हीं के वंशज है। कहते हैं कि भील शब्द द्रविड़ भाषा के बील शब्द से निकला है जिसका अर्थ तीर कमान होता है इस प्रकार तीर कमान ही उनका हथियार है और इसी से उनकी पहचान होती है।[12] भारतीय जनजातियों में भील जनसंख्या की दृष्टि से दूसरे स्थान पर आते हैं मध्यप्रदेश में भी गौंडो के बाद भीलों की जनसंख्या अधिक है। श्याम रंग, छोटा मध्यम कद, गठीला शरीर और लाल आंखे यह इनकी शरीरिक रचना है। भील संस्कृति प्राचीन संस्कृतियों में से एक है जो जीवन के कई पड़ाव दिखाती है। इतिहास इस बात का साक्ष्य है कि भीलों ने शौर्य की पराकाष्ठा तक प्रदर्शन किया है। प्राचीन भीलों से अब तक आखेट इनकी जीविका का एक मात्र साधन था जिसके लिये ये जाने जाते थे। आखेट में होने वाले शस्त्र धनुष बाण उन्हीं की संस्कृति ने आज भी इनके घर की शोभा बनाकर रखा है। इस शस्त्र के प्रयोग और निशानेबाजी में आज भी इनका कोई सानी नहीं है। इस शस्त्र को यह जनजाति केवल आखेट के लिये ही प्रयोग नहीं करती थी बल्कि इसी शस्त्र से इन्होंने कई युद्ध भी लड़े है।[13] आज जब संचार माध्यम और जनसम्पर्क अति आधुनिक तकनीक के कारण सर्वसुविधाजनक और सरल, आमजन के लिये हो गया है तो निश्चित ही इसका प्रभाव नगरों के समीप रहने वाले आदिवासी जनसमुदाय पर भी पडा। फिर भी वे अपने लोक से, लोक संस्कृति से, सामाजिक व्यवस्था से अब भी जड़ से जुड़ा हुआ है। वह अपनी जीवन निर्वाह की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति अपने ही आसपास के परिवेश पूर्ण कर लेने की क्षमता रखता है। यही नहीं वे अपने परिवेश, संसाधनों और आवश्यकताओं के साथ सरलता और सहृदयता से सामंजस्य भी स्थापित कर लेते हैं। प्राकृतिक रूप से उपलब्ध साधनों द्वारा लोक कलाओं के अभूतपूर्व संसार की सृष्टि भी कर लेते हैं। जिससे हम उनकी रचनात्मकता, सृजनात्मकता, कलात्मकता एवं आकर्षक प्रतिभा से सहज ही अभिभूत हो जाते हैं1 उनके इस कलात्मक संसार में चित्रकला, मूर्तिकला, गुदना, बांस शिल्प, गुड़िया कला, मिट्टी शिल्प, धातु शिल्प, नृत्य, संगीत, गीत इत्यादि का महत्वपूर्ण योगदान है। जो न केवल आनंद मंगल का एक साधन है बल्कि सामाजिक जुड़ाव और मन को परिष्कृत करने का सहज उपलब्ध संसाधन है। हस्तशिल्प कृतियॉं लोककला, लोक संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहचान बनाये है। जिसमें झाबुआ की पिठौरा लोक चित्रण और आदिवासी गुड़िया कला प्रमुख है।
गुड़ियाकला-उद्देश्य एवं विकास
जनजातियों की सांस्कृतिक रूप से अपनी अलग एक पहचान है। प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से भी प्रकृति के प्रति आस्था और विश्वास के रूप में प्रकृति की उपासना के उदाहरण मिलते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, पेड़-पौधे, जल, वायु, अग्नि,की पूजा का अस्तित्व मिश्र, मेसोपोटामिया, मोहन-जोदाड़ो, हडप्पा आदि की संस्कृति में समान रूप से मिलता है। जिसका स्पष्ट संकेत है कि प्राचीन मानव की आराध्य संस्कृति का मूल प्रकृति पूजा रहा है। वर्तमान में भी प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति पूजा का अस्तित्व है।[14] इसके अतिरिक्त हम यह देखते हैं कि आदिवासीयों का जीवन एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में विकसित है आदिवासी जीवन और कला की आपूर्ति अपने द्वारा उत्पादित उन समस्त सामग्रियों से करते हैं जो उन्हें प्रकृति ने सहज रूप से प्रदान की है। भौगोलिक रूप से जो उन्हें प्राप्त हो गया उसी में वे अपने जीवन का चरम तलाशते हैं, उसी में ही उनके सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक अवधारणाओं की पूर्ति होती है। जनजातियों का आध्यात्मिक जीवन कठिन मिथकों से जुड़ा होता है जो प्रथम दृष्टया देखने में तो सहज और अनगढ़ दिखता है किन्तु उसकी गहराई में जो अर्थ और आशय होते हैं वो जनजातीय समूहों के जीवन संचालन में समर्थ और मर्यादित होती है।[15] आदिवासी जीवन प्रकृति पर आश्रित होता है इसलिये प्रकृति से उसके प्रगाढ़ रिश्ता होते हैं। आदिवासी जीवन संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों में किसी न किसी रूप में प्रकृति को अहमियत दी जाती है।-। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर अनेक बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों ने कला विकास में आस्था, अनुष्ठान एवं अभिव्यक्ति को प्रमुख बिन्दु के रूप में व्याख्या दी है। लोक कला का मूल मंगल पर आधारित है यह सर्वमान्य सत्य है। मंगल भावना से ही अनेक शिल्पों, चित्रों इत्यादि का निर्माण लोक कला संसार में होता आया है। जिसमें अभिप्रायों, प्रतीकों का भी विशेष महत्व है।
गुड़िया कला के निर्माण समय के संदर्भ में अनेक भ्रांतियां है। इसके प्रारंभ संबंधी भ्रांतियों में एक यह भी है कि सर्वप्रथम आदिवासियों ने अपने तात्कालिक राजा को उपहार स्वरूप शतरंज भेट किया था जिसमें शतरंज के मोहरों को तात्कालिक परिवेश में उपलब्ध संसाधनों द्वारा आकार दिया जा कर अनुपम कलाकृति का रूप दिया गया यथा शतरंज के मोहरों जैसे राजा, वजीर, घोड़ा, हाथी, प्यादे इत्यादि को कपड़े की बातियां लपेट लपेट कर बनाया गया था। और तभी से इसे रोजगार के रूप में अपनाये जाने पर बल दिया जाकर गुड़िया निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। और आदिवासी स्त्री पुरूषों को इसका प्रशिक्षण दिये जाने की शुरूवात की गई। आज गुड़िया का जो स्वरूप है वह गिदवानी जी का प्रयोग है प्रारंभिक स्वरूप में वेशभूषा तो वही थी जो आदिवासियों का पारंपरिक वेशभूषा चला आ रहा है। केवल तकनीक और आकार में परिवर्तन हुआ है। जैसा कि हम सभी इस बात से परिचित है कि न केवल ग्रामीणो में बल्कि आप हम सभी का बचपना नानी दादी द्वारा निर्मित कपड़े की गुड़िया से खेल कर गुजरा है। कपड़े की गुड़िया तब से प्रचलन में है लेकिन झाबुआ में इसका व्यवसायिक प्रयोग हुआ। जब आदिवासी हस्तशिल्प से संबंधित विशेषज्ञों से इस बारे में चर्चा की गई तो निष्कर्ष यही निकला कि प्रारंभ में गुड़िया अनुपयोगी कपड़े की बातियों को लपेटकर ही गुड़िया निर्माण किया जाता था लेकिन व्यावसायिक स्वरूपों के कारण ही अब स्टफ़ड डाल के रूप में सामने आया है। इस प्रविधि से आसानी से गुड़ियों की कई प्रतियां आसानी से कम परिश्रम, कम समय में तैयार की जा सकती। एवं कम प्रशिक्षित शिल्पियों द्वारा भी यह कार्य आसानी से करवाया जा कर शिल्प निर्माण किया जा सके।
गुड़ियाकला के वरिष्ठ शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी जी के अनुसार भी आदिवासियों को प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु 1952-53 में शासन ने पहल की तब से आज तक यह परम्परा निरंतर चली आ रही है। जिसका उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों को सृजित करना, रोजगार प्रदान करना, व्यवहारिक शिक्षा को प्राथमिकता देना, एवं आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलुओं को शामिल करना इत्यादि रहा है।
गुड़ियाकला के प्रकार
(रेग डाल) (स्टफ्ड डाल)
गुड़िया निर्माण प्रविधि के अनुसार गुड़िया दो प्रकार की बनाई जाती है। रेग डॉल एवं स्टॅफ्ड डॉल। झाबुआ क्षेत्र में मुख्यत: स्टफ्ड डॉल का निर्माण किया जाता है। जिसमें आदिवासी भील-भिलाला युगल, आदिवासी ड्रम बजाता युवक, जंगल से लकड़ी अथवा टोकरी में सामान लाती आदिवासी युवती इत्यादि प्रमुखता से बनाया जाता है। प्रारंभ में गुड़िया लगभग आठ से बारह इंच तक की बनाई जाती थी लेकिन वर्तमान समय में दस से बारह फुट तक की गुड़िया बनाई जाने लगी है। अब गुड़िया निर्माण केवल अलंकरणात्मक नहीं रह गई बल्कि चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बना रहा है। जहां कपड़े से निर्मित जीवन्त मॉडलों का निर्माण किया जा कर शिक्षा में रचनात्मक प्रयोग किये जा रहें है। इसके अतिरिक्त विवरणात्मक गुड़िया समूह का निर्माण भी किया जा रहा है जिसमें आदिवासी जीवन की सहज घटनाओं जैसे मुर्गा लड़ाई, सामाजिक दिनचर्या, नृत्य, महापुरूषों की जीवन में घटित घटनाओं, सैन्य प्रशिक्षण, इत्यादि प्रमुख हैं।
गुड़ियाकला निर्माण प्रविधियां
गुड़िया शिल्प प्रकृति प्रदत्त हाथों की वह प्रतिभा है जिसमें शिल्पी अपनी कल्पनाओं को हाथों द्वारा उकेरकर प्रस्तुत करता है। प्रकृति से जुड़ा यह शिल्पी अपने उपलब्ध सीमित साधनों की हस्त कृतियां बड़ी कुशलता से निर्मित करता है। इन आदिवासी गुड़िया कला में जिले में ही उपलब्ध प्राकृतिक एवं अनुपयोगी वस्तुओं का आकर्षक प्रयोग होता है।
झाबुआ क्षेत्र के अधिकांश गुड़िया शिल्पी स्टफ्ड डाल का निर्माण करते हैं इस तरह के निर्माण में निश्चित आकारों में कटे कपड़ों को सिलकर उसमें रूई की सहायता से स्टफिंग की जाती है अंत: वे स्टफ्ड डाल कहलाती हैं। अब कुछ शिल्पी रेग डाल का निर्माण कर रहें हैं। जिसमे पहले कल्पना की गई गुड़िया के अनुरूप तार का ढांचा बना कर उसे बेकार कागज और कपड़े की पतली पट्टियों की सहायता से लपेट कर शिल्प बनाया जाता है। जिसकी निर्माण प्रविधि अलग से दी जायेगी। यह आदिवासी गुड़िया शिल्प निर्माण कई चरणों में पूर्ण होता है।
(लोहे का फरमा) हाथ पैर
सर्वप्रथम शरीर के प्रत्येक अंगों के लिये कपड़े पर निर्धारित फर्मे से आकार बनाकर काटा जाता है। फिर उसे सिलाई कर आकार दिया जाता है तत्पश्चात उसमें रूई भरकर गुड़िया की मोटाई और गोलाई बनाई जाती है
(धड में रूई भरते हुए) (पेपर मेशी का चेहरा ) (चेहरे का पिछला भाग)
इस तरह अलग अलग हाथ, पैर, शरीर का मध्य भाग, हाथ के पंजे, पैर के पंजे बनाया जाता है। चित्र क्रमांक -- । इन्हें मजबूती प्रदान करने के लिये इनके मध्य लोहे का तार लगाया जाता है चित्र क्रमांक --। अलग अलग अंगों के बन जाने पर इन्हें आपस में सिल कर जोड़ा जाता है। गुड़िया शिल्प का सिर बनाने के लिये सर्वप्रथम मोल्ड (सांचे या डाई) द्वारा प्लास्टर आफ पेरिस, पेपर मैशी अथवा मिट्टी, द्वारा चेहरा बनाया जाता है। मोल्ड बन जाने पर उसे हवा में छांव में ही सुखा दिया जाता है, मोल्ड के सूख जाने के पश्चात उस पर कपड़ा तनाव देकर चिपकाया जाता है चित्र क्रमांक --। इसे पूर्व में बनाये शिल्प में सिलकर जोड़ दिया जाता है और इस तरह शिल्प के ढांचा का निर्माण पूर्ण होता है । अब प्रारंभ होता है उस शिल्प के अलंकरण का कार्य। जिसमें सर्वप्रथम उस शिल्प को आदिवासीयों की पारम्परिक अथवा देश के अन्य स्थानों की पारम्परिक वेशभूषा द्वारा अलंकृत किया जाता है। अंत में परम्परानुसार आभूषणों का चयन कर उन्हें सजाने संवारने का कार्य किया जाता है। और फिर शुरू होता अंतिम किन्तु महत्वपूर्ण भाव-भंगिमाओं के निर्माण का जिसे कुशल शिल्पी ब्रश व रंगों के माध्यम से आंखे, भौहें, बिन्दी, गोदना, ओठ इत्यादि को अंकित कर शिल्प को आकर्षक, और जीवंत बनाता है। शिल्प निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद उसे स्टैण्ड पर खड़ा करने के लिये मध्य में लगाये गये मोटे तार को लकड़ी के गुटके पर फिट कर दिया जाता है।
(शिल्प को स्टैण्ड पर खड़ा करने के लिये लगाये गये मोटे तार) (अलग अलग हिस्सों को जोड़ते हुए)
कभी कभी दीवार पर टांगने के लिये बनाये जाने वाले शिल्पों को फ्रेम में आदिवासी शस्त्रो तीर भाला या अन्य औजारों के साथ संयोजित कर पूर्ण किया जाता है। सामान्यत: गुड़िया का निर्माण 8 से 10 इंच तक किया जाता है लेकिन आधुनिक व्यावसायिक संदर्भो में मांग के अनुरूप 2 से 3 फुट और विशेष मांग पर 10 से 12फुट तक की आकृतियां बनाई जा रही हैं। चित्र क्रमांक – एवं --। सम्पूर्ण झाबुआ क्षेत्र के गुड़िया शिल्पीयों द्वारा निर्मित आदिवासी भील भिलाला की आकृतियों में अमूमन एक सी भाव भंगिमा का अंकन मिलता है लेकिन झाबुआ के शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी उनके बेटे सुभाष गिदवानी द्वारा अंकित भावों का अंकन अधिक परिष्कृत है। ये न केवल आदिवासी बल्कि उनके दैनिक क्रिया कलापों से संबंधित भावों का भी अंकन उत्कृष्ट है जैसे चक्की चलाते हुए, बच्ची का बाल बनाते हुए, धान साफ करते हुए इत्यादि।
रेग डाल निर्माण प्रविधि- निर्माण की प्रथम शृंखला में तार द्वारा प्रारंभिक ढांचा, बनाई जाने वाली गुड़िया के अनुरूप निर्मित किया जाता है इसके पश्चात बेकार कागज की कतरनों, कपड़ों के टुकडों से तार के स्ट्रक्चर पर लपेट कर इच्छित मॉडल बनाया जाता है। जिसे पतले सूती धागे द्वारा लपेट कर मजबूत किया जाता है। निर्मित मॉडल पर महीन लचीले कपड़े के पतले पतले पट्टियों से तनाव देकर सम्पूर्ण मॉडल को लपेटा जाता है। रेग डाल में शिल्पों की पत्येक उँगली को कपड़े के महीन पट्टियों को अत्यंत बारीकी से लपेट कर बनाया जाता है। रेग डाल में भी गुड़ियों के सिर के लिये स्टफ्ड डाल की तरह साचे में ढली आकृतियों का ही प्रयोग किया जाता है। इस तरह निर्मित शिल्पों में स्टफ्ड डाल की तुलना में लयात्मकता अधिक होती है।
1- तार के प्रारंभिक ढांचा निर्माण हेतु सर्वप्रथम 14 गेज तार के दो टुकड़े 16--16 इंच लम्बाई का ले।
2- लिये गये दोनों तारो में 6 इंच पर निशान लगाये और चित्र क्रमांक में दिखाए अनुसार क्रास कर रखें
3- अब दोंनों टुकड़ों को निशान लगे स्थान से प्लायर के माध्यम से लपेटना शुरू करें और लगभग तीन इंच तक लपेटे।
4- अब 6 इंच वाले तार के छोर पर 4.25 इंच हाथ के लिये छोड़े और शेष भाग हथेली के लिये प्लायर
द्वारा लपेट कर रखे।
5-निचले तार में पैरो के लिये 5.75 इंच छोडकर शेष को पैरो के पंजे के लिये लपेट कर रखें
6-अब 16 गेज वाले तार का एक टुकड़ा 5 इंच लम्बा लें।
7- अब इस तार को बीच से मोड़ कर अब तक तैयार सांचे के दोनों हाथो के मध्य सिर के लिये मोडकर रखे। इस तरह 10 से 12 इंच लम्बा सांचा तैयार हो जायेगा।
अब शुरू होता है इस तैयार सांचे पर कागज की कतरन बाँध कर इच्छित गुड़िया का आकार देना।
8-सबसे पहले गुड़िया को भाव भंगिमा के अनुरूप तार को मोड़ना जैसे यदि नृत्य मुद्रा में बनाना है तो हाथो के उसी के अनुरूप मोड़ना।
9-अब तैयार तार के सांचे में कागज की कतरनों को सूती धागों की सहायता से बाँध कर गुड़िया के शरीर का उचित आकार देवें। इस तैयार मॉडल का कंधा यदि स्त्री का तो 2;75 इंच, छाती की गोलाई 4;5 इंच और पुरूष के लिये छाती 4;75 इंच होनी चाहिए।
10-कमर 2 इंच चौड़ी और गोलाई 4;5 स्त्री के लिये और पुरूष के लिये 5 इंच गोलाई रखें।
11- नितंब की गोलाई पुरूष के लिये 6 इंच और स्त्री के लिये 6;5 इंच रखे।
(तार पर कतरन लपेटे हुए एवं तार पर शरीर के मध्य भाग पर पुरानी सूती कपड़ा लपेटे हुए)
12- हाथ के पंजे बनाना:- हाथ की उंगलियों के लिये 24 गेज तार का 16 इंच लम्बा एक तार का टुकड़ा लें अब इस तार के टुकड़े को बीचों बीच मोडें और प्लायर की मदद से एक इंच तक ऐठन लगावे यह मध्यमा उँगली बनेगी
13- अब इस उँगली के दोनो और दो उँगली के लिये एक एक इंच लम्बा ऐठन लगाकर उँगली और अंगूठे तैयार करे
14- अब इसी तरह पैरों के पंजे बनाने के लिये 24 गेज तार का 17 इंच लम्बा तार ले और तार के एक किनारे से 4 इंच लम्बा से मोड़े और 1;1 इंच लम्बी उँगली प्लायर की मदद से ऐठन दे कर बनाये और उसके साथ ही हाथ की उंगलियों की तरह 1;1 इंच लम्बी अन्य उंगलियां तैयार करें । इसी तरह हाथ और पैर के दूसरे सांचे भी तैयार कर लें।
15- तैयार हाथ और पैर के पंजों में अब कपड़ा लगाने के लिये अस्तर व जार्जेट का कपड़ा लगभग 1;4 मीटर ले, प्रत्येक उँगली के लिये कपड़े चौड़ाई आधा इंच और लम्बाई 10 इंच ले और चित्र में दिखाये अनुसार पहले अस्तर का एक स्तर फिर जार्जेट का स्तर लपेटे । रंग का चयन गुड़िया के शरीर के रंग के अनुरूप लें। इसी तरह पैरों की उंगलियां भी तैयार करें।
15-अब इन हाथ और पैर के पंजों को कागज की कतरन बाँध कर तैयार सांचे के हाथ में सूती धागे से एवं कागज की कतरन से हथेली और पंजा तैयार करते हुए जोड़े।
16-पुरानी सूती साडी का एक इंच चौड़ा और 1;5 मीटर लम्बी पट्टी फाड़े और सांचे के एक सिरे से लपेटना शुरू करे जहां पहली पट्टी खतम हो वहां दूसरी पट्टी जोडकर लपेटे और इस प्रकार सम्पूर्ण शरीर को लपेट कर पूर्ण करें।
17-पुरूष शरीर में अब फेवीकाल ब्रश की सहायता से लगावे और उस शरीर के रंग के अनुरूप जार्जेट और लायनिग कपड़ा चिपकाये
18- स्त्री शरीर के लिये पहले ब्रेस्ट के लिये आकार तैयार कर उसे फेवीकाल से चिपकाये और फिर उस पर जार्जेट का कपड़ा चिपकायें।
19- अब चेहरा तैयार करने के लिये सबसे पहले तैयार चेहरे का मोल्ड ले उस पर ब्रश की सहायता से फेवीकाल लगाये और जार्जेट का 3इंच चौडा और 3 इंच लम्बा कपड़ा ले कर हल्के से तान कर चेहरे पर चिपकायें। चिपकाते समय होठ नाक और आंखों के उभार के पास सफाई से हाथ से दबा कर चिपकाये जिससे उनके उभार स्पष्ट दिखाई दे।
20- अब 000 ब्रश ले कर काले पोस्टर रंग से आँख व पुतली बनावे सफेद रंग से आँख के अंदर रंग लगा आँख का आकार देवे फिर लाल रंग से ओंठ बनावे ।
21- चेहरा पूरा करने के बाद अब सिर का पिछला भाग बनाने के लिये पीछे के खाली भाग पर रूई भर कर गोल आकार देकर कर सिर का पिछला गोल हिस्सा बनावे। अब जार्जेट को खीच कर पीछे सूती धागे की मदद से सिल दे । अब बालों वाले स्थान पर काला कपड़ा लगा कर सुई की मदद से सिलें ।
22-काले कपड़े का एक इंच लम्बा और .2 इंच चौडा टुकडा ले उस पर नायलान के बाल के बाल के 4इंच लम्बे बाल को काले कपड़े के बीचोंबीच फेवीकाल की मदद से चिपका दे अब इसे सिर के बीचों बीच दो टांके लगाकर फिट करें और टूथ ब्रश की सहायता से उसे अच्छी तरह संवार दें।
23-इस तैयार सिर को धड़ पर सिर के लिये निकाले गये 2;5 इंच के तार पर लगा कर सिर के निचले सिरे पर फेवीकाल लगाकर चिपका दें
24-अब प्रांतीय वेशभूषानुसार उन्हें कपड़ों से सजाकर गुड़िया को आकार देवे एवं उसी के अनुरूप आभूषणों से उनका शृंगार कर उन्हें आकर्षण रूप दे।
25- अब पेडेस्टल के लिये 3इंच चौडी 3इंच लम्बी और एक इंच उची लकड़ी का टुकड़ा ले। अब इस लकड़ी के टुकड़े के बीचों बीच एक इंच के अंतर पर दो छेद करें और तैयार गुड़िया को इस पर लगाने के लिये उसके पंजों के नीचे ब्रश की सहायता से फेवीकाल लगाकर उस पर निकले तारों को उन छेदों में फंसाकर प्लायर की मदद से तार मोड कर फिट करें। इस प्रकार गुड़िया तैयार हो जायेगी।
गुड़िया निर्माण आवश्यक सामग्री
इन आदिवासी गुड़िया कला में जिले में ही उपलब्ध प्राकृतिक साधनों का प्रयोग किया जाता है। जिसमें बांस के टुकड़े, छीलन, रूई, कपड़ा, लोहे के तार, धागा, मिट्टी और प्राकृतिक रंग अथवा आधुनिक रंग इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। स्टफ्ड डॉल निर्माण हेतु कपडों के हाथ पैर और शरीर का मध्य भाग बनाने हेतु विभिन्न नापों के लोहे के अथवा लकड़ी के फर्मा का प्रयोग किया जाता है। चित्र क्रमांक--। इसके साथ ही गुड़िया के सिर भाग के लिये मिट्टी अथवा प्लास्टर आफ पेरिस के मोल्ड का प्रयोग किया जाता है चित्र क्रमांक-- । रेग डॉल निर्माण हेतु आवश्यक सामग्री
लोहे के विभिन्न आकारों के तार- 14, 16 एवं 24 गेज के तार
अनुपयोगी कागज, कपड़े के बारीक कतरन,
जार्जेट के कपड़े,
सूती धागा
प्रिंटेड कपड़ा लहंगे इत्यादि के लिये
ब्लाउज के लिये कपड़ा
ओढणी का कपड़ा
काला सूती कपड़ा
फेविकाल
पोस्टर रंग: काला सफेद और लाल
पेपरमैशी से निर्मित चेहरा
नायलान के बाल
निर्मित गुड़िया को आधार प्रदान करने के लिये लकड़ी के आधार (स्टैण्ड)
आटा , नीलाथोथा, और पानी
दीवार पर टांगने के लिये लकड़ी व कांच से निर्मित फ्रेम
इन शिल्पों के सौन्दर्य वृद्धि हेतु (गिलट) चाँदी के पर्याय स्वरूप सफेद धातु के आभूषण
इसके साथ ही औजार लोहे अथवा लकड़ी के शिल्पी द्वारा स्वयं बनाये जाते हैं:--
इस हेतु हथौड़ी, प्लायर, कैची, ड्रिल मशीन, इंच टेप, पेंसिल, ब्रश पुराना टूथब्रश, सिलाई मशीन
गुड़ियाकला शिल्प विवरण एवं कलात्मक विशेषताएं
-रूपाकार
गुड़ियों के इस अनोखे संसार में सभी प्रांतीय रूपाकारों का मिश्रण है। जैसा कि पूर्व में भी इस तथ्य पर चर्चा की गई है कि इसका निर्माण मूलत: आदिवासियों को रोजगार उपलब्ध करवाने और संस्कृति के संरक्षण हेतु किया गया है। हम इस बात से भी अनजाने नहीं है कि किसी भी कला पर वहां की संस्कृति, परिवेश और परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है अंत: कला के प्रारंभ में आदिवासी महिला और पुरूष का निर्माण स्थानीय वेशभूषा, आभूषणों, अस्त्र-शस्त्रों, और स्थानीय बर्तनों के साथ हुआ जो वक्त के साथ तकनीक की परिपक्वता के साथ साथ अन्य प्रांतीय वेशभूषा और रूपाकारों में निर्माण किया जाने लगा। आज जो काफ्ट मेलों में हमें विभिन्न प्रांतों के सांस्कृतिक वेशभूषा में गुड़ियों का प्रदर्शन देखा जा रहा है इसी का परिष्कृत और विकसित स्वरूप है।
वर्तमान में बनाये जाने वाले गुड़िया के स्वरूपों में प्रमुखता तो आदिवासी युगल, आदिवासी महिला विभिन्न कार्यरत स्वरूपों में, आदिवासी पुरूष शस्त्र अथवा वाद्ययंत्र पकड़े हुए प्रमुख है। इसके अतिरिक्त सामाजिक कार्य अथवा गृहकार्य करते हुए बनाये जाने लगे है। अन्य प्रांतीय वेशभूषा वाली गुड़ियों में काश्मीरी, महाराष्ट्र की गुड़िया, केरल प्रांत की वेशभूषा वाली, मणिपुरी गुड़िया, राजस्थानी दुल्हन, केरल प्रांत की गुड़िया, विशेषकर दुल्हन की वेशभूषा वाली प्रमुख रूप से बनाई जाती हैं। कुछ प्रशिक्षित शिल्पियों में जो उंगलियों में गिने जाने वाले है इसके अतिरिक्त अन्य प्रांतीय वेशभूषा में भी गुड़ियों का निर्माण करते हैं। आकार गुड़िया घर में निर्मित गुड़ियों में उपर्यक्त गुड़ियों के अतिरिक्त उत्तरप्रदेश, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, गढ़वाल, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम, पंजाब, हरियाणा, कुमाउ, पश्चिम बंगाल, नागालैण्ड, अरूणाचल प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, गुजरात, आंध्रप्रदेश, नागाजनजाति, की गुड़िये भी बनाई गई है।
सामान्यतया गुड़िया कला के अन्तर्गत हमने सौन्दर्यात्मक पहलू को दर्शाती विभिन्न प्रांतीय वेशभूषा में निर्मित रूपाकारों का प्रचलित स्वरूप देखा। इसके अतिरिक्त इसके आधुनिक व्यावसायिक संदर्भो में वाल हैंगिग के रूप में परिवर्तित स्वरूपों में गणेश, चिडि़या, और गुड़ियों के छोटे छोटे आकार हैंगिग झालर के रूप में सजावटी उपयोग की दृष्टि से बनाये जाने लगे है। पेंसिल के पीछे लगाने के लिये गुड्डे के सिर या परी के वेश में छोटी गुड़िया अथवा की रिंग में छोटी छोटी गुड़िया का प्रयोग किया जाने लगा है।
(हैगिग गणेश) (हैगिग गुड़िया) पेपरवेट(आदिवासी दुल्हन,दूल्हा)
इसके अतिरिक्त पेपर वेट के रूप आदिवासी दुल्हा और दुल्हन का सिर पूरी सजावट के साथ बनाया जाता है। इस तरह के प्रयोग बड़े शहरों के सम्पर्क में रहने वाले शिल्पी ही करते हैं। छोटी गुड़िया स्टैण्ड के साथ भी पेपर वेट के रूप में खूबसूरत बन पडा है। लैम्पशेड में लटकते चिडिया या अन्य रूपाकार भी अपने आप में अनोखा प्रयोग है। दीवार पर टांगे जाने योग्य फ्रेम जिसमें आदिवासी युगल और उनके शस्त्र(लोहे एवं लकडी, बांस से निर्मित)का संयोजन भी नया प्रयोग है। अब तो आधुनिक उपकरणों जैसे मोबाइल कवर में भी छोटी गुड़िया का बेहतरीन प्रयोग आमजन को आकर्षित करता है।
सौन्दर्यपरक, सजावटी एवं उपयोगी शिल्पों के अतिरिक्त इस विधा के सिद्धहस्त शिल्पियों ने शिक्षाप्रद शिल्पों में भी सफल प्रयोग किये है। जैसे चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन हेतु मॉडल निर्माण करना। छोटे किंडरगार्डन के बच्चों को नैतिक शिक्षा हेतु मॉडल निर्माण इत्यादि। जैसा कि
चिकित्सा विभाग के विद्यार्थियों के लिये मेडिकल से संबंधित चलित मॉडल शिल्पों का निर्माण। चिकित्सा हेतु ऐनाटामी अध्ययन के लिये शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण किया । साथ ही प्रेगनेन्सी सीरीज के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्रक्रिया के प्रायोगिक प्रदर्शन के लिये विभिन्न संबंधित अंगों का निर्माण किया जिससे शिशु जन्म का प्रायोगिक अध्ययन जीवंत विधि से किया जाना आसान हो गया । इतना ही नहीं गुड़ियाकला के नवीन प्रयोगों के अन्तर्गत प्रायमरी शिक्षा के क्षेत्र में भी अभिनव प्रयोग किया। जिसके अन्तर्गत छोटे छोटे बच्चों की दिनचर्या की अनिवार्य एवं प्राथमिक आवश्यकताओं की शिक्षा दी जाने वाली क्रियाकलापों की शिक्षा हेतु गुड़िया का निर्माण किया जैसे शरीरिक साफ सफाई, नहलाना, कपड़े पहनाना, बाल बनाना, इत्यादि। ऐसी गुड़िया के लिये इस प्रकार की साम्रग्री का प्रयोग किया गया जो पानी में खराब नहीं होता। ऐतिहासिक विषयों जैसे देवी अहिल्या से संबंधित 25 प्रसंगों को भी 234 पात्रों का निर्माण कर निर्मित किया जो मल्हारी मार्तण्ड मंदिर संग्रहालय इंदौर में संग्रहीत है। जिनमें सभी पात्रों को मराठी वेशभूषा और अलंकरण से सुसज्जित निर्मित किया गया है इन शिल्प समूहों में सैन्य प्रशिक्षण, शस्त्र-विद्या, विवाह प्रस्ताव, प्रजा के सुख दुःख में सहभागिता, न्याय शीलता, जनकल्याण, उद्योग, पर्यावरण इत्यादि विषयों का अंकन दिखाई देता है।
-वेशभूषा
गडि़या शिल्प में यहां की विशिष्ट जनजातीय वेशभूषा का प्रयोग परम्परागत तरीके से किया जाता है। जिसमें स्त्री आकृति को घाघरा चोली और ओढ़नी पहनाया जाता है और पुरूष आकृति को धोती, शर्ट और पगड़ी पहनायी जाती है। प्रधानत: स्त्री को सिर पर टोकरी रखी जाती है और पुरूष आकृति को हाथ या कंधे पर कुल्हाड़ी या स्थानीय वाद्ययंत्र पकडे़ या बजाते हुए बनाया जाता है। जिनमें भील-भिलाला की युगल आकृति या एकल आकृति प्रमुख होती है लेकिन अब इन शिल्पों की वेशभूषा में राष्ट्रीय भावना से देश की अन्य जातिविशेष की वेशभूषा में भी बनाया जाने लगा है जैसे राजस्थानी, क्रिश्चियन, पंजाबी, कश्मीरी, मणिपुरी इत्यादि क्षेत्रीय दुल्हनों का स्वरूप दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त कृष्ण एवं राधा की वेशभूषा वाले शिल्पों ने भी प्रशंसा बटोरी है। ऐतिहासिक प्रंसगों वाले शिल्पों की वेशभूषा में तात्कालिक वेशभूषा का प्रयोग ही किया गया है जिससे घटनाओं का सार्थक अर्थ दिया जा सके ।
रंग चयन
पारम्परिक शिल्पों के रंग चयन में सबसे महत्वपूर्ण उनकी वेशभूषा है जिसे वे झाबुआ क्षेत्र में प्रचलित रंगों का प्रयोग करते हैं। या हम यह भी कह सकते हैं कि शिल्पी उन्हीं कपड़ों के टुकड़ों का प्रयोग शिल्प की वेशभूषा में करते हैं। इस तरह के वस्त्रों के रंगों में लाल,पीला, नीला, गुलाबी, जैसे चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। शिल्प के अंग प्रत्यंगों के रंग हेतु गहरे भूरे या हल्के भूरे रंग मुख्य होते हैं। आंखों, भौंहों और ओठ के लिये काले सफेद और लाल रंग का प्रयोग अधिकतर शिल्पीयों द्वारा किया जाता है। कभी कभी गहरे हरे रंग का प्रयोग ढोडी पर गोदना का प्रभाव देने के लिये किया जाता है। शस्त्रों एवं औजारों के लिये प्राकृतिक रंगों के ही वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। जैसे लोहे से बने हंसिया, टंगिया, तीर इत्यादि एवं धनुष के लिये बांस, टोकरी बांस की ही बारीक सीकों, ढोलक के लिये लकड़ी के टुकड़े का प्रयोग कर उनके मूल प्राकृतिक रंगों में ही प्रयुक्त किया जाता है। इन गुड़िया शिल्पों में या तो युगल आकृतियां अथवा एकल शिल्पों के विभिन्न रूपाकारों का निर्माण प्राय: किया जाता है। अत: स्त्री आकृति को चटक रंग एवं पुरूष आकृति को सफेद धोती और गहरे या चटक रंग की शर्ट और रंगीन या सफेद पगड़ी का चयन किया जाता है। आदिवासी युगल के अतिरिक्त निर्मित शिल्पों में अन्य स्थानीय सांस्कृतिक परिवेश, परम्परा और संस्कृति के अनुरूप रंग चयन किया जाता है जैसे क्रिश्चियन दुल्हन के लिये सफेद रंग, राजस्थानी दुल्हन के लिये लाल,पीले रंगों या चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। ऐतिहासिक एवं विभिन्न सांस्कृतिक नृत्यों इत्यादि में स्थानीय सांस्कृतिक परिधानों का प्रयोग कर वास्तविकता की अभिव्यक्ति की गई है।
-आभूषण
शिल्प निर्माण में अलंकरण अपना विशेष महत्व रखता है। जिसके बिना शिल्प की पूर्णता की कल्पना करना बेमानी होगा। सामान्यत: भील स्त्री पुरूष विविध प्रकार के गहने पहनते हैं। ये गहरे कथीर , चाँदी और कांसे के बने होते हैं। जिनमें से भी कथीर का प्रचलन सर्वाधिक है।
आज के वर्तमान संदर्भो में जहां पारम्परिक आदिवासी आभूषणों को आधुनिक समाज ने फैशन के नये आयामों के रूप में स्वीकार कर लिया है तो आदिवासी शिल्पों में उसका महत्व और अधिक हो जाता है। आदिवासी संस्कृति के अनुरूप कमर में काले रंग का मोटा घागा(बेल्ट नुमा) पहनाए जाते हैं। स्त्री के पैरों में कड़ला, बाकडिया, रमजोल, लंगरलौड, नांगर, तोडा, पावलिया, एवं पैरो की अंगुलियों में बिछिया जो कि भीली महिलाओं के सौभाग्य के प्रतीक आभूषण होते हैं, धारण करती है। गले में तागली, हंसली या गलसन (मोतियों की माला), जबरबंद (पैसों की माला), कानों में बालियां, टोकडी, मोरफैले, झांझऱया(एक गोल रिंग में गोल गोल कथीर के छल्ले), हाथ में बाहरिया, हठका, करोंदी, कावल्या (कांच की चूडिया),हाथसांकरी, भुजा में बास्टया(बाजूबंद), हठके, हाथ की अंगुलियों में मुंदडी, सिर पर बोर राखडी (, छिवरा, झेला(चाँदी की लडियों वाला सांकल),बस्का (चाँदी या कथीर के चिमट) आदि पहने जाते हैं। इसी तरह पुरूषों के हाथों में बौहरिया,कमर में कंदोरा, कानों में मोरखी, गले में तागली पहनाई जाती है।पुरूष कानों में मूंदड़े, टोटवा, गले में बनजारी या सांकल, हाथ में नारह-मुखी(चाँदी के कड़े), भुजा में हठके तथा पाँव में बेडी पहनते हैं। और यथा संभव गुड़िया निर्माण में उपलब्ध संसाधनों द्वारा उपर्युक्त आभूषणों का निर्माण कर शिल्प की सजावट की जाती है। पुरूषों को अस्त्र पकड़े हुए या हाथ में तीर कमान दिया जाता है जो हरिया या कामठी भी कहलाता है। यह आदिवासीयों के सुरक्षा कवच का प्रतीक है, अथवा वाद्ययंत्र पकड़े या बजाते हुए बनाया जाता है
अस्त्र शस्त्र एवं दैनिक उपयोग के औजार
भील सदैव अपने साथ धनुष बाण रखते हैं। धनुषबाण भीलों की प्रमुख पहचान है ये अंधेरे में भी तीर का निशाना लगाने में माहिर होते हैं। यही कारण है कि शिल्प निर्माण में भील पुरूषों को तीर कमान धारी बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त फालिया या धारिया भी लोहे का बड़ा धारदार दरातीनुमा हथियार है। भील पगडी पर गोफन बांधते हैं गोफन चमड़े या रस्सी की गुंथी हुई एक चौडी पट़टी होती है उसके दोंनों सिरों पर रस्सी रहती है जिसमें पत्थर बाँध कर निशाना लगाते हैं। इसके अतिरिक्त कुल्हाडी तलवार लटठ, फरसा भी भीलों का हथियार है। जिसे शिल्प के सजावट हेतु प्रयुक्त किया जाता है। शिल्प के नवीन प्रयोगों के अन्तर्गत वर्तमान समय में शिल्प के फ्रेम के साथ हथियारों को भी सम्मिलित किया जाता है जिससे आदिवासी भीला संस्कृति का परिचय भी आमजन को हो जाता है साथ शिल्प आकर्षक भी लगता है।
गुड़ियाकला के प्रमुख केन्द्र
झाबुआ क्षेत्र में गुड़िया कला ने अब व्यवसायिक स्वरूप ग्रहण कर लिया है न केवल प्रदेश में बल्कि देश में और देश से बाहर भी अपनी ख्याति अर्जित कर रहा है। झाबुआ क्षेत्र के कलाकारों को फैशन तकनीक महाविद्यालय भी प्रदर्शन हेतु आमंत्रित करने लगे है। बावजूद इसके झाबुआ जिले में गुड़ियाकला के शिल्पकारों में सीमितता नजर आती है। सम्पूर्ण जिले में मात्र कुछ एक ग्रामों में ही इसके उत्सुक शिल्पकार मिलतें है। अन्यथा शेष खेती अथवा अन्य व्यवसाय ही करना ज्यादा पसंद करते हैं। सर्वेक्षण के दौरान थांदला, मेघनगर, अनुपपूर, झाबुआ क्षेत्रों के आसपास के ग्रामों की महिलाओं में ही यह रूचि दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त झाबुआ क्षेत्र के ऐसे शिल्पी जो सरकारी नौकरी के कारण झाबुआ से बाहर निवास कर रहे है उनमें रतलाम इन्दौर और उज्जैन एवं आसपास के क्षे्त्रों में रह रहे है। वे स्थानीय सुविधा और मांग के अनुरूप इस विधा से जुड़े हुए है। जो संख्या की दृष्टि से नाममात्र है,लेकिन अवसर मिलने पर इससे जुडने और इसे न केवल प्रदेश स्तर बल्कि देश में इसकी पहचान कायम करने के लिये लालायित है। झाबुआ का शक्ति एम्पोरियम स्वयं में एक विकसित केन्द्र है जो पिछले अनेक वर्षो से इस कलाकर्म से सक्रियता से जुडा हुआ है यह न केवल गुड़िया निर्माण में बल्कि आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण भी प्रदान कर उन्हें स्वावलंबी बनाने के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य कर रहा है। आज भी शक्ति कला एम्पोरियम में 10 महिला कार्यकर्ता है जो एम्पोरियम के लिये सक्रिय भागीदारी कर रही है। रतलाम एवं उज्जैन में भी झाबुआ के ही एक दो आदिवासी परिवार गुंडिया व्यवसाय कर रहे है एवं प्रशिक्षण कार्य इसमें रूचि रखने वाले युवाओं को प्रदान करते हैं लेकिन अनुपात में यह कम प्रचलन में हैं।
स्थानीय सरकारी संस्थाओं उद्योग विभाग और पंचायत के सहयोग से अनेक स्वयंसहायता समूह बनाये गये है जो इस कलाकार्य में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं जो अपने आप में अब प्रशिक्षण संस्था और रोजगार के केन्द्र के रूप में मुख्य भूमिका अदा करने लगे है उनमें सूरज स्वयं सहायता समूह, निर्मला स्वयं सहायता समूह, सांवरिया स्वयं सहायता समूह, आदिवासी एम्पोरियम(अध्यक्ष बद्दूबाई 60 वर्ष सचिव राजूबाई), शक्ति एम्पोरियम प्रमुख है। झाबुआ क्षेत्र की कला को भोपाल में मैडम कमला डफाल ने विकसित किया है वे केन्द्रिय जेल में आदिवासी महिला बंदियों को गुड़िया कला का प्रशिक्षण कई वर्षो तक प्रदान करती रही है आज भी इस गुड़िया कला से सक्रियता से जुड कर अर्न्तराष्ट्रीय पहचान बना रही है। और उसी का परिणाम आकार गुड़िया घर भोपाल है। यूं तो प्रशिक्षित आदिवासी महिलाओं की संख्या अधिक लेकिन सक्रिय रूप से शिल्प निर्माण में कार्यरत समूहों में सिर्फ चार पाँच समूह ही है जो निरन्तर शिल्प निर्माण, प्रशिक्षण कार्यक्रम, हस्तशिल्प मेलों इत्यादि में भागीदारी कर रहीं है।
आकार गुड़िया घर कला को संरक्षण प्रदान करने वाली ऐसी संस्था है जहां जो सिर्फ भोपाल का ही नहीं वरन् पूरे मध्यप्रदेश का गौरवपूर्ण कला मण्डप है। जो केवल गुड़ियों का संग्रह नहीं बल्कि अनेक प्रांतों की सभ्यता और संस्कृति का एक मंदिर भी है। यहां अनेक प्रांतों की वेशभूषा, रहन-सहन, परम्पराओं और कलाओं के वैभव के दर्शन कराता है। साथ ही यह भी बताता है कि गुड़ियाएं बनाने की कला हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और यह भी कि हमारी कला संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान गुड़िया बनाने की कला का भी है। यह गुड़िया घर इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि यहां निर्मित सभी गुडि़यां महिला आदिवासी बंदियों द्वारा निर्मित हैं। आदिवासी महिला बंदियों के लिये यह योजना वरदान साबित हुई
आकार गुड़ियाघर का लोकार्पण 30 जुलाई 1996 को हुआ तथा इसका अवलोकन डॉ.शंकरदयाल शर्मा के द्वारा 4 अगस्त 1996 को किया गया। यहां महिला कैदियों द्वारा निर्मित विभिन्न प्रांतीय वेशभूषा में निर्मित लगभग 1000 से भी अधिक छोटी बडी गुडि़यां के माध्यम से भारत के विभिन्न जनजातियां और अन्य संस्कृतियां दर्शाने के उद्देश्य से 34 जनजातिय नृत्यों की झांकियां तैयार की गई हैं। कालांतर में इन महिला बंदियों के आर्थिक विकास की दृष्टि से संग्रहालय परिसर में ही गुड़िया विक्रय केन्द्र खोलने का विचार है। जिससे संभवत: सामाजिक उपेक्षा की शिकार ये महिलाएं अार्थिक रूप से सुदृढ़ हो जीवन के प्रति आशावान एवं विश्वस्त हो सकेंगी।
आकार गुड़ियाघर में रखी गुड़ियाओं को पूर्ण रूप प्रदान करने वाली महिला बंदी आदिवासी कलाकारों के लिये यह सोचने पर मजबूर करता है कि चाहे कोई आपराधिक प्रवृत्ति की हो लेकिन उसके अदंर एक कलाकार छुपा होता है। और हर कलाकार के अंदर संवेदनशीलता अवश्य होती है।
गुड़ियाकला के प्रमुख शिल्पी साक्षात्कार
शक्ति एम्पोरियम के शिल्पी
स्व. श्री उद्धव गिदवानी एवं सुभाष गिदवानी
उद्धव गिदवानी
सुभाष गिदवानी
स्व. श्री उद्धव गिदवानी शक्ति एम्पोरियम के संस्थापक हैं। इन्होंने 1989 से गुड़िया निर्माण के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। अब उनके सुपुत्र श्री सुभाष गिदवानी इस कार्य को सम्भाल रहे है उन्हें गुड़िया कला के उत्कृष्ट कार्यो के लिये मध्यप्रदेश सरकार से सम्मान भी प्राप्त हुआ है। इनके अनुसार गुड़िया निर्माण का कार्य झाबुआ में 1952-53 में झाबुआ के आदिवासी महिलाओं को रोजगार हेतु आदिम जाति कल्याण विभाग में ट्रेनिंग कम प्रवजन सेन्टर के अन्तर्गत सिखाया जाता था। आप उस समय उसी विभाग में लेखापाल के रूप में कार्यरत थे। उस समय राजस्थान एवं गुजरात में इनकी मांग अधिक थी। गुड़िया का प्रारंभिक स्वरूप आज से थोडा भिन्न था। लेकिन मांग अधिक शिल्पी कम होने की दिशा में श्री उद्धव के सुपुत्र ने पिता के सहयोग और प्रेरणा एवं तात्कालिक कलेक्टर श्री आर.एन. बैरावा के प्रोत्साहन से 1983 को विजयादशमी के दिन से शक्ति एम्पोरियम का निर्माण किया और तब से इस क्षेत्र में सक्रिय योगदान न केवल स्वयं के व्यवसाय हेतु बल्कि आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण दे कर स्वावलंबी बनाने की दिशा में सकारात्मक प्रयास कर रहे है। प्रारंभ में केवल चार गुड़िया शिल्पियों से आपने अपना एम्पोरियम शुरू किया और अब तक आपने लगभग 10 से 12 समूहों को प्रशिक्षण प्रदान किया है और लगभग 150 से 200 महिलाओं को प्रशिक्षित किया है। आपने 1989-90 में आदिवासी भगोरिया नृत्य को मूर्त रूप दिया था जिसे हस्त शिल्प विकास निगम द्वारा संस्कृति के अनुरूप निर्मित शिल्प के रूप में प्रोत्साहन मिला एवं राज्य सरकार ने इस शिल्प को पुरस्कार से सम्मानित किया। आपने अपने शिल्प राष्ट्रस्तरीय प्रतियोगिता हेतु भी तैयार किया है। श्री सुभाष गिदवानी ने 300 से ज्यादा प्रदर्शिनियों में भाग लिया है और देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों में अपने कार्य का प्रदर्शन कर चुके है जिनमें से मद्रास में इन्हें अधिक सराहा गया । सन् 2009 में आपने अपने पिता के सहयोग से झाबुआ कलेक्टोरेट परिसर के मुख्य द्वार पर लगभग 12 फुट उंची आदिवासी युगल की मूर्ति निर्मित कर स्थापित की है। आप के अनुसार आज सम्पूर्ण झाबुआ में 14 से 15 समूह इस कार्य में भागीदारी कर रहे है जिनमें से 4 से 5 समूह का ही योगदान नियमित है । परिवर्तन के संदर्भ में आपने कहा कि आज इनके आकार में वेशभूषा में एवं सजावटी अलंकरण हेतु निर्मित स्वरूप में परिवर्तन हुआ है पहले केवल आदिवासी युगल पारम्परिक वेशभूषा एवं पारंपरिक हथियार गोफन और तीर कमान ही बनाये जाते थे अब भारत की विभिन्न संस्कृतियों के पहनावे बनाये जाने लगे है जैसे राजस्थानी, मणिपुरी, गुजराती इत्यादि। साथ डेकोरेटिव रूपों में भी प्रयोग किये है जैसे टेबल लैम्प, चिमनी, वाल हैगिग, गणेश, पेनस्टैण्ड, तोरण, की रिंग इत्यादि।
शक्ति एम्पोरियम के अन्य कलाकार
इस संस्था में कार्यरत महिला शिल्पियों में राजूबाई रमेंश 45 वर्ष कसनपुरी झाबुआ लगभग 20 वर्षो से इस कार्य में है। 15 वर्ष की आयु में शक्ति एम्पोरियम से प्रशिक्षण प्राप्त कर यही कार्य में सक्रिय रूप से भागीदारी करने लगी, आपने झाबुआ क्षेत्र के पाराएवं बिजोरी ग्राम की महिलाओं को प्रशिक्षण दिया है। सन् 2008 में एन आई आई एफ टी कालेज दिल्ली और 2009 में भोपाल कालेज में प्रशिक्षण हेतु आमंत्रित की गई। लाली (अपंग) 40 वर्ष गोपालकालोनी झाबुआ, अग्नेष रामू 45 वर्ष मोजीपाडा झाबुआ, पांगली 36 वर्ष रंगपुरा झाबुआ की रहने वाली है इनके कार्यो की उत्कृष्टता इन्हें भी दिल्ली की फैशन कालेज तक ले गई । , सुनीता 40 वर्ष बसंत कालोनी, कुसुम बाई दिलीप 40 वर्ष उदयपुरा झाबुआ, शारदा बाई (विधवा) 50 वर्ष बसंती कालोनी , शांताबाई 60 वर्ष मोजीपाडा इत्यादि
श्रीमती कमला डफाल
श्रीमती डफाल एक वाक्य को आदर्श मानती है ‘’कुछ भी चीज बेकार नहीं होती उससे सुन्दर और विशेष मौलिक, सृजनशील कृति का निर्माण किया जा सकता है।’’
शिक्षा-एम.ए.- एनसियेन्ट इनडियन हिस्ट्री एण्ड कल्चर
पी एच. डी.- वूमन इन बौद्धिस्ठ कल्चर
पोस्ट डिप्लोमा-म्यूसियोलाजी एण्ड इन्डोलाजी
डिप्लोमा- डॉल मेकिंग इन जे.जे. स्कूल आफ आर्ट मुंबई
1971 में शासकीय महिला प्रशिक्षण केन्द्र से गुड़िया कला का एक वर्षीय डिप्लोमा लिया और रेगडाल निर्माण का कार्य शुरू किया। इन्होंने न केवल रेग डाल से पराम्परागत शिल्पों, सजावटी शिल्पों, उपयोगी शिल्पों का निर्माण किया बल्कि मेडिकल कालेज इंदौर की विभागाध्यक्ष डॉ सुधा श्रीवास्तव की प्रेरणा से शिक्षाप्रद डॉल निर्माण की और प्रेरित हुई और चिकित्सा विभाग के विद्यार्थियों के लिये मेडिकल से संबंधित शिल्पों का निर्माण प्रारंभ किया और चिकित्सा हेतु ऐनाटामी अध्ययन हेतु शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण किया । साथ ही प्रेगनेन्सी सीरीज के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्रक्रिया के प्रायोगिक प्रदर्शन के लिये विभिन्न संबंधित अंगों का निर्माण किया जिससे शिशु जन्म का प्रायोगिक अध्ययन जीवंत विधि से किया जाना आसान हो गया । इस हेतु आपने मेडिकल की पुस्तकों और उससे संबंधित छायाचित्रों का अध्ययन किया। इसी तरह अन्य चिकित्सा संबंधी अंगों का जीवंत स्वरूप का निर्माण चिकित्सा महाविद्यालय के लिये किया । इतना ही नहीं आपने गुड़ियाकला के नवीन प्रयोगों का सिलसिला जारी रखते हुए प्रायमरी शिक्षा के क्षेत्र में भी अभिनव प्रयोग किया। जिसके अन्तर्गत छोटे छोटे बच्चों की दिनचर्या की अनिवार्य एवं प्राथमिक आवश्यकताओं की शिक्षा दी जाने वाली क्रियाकलापों की शिक्षा हेतु गुड़िया का निर्माण किया जैसे शारीरिक साफ सफाई, नहलाना, कपड़े पहनाना, बाल बनाना, इत्यादि। ऐसी गुड़िया के लिये इस प्रकार की साम्रग्री का प्रयोग किया गया जो पानी में खराब नहीं होता। आपने देवी अहिल्या से संबंधित 25 प्रसंगों को भी 234 पात्रों का निर्माण कर निर्मित किया जो मल्हारी मार्तण्ड मंदिर संग्रहालय इंदौर में संग्रहीत है। जिनमें सभी पात्रों को मराठी वेशभूषा और अलंकरण से सुसज्जित निर्मित किया गया है इन शिल्प समूहों में सैन्य प्रशिक्षण, शस्त्र-विद्या, विवाह प्रस्ताव, प्रजा के सुख दुःख में सहभागिता, न्याय शीलता, जनकल्याण, उद्योग, पर्यावरण इत्यादि विषयों का अंकन दिखाई देता है।
आपने अपने साक्षात्कार में बताया कि रेग डाल बनाते समय प्रारंभिक सांचे में कपड़ा चिपकाने के लिये आधुनिक चिपकाने वाले पदार्थ का प्रयोग न कर इमली के बीच से निर्मित गोंद का प्रयोग करती है। क्योंकि आधुनिक चिपकाने वाले पदार्थ सूखने पर कपड़े पर दाग छोड़ देते हैं। साथ ही नमी वाले मौसम में शिल्प में फंगस लग जाता है जिससे शिल्प में दाग पड़ जाता है। इमली के बीज के आटे की लेई से एक लाभ यह भी होता है कि शिल्प में अनुपयोगी कतरनों को लपेटकर सांचा बनाते समय जो खुरदुरापन आ जाता है इसे लगाने पर चिकनी सतह तैयार हो जाती है जिससे कपड़े लपेटने पर सफाई अधिक दिखाई देती है
कपड़े के शिल्प के प्रारंभ संबंधी प्रश्न पर आप अनभिज्ञता जताते हुए आपने कहा कि प्रारंभ में बच्चों के मनोरंजन हेतु वर्तमान में उपलब्ध गुड़िया नहीं होती थी अंत: घर पर कपड़े से निर्मित गुड़ियों का प्रचलन था। प्राय: नानी या दादी गुड़िया बनाने के लिये कपड़े को लपेट कर शरीर और हाथ पैर बनाया करती थी सिर के लिये कपड़े का गोल गोला सिलकर कर लगाती थीं और उस पर नाक नक्श काले और लाल रंग के धागों से बनाती थी । मैने भी अपनी नानी से ऐसी ही गुड़िया बनाना सीखी थी । और तब से ही गुड़िया निर्माण की एक इच्छा मन में थी और अवसर का लाभ उठाते हुए र्मैने इसे अपनी आजीविका का साधन बना लिया और आज मैं इस कार्य को कर आनंद का अनुभव करती हूं।
आप न केवल स्वयं इस कार्य निरंतर कार्यरत है बल्कि आपने अनेक महिलाओं को शिल्प निर्माण का प्रशिक्षण भी दिया है। भोपाल केन्द्रीय जेल में भी आपने अनेक महिला कैदियों को इसका प्रशिक्षण दे उन्हें स्वावलंबी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन महिला कैदियों द्वारा निर्मित मूर्तियों को आकार गुड़िया घर में संग्रहीत भी किया गया है जो उनकी मेहनत और लगन का प्रतिबिम्ब है। इसका उदघाटन भूतपूर्व राष्ट्रपति स्व. श्री शंकरदयाल शर्मा द्वारा किया गया था।
निर्मला स्व सहायता समूह के शिल्पी –
निर्मला मानसिह परमार 40 वर्ष आदिवासी पटलिया
श्रीमती निर्मला परमार आज के वर्तमान समय में झाबुआ में गुड़िया कला के क्षेत्र में सक्रिय रूप भागीदारी रखती हैं। आपने आठवी तक शिक्षा प्राप्त की है। इन्होने पिछले लगभग 23 वर्षो से इस कार्य में निरन्तर कार्यरत है। आपने 18 वर्ष की आयु में गुड़िया कला का प्रशिक्षण उद्योग विभाग द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविर झाबुआ में प्राप्त किया था। और अब आप आदिवासी महिलाओं को स्वरोजगार योजना हेतु गुड़िया कला का प्रशिक्षण प्रदान करती हैं। आपने पिछले दस वर्षो से विभिन्न प्रदेशों में शासन द्वारा आयोजित हस्तशिल्प प्रदर्शिनियों में शिरकत कर चुकीं हैं। झाबुआ क्षेत्र में कार्यरत गुड़िया शिल्पियों में आप उत्कृष्ट गुड़िया निर्माण के लिये जानी जाती हैं। आपके द्वारा निर्मित गुडि़यां न केवल राज्य में बल्कि देश में भी अपनी पहचान रखती हैं। आप पारम्परिक भील भिलाला के अतिरिक्त क्रिश्चियन, राधा-कृष्ण, राजस्थानी, मणिपुरी, गणेश, इत्यादि रूपों में भी गुड़िया निर्मित किया है। इसके अतिरिक्त तोरण, चिडि़या, की रिंग, पेंसिल बैक इत्यादि आधुनिक अलंकरण और उपयोगी वस्तुओं में भी प्रयोग कर रहीं हैं। आप जितनी सहज है उतने ही सहजता, धैर्य और गंभीरता से आदिवासी महिलाओं को स्वरोगार हेतु प्रेरित करती है और उन्हें प्रशिक्षण प्रदान कर शासन द्वारा प्रदान की जाने वाले विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत उन्हें पंजीयन करवा कर स्वरोजगार के क्षेत्र में स्वावलंबी बनाने में निरन्तर प्रयासशील हैं। उनका यह कार्य आदिवासी क्षेत्र में कार्यरत लोगों के लिये प्रेरणा का विषय होगा।
पता- आवास कालोनी, मेघनगर, झाबुआ।
मंगली कोदर 80 वर्ष आदिवासी पटलिया
कहते हैं कला के लिये उम्र का कोई बंधन नहीं होता है। श्रीमती मंगली कोदर इसका उदाहरण है जब हम इनसे साक्षात्कार हेतु पहुचे ये अपने खेत पर कार्य कर रही थी। उनकी स्फूर्ति और गुड़िया निर्माण की लगन और अपने शिल्पों का प्रदर्शन करने का उत्साह के आगे उनकी उम्र को भी शर्म आने लगी थी। भील भिलाला का निर्माण आपकी पहली पसंद है। इस उम्र में भी आपके हाथों में सफाई देखते ही बनती है। आपने भी उद्योग विभाग द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविर में इस कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया और अपने खाली समय में मेघनगर में ही शिल्प निर्माण करती है। और निर्मला स्व सहायता समूह से जुडकर अपने शिल्पों का विक्रय कर अर्थ अर्जन कर अपने परिवार का सहयोग करती है।
संगीता, और काली-काठीबाड़ी-झाबुआ में गुड़िया निर्माण करती है। इनका मुख्य कार्य खेती में सहयोग करना है । लेकिन अपने खाली समय में ये गुड़िया बनाती हैं। महिला सशक्तीकरण की मुहिम के अन्तर्ग्रत सरकार ने बैकों के माध्यम से महिला स्वसहायता समूहों को बढावा दिया जिसके परिणाम स्वरूप आप जैसी अनेक ऐसी दलित और आदिवासी महिलाए जो कला में रूचि रखती थी जो दूरस्थ वनांचलों में निवास करती थी को शिल्प निर्माण हेतु प्रेरित किया गया। आज ऐसी महिलाए स्वम सहायता समूह का निर्माण कर स्वावलंबी बन अपने परिवार को आर्थिक सहयोग कर रही हैं।
समा रामला आदिवासी पटलिया, रत्नी फतह आदिवासी पटलिया, पुष्पा आदिवासी पटलिया थांदला के गुड़िया शिल्पी हैं । आपने अकादमिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की किन्तु शिल्प निर्माण में पारंगत है। शिल्प का 6 माह का प्रशिक्षण प्राप्त कर पिछले पाँच वर्षो से इस कार्य में निरंतर प्रयोग कर रहीं है।
नीरू घोटू- मेघनगर झाबुआ की रहने वाली है। शिल्प निर्माण की आपने भी प्रशिक्षण प्राप्त किया है और अब शिल्प निर्माण हेतु निर्मला समूह में अपनी भागीदारी कर रही हैं। गृह कार्य से समय निकाल कर
नीरू घोटू आदिवासी पटलिया
शिल्प निर्माण करना इन्हें पसंद है। शिल्प के अलंकरण हेतु आभूषण बनाने में पारंगत है।
रेखा महेश- मेघनगर झाबुआ की रहने वाली है । निर्मला स्वसहायता समूह में शिल्प निर्माण कर स्वयं का व्यवसाय कर रही है। साथ ही अन्य आदिवासी महिलाओं को भी इस कार्य हेतु प्रेरित करती है और शिल्प निर्माण हेतु प्रशिक्षण भी यथासंभव प्रदान करती है। इनका ध्येय आदिवासी महिलाओं को स्वावलंबी बनाना है।
रेखा महेश आदिवासी पटलिया
थांदला की रहने वाली है। गृहकार्य से जो समय बचता है उसमें गुड़िया निर्माण जैसे सृजनात्मक कार्य इनकी पहली पसंद है स्वयं शीक्षित नहीं है लेकिन अपने बच्चों को शीक्षित करना चाहती है। साथ आदिवासी महिलाओं को जागृत करने में सकारात्मक भूमिका भी निभाती है। गुड़िया के अतिरिक्त अनुपयोगी कपडो की कतरनों से पायदान निर्माण में भी सहयोग करती है। वर्तमान में निर्मला स्व सहायता समूह से जुडकर शिल्प निर्माण कार्य करती है।
श्रीमती रमिला, पति रायसन मावी यह थांदला की रहने वाली है स्कूली शिक्षा में 5वी तक ली है। जिला पंचायत द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त कर अब दैनिक कार्यो से समय निकाल कर गुड़िया निर्माण कर रही है। मूलत: कृषि कार्य प्रमुख है। साथ परिवार की मदद हेतु हाट में सब्जी बेचने का कार्य भी करती है। यह निर्मला स्वं सहायता समूह से जुडकर अपने शिल्पों का विक्रय कर अर्थ अर्जन कर परिवार की मदद करती है। रमीला भील भिलाला शिल्पों का निर्माण बडी कुशलता से करती है।
बेनी बाई
बालू सुकिया
धूल बाई
सेन बाई पति मिट्ठू मावी कभी स्कूल नहीं गई लेकिन कला के प्रति रूझान असीमित है आपने ने भी थांदला में निर्मला परमार शिल्प प्रशिक्षक से गुड़िया निर्माण का प्रशिक्षण प्राप्त किया और अब जिला पंचायत से अनुमति लेकर सांवरिया ग्रुप के नाम से अपना स्व सहायता समूह का रजिट्रेशन करवाया है जिसमें 10 महिलाओं को प्रशिक्षण देकर अब गुड़िया शिल्प निर्माण में सक्रिय भागीदारी कर रही है। बालू सुकिया, बेनी बाई, धूल बाई, खज्जू डामर, लीला मावी, सेताकला भूरिया, परीबदिया डामर इत्यादि महिलाए आपके साथ गुड़िया शिल्प निर्माण कर रही है। हालांकि अधिकांश महिला शिल्पी का मुख्य कार्य कृषि है अंत: कृषि कार्य से जो समय अतिरिक्त मिलता है उसमें गुड़िया निर्माण पूरे मनोयोग और लोक गीतो के साथ आनंद लेते हुए बनाती है। इस कार्य को ये केवल कार्य समझकर नहीं बल्कि जीवन में मनोरंजक का साधन भी समझती है। जिससे इन्हें कृषि संबंधी मेहनती कार्य के बाद मानसिक और शारीरिक आराम भी मिलता है और रचनात्मक कार्य भी हो जाता है।
खज्जू वालू डामर लीला पूरन मावी सेताकला भूरिया
मनीबाई मीठालाल
मेधनगर क्षेत्र की रहने वाली है। इनकी उम्र 70 से अधिक है लेकिन कुछ नया करने की जिज्ञासा मनीबाई की पहचान है। उम्र के इस पडाव में भी मनीबाई को चश्में की आवश्यकता नहीं पडती। और ये पूरी तन्मयता से शिल्प निर्माण में जुटी रहती है। निर्मित सांचे में रूई भरना, उन्हें सिलकर जोडना और उसको क्षेत्रीय पारम्परिक वेशभूषा के अनुरूप अलंकृत करने में रूचि रखती है।
नेहा हीरासिंग
संतोष हीरा
पुन्नी राम सिंग
परी बदिया डामर
गुडडी बाई मीराबाई बिलिडोज
गुड्डी बाई ग्राम बिलिडोज झाबुआ की रहने वाली है। सूरज स्व सहायता समूह से जुडकर शिल्प निर्माण कर रहीं है। आपने शक्ति एम्पोरियम झाबुआ से गुड़िया निर्माण का प्रशिक्षण प्राप्त की है। झाबुआ क्षेत्र में गुड़िया निर्माण की उत्कृष्टता की यदि बात की जाय तो निर्मला स्व सहायता समूह के बाद सूरज स्व सहायता समूह का ही नाम प्रसिद्ध है। जहां निर्मित शिल्पों में सफाई, बारीकिया और खूबसूरती का मेल है। आपके द्वारा निर्मित गुड़ियों का हस्तशिल्प मेलों में खूब मांग है। देश के अनेक स्थानों पर आयोजित हस्त शिल्प मेंलों में आपको आमंत्रित किया जाता है। आपके सूरज स्व सहायता समूह के अन्य गुड़िया शिल्पियों में मीराबाई, हकरीबाई, मानकी बाई, भूराबाई, अनिताबाई, पांगली, मैना(नूरा), मैना(राजू), और धापूबाई है जो इस गुंडिया निर्माण में निरंतर प्रगति कर रही हैं।
केन्द्रिय जेल भोपाल की महिला बंदी कलाकार-
आकार गुड़िया घर की परिकल्पना को साकार रूप प्रदान करने में सक्रिय योगदान देने वाली भोपाल केन्द्रीय जेल में सज़ा काट रही महिलाएं हैं जो कि हरिजन और आदिवासी है। जेल विभाग ने राज्य के विभिन्न कारावासों में आजन्म सज़ा काट रही उन महिलाओं को खोजा जो कला में रूचि रखती थी उनके लिये संसाधन जुटाए और मार्गदर्शन उपलब्ध करवाया गया और मुखर होकर स़ृजन करने हेतु प्रोत्साहित किया गया। सभी महिला बंदियों ने एक जुट होकर परिश्रम कर आकार गुड़िया घर में रखी चित्ताकर्षक, इन्द्रधनुषी, बहुरंगी परिधान, तथा विभिन्न प्रांतों एवं भाव भंगिमाओं वाली अनेक गुड़ियों का निर्माण किया। इन सभी गुड़ियाओं को पहनाये गये वस्त्र, आभूषण, एवं शस्त्र, वाद्ययंत्र, बर्तन भी इन्हीं बंदी महिला आदिवासीयों द्वारा ही बनाया गया है।
श्रीमती कुसुम उमेशसिंह
कुसुम श्याम पुर से आई है यहां आने के बाद पिछले दो साल से गुड़िया निर्माण कार्य में लगी है इनको मैडम कमला डफाल से इसकी प्रेरणा मिली। यहां वह अपने लड़के के साथ रहती है सज़ा पूरी हो जाने पर वह गुड़िया निर्माण कर अपना भरण-पोषण करना चाहती है।
-।।-गेंदा बिसाहू
गेंदा शहडोल की रहने वाली है। भोपाल आने से पूर्व शहडोल, जबलपुर, होशंगाबाद की जेल में थी। कला में रूचि के कारण इन्हें भोपाल लाया गया। गेंदा सभी तरह की गुड़िया बखूबी बना लेती है। गेदा का कहना है कि यहां से जाने के बाद वह इसे व्यवसाय के रूप में जारी रखना चाहेगी ।
-।।-नारायणी गोपीलाल
नारायणी राजगढ़ जिले से आई है दो साल से गुड़िया निर्माण का कार्य कर रही है ये यहां गुड़ियों के लिये कपड़े निर्माण का कार्य करती है। इसे गुड़िया निर्माण में भी निपुण है।
-।।-निर्मला मोजीराम
निर्मला बुरहानपुर की रहने वाली आदिवासी महिला है। ये कत्ल के अपराध में सज़ा काट रही है। पिछले दो वर्षो से गुड़िया निर्माण कर रही है ये बड़े उत्साह से निर्माण कार्य करती हैं। जेल से छूटने के बाद खेती और गुड़िया निर्माण दोंनों ही करना चाहती है। यहां से पूर्व खण्डवा जेल में थी जहां सफाई इत्यादि कार्य करती थीं ।
-।।-रब्बाना सिंकदर
रबाना सिंकदर बुरहानपुर के पास महौद गांव की रहने वाली है। यह पिछले तीन साल से भोपाल जेल में बंदी है। यह गुड़िया कला में निपुण है। यह कार्य वह बंदी बनने के पूर्व भी करती थी यहां आने के बाद उसके कार्य में परफेक्शन आ गया अब वह गुड़ियों के लिये गहने बनाती है।
-।।-ललिता ओंकार
ललिता शहडोल जिले की आदिवासी महिला है। जो यहां कत्ल के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा काट रही है यह दो सालों से गुड़िया निर्माण में निरंतर कार्य कर रही है। गुड़िया निर्माण की प्रेरणा यहां जेल में ही मिली। इन्हें गुड़िया बनाने का प्रशिक्षण श्रीमती कमला डफाल द्वारा दिया गया। यहां के जेल में आने से पहले शहडोल जेल में रहीं जहां सफाई कार्य करती थीं। ललिता सभी तरह की गुड़िया बना लेती है। गुड़िया निर्माण से आपको मानसिक शांति मिलती है साथ ही स्वावलंबी बनने का मौका भी यहां मिल रहा है।
-।।-शामवती सुखाली
शामवती छिंदवाड़ा की रहने वाली है। दो साल से गुड़िया कला का प्रशिक्षण ले रही है। उसे इस कार्य में रूचि बढ़ी है। उसने पूर्व में गुड़िया कला से अनभिज्ञ थी यहां आने के बाद ही प्रशिक्षण प्राप्त कर गुड़िया निर्माण करने लगी। यह सभी प्रांतों की गुड़ियां निर्माण में निपुण है।
इन महिला बंदी शिल्पियों के अतिरिक्त निम्न बंदियों का सहयोग भी रहा जिन्होने जेल में रहते हुए ऐसा कार्य किया जिसे आज भी सराहना प्राप्त है। इनमें से कितनों ने इसे आजीविका का साधन बनाया इस बारे में स्पष्ट संकेत नहीं मिल पाये । पुष्पा राजेन्द्र, पुष्पा कृष्ण बहादुर, प्रेमवती देवशर, फूलवती पूरन , भगवनिया डोमारीसिंह, मुन्ना कसेरी, रतिया कमलसिंह, शांति छोटे लाल, शिवकली जनार्दन, सरोता बिरसी, सरला शम्भू, सरस्वती लक्ष्मण, सावित्री मुन्ना, श्रेवती फूलसिंह, सुखवती नेरसू, कमला शिरधारी, मुल्की, मंगलू, सावित्री कुंदनलाल, सुखी फूलसिंह, शकुन्तला स्वामी, लक्ष्मी बलिराम, वैजयंती जुगलकिशोर, राजरानी खेमचंद, रूपकली बैरागी, रामबाई अलैया, गौरा जनकराम, जगदीश भैय्यालाल, केशर संतोषसिंह, मिरजा छोटेलाल, गुड्डी अशोक।
गुड़ियाकला का भारतीय कला में योगदान
ईश्वर की बनायी गयी इस प्रकृति में मानव एक ऐसा प्राणी है, जिसको ईश्वर ने सौंदर्य रूपी अवर्णनीय पुंजी दी है। और यह एक ऐसी पूंजी है जिसे वह स्वयं में पाता है। अथर्ववेद में लिखा भी गया है कि ‘’चाहे तुममे दस गुना सृजन शक्ति हो या चाहे एक ही गुना, अपनी क्षमता के अनुसार सृजन अवश्य करो। अन्यथा सृष्टि के लिये तुम्हारा कोई उपयोग नहीं। तुम्हारी क्षमताओं की सार्थकता तुम्हारे कृतित्व में ही है। कला मानव की इसी दिव्य सृजन प्रतिभा का परिणाम है।
झाबुआ के विभिन्न क्षेत्रों में निर्मित गुड़िया का संसार न केवल झाबुआ के भील भिलाला को बल्कि भारत के विभिन्न प्रांतों की सांस्कृतिक परम्पराओं को दर्शाने वाली गुड़ियाओं का विशाल भंडार है। आदिवासी हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने के लिये 1969 में राज्य सरकार द्वारा आदिवासी हस्तशिल्प एम्पोरियम की स्थापना की गई थी। जहां वर्ष भर अनुसूचित जाति और जनजाति के इच्छुक लोगों को गुड़िया शिल्पकला का प्रशिक्षण दिया जाता है। जिससे उन्हें स्वरोजगार प्राप्त हो सके साथ ही बेजोड़ कला शिल्प को जीवंत भी रखा जा सके। वर्तमान समय में पंचायती राज स्वसहायता समूह कारगर साबित हुए है जिससे ये आदिवासियों के लिये स्वरोजगार का सर्वोत्तम साधन बन गया है। महिला सशक्तीकरण की मुहिम के अन्तर्गत सरकार ने बैंकों के माध्यम से महिला स्वसहायता समूहों को बढ़ावा दिया। परिणाम स्वरूप दूरस्थ वनांचलों वाले दलित और आदिवासियों तक इसका प्रचार हुआ और आदिवासी समूहों ने इसका लाभ लिया, आज आदिवासी महिलाएं तमाम क्षेत्रों में आगे बढ़ रहीं हैं। जो परिस्थितिवश नहीं पढ़ पाई वे स्वरोजगार से जुड़ गई हैं। आदिवासी महिलाओं की कल्पनाशीलता का बेहतर परिचय उनकी शिल्प कला में देखा जा सकता है। शिल्पों में दैनिक क्रियाकलापों से लेकर शादी विवाह और तीज-त्यौहार इत्यादि शामिल होत हैं।[16] विश्व में आदिवासी एवं लोक कला के बढ़ते रूझान ने इन शिल्पकारों के आर्थिक सम्पन्नता के द्वार खोल दिये हैं। इस सरकारी संस्था के अतिरिक्त अन्य कई गैर सरकारी संस्थाएं भी अस्त्त्वि में आई हैं जो आदिवासी अथवा गैरआदिवासी स्थानीय युवक युवतियों को इसका प्रशिक्षण प्रदान कर स्वावलंबी बना रहें हैं। देश के अनेक बड़े नगरों में हस्तशिल्प मेलों में इन्हें आमंत्रित किया जाता है जहां ये अपने बेजोड़, आकर्षक शिल्पों का विक्रय करने के साथ ही अपनी पहचान बनाने में समर्थ हो रहें हैं। आज के इस आधुनिक समकालीन फैशन जगत भी इससे अछूता नहीं है अब राष्ट्रीय फैशन संस्थान दिल्ली, भोपाल एवं अन्य संस्थानों में इन शिल्पियों को प्रशिक्षण हेतु आमंत्रित किया जा रहा है। जहां ये शिल्प निर्माण का प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु जाने लगे है। प्रशिक्षित शिल्पी न केवल अलंकारिक और सौन्दर्यप्रधान शिल्पों के निर्माण में अपितु शिक्षा के क्षेत्र में भी चाहे वह चिकित्सा जैसे उच्च शिक्षा हो या बच्चों की नैतिक शिक्षा हो में अपनी पैठ बना रहे है।
वर्तमान समय में आंतरिक सज्जा में इन कपडों से निर्मित शिल्पों को स्थान दिया जाने लगा है जो इस कला के प्रगति के सूचक है। झाबुआ के कलाकार इन शिल्पों में रचनात्मक पहल भी कर रहे है जिससे अब इनके आकार का वृहद स्वरूप भी सामने आया है जिसमें ये शिल्पी लगभग 12 से 14 फुट उचें शिल्प बना रहे है हालांकि इस कार्य हेतु इन्हें अपनी पारम्परिक तकनीक में थोडा परिवर्तन करना पडा है जिसे हम रचनात्मकता की आवश्यकता कह सकते हैं। ऐसा ही एक आदिवासी युगल शिल्प झाबुआ के कलेक्टोरेट परिसर में स्थित है। ऐसे अन्य शिल्प इन्दौर एवं देश के अन्य स्थानों हेतु बनाये जा रहे है।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि मध्यप्रदेश की दक्षिणी पश्चिमी सीमा में विंध्याचल की तराइयों में स्थित आदिवासी अंचल झाबुआ गुड़िया कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हस्तशिल्प के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाने की और अग्रसर है। नवीनतम तकनीकियों जैसे प्रिंट माध्यम और इन्टरनेट के माध्यम से इसे तीव्र गति से विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे न केवल इस कला को बल्कि इससे जुड़े कलाशिल्पियों को प्रोत्साहन मिलेगा साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता भी मिलेगी। इससे इन शिल्पियों को तो आर्थिक लाभ होगा वरऩ भारत को भी विदेशी मुद्रा प्राप्त होगी। और जैसे जैसे आदिवासी हस्तशिल्पियों को प्रोत्साहन मिलेगा इनके जीवन स्तर में भी सकारात्मक सुधार की अपेक्षा की जा सकेगी। विदेशी आक्रांताओं और स्थानीय बाजार के विकास की कमी से विलुप्त होने की स्थिति में थी लेकिन अब क्षेत्रीय कलाकारों और कलाकृतियों से संबंधित कलात्मक, ज्ञानवर्धक जानकारियां राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संचार माध्यमों में उपलब्ध किया जा रहा है जिससे इस भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित,और समृद्ध किये जाने की दिशा यह एक सकारात्मक पहल होगी।
निष्कर्ष
आधुनिक सभ्यता से दूर जंगलों घाटियों और पहाडों पर निवास करने वाली इन जनजातियों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति और सभ्यता है जो धरती की सुगंध और प्राकृतिक वातावरण में ढलकर निकलती है। समय परिवर्तन का उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं पर अधिक प्रभाव अभी नहीं पडा है इस समाज में तीज त्योहार उनकी अपनी खुशी एवं संस्कृति के पोषक है। भीलों की सामाजिक संरचना में पारम्परिक सहयोग, सौहार्द्र और सहकार की अहम भूमिका सन्निहित होती है। इसलिये ये अपने सीमित संसाधनों में भी स्वयं को आनंदित महसूस करते हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में पूरा विश्व एक बाजार का रूप ले लिया जहां सभी वस्तुओं का पाना आसान हो गया है। जो कल तक देश या राज्य की सीमाओं में ही सीमित होती थी आज विश्व बाजार के उपभोक्ता उसका लाभ ले रहे हैं। ऐसे विश्व बाजार के उपभोक्ताओं में उन कलाकृतियों या शिल्पों के प्रति रूझान बड़ा है जो आदिवासी या लोक शिल्पकारों द्वारा परम्परागत प्रविधियों द्वारा निर्मित हैं। जिन्हें सुंदर, सजावटी, एवं उपयोगी वस्तुओं में शामिल किया जा सकता है। हालांकि अपनी शिल्पकलाओं का उपयोग आदिवासी समाज आवश्यक निजी उपयोग या धार्मिक अनुष्ठान के निमित्त किया करता है। लेकिन आदिवासी शिल्प कला की कलात्मकता का भान भले ही इन भोले और सहज आदिवासी को न हो परन्तु ये कलाकृतियां विश्व बाजार के उपभोक्ताओं को अपनी और बरबस आकर्षित करती है। इसके प्रमाण हमें क्राफ्ट मेलों में इन शिल्प कृतियों के प्रति उपभोक्ता के बढ़ते रूझान से मिलता है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रदेश के इन क्षेत्रों के आदिवासियों में विशेष तौर पर शिल्पकलाओं की महत्ता और उनके आर्थिक विकास में जागरूकता लाया जाने पर सकारात्मक पहल की जाय। इस हेतु इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाय कि यहां पर शिक्षा का स्तर अन्य जिलों की तुलना में कमतर है साथ ही संसाधनों की न्यूनता यहां के जनजीवन को और भी कठिन बना देती है। आदिवासी शिल्प कला का उपयोग बाजार को ध्यान में रखकर किया जाय परन्तु इसका मतलब यह बिल्कुल भी न लगाया जाय कि आदिवासी कलारूपों को बेचा जाय बल्कि शिल्पो का विक्रय कर आदिवासी समाज अपना विकास करे। इसके लिये यह आवश्यक है कि ऐसे कुशल शिल्पियों को ढूंढा जाय उन्हें बाजार की मांग के अनुरूप शिल्पों के निर्माण के लिये प्रेरित, प्रोत्साहित एवं प्रशिक्षित किया जाय और ऐसे शिल्प मेलों का आयोजन किया जाय जहां व्यापारियों का दखल न हो क्योंकि यह देखा जा रहा है कि ऐसे मेंलों में आदिवासी शिल्पकारों को कम और व्यापारी लाभ ज्यादा ले जाते हैं। शिल्पकारों को बाजार की सुविधा उपलब्ध कराने के साथ साथ ऋण सुविधा भी उपलब्ध कराई जाय।
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा राज्य के 6 जिलों में झाबुआ, धार, बड़वानी, मंडला, डिंडोरी, शहडोल में ‘आजीविका परियोजना की शुरूवात भी उल्लेखनीय है। कोशिश यही है कि जनजातिय समाज के परम्परागत हुनर और स्थानीय संसाधनों के आधार पर उन्हें स्वावलंम्बी और सशक्त बनाया जाय। उनकी सांस्कृतिक और परम्परागत धरोहरों की रक्षा करते हुए विकास की मुख्य धारा से जोड़ना ही उपयुक्त होगा।[17] जनजातियों के सर्वांगीण विकास के विचार से सर्वप्रथम 1954 में छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय में आदिम जाति विकास अनुसंधान संस्थान खोला गया, जिससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए। सरकार ने इसे और सुविधासम्पन्न व जनजातियों के लिये प्रभावी बनाने के निमित्त इसे छिंदवाड़ा से प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थानान्तरित कर दिया।[18] इसके साथ ही शासन ने महिला सशक्तीकरण योजना प्रारंभ की है जिसमें लघुउद्योग में रूचि रखने वाली आदिवासी महिलाओं को मध्यप्रदेश आदिवासी वित्त विकास निगम एवं जिला व्यापार और उद्योग केन्द्र न केवल ऋण उपलब्ध करते हैं बल्कि आदिवासी इच्छुक महिलाओं को उद्योग से संबंधित प्रशिक्षण भी प्रदान करते हैं। यह शासन की प्रशसंनीय पहल है। शासन की पहल का ही परिणाम स्वसहायता समूहो के रूप में कार्यरत शिल्पी है जिसकी सदर्भ में पूर्व में परिचय दिया गया है। इससे आदिवासी महिलाए भी अपने परिवार और समुदाय के आर्थिक विकास में हाथ बटा रही है। उनमें प्रबल इच्छा शक्ति दिखाई देती है परिणाम स्वरूप वे लघु उद्योग या व्यापार कर आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर भी है। सूचना और संचार क्रांति के इस दौर में जहां शिक्षा, साहित्य, व्यापार, इलेक्ट्रानिक व प्रिंट माध्यम आदि विकास के चरम पर है। ऐसे समय में जनजातीय समुदाय की कठिनाइयां और बढ़ गई है उसे अपने अस्तित्व, आत्म सम्मान व पहचान में राष्ट्र स्तर तक विस्तार देने के लिये साहित्यिक, सांस्कृतिक पुनर्जागरण का मार्ग अपनाने की आवश्यकता है।[19] क्योकि आदिवासी अनेक शिल्पकलाओ और हस्तकलाओं में पारंगत होते हैं परन्तु इस कुशलता का लाम गैर आदिवासी अधिक ले जाते हैं। अंत: जनजातीय समुदाय में पर्याप्त सक्षम मध्यम वर्ग पर अपना ध्यान आकर्षित किया जाय उन्हें शिक्षित व प्रशिक्षित किया जाय जिससे वे साहित्यिक, सांस्कृतिक, पुनर्जागरण कर अपनी पहचान और आत्मसम्मान को देशस्तर पर विस्तार दे सके। और अपने समुदाय और कला को बिचौलियों से सुरक्षित कर सके। शिल्पकलाओं में जितना बांस, चित्रकला, पीतल, काष्ठ, जूटशिल्पों को बाजार मिला है या इन शिल्पों को अधिक प्रचारित किया गया है उतना झाबुआ की गुड़िया कला को भी पर्याप्त प्रचार और बाजार उपलब्ध करवाने की दिशा में सकारात्मक पहल किया जाय। क्योकि यह बहुत की कम व्यय में निर्मित हो जाता है और मध्यमवर्गी समाज के पहुंच में भी है। इन गुड़िया शिल्पों में न केवल सजावटी शिल्प है बल्कि शिक्षाप्रद और उपयोगी शिल्पों का भी निर्माण हो रहा है। साथ ही अन्य प्रदेशों जैसे राजस्थान ने अपनी कलाकृतियों और सामग्री के लिये विदेशों में अच्छा बाजार बना लिया है, उसी तरह मध्यप्रदेश के आदिवासी शिल्प और कलाकारों को भी लाभान्वित, समृद्ध बनाये जाने की दिशा में रचनात्मक पहल पर ठोस कदम उठाया जाय। झाबुआ जिले के भील आदिवासियों की और अधिक बेहतर जीवन जीने हेतु प्रयासों की इस यात्रा में यह शोध मील का पत्थर साबित हो सकता है। ये आदिवासी आज भी अपने जीवन को अनेक कलात्मक उपादानों से संवारते हैं। उनकी कलात्मक रूचि संस्कृति को यथावत संजोये रखना आज की आवश्यकता है कहीं ऐसा न हो सभ्य कहे जाने वाले समाज के संपर्क में आकर उन्हें अपनी धरोहर का आभास तक न रहे।
[1] झाबुआ गजेटियर 2000 अध्याय एक
[2] वन्या संदर्भ अंक 1से 24 फरवरी 2005 आदिमजाति अनुसंधान संस्थान: जनजातियों के विकास मार्ग का सहयात्री, दीपशिखा सौमित्र 09-10
[3] भीलांचल में मानवाधिकार, डॉ. बीना भूरिया प्रकाशन नाकोड़ा ग्राफिक मेधनगर झाबुआ 2006
[4] वन्या संदर्भ अंक 1से 24 फरवरी 2005 आदिमजाति अनुसंधान संस्थान: जनजातियों के विकास मार्ग का सहयात्री, दीपशिखा सौमित्र 09-10
[5] सम्पदा,मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृतिक परम्परा का साक्ष्य ,सम्पादक डॉ. कपिल तिवारी,पृष्ठ 223
[6] वन्या संदर्भ वर्ष 2 अंक 21, 10 फरवरी 2007 प्रणय का पर्व है भगोरिया, संजय सक्सेना पृष्ठ 01
[7] सम्पदा,मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृतिक परम्परा का साक्ष्य ,सम्पादक डॉ. कपिल तिवारी,पृष्ठ 244
[8] वन्या संदर्भ 10 मार्च 2007 पृष्ठ 5
[9] सम्पदा,मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृतिक परम्परा का साक्ष्य ,सम्पादक डॉ. कपिल तिवारी,पृष्ठ 245-250
[10] भीलांचल में मानवाधिकार, डॉ. बीना भूरिया प्रकाशन नाकोड़ा ग्राफिक मेधनगर झाबुआ 2006)पृष्ठ 44।
[11] (वन्या संदर्भ, 10 अक्टूबर2005, पृष्ठ 6, कोल जनजाति उत्पत्ति का इतिहास पौराणिक आख्यानों में भी, डॉ.महेश चंद्र शांडिल्य)
[12] वन्या संदर्भ 10 मार्च 2006 पृष्ठ 11 परम्परागत अनुशासन से चलता भीलों का संसार, शीला मिश्र)
[13] वन्या संदर्भ, 10 जून 2006 शौर्य भक्ति और विश्वास का पर्याय है भील जनजाति, मनीष रोकड़े पृष्ठ 04)
[14] वन्या संदर्भ, अंक 1से 34 प्रकृतिवाद और जनजातियां, फरवरी 2005 पृष्ठ 06)
[15] (परम्परा-मध्यप्रदेश की जनजातीय और लोक चित्र तथा शिल्प परम्परा- सम्पादन नवलशुक्ल-1998,प्रकाशक- मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल)
[16] वन्या संदर्भ- बंधनों से आगे आदिवासी महिलाए-अनिल चौधरी –पृष्ठ 3-4, प्रकाशक-आदिवासी लोक कला प्रकाशन भोपाल,10 सित.2005 )
[17] (वन्या संदर्भ, अंक 1से 24 संयुक्तांक फरवरी05 से मार्च06 पृष्ठ 5एवं6, आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति कल्याण विभाग का प्रकाशन भोपाल)
[18] (वन्या संदर्भ फरवरी आदिम जाति अनुसंधान संस्थन:जनजातियों के विकास मार्ग का सहयात्री, दीपशिखा सौमित्र पृष्ठ 09 )
[19] (वन्या संदर्भ, मार्च 2005, पृष्ठ 05, सवाल देशस्तर पर जनजातियों की पहचान और सम्मान का, उदय केसरी)
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डॉ. रेखा श्रीवास्तव
सहायक प्राध्यापक चित्रकला,
म.ल.बा. शास. कन्या महा. भोपाल मप्र 462002
श्रीमती कमल डफाल, पुरातत्व विभाग से संबद्ध रही हैं और यह काम करते देखने का अवसर मिला है. विस्तार, व्यवस्थित विवरण, शोध स्वरूप वाली जानकारी.
जवाब देंहटाएंयह लेख कहाँ है यह तो पूरी की पूरी किताब है, वो भी बहुत ही बढ़िया बहुत ही ज्ञानवर्धक इसको तो बुकमार्क कर लिया मैंने|
जवाब देंहटाएंझाबुआ की गुड़िया कला पर इतनी विस्तृत जानकारी देखकर मन खुश-खुश हो गया। सैकड़ों बार शक्ति एम्पोरियम में गयी हूँ। मेरी अपनी सहेली के पिताजी का ही एम्पोरियम है। रेखा जी......... साधुवाद! इस लेख के द्वारा इस कला को अनगिनत लोगों तक पहुँचाने के लिये। रविजी इसे प्रकाशित करने के लिये आपको भी धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा, रोचक और विस्तृत जानकारी परक लेख है।
जवाब देंहटाएंसाभार धन्यवाद
इतनी विस्तृत और रोचक जानकारी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद्.
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से यह संग्रह करने लायक है.
रवि जी को भी धन्यवाद,इसे हम तक पहुंचाने के लिए.