देह मण्डी का आंचिलक सौंदर्य अजीब विडंबना है कि भारत के कुछ समाजों में समय और समाज ने देह व्यापार के अभिशाप को भी सामाजिक संस्कार का रूप...
देह मण्डी का आंचिलक सौंदर्य
अजीब विडंबना है कि भारत के कुछ समाजों में समय और समाज ने देह व्यापार के अभिशाप को भी सामाजिक संस्कार का रूप दिया हुआ है। मध्यप्रदेश के सागर जिले में रहने वाली बेड़िया जाति अनुसूचित जनजाति का एक ऐसा वंचित समाज है, जिसमें महिला को सुन्दरता का अभिशाप ‘वेश्या' के रूप में जीवन भर भोगना होता है। बहुसंख्यक समाज से उपेक्षित ऐसे ही पीड़ित पात्रों का कारूणिक आख्यान है समीक्षित उपन्यास ‘हेमन्तिया उर्फ कलेक्टरनी बाई।' उपन्यास के लेखक बटुक चतुर्वेदी शिल्प की नव्यता स्त्री के दिगंबर भूगोल में देखने की बजाय बेड़िया बस्तियों के आंचलिक संस्कारों में गुंथे लोकगीतों, लोकनृत्यों और लोकभाषा में देखते हैं। इसलिए उनकी भाषा देहवादी रूझानों में न भटकते हुए सपाटबयानी के साथ एक ऐसी कलावादी आंचलिक रचनात्मकता पेश करती है जिसमें दुर्भाग्य की मारी बेड़िनीपुत्री अभिशापित जीवन का हिस्सा बनने की बनिस्बत अनायास मिले अवसर का लाभ उठाकर पठन-पाठन में लगाती है और अपनी मेधा का उचित इस्तेमाल कर भारतीय प्रशासनिक सेवा का गौरवशाली पद हासिल करती है। इसके बावजूद अवचेतन में पैठ बनाए बैठे जन्मजात संस्कारों से विमुख होने की बजाय वह बालमन में बैठी रीति-रिवाजों की प्रतिछवियों को आधुनिक समाज में भी मूल्यों के रूप में स्थापित कर सामाजिकता का हिस्सा बनाती है। अकसर इन्हें पाश्चात्य दर्शन से प्रभावित समाज पुरजोरी से नकारने में हठपूर्वक अपनी प्रज्ञा लगाता है। इस नाते इस उपन्यास में पुरातन और पाश्चात्य मूल्यों का उद्भुत व हृदयस्पर्शी समन्वय देखने को मिलता है। हालांकि उपन्यास की नायिका आईएएस बनने के बाद जब कलेक्टर बनकर एक विदिशा जिले का पदभार संभालती है तो वह उन्हीं व्यवस्थाजन्य लाचार स्थितियों का शिकार होती चली जाती है, जिसका रोना हमारी नौकरशाही रोती रहती है। ईमानदार होने के बावजूद कोई क्रांतिकारी बदलाव न ला पाना नायिका के व्यक्तित्व का एक ऐसा कमजोर पहलू है जिसे लेखक यथार्थवादी धरातल से थोड़ा किनारा कर बदल सकते थे।
बेड़िया समाज से यदि लोकगीतों का बहिष्कार कर दिया जाए तो बेड़िनियों का जीवन शायद तजिंदगी नीरस और नारकीय ही बना रहेगा। इसलिए लेखक अपनी अनुभवी कौशल दक्षता का परिचय देते हुए इस आत्मकथात्मक उपन्यास का आरंभ ही एक लोकगीत से करते हैं-
तोरे आ गए लिबौआ, तू काए मरी जाए,
काए मरी जाए, केंसी मरी जाए।
तोरे आ गए लिबौआ,
तू काए मरी जाए॥
दरअसल बेड़ियों की बस्ती में जब किसी अनाहूत के आने का संकेत मिलता है तो पूरा स्त्री-पुरूष समाज इस उम्मीद से झूम उठता है कि आने वाला जिजमान (व्यक्ति) किसी बेड़िनी को बधाई देने या राई नचाने की साई (पेशगी) देने आया है। एक लाचार और वंचित समाज अनजान आगंतुक से यही अपेक्षा रख सकता है। जावर नामक छोटा सा गांव उपन्यास के कथानक का प्रस्थान बिन्दु है जो नायिका हेमंती की समृति में उभरकर बाल से किशोर होते जीवन का वृत्तांत रचता है। इस कालखण्ड में हेमंती के तेवर विद्रोही हैं। अनुभवहीन नादान होते हुए भी वह समझाती है कि उनके समाज की महिलाएं देह का धंधा कर रोजी-रोटी जुगाड़ती हैं। जबकि निठल्ले रहते पुरूष ठर्रा पीकर कायराना पुंषत्वविहीन जीवन गुजारते हैं। इसलिए इस समाज की गर्भवती विवाहिताएं पुत्र की नहीं सुंदर पुत्री की मन्नत ईश्वर से मांगती हैं। और जो सुंदरता का अभिशाप भोगने वाली कुंआरियां हैं वे करीला के सीता माता मंदिर में किसी धनाढ्य से नथ उतरवाने का वरदान मांगती हैं। लेकिन हेमंती इस लीक पर नहीं चलती। वह इस नारकीय जीवन से छुटकारे की याचना करती है। जिससे उसे नानी, मां, मौसी, काकी जैसी विसंगत व पीड़ादायी स्थिति का सामना न करना पड़े। एक ऐसी विकट और त्रासद स्थिति जो ‘नथ उतराई' रश्म के साथ स्त्री को ‘वेश्या' बना देने की भूमि तैयार कर देती है। और कई पुरूषों की भोग्या बन यौवना बनी रहने तक मानसिक और शारीरिक त्रासदी झेलती है। प्रौढ़ा उम्र में किसी रईस का सहारा मिलता भी है तो ‘रखैल' का, जिसे समाज दूसरी औरत बनाम गैरत के उलाहने देकर मृत्युपर्यंत टीस पहुंचाता है। क्योंकि इस जीवन में ठाठ तो होते हैं लेकिन इनकी उपलब्धता धनाढ्य की मेहरबानी और चंद सिक्कों पर निर्भर रहती है।
लेकिन लेखक इसे करम की गति ही मानकर चलता है। इसी दौरान हेमंती के जीवन में हैरतअंगेज नाटकीय मोड़ आता है। यकायक गांव में जिले के नौकरशाहों का लाव-लश्कर डेरा डालता है। हेमंती के रक्त-बीज की तफतीश व तसदीक होती है। नानी निहाल हो जाती है कि कोई आला अधिकारी उसकी नातिन की नथ उतरेगा और बख्शीश में मुंह मांगी रकम मिलेगी। रकम तो मिली। किन्तु नथ उतराई में उस परंपरा का निर्वाह नहीं हुआ जो जावर गांव की नाबालिग किशोरियों के लिए अभिशापित नारकीय नियति बन जाया करती थी। इस कारूणिक दृश्य का वृतांत यूं है, ‘‘साहब ने इशारे से मुझे मंच पर बुलाया। मैं डरती-डरती चौतरा पर चढ़ी तो साहब ने अपने पास खाट पर बिठाकर मेरे सिर पर हाथ फेरकर मेरा माथा चूमा और कहा, बिटिया अब ये नथ उतार के अपनी नानी को खुद दे दो। अब तुम्हें इसे पहनने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी। न तुम अब राई नाचोगी, न स्वांग, फाग गाओगी। आज से तुम मेरी बेटी होकर मेरे घर में रहोगी। पढ़-लिखकर बहुत बड़ी अफसर बनोगी। साहब की बात पर विश्वास नहीं हुआ। लगा करीला की सीता मैया के मंदिर में जो मन्नत मांगी थी, वह आज पूरी हो गई।'' बाद में हेमंती को उसकी नई मां बताती है कि उसे जिस पिता ने गोद लिया है वे कोई मामूली आदमी नहीं कलेक्टर से बड़े अधिकारी कमिश्नर हैं।
हेमंती आश्चर्य का रहस्यलोक खोल देने वाले भौतिक सुख-सुविधाओं से लबरेज वातावरण में बड़ी कुशलता से, बिना किसी अतिरिक्त उपक्रम के ढलने लगती है। गोद लिए माता-पिता का लाड़-प्यार-दुलार उसके चरित्र व आचरण का ऐसा कायाकल्प करता है कि उसकी कुछ बन जाने की इच्छा शक्ति उसे परीक्षा की हर घड़ी में खरी उतारती है। फलस्वरूप वह जावर गांव के संत्रास और अभाव बने स्थायी भाव को भूलने लगती है। यदा-कदा तो यह भी भूल जाती है कि वह बसंती बेड़िनी की औलाद है। यही नहीं वह सुख को सहेजे रखने के लिए सतर्क भी दिखाई देती है। मानवीय सहजता का यह गुण भी उसे सताता है कि कहीं उससे यह सुख-चैन छिन न जाए। हालांकि गरीबी-अमीरी और वैभव व अभाव के द्वंद्व उसे परेशान करते रहते हैं।
उम्र के सोपान चढ़ने के साथ-साथ हेमंती शैक्षिक स्तर पर प्रावीण्य (मेरिट) सूची में नाम दर्ज कराती हुई उच्च शिक्षा के लिए पिता विश्वनाथ प्रताप सिंह की बदली के साथ दिल्ली पहुंचती है। वहां उसे एक दिन जब उसके पिता अपने मित्र के साथ शराब के नशे में सराबोर थे, तब दोनों का वार्तालाप एक ऐसे सत्य से साक्षात्कार कराता है, कि वह विश्वनाथ प्रताप सिंह के सगे भाई स्वर्गीय विजय प्रताप सिंह की बेटी है। विजय प्रताप सिंह बमूरिया गांव के पैतृक जमींदार थे और खेती-बाड़ी व साहूकारी का काम देखते थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह जब बनारस में रहकर आईएएस की तैयारी कर रहे थे तभी विजय प्रताप सिंह ने क्षेत्र की मशहूर नृत्यांगना बसंती से प्रेम विवाह कर लिया था। दुर्भाग्य से बमूरिया मे भंयकर बाढ़ आई और विजय प्रताप समेत पूरा गांव मौत के आगोश में समा गया। संयोग से बसंती उस समय अपनी मां से मिलने जावर गांव में गई थी, सो बच गई। बाद में वहीं उसने हेमंती को जन्म दिया। विवाह के दस साल बाद भी जब विश्वनाथ प्रताप सिंह और साधना सिंह को कोई संतान नहीं हुई और उपचार के बाद भी अम्मीदें जाती रहीं तब विश्वनाथ प्रताप सिंह को वंशवाद की रूढ़िवादी सोच ने परेशान कर दिया। उन्हें अपने भरोसे के सूत्रों से पता चला कि उनके भाई की संतान जावर गांव में अभावग्रस्त नारकीय जीवन भोग रही है। तब रूढ़िवादी जड़ता ने रक्तबीज के प्रति अनायास ही उत्कट मोह-ममत्व का जागरण सिंह दंपत्ति के अंतर्मन में कर दिया। इससे यह जाहिर होता है कि शैक्षणिक योग्यता का दंभ हम कितना भी भरें, जातीय और रक्तजन्य संस्कारों की जड़ता से भारतीय समाज उबरता दिखाई नहीं देता। यह पहलू लेखक का भी कमजोर पक्ष उजागर करता है। यहां यह अवधारणा मजबूत होती है कि योग्यता के जीन केवल सवर्णों के ही खून में होते हैं। उपन्यास का यह अंश जातिवादी सोच की पैरवी भी करता दिखाई देता है।
हेमंती अपनी मेधा के बूते कालांतर में आईएएस बनती है और माता-पिता की सहमति से उसकी आईपीएस अधिकारी से शादी भी हो जाती है। दोनों को मध्यप्रदेश कॉडर मिलता है। हेमंती विदिशा की कलेक्टर बनती है। सरकारी योजनाओं से न केवल वह जावर गांव का भौतिक व भौगोलिक विकास कराती है बल्कि वहां की स्त्रियों को वेश्यावृत्ति के अभिशाप से मुक्ति के लिए कुटीर उद्योगों का सिलसिला शुरू कराती है। संयोग से हेमंती की मां बसंती को सरपंच बनने का अवसर मिल जाता है।
इसके बाद उपन्यास को ऐसी घटनाओं से जोड़कर आगे बढ़ाया गया है जो आज के भौतिकवादी समाज की दिनचर्या का हिस्सा बन गई हैं। हेमंती का जिले के प्रभारी मंत्री से भी लेनदेन को लेकर टकराव की स्थिति निर्मित होती है। वह भ्रष्ट और चरित्रहीन मंत्री की अय्याशी के प्रमाणों से जुड़ी अश्लील सीडी भी बनवाती है लेकिन अपने सेवा निवृत्त हुए पिता की अनुभवी सलाह के आगे हथियार डाल देती है। यह स्थिति विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ती स्त्री का सफल सामाजिक जीवन के लिए समर्पण दर्शाता हैं। जबकि हेमंती को क्रांतिकारी तेवर अपनाने की जरूरत थी। क्योंकि शीर्ष नौकरशाही यदि व्यवस्था के आगे लाचार साबित होगी तो उससे जूझने को दुस्साहस कौन दिखाएगा ? लेकिन यह हालात मौजूदा ब्यूरोक्रेट्स का यथार्थ चेहरा है। लेखक ने उपन्यास में उल्लेखित नौकरशाह पात्रों को कमोबेश चरित्रवान व ईमानदार दिखाया है। यह महिमामंडन बुर्जुगवार लेखक ने शायद इसलिए किया है क्योंकि वे भी एक अधिकारी रहे हैं। यह स्थिति पूर्वग्रही मानसिकता दर्शाती है। हालांकि उपन्यास के सभी पात्र अपनी सहज सरलता और परस्पर विश्वास के साथ अपने-अपने चरित्रों में उपस्थित हैं। हेमंती स्त्री विमर्श को एक नया आधार देती है जिस ओर स्त्रीवादी महिलाओं का ध्यान जाना जरूरी है।
उपन्यास में बुन्देली शब्दावली की महक इसके आंचलिक कथा विन्यास को जहां ठोस आधार देते हैं, वहीं लोकगीत बेड़िया समाज की सांसारिकता को प्रकट करते हुए उनके जीवन के प्रत्येक पहलू को स्वर देते हैं। चूंकि बेड़िया समाज में औरतों का रईसों की रखैल बनकर संतान पैदा करना एक रवायत है इसलिए हेमंती के आकार लेते व्यक्तित्व को हम इस रूप में ले सकते हैं कि औरत की पारंपरिक छवि यदि उसे अवसर मिले तो वह उसे तोड़ सकती है।
(बटुक चतुर्वेदी)
उपन्यास ः हेमन्तिया उर्फ कलेक्टरनी बाई ‘उपन्यास'
लेखक ः बटुक चतुर्वेदी
प्रकाशन ः देशभारती प्रकाशन, डी-581
अशोक नगर, गली नं. 3, निकट वजीराबाद रोड, शाहदरा दिल्ली-110051
मूल्य ः 450@&
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समीक्षक:
प्रमोद भार्गव
ई-पता ः pramodsvp997@rediffmail.com
ई-पता ः pramod.bhargava15@gmail.com
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
दोस्तों
जवाब देंहटाएंआपनी पोस्ट सोमवार(10-1-2011) के चर्चामंच पर देखिये ..........कल वक्त नहीं मिलेगा इसलिए आज ही बता रही हूँ ...........सोमवार को चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराएँगे तो हार्दिक ख़ुशी होगी और हमारा हौसला भी बढेगा.
http://charchamanch.uchcharan.com