अबुलफजल जन्म दिवस (14 जनवरी 1551 ई.) पर विशेष अकबर के नवरत्नों में शीर्ष पर रहे महान रचनाकार कुशल शासक के साथ युद्ध कौशल में महारत हासिल...
अबुलफजल
जन्म दिवस (14 जनवरी 1551 ई.) पर विशेष
अकबर के नवरत्नों में शीर्ष पर रहे महान रचनाकार कुशल शासक के साथ युद्ध कौशल में महारत हासिल करने के साथ-साथ मानवीय मूल्यों को अपने जीवन में उतारने वाले अबुलफजल हमेशा याद आते रहेंगे। भारतीय दर्शन को पूरी तरह अपने में आत्मसात करके धर्मनिरपेक्षता का पाठ हकीकत की दुनिया में लाने वाले महान विचारक अबुलफजल को इतिहास के पन्नों में विसरा देने की साजिश का ही परिणाम है कि आज देश धार्मिक कट्टरता की आग में झुलसने के लिये विवश है। शेख अबुलफजल की तुलना हम भले ही कौटिल्य विष्णुगुप्त के समतुल्य ना करें फिर भी सकते है कि जिस तरह कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन के रूप में भारत को एकताबद्ध समृद्ध बनाने की कोशिश की यही काम अबुलफजल ने अकबर के समय भी किया था। अबुलफजल ने तत्कालीन समय भारत को एकता की डोर में बाँधने की कोशिश की थी जिस वक्त धर्म के नाम पर होते खूनी जंग का मैदान भारत भूमि बना हुआ था। अबुलफजल का जन्म आज से 460 वर्ष पहले 14 जनवरी 1551 ई0 में आगरा के जमुना पार रामबाग में हुआ था। पिता शेख मुबारक अद्वितीय विद्वान और अत्यन्त उदार विचारों के समर्थक थे। इस कारण तत्कालीन मुल्ले उन्हें काफिर कहकर हर तरह की तकलीफ देते रहते थे, क्योंकि उनकी धारणा थी कि वे सामवादी सय्यद मोहम्मद जौनपुरी का अनुयायी है, कभी शिया और नास्तिक कहते थे। इस कारण अबुलफजल का बचपन जद्दोजहद में बीता। अपने जीवन की कुछ बातें अकबरनामा में अबुलफजल ने इस तरह लिखी हैं- ‘‘बरस-सवा-बरस की उमर में भगवान ने मेहरबानी की और मैं साफ बातें करने लगा। पाँच वर्ष का था, कि दैव ने प्रतिभा खिड़की खोल दी। ऐसी बातें समझ में आने लगीं, जो औरों को नसीब नहीं होती। 15 वर्ष की उमर में पूज्य पिता की विद्या निधि का खजांची और तत्तवरत्न का पहरेदार हो गया, निधि पर पाँव जमा कर बैठ गया। शिक्षा की बातों से सदा दिल मुरझाता था और दुनिया के खटकामों से मन कोसों भागता था। प्रायः कुछ समझ ही नहीं पाता था। पिता अपने ढंग से विद्या और बुद्धि के मन्त्र फूँकते थे। हरेक विषय पर एक पुस्तक लिख कर याद करवाते। यद्यपि ज्ञान बढ़ता था, पर वह दिल को न लगाता था। कभी तो जरा भी समझ में न आता था और कभी सन्देह रास्ते को रोक लेते थे, वाणी मदद न करती थी, रूकावट हलका बना देती थी। मैं भाषण का भी पहलवान था पर जबान खोल न सकता था। लोगों के सामने मेरे आँसू निकल पड़ते थे, अपने को स्वयं धिक्कारता था। ... जिन्हें विद्वान! कहा जाता था, उन्हें मैने बेइन्साफ पाया, इसलिये मन चाहता था, कि अकेले में रहूँ, कही भाग जाऊँ। दिन को मदरसा में बुद्धि के प्रकाश में रहता,रात को निर्जन खंडहरों में भागता।... इसी बीच एक सहपाठी से स्नेह हो गया, जिसके कारण मदरसे की ओर फिर आकर्षण बढ़ा।'' ज्ञान अर्जन के बाद अबुलफजल अपने हुनर के बल पर बादशाह अकबर के निकट आया और उनका प्रधानमंत्री बना।
अबुलफजल का धर्म
अबुलफजल धर्म मानव-धर्म था। वह मानवता को धर्मों के अनुसार बाँटने के लिये तैयार नही थे। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, उनके लिये सब बराबर थे। बादशाह का भी यही मजहब था। जब लोगों ने ईसाई इंजील की तारीफ की, तो उसने शाहजादा मुराद को इंजील पढ़ने के लिये बैठा दिया और अबुलफजल तर्जुमा करने के लिये नियुक्त किये गये। गुजरात से अग्निपूजक पारसी अकबर में पहुँचे। उन्होंने जर्थुस्त के धर्म की बातें बतलाते आग की पूजा की महिमा गाई। फिर क्या था, अबुलफजल को हुक्म हुआ-‘‘जिस तरह ईरान में अग्नि-मन्दिर बराबर प्रज्वलित रहते हैं, यहां भी उसी तरह हो। दिन-रात अग्नि को प्रज्वलित रक्खों। आग तो भगवान के प्रकाश की ही एक किरण है। अग्नि पूजा में हिन्दू भी शामिल थे, इसलिये उन्होंने इसकी पुष्टि की होगी, इसमें सन्देह नहीं। जब श्ोख मुबारक मर गये, तो अबुलफजल ने अपने भाइयों के साथ भद्र (मुंडन) करवाया। अकबर ने खुद मरियम मकानी के मरने पर भद्र कराया था। लोगों ने समझा दिया था, कि यह रस्म हिन्दुओं में ही नहीं, बल्कि तुर्क सुल्तानों में भी थी। यही वह बातें थी, जिनके कारण कट्टर मुसलमान अबुलफजल को काफिर कहते थे। पर, न वह काफिर थे और न ईश्वर से इन्कार करने वाले। रात के वक्त वह सन्तों-फकीरों की सेवा में जाते और उनके चरणों में अशर्फियां भेंट करते। बादशाह ने कश्मीर में एक विशाल इमारत बनवाई थी, जिसमें हिन्दू, मुसलमान सभ आकर पूजा-प्रार्थना करते। अबुलफजल ने इसके लिये वाक्य लिखा था-
‘‘इलाही, ब-हर खाना कि भी निगरम्, जोयाय-तू अन्द। व ब-हर जबाँ कि मी शुनवम्, गोयाय तू।'' (हे अल्ला, मैं जिस घर पर भी निगाह करता हूँ, सभी तेरी ही तलाश में है और जो भी जबान मैं सुनता हूँ, वह तेरी बात करती हैं।) यह भी लिखा-
‘‘इ खाना ब-नीयते इ तलाफे-कलूब मोहिदाने-हिन्दोस्तान व खसूसन् माबूद्परिस्तान अर्सये-कश्मीर तामीर याफ्ता।'' (यह घर हिन्दुस्तान के एकेश्वरवादियों, विशेषकर कश्मीर के भगवत्-पूजा के लिये बनाया गया।)
अबुलफजल यदि आज पैदा हुए होते, तो वह निश्चय ही अल्ला और ईश्वर से नाता तोड़ देते। पर, अपने समय में वह यहाँ तक नही पहुँच सके थे। वह इतना ही चाहते थे, कि सभी मनुष्य आपसी भेद-भाव को छोड़ कर अपने-अपने ढंग से भगवान् की पूजा करें।
अबुलफजल कलम ही नही तलवार का भी धनी था। अकबर के कहने पर दक्षिण में विद्रोह दबाने तथा असीरगढ़ तथा अहमद नगर की असाधारण विजय का सेहरा अबुलफजल के नेतृत्व को जाता है। लेकिन सन् 1602 ई0 19 अगस्त को आगरा की ओर लौटते समय अन्तरी के पास ओरछा के राजा नर्ससिंह देव का बेटा मधुकर बुन्देला ने बगावत करके अबुलफजल का सिर काटकर शहजादा सलीम उर्फ जहांगीर को पेश किया। बुन्देला मधुकर शाह के क्रूर हाथों ने मानवता के उस पुजारी को असमय ही मौत की नींद सुलाकर हिन्दुस्तान से धर्मर्निपेक्षता की ज्योति को बुझा दिया। ग्वालियर से 5-6 कोस पर स्थित इस छोटे से कस्बे में आज भी हमारे इतिहास का महान राजनैतिक परमदेशभक्त और धर्मिनिपेक्षता की जीती जागती मिशाल गुमनामी में सो रही है। अकबर ने अबुलफजल की मौत पर अफशोस करते हुये कहा था ‘‘हाय, हाय शेखूजी, बादशाहत लेनी थी मुझे मारना था तो शेख को क्यों मारा'' अकबर सलीम को शेखूजी कहता था।
कृतियाँ
अबुलफजल अगर और कुछ न करते और केवल अपनी लेखनी को ही चला कर चले गये होते, तो भी वह एक अमर साहित्यकार माने जाते। उन्होंने कई विशाल और अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं, जो आज भी हमें उनके काल और विचारों के बारे में बहुत-सी बातें बतलाते मार्ग-प्रदर्शन करते है। ‘‘अकबरनामा'' और ‘‘आईनेअकबरी'' उनके अमर ग्रंथ हैं।
1. आईनअकबरी- ‘‘अकबरनामा'' को उन्हेांने तीन खण्डों में लिखा। इसके पहिले दूसरे खंड ही ‘‘आईनअकबरी हैं पहले खण्ड में तैमूर के वंश का संक्षेप में, बाबर का उससे अधिक, हुमायूँ का उससे भी विस्तृत वर्णन है। फिर अकबर के पहले 17 साल (1556-73 ई0) तक का हाल है। अकबर के 30 वर्ष के होने तक की बातें इसमें आई है। दूसरे खण्ड में अकबर के राज्य संवत्सर (सनजलूस) 18 से 46 (1574-1602 ई0) की बातें है। अबुलफजलकी मृत्यु के तीन साल बाद अकबर का देहान्त हुआ। इस वक्त की घटनायें ‘‘तारीख अकबरी'' में है। पहले खण्ड की भूमिका देहान्त हुआ। इस वक्त की घटनायें ‘‘तारीख अकबरी'' में है। पहले खण्ड की भूमिका में अबुल फजल ने लिखा है- ‘‘मैं हिन्दी हूँ, फारसी में लिखना मेरा काम नही हैं। बड़े भाई के भरोसे यह काम शुरू किया था; पर अफसोस, थोड़ा ही लिखा था, कि उनका देहान्त हो गया सिर्फ दस साल का हाल उन्होंने देख पाया था।''
2. अकबरनामा -‘‘अकबरनामा'' ही इसका तीसरा खण्ड है, जिसे अबुलफजल ने 1597-98 ई (हिजरी 1006) में समाप्त किया था। यह एक ऐसी किताब है, जिसकी जरूरत अँग्रेजों ने 19वीं सदी के अन्त में महसूस की और अनेक गजेटियर लिखे। अकबर सल्तनत का यह विशाल गजेटियर है। इसमें हरेक सूबे, सरकार (जिला) परग ने का विस्तृत वर्णन और आँकड़े दिये गये है। उनके क्षेत्रफल, उनका इतिहास, पैदावार, आमदनी-खर्च, प्रसिद्ध स्थान, प्रसिद्ध नदियाँ-नहरें-नाले-चश्में, लाल-नुकसान का उल्लेख है। सैनिक-असैनिक प्रबन्न्ध, अमीरों और उनके दर्जो की सूची, विद्वानों, पण्डितों, कलाकारों, दस्ताकारों, सन्त-फकीरों, मन्दिरों-मस्जिदों आदि की बातों को भ़ी नहीं छोड़ा गया है और साथ ही हिन्दुस्तान के लोगों के धर्म विश्वास और रीतिरवाज भी जिक्र किया है। जिस चीज की महत्ता को 19वीं सदी में अँग्रेजों ने समझा, उसे अबुल फजल ने साढ़े तीन सौ वर्ष पहले समझकर लिख डाला। ‘‘अकबरनामा'' में अबुलफजल अलंकारिक भाषा इस्तेमाल करते हैं, पर ‘‘आईन'' में उनकी भाषा प्रभावशाली होते भी बहुत सीधी-सादी हो जाती है। दोनों पुस्तकें बहुत विशाल है। (अबुलफजल की हरेक कृतियों का हिन्दी में अनुवाद होना आवश्यक है।)
3. मुकातिबाते अल्लामी- अबुलफजलको अल्लामी (महान पण्डित) कहा जाता था। इस पुस्तक में उनके पत्रों संग्रह है। इसके तीन खण्ड है। पहले खण्ड में वे पत्र हैं, जिन्हें अकबर ने ईरान और तूरान (तुर्किस्तान) के बादशाहों के नाम पर अबुलफजल से लिखवायें थे। इसी में बादशाही फरमान भी दर्ज है। समरकन्द का शासक उज्बक सुल्तान अब्दुल्ला बहुत ही प्रतापी खान और अकबर का खानदानी दुश्मन भी था। वह कहता था -‘‘अकरब की तलवार तो नही देखी, लेकिन मुझे अबुलफजल की कलम से डर लगता है।'' दूसरे खंड में अबुलफजल के अपने खत हैं, जो दरबार के अमीरों, अपने मित्रों और सम्बन्धियों को उन्होंने लिखे। तीसरे खण्ड में उन्होंने पुराने ग्रंथकारों की पुस्तकों के ऊपर अपने विचार प्रकट किये है। इसे साहित्यिक समालोचना कह सकते है।
4. ऐयारेदानिश-पंचतन्त्र अपने गुणों के लिये दुनिया में मशहूर है। छठी सदी में नौश्ोरखाँ इसका अनुवाद पहलवी भाषा में कराया था। अब्बासी खलीफों के जमाने में इसे अरबी में किया गया। सामानियों समय फारसी महान तथा आदिकवि रूदी की ने उसे पद्यबद्ध किया। मुल्ला हुसेन वायज़ने फारसी में करके इसका हिन्दुस्तान में प्रचार किया। अकबर उसे सुना। जब मालूम हुआ कि मूल संस्कृत पुस्तक अब भी मौजद है, तो कहा-कि घर की चीज है, सीधे क्यां न अनुवाद करो। अबुल फजलने इस पुस्तक को ‘‘ऐयारेदानिश'' के नाम से सन् 1587-88 ई0 (हिजरी 996) में समाप्त किया। मुल्ला बदायूँनी इसको भी लेकर अकबर पर आज्ञेप किये बिना नहीं रहे और कहते हैः इस्लाम की हर बात से उसे घृणा है, हर इल्म (शास्त्र) से बेजारी है। जबान भी पसन्द नहीं, हरफ भी प्रिय नहीं। मुल्ला हुसेन वायजने कलीलादमना (करकट दमनक) का तर्जुमा ‘‘अनवार सुहेली'' कैसा अच्छा किया था। अब अबुलफजल को हुक्म हुआ, कि इसे साधारण साफ नंगी फारसी में लिखें, जिसमें उपमा अतिशयोक्ति भी न हो, अरबी वाक्य भी न हो।
5. रुकआते-अबुलफजल- यह अबुलफजल के रुक्कों (लघु-पत्रों) का संग्रह है। इसमें 46 रुक्कों रूप में बहुत सी ऐतिहासिक, भौगोलिक और दूसरी महत्व की बातें सीधी-सादी भाषा में दर्ज हैं। जिनके नाम रुक्के लिखे गये हैं, उनमें कुछ हैं- अब्दुला खान, दानियाल, अकबर, मरियम मकानी (अकबर की माँ), शेख मुबारक, फौजी, उर्फ, (मार्सिया फैजी)।
6. कश्कोल- कश्कोल फकीरों के भिज्ञा-पात्र को कहते है, जिसमें वह हर घर से मिलने वाले पुलाव, भुने चने, रोटी, दाल, सूखा तर रोटी का टुकड़ा, मिट्टा-सलोना-खट्टा कड़वा सभी कुछ डाल लेते है। अबुलफजल जो भी सुभाषित सुनते, उन्हें जमा करते जाते। इसको ही कश्कोल नाम दिया गया। इसे देखने से अबुलफजल की रुचिका पता लगता है।
आभार- इस आलेख लेखन में राहुल सांकृत्यायन लिखित पुस्तक अकबर के अंश का समावेश किया गया है।
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- सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन-120/132
बेलदारी लेन, लालबाग, लखनऊ
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बस इतना ही पढ़ा कि उस समय ख़ूनी जंग धर्म के नाम पर होती थी, इससे आगे पढने का मूड चला गया |
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