( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'गंगा बटाईदार' से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंस...
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'गंगा बटाईदार' से जारी...)
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म 15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानीकहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
कहानी कहाँ से शुरू करूँ इस पसोपेश में हूँ। यह कहानी मैंने अपने दादा-दादी अथवा नाना-नानी से नहीं सुनी। काश सुनी होती तो रू-ब-रू अपनी जुबान में बयान कर जाता। दरअसल जब विधायक विद्याधर शर्मा की कहानी का जन्म हुआ था। तब इस दुनिया से मेरे दादा-दादी और नाना-नानी अलविदा हो चुके थे। मैंने अपनी आँखों से ही इस कहानी को पल्लवित-पुष्पित होते देखा है और यदि दुर्भाग्य से कुछ भाग नहीं भी देखा है तो मैंने उसे प्रत्यक्षदर्शियों से चश्मदीद गवाह की तरह सुना है। बहरहाल, कुछ अपनी तरफ से जोड़-तोड़ बिठाकर कुछ प्रत्यक्षदर्शियों की तरफ से गुणा-भाग कर मैं विधायक विद्याधर शर्मा की कहानी की शुभ शुरुआत करता हूँ...।
कहानी कहाँ से आरम्भ करूँ...? चलिए, विधायक विद्याधर शर्मा के पिता से आरम्भ करता हूँ...। आखिर थे भी तो वे अपने पिता के ही प्रोडक्शन...! प्रोडक्शन नम्बर चार। विधायक...माफ कीजिए जिस काल से कहानी की शुरुआत है, उस काल में विद्याधर शर्मा विधायक थे ही नहीं। तब वे थे सिर्फ विद्याधर। उनके परिवारवाले उन्हें इसी नाम से पुकारते। स्कूल में उनका नाम था विद्याधर शर्मा। पर, उनके दिलअजीज मित्रों को यह नाम कभी नहीं सुहाया। पूरा विद्याधर नाम लेने से उनकी जुबान को कष्ट होता था इसलिए वे मात्र ‘विद्या' कहते थे। पर इस नाम में पूरे सौ प्रतिशत स्त्रीलिंग का आभास होता था इसलिए ‘विद्या' नाम से विद्याधर को पुकारना विद्याधर को भी अखरता और यार-दोस्तों को भी। तब यार-दोस्तों ने एक नये नाम की खोज कर डाली विद्याधर में से ‘विद्या' गायब कर दिया और ‘धर' के साथ जोड़ दिया ‘पकड़' और इस तरह नया नामकरण हुआ ‘धरपकड़'। सच पूछा जाए तो यह नाम धरपकड़ को भी नहीं जँचा था। बावजूद, दोस्तों ने धरपकड़ नाम ही चलन में ला दिया।
तो जनाब धरपकड़ थे अपने पिता की चौथी सन्तान! लगातार तीन पुत्रों के बाद चौथी सन्तान भी पुत्र हो यह धरपकड़ के माता-पिता नहीं चाहते थे। उन्हें एक कन्यारत्न की इच्छा थी, जिससे कन्यादान कर स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। पर तुलसीदास तो पहले ही कह गए हैं, ‘होय वही जो राम रचि राखा।' अनिच्छित सन्तान होने के कारण धरपकड़ को माता-पिता से वह स्नेह नहीं मिला जो उनके तीन बड़े भाइयों को मिला था। जैसे कि प्रसिद्ध कहावत है, ‘पूत के लक्षण पालने में दिखते हैं' सो धरपकड़ पर यह कहावत यूँ लागू हुई कि ‘कपूत के लक्षण भी पालने में दिखते हैं।'
जब धरपकड़ तीन वर्ष के थे तब उन्हें पिता ने बीड़ियों के टोटे पीते हुए पकड़ा। पिता के तो जैसे सब किए-कराए पर पानी फिर गया। बेटे ने बीड़ी पी वह भी जूठी। पिता ने उस दिन धरपकड़ की जमकर पिटाई की। खैर जिसने लाद ली उसे शर्म कैसी? सो किस्सा धरपकड़ का था। उस घटना के बाद धरपकड़ ने पिता के पीटे जाने के भय से बीड़ी तो नहीं पर एक दिन जब पिता अपने हम-उम्रों के साथ हुक्का गुडगुड़ाकर उठे तो पीछे से धरपकड़ आकर नवाबी ठाठ से लोड़ से टिककर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। पिता ने पलटकर देखा तो सिर पीटकर रह गए। उनके हुक्म की परिवार में तो क्या पूरे गाँव में कोई अवहेलना करे यह हिम्मत किसी में नहीं थी। अपने गाँव और उसके आसपास के इलाके के वे बेताज बादशाह थे। उनके नाम की पूरे क्षेत्र में तूती बोलती थी। उन्होंने जो कुछ कर या कह दिया वह सरकारी फरमान से भी ज्यादा अहमियत रखता था। पर अब उन्हें लगने लगा कि उनका अपना बेटा ही उनकी प्रतिष्ठा और रोब-रुतबे की सारी चूलें हिलाकर रख देगा। बाद में उनके सिर कोई आक्षेप न लगे इसीलिए उन्होंने धरपकड़ के बारे में घोषणा कर दी कि ‘‘यह लड़का तो सारे खानदान का नाम डुबोकर रख देगा।'' उन्होंने पूत, सपूत, कपूत की परिभाषाएँ निर्धारित कर रखी थीं, जो इलाके में सर्वमान्य थीं। पूत वह जो पिता से एक कदम आगे निकल जाए, सपूत वह जो पिता के बराबर ही रहे और कपूत वह जो पिता से पीछे रह जाए। उन्होंने निःसंकोच धरपकड़ के बारे में यह घोषणा भी कर दी थी कि यह कपूत की श्रेणी से भी नीचे जाएगा।
इस तरह धरपकड़ जैसे-जैसे उम्र के सोपान पर चढ़ रहे थे वैसे-वैसे वे पुरानी शराब के नशे की तरह जिन्दादिल होते चले गए। उनका मिजाज एक खास किस्म का था। उनकी प्रवृत्ति जितनी खुशमिजाज एवं हरफनमौला थी उतनी ही सख्त एवं विद्रोही। ढकोसली परम्पराओं को तोड़ने की शुरुआत गाँव में पहले-पहल धरपकड़ ने ही की। जब वे बारह वर्ष के थे तब उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया। अपने शरीर पर किसी भी प्रकार का बन्धन और उसके नियम का पालन करना भला उनके स्वभाव में कैसे शुमार होता? सो उन्होंने उसी दिन शाम को पतंग की डोर के साथ जनेऊ का धागा इकहरा करके जोड़ दिया और ठाठ के साथ बेफिक्र होकर शाम ढलने तक पतंग उड़ाने का आनन्द लूटा। पतंग और हिचका लेकर जब धरपकड़ घर पहुँचे तो उनके पिता किसी जिम्मेदार सैनिक की तरह कमर कसे धरपकड़ से निपटने के लिए मुस्तैद खड़े थे। दरअसल, पतंग उड़ाते वक्त, आसमान को चूमती हुई पतंग को सधे हुए हाथों से गोता खिलाते वक्त धरपकड़ के जो मित्र, धरपकड़ की वाहवाही...कर रहे थे उन्होंने ही जाकर पिता से चुगलखोरी कर दी थी। धरपकड़ को देखते ही पिता का क्रोध गलियारे में ही उबल पड़ा। बाँस की फसंटी से जब धरपकड़ की पिटाई होने लगी तो उन्हें नानी याद आ गई। अन्ततः अम्मा को बाहर निकलकर बीच-बचाव करना पड़ा। बेचारी अम्मा को भी दो-चार संटियों की मार व्यर्थ झेलनी पड़ी।
और दूसरे दिन पिता का यह सोचना कि अब विद्याधर ठीक हो जाएगा उस समय दरक गया, जब उन्हें खबर मिली कि विद्याधर ने शिकायत करनेवाले मित्र कल्लू की तलैया पर जमकर पिटाई की और फिर उसे उठाकर कीचड़ में पटक दिया।
दरअसल पिता द्वारा सख्ती बरतने के कारण वे और-और कट्टर, उद्दण्ड होते चले गए। जो भी उनका विरोध करता वे उसे तोड़-मरोड़ देते। इस बीच उन्होंने कुछ आदिवासी और हरिजन हम उम्रों से जोड़-तोड़ बिठाकर पाँच-छह मित्रों का एक सुदृढ़ संगठन तैयार कर लिया था। इस संगठन के गठजोड़ से धरपकड़ के हमउम्र लड़के दहशत खाने लगे थे। अब वे धरपकड़ की चाटुकारिता में ही अपनी भलमनसाहत समझते। संगठन बन जाने से धरपकड़ और दबंग होते चले गये। इस दबंगता का सबूत उन्होंने उस वक्त दे दिया जब वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। डॉ. राधाकृष्णन का जन्मदिन ‘शिक्षक दिवस' के रूप में स्कूल में मनाया गया। जिला शिक्षा अधिकारी बतौर मुख्य अतिथि जिला मुख्यालय से बुलाए गए। दो-चार शिक्षकों द्वारा भाषण देने के बाद जब मुख्य अतिथि ने अपने भाषण की शुरुआत की, डॉ. राधाकृष्णन शिक्षकों के लिए गौरव का विषय थे, वे साधारण शिक्षक से बढ़कर देश के राष्ट्रपति बने...। ठीक इसी वक्त धरपकड़ अपने स्थान पर खड़े होकर बिना कोई औपचारिकता व्यक्त किए बुलन्दी के साथ हवा में हाथ हिलाकर बोले, ‘‘डॉ. राधाकृष्णन का शिक्षक से राष्ट्रपति बनना डॉ. राधाकृष्णन के लिए तो गौरव की बात है, पर शिक्षकों के लिए गौरव की बात तब होती जब डॉ. राधाकृष्णन राष्ट्रपति पद छोड़कर साधारण शिक्षक बन जाते।''
पूरी सभा दंग रह गई। सभी दत्तचित्त धरपकड़ को घूर रहे थे। धरपकड़ के बैठने के साथ ही उनके मित्रों ने जोरदार तालियाँ बजाकर भाषण को सार्थकता दे दी। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि पहली ताली धरपकड़ ने ही बजाई थी और कोहनियों से आजू-बाजू बैठे मित्रों को कोंचकर तालियाँ बजाने का इशारा किया था।
खैर, आरोपों की परवाह करना तो उनके स्वभाव में था ही नहीं। इसलिए वे तड़ातड़ उन परम्पराओं को तोड़ते चले गए जो उन्हें तर्कसंगत नहीं लगीं। इसीलिए धरपकड़ को बुजुर्गों द्वारा दिया गया निकम्मा, नकारा का खिताब ओढ़ना पड़ा। लेकिन धरपकड़ बेअसर ही रहे। उन्हें जो करना है, सो करना है, फिर चाहे परिणाम अनुकूल रहे या प्रतिकूल। अच्छे परिणाम की चिन्ता वह करे जिसे भविष्य की चिन्ता हो? धरपकड़ ने तो कभी एकचित्त होकर भविष्य के बारे में कुछ निश्चित सोचा ही नहीं। और अनिश्चितता के इस प्रवाह में उनके जीवन के अठारह वर्ष गुजर गए। अब तक वे हायर सेकेण्ड्री की परीक्षा में दो बार फेल हो चुके थे और तीसरी बार परीक्षा देकर पास होने की ट्राई कर रहे थे। इस बीच उनके तीनों बड़े भाइयों ने सपूत होने का परिचय प्रस्तुत कर पिता का सीना गर्व से तान दिया था। सबसे बड़ा भाई रामरतन शर्मा हायर सेकेण्ड्री परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होकर शिक्षाकर्मी बन गया था और पिता ने बगल के गाँव के प्रसिद्ध ब्राह्मण परिवार की मिडिल पास नाबालिग कन्या के पिता से भरपूर दहेज लेकर शादी भी कर दी थी। उससे छोटा लखन पटवारियान की ट्रेनिंग पास कर पटवारी हो गया और तीसरे ने ग्रामसेवक बनकर अपने सपूत होने का परिचय दे दिया था। इन दोनों भाइयों की भी पिता ने प्रतिष्ठित परिवारों की मामूली पढ़ी-लिखी कन्याओं से मनचाहा दहेज लेकर शादियाँ कर दी थीं।
अब चिन्ता थी तो विद्याधर की? विद्याधर की करतूतों की वजह से कई बार समाज में उन्हें शर्मिन्दा होना पड़ा था। यहाँ तक कि अपराधी भाव से विद्याधर की ओर से उन्हें एक-दो बार लोगों से माफी भी माँगनी पड़ी थी। लेकिन अब वे किसी भी तरह बेटे की करतूतों से निजात पा लेने की फिक्र में थे। कुछ बुजुर्गों ने इसका उपाय सुझाया कि धरपकड़ का विवाह कर उसके सिर गृहस्थी का बोझ लाद दिया जाए। पिता तैयार भी हो गए। पर विद्याधर तो थे पूरी बिरादरी समाज में बदनाम! ऐसे दुश्चरित्र नकारा को कौन माँ-बाप आसानी से अपनी बिटिया ब्याह दे? ऐसे बेपेंदी के लड़के का क्या भरोसा कहीं ब्याह के बाद पत्नी को छोड़कर नौ दो ग्यारह ही हो जाए?
खैर, इधर पिता विद्याधर का ब्याह रचाने के लिए जुगत बैठाने में लगे थे, उधर विद्याधर अपना राग अलग ही अलाप रहे थे।
ठाकुर हरदेव सिंह से भयंकर झड़प होने के बाद धरपकड़ कुछ शान्त हो गए थे। इसका मतलब यह मत समझ लीजिए कि धरपकड़ ठाकुर से मात खा गए थे अथवा डर व सहम गए थे। ठाकुर हरदेव सिंह भले ही अपनी सरपंची बपौती समझते हों पर धरपकड़ ने सरपंच हरदेव सिंह को छिंगली अँगुली पर ही गिना। एक दिन पिता की तबीयत खराब हो जाने के कारण धरपकड़ को ठाकुर के मन्दिर की पूजा करने जाना पड़ा। धरपकड़ के पिता ठाकुरों के मन्दिर के खानदानी पुजारी थे। पूजा के बदले दस बीघा माफी की जमीन जमींदारी के समय से ही मिली हुई थी और पूजा के वक्त रोज सुबह एक थाली सीधा दिया जाता। सीधे में एक खोवा आटा, एक कटोरी दाल, दो नमक के डेले, एक लाल मिर्च और एक चम्मच घी मिलता, उसी घी से भगवान को भोग लगता।
धरपकड़ जब पूजा करने के लिए सीधे की थाली हाथ में लिये मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तब ठाकुर हरदेव सिंह ने वैसे ही चिढ़ाने के लहजे में कह दिया, ‘‘काहे मोढ़ा नहा-धो आयो के वैसेई वासे मोढ़े उठ के पूजा करने चलो आओ?''
नाक पर सदा गुस्सा रखकर चलने वाले धरपकड़ भला ठाकुर की इतनी बात कैसे सुनते? एक तो वैसे ही उनकी पूजा-अर्चना में श्रद्धा नहीं थी। दूसरे, पिता की चार-छह गालियाँ सुनने के बाद वे जबरदस्ती पूजा के लिए आए थे। जिस पर ठाकुर ने कटाक्ष कसकर जले पर नमक छिड़क दिया था। फिर क्या था धरपकड़ ने सीधे की थाली मन्दिर की देहरी पर दे मारी, भगवान को नहलाने के लिए रखी हुई बाल्टी में लात दे मारी और ठाकुर की ओर मुखातिब होकर उबल पड़े, ‘‘थोड़ा-सा सीधा क्या देते हो...? रोब पेलते हो...। रखो अपना सीधा अपने घर। जिसे सीधे की भूख हो उससे पूजा करा लेना। धरपकड़ किसी के दानों का मोहताज नहीं है।''
खैर, गाँव के बड़े-बुजुर्गों ने धरपकड़ के सिर पर ‘सिर फिर जाने' का आरोप लगाकर ठाकुर और ब्राह्मण के सम्बन्धों को बिगड़ने से सँभाल लिया, पर धरपकड़ सरपंची के चुनाव में ठाकुर का विरोध करना न भूले। जी-जान लगाकर उन्होंने ठाकुर का विरोध किया। धरपकड़ अपने इस प्रयास में सफल तो नहीं हुए पर वे ठाकुर के स्थायी प्रतिद्वन्द्वी अवश्य हो गए। ठाकुर से विरोध मोल लेने की कड़ी में ही धरपकड़ ने राजनीति का पहला पाठ सीखा था।
बहरहाल, इस घटना के बाद धरपकड़ एकान्त तलाशने लगे। घर में तो उनका मन पहले भी कभी नहीं रमा था, सो अब कैसे रमता? अब तो धरपकड़ पर फब्तियाँ फेंकनेवाली तीन-तीन भाभियाँ थीं। जब कभी भी धरपकड़ भाभियों की आँखों के सामने आते तो एक भाभी दूसरी भाभी को सम्बोधित कर प्रतीकात्मक ढंग से धरपकड़ पर व्यंग्यबाण फेंकती। इन बाणों से धरपकड़ तिलमिलाते तो जरूर पर प्रतिकारस्वरूप कहते कुछ नहीं। परिवार के लोगों से मुँह चलाना उनकी आदत में शुमार था ही नहीं। पिता और भाई कितनी भी गालियाँ दे लें, कुछ भी कह लें उन्होंने कभी बराबर मुँह नहीं चलाया। इतने दुष्कृत्य करते चले आने के बावजूद परिवार से साथ निभाए चले आने का यही एकमात्र राज था। खैर, धरपकड़ चुपचाप अटा पर चढ़ जाते। अम्मा वहीं उन्हें खाना-पानी दे जाती। धरपकड़ ने कितना कुछ भी किया हो अम्मा की नजरों में वे कभी नहीं गिरे। अम्मा का स्नेहिल वरदहस्त सदा ही धरपकड़ के सिर पर रहता। एक अम्मा ही थीं जिनके सामने जाने क्यों धरपकड़ के हृदय की कठोरता मोम के माफिक पिघलने लगती और वे अम्मा की गोद में सिर छुपाकर नन्हे बच्चे की तरह सुबकने लगते। लेकिन सच यह कुछ भी नहीं था। सच यह था कि इस एकान्त में धरपकड़ अपनी जवानी की हँडिया में विधवा बिमला के साथ प्यार की दाल पका रहे थे। यानी कैशोर्य की हँडिया में खदबदाने के काबिल हो रहे थे...।
धरपकड़ के पिता बिमला को बेटी और भाई जीजी कहते। पर धरपकड़ इन रिश्तों की ओट में नया रिश्ता कायम करने के लिए बिमला के संग निराला खेल खेल रहे थे। उन्होंने दूर के रिश्तों को कभी महत्त्व नहीं दिया। उनकी नजर में सगे रिश्ते ही सगे थे। फिर बिमला के पिता के पिता, दादा, परदादा के पिता भाई-भाई थे। खैर, अब आपको पीढ़ियों के इतिहास से क्या लेना-देना? शायद आप ऊब गए होंगे, आइए मुख्य पहलू पर पहुँचते हैं...।
हाँ, तो इस रिश्ते को तोड़ने की शत-प्रतिशत पहल धरपकड़ ने ही नहीं की थी, बल्कि बिमला भी अन्दरूनी पहल कर रही थी। अब बेचारी बिमला भी क्या करे? भरी जवानी में उसे वैधव्य भोगना पड़ा। ससुरालवालों की तरफ से तो इतना तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसे ससुराल ही छोड़नी पड़ी। और यहाँ मायके में यह समझिए कि उसे आश्रय भर मिल गया था। काकी और भाभियों के तिलमिला देनेवाले तानों के बीच बस जैसे-तैसे जी रही थी। या यह समझिए नारी जातिके लिए वैधव्य एक अपराध है जिसका वह दण्ड भोग रही थी। उसे उस अटा में आश्रय दिया था जो सीलन और अँधेरे से भरा था। बरसात में खपरैल लगातार चूते रहते। ऐसे में वह किसी एक कोने में चटाई बिछाकर कम्बल ओढे़ पड़ी अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती रहती। उसे खाने को मिलता दाल का पानी और रूखी रोटियाँ।
यह थी आँखों को आर्द्र, कर देनेवाली दारुण व्यथा-कथा जो उसने अटा की खिड़की से, आँखों की भाषा से धरपकड़ को सुनाई, पढ़ाई थी। यही मर्म बन गया दोनों के प्रेम का आधार...सम्बल...।
बुजुर्गों का कहना है�प्यार अन्धा होता है, प्यार पागल होता है, प्यार आग होता है। सो बुजुर्गों के इस अनुभवी कथन के अनुरूप दोनों अन्धे हो गए। पागल हो गए। और लोक-लाज, मान-मर्यादा, नाते-रिश्ते सब ताक पर रख मौका पाकर मन्दिर की परिक्रमा में अभिसार करने लगे। धरपकड़ ने तो कभी अपने भविष्य को ही गम्भीरता से नहीं लिया था फिर भला वे बिमला के भविष्य के बारे में इज्जत-आबरू की क्या परवाह करते? उन्हें तो परिक्रमा में अवतरित होनेवाले क्षण दुनियादारी की आँखों से प्रच्छन्न लगते। पर यही भ्रम था उनका। उन क्षणों में कुछ ऋणात्मक पूर्वाभास नहीं होने के बावजूद...दीवारों के कान थे...हवा में भी जुबान थी...वक्त की आँखें थीं। वक्त ने करवट बदली और धरपकड़ एवं बिमला मन्दिर की परिक्रमा में..., हाय...! हाय...! धार्मिक स्थान पर...! रामराम साक्षात् प्रभु की आँखों के सामने घोर जघन्य अपराध करते हुए पकड़ लिये गए। पकड़ने वाली थीं बिमला की काकी और भाभी। जो आठों प्रहर चौबीसों घण्टे उस पर खार खाये बैठी रहती थीं। और इधर धरपकड़ की तीनों भाभियाँ जो धरपकड़ को हमेशा-हमेशा के लिए घर से बेदखल करने का उपाय खोज रही थीं। अब गत तो दोनों की ही बुरी होनी थी। बिमला की काकी और भाभियों ने बिमला की वही लातों, घूँसों से राँड़, चुडै़ल, रण्डी के सम्बोधन देते हुए कुटाई-पिटाई करनी शुरू कर दी। मामला पूरी तरह बिगड़ते देख धरपकड़ अपनी भाभियों को धक्का-मुक्का देते हुए, हाथ में चड्ढी लिये नंगे पैर भाग खड़े हुए।
देखते-सुनते गाँव के सारे लोग मन्दिर के आसपास आ खड़े हुए। शर्म और थू-थू की ग्लानि से सबके चेहरे लज्जा से झुके थे। गाँव के इतिहास में वह हो गया था जो पहले कभी नहीं हुआ था। धरपकड़ और बिमला के माँ-बाप की नाक तो कट ही गई थी। वे किसी को मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रह गए थे। यदि उन्हें ऐसा पूर्वाभास होता कि उनकी सन्तानें इस हद तक नीच निकलेंगी तो सम्भवतः वे जनमते ही गला घोंट देते। यहाँ चरितार्थ हो गई थी धरपकड़ के पिता की वह टिप्पणी जो उन्होंने धरपकड़ को कपूत सिद्ध करने के लिए दी थी।
इस कथा के प्रमुख पात्र हैं...विद्याधर शर्मा उर्फ धरपकड़ तो आलतू-फालतू की बातें यही छोड़ मुख्य चरित्र का ही पारायण करते हैं...
धरपकड़ एक बजरंगबली के मन्दिर में शरण पाने में सफल हो गए। यहाँ कोई विशेष काम-धाम तो था नहीं, बस अलख सबेरे उठकर मन्दिर को कुएँ से पानी खींचकर धोना पड़ता। फिर जब सूरज चढ़ आता तब पुजारी की थुलथुल देह की मालिश करनी पड़ती। इस कार्य के बदले, पुजारी ने धरपकड़ की खाने-पीने की जिम्मेदारी ले ली थी। मंगलवार और शनिवार को मेवा-मिष्ठान का भोग लगता, कुछ भक्तजन दूध भी दे जाते। यहीं सीखे थे धरपकड़ बमबम भोले, हर-हर महादेव और जय भवानी शंकर के रणभेरी उच्चारणों के बीच भाँग का गोला गटकना, गाँजे की चिलमों के कश खींचना। अब उनकी सेहत बन चली थी। गाँव में माता-पिता का जो थोड़ा-बहुत अंकुश था वह यहाँ बिलकुल समाप्त हो गया था। याद भी उन्हें किसी की नहीं सताती। हाँ, जब कभी अम्मा का निर्मल-निश्छल चेहरा उनकी आँखों के सामने झूल जाता। पर वे अम्मा से मिलने के लिए छटपटाए कभी नहीं। हाँ बिमला की याद जरूर जब कभी उन्हें बेहद सता जाती लेकिन बिमला की ओर से वे इतने निश्चिन्त थे कि उन्होंने गाँव से पलायन करने के बाद, ‘बिमला का क्या हश्र हुआ होगा?' इस प्रश्न पर कभी गौर ही नहीं किया था।
इधर उनके आश्चर्य की तब सीमा नहीं रही जब उन्होंने अखबारों में प्रकाशित हुए परीक्षाफल में तृतीय श्रेणी के रोल नम्बरों में अपना रोल नम्बर देख लिया। उन्हें तो कभी अपने पर यह विश्वास ही नहीं हुआ था कि वे जीवन में इण्टर पास भी कर पाएँगे? आज के दिन उन्होंने प्रभु के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया और आनेवाले मंगलवार के दिन पुजारी की आँखों से बचाकर, चढ़ोत्तरी में से पैसे चुराकर इक्कीस रुपये का गुड़-चने का भोग भी लगाया तथा संकल्प लिया कि अब कॉलेज में भर्ती होकर मन लगाकर पढ़ेंगे। अब जीवन को कुछ बना देने के बारे में धरपकड़ गम्भीर थे।
गर्मियों को छुटि्टयाँ समाप्त होने के बाद जब कॉलेज में प्रवेश आरम्भ हुए तब उनके गाँव के लड़के भी कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए आए। हालाँकि वे लड़के धरपकड़ के दोस्त नहीं थे। धरपकड़ ने अपने खिलाफ जाने के जुर्म में एक-दो की धुनाई भी की थी। पर इस वक्त वे भेदभाव सब भूलकर उनके निकट पहुँचकर उनसे गाँव के हालचाल की कैफियत तलब करने लगे, बहुत नम्रता-विनम्रता के साथ।
उस घटना के बाद लगभग एक हफ्ते गाँव की हवा बिमला और धरपकड़ की चर्चाओं से गरम रही थी। धरपकड़ तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे और गाँव की नंगी-नंगी गालियों से जलील हुई बेचारी बिमला! बिमला को ताला बन्द कमरे में रखा जाने लगा था। बस दाना-पानी और टट्टी-पेशाब के लि उसे छूट दी जाती। इस वक्त भी उसकी एक न एक भाभी पहरेदार की तरह उसके संग रहती। अब उसकी देह भी सूखकर काँटा हो गई थी।
धरपकड़ के पिता ने इस घटना की सारी जिम्मेदारी धरपकड़ की माँ पर लादकर उनकी बेसाख्ता पिटाई लगाई थी। यहाँ तक कि उनके शरीर से लहू रिसने लगा था। उन्होंने बहुओं को भी खूब खरी-खोटी सुनाई थी, ‘‘आखिर जब उन्हें इस कुकर्म का पता चल ही गया था तो सरेआम डंका पीटने की क्या जरूरत थी? खानदान की सारी इज्जत-आबरू खड़े-खड़े दो टके में ही नीलाम कर दी। बड़े-बूढ़ों से कह दिया होता तो घर की बात घर में ही निपटा-सुलझा लेते और उस हरामी का काला मुँह कर चुपचाप घर से निकाल देते। वह तो पैदा ही ऐसे अशुभ नक्षत्रों में हुआ है कि सारे कुल की लाज डूबनी ही थी? अपनी ही करनी में खोट था दोष किसे दें? न जाने पूर्व जन्म में कौन से पाप किए थे जो आज यह दिन देखने पड़ रहे हैं। अब तो मौत के आए ही जी को चैन मिलेगा?'' धरपकड़ को सबसे ज्यादा आघात देनेवाली बात लगी कि अब अम्मा का विश्वास भी उनसे उठ गया है। उनकी अम्मा ने यह कभी नहीं सोचा था कि यह नासपीटा जिस थाली में खाएगा उसी में छेद कर कुल की नाक कटा देगा?
इस वक्त धरपकड़ को अपनी कारगुजारी पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। बरबस ही उनकी आँखों में आँसू छलछला आए। धरपकड़ ने अपने मित्रों को मन्दिर में लाकर रहने और खाने-पीने की उचित व्यवस्था की जानकारी दी। वहीं उन्हें चाय पिलाते-पिलाते अपने गाँधी डिवीजन से पास हो जाने की खबर भी दी। फिर उन लोगों से स्कूल से किसी भी तरीके से अंकसूची निकाल लाने की याचना की। और बाद में उनके तथा स्वयं का कॉलेज में प्रवेश से लेकर किराए का मकान दिलाने की जिम्मेदारी स्वयं ले ली। तब जाकर उन्होंने बड़े ही आत्मीय भाव से मित्रों को गाँव जानेवाली मोटर में बिठाकर विदा ली।
शहर में आने के बाद से धरपकड़ को धरपकड़ नाम से कोई नहीं जानता था। सब उन्हें विद्याधर नाम से ही जानते। गाँव से जो लड़के पढ़ने आए थे वे भी उन्हें विद्याधर नाम से ही पुकारते। उन लोगों की विद्याधर ने बड़ी सहायता की। भागदौड़ करके कमरे किराए पर दिलाए। वे लोग भी विद्याधर की अंकसूची स्कूल से निकलवा लाए थे। अब विद्याधर राजकीय महाविद्यालय में बीए प्रथम वर्ष के छात्र थे। कॉलेज में प्रवेश लेते ही उन्होंने वरिष्ठ छात्रों से तालमेल बिठा दोस्ती कायम कर ली थी। नतीजतन वे वरिष्ठ छात्रों के जरिए नवोदित छात्रों के ऑफिशियल कार्य बड़ी सुगमता से निपटवा देते। इस कारण वे जल्दी ही लोकप्रिय हो गए। जब तक वे कॉलेज में रहते उनके आजू-बाजू चार-छह छात्रों की भीड़ लगी रहती। कॉलेज खुलने से लेकर बन्द होने तक वे कॉलेज में ही मँडराते रहते। छात्रों का परोपकार करते हुए उन्हें बड़ी ही आत्मसन्तोष की अनुभूति होती। सारे दिन कॉलेज में अपने वजूद की उपस्थिति बनाए रखने के कारण ही वे छात्रनेता और छात्रगुण्डों के भी निकट आ गए थे। वे सबसे भैया-दादा कहकर मिलते और अपनी सेवाएँ अर्पित करने की जिज्ञासा प्रगट करते। प्रतिदिन कोई न कोई उदार हृदय छात्र उन्हें चाय-नाश्ता करा जाता। सिगरेट के दौर तो सारे दिन दरियादिली की तरह चलते। अब उन्हें सिगरेट पिलाने के लिए काम कराने आए छात्र से अनुरोध करने में कतई संकोच न लगता। सिगरेट पीते हुए किसी भी छात्र से सिगरेट माँग लेना वे अपना हक समझने लगे थे। वे अन्दर ही अन्दर एहसास कर रहे थे कि वे अब मुखर, बुलन्द एवं निःसंकोची होते जा रहे हैं।
विद्याधर ने अब मन्दिर से छुट्टी पा ली थी। वहाँ के मर्यादित नियमों का पालन करना वैसे भी उनके बूते की बात नहीं थी। जिस पर उन्हें पुजारी की रगड़-रगड़कर बेनागा चम्पी करनी पड़ती। ऊपर से जी-हुजूरी और खुट्टेबरदारी अलग। वह तो मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी सो वे इतने दिन वहाँ रमे रहे वरना रोब-रुतबे वाले विद्याधर तो एक भी दिन वहाँ न टिकते।
मन्दिर को तिलांजलि दे वे टिक गए थे अपने ही गाँव के लड़के डालचन्द के कमरे में। डालचन्द बनिया का लड़का था। स्वभाव से वह डरपोक एवं बुजदिल था। अतः वह भी अपनी सुरक्षा के लिए किसी का सहारा चाहता था और उसे इत्तफाकन ही मजबूत रक्षाकवच के रूप में मिल गया विद्याधर। विद्याधर की अहमियत से वह परिचित था ही, विद्याधर के साथ-साथ कॉलेज आते या जाते समय छात्र विद्याधर के साथ उसे भी सलाम ठोंकते और अपनत्व प्रगट करते हुए सख्ती से हाथ मिलाते। ऐसे रूम-मेट को पाकर डालचन्द निहाल हो गया था। अपने पल्ले से विद्याधर को खाना खिलाने की जिम्मेदारी भी डालचन्द ने ले ली थी। विद्याधर जानता था, लक्ष्मी-पुत्र के पास दौलत की कमी हो ही नहीं सकती? हालाँकि डालचन्द के पिता हिसाब-किताब से ही खर्च के लिए धन भेजते और पाई-पाई डालचन्द के पढ़ाई खर्चे के नाम खोले गए खाते में दर्ज कर देते, जिससे शादी के वक्त एक-एक पैसा दहेज के रूप में वसूल लिया जाए। लेकिन विद्याधर जानता था कि डालचन्द जब भी गाँव जाया करेगा तब दो-चार दिन गल्ले पर बैठकर हजार-पाँच सौ रुपये सहज ही उड़ा दिया करेगा, इसके अलावा अपनी अम्मा को पटियाकर अलग से कुछ न कुछ रुपये ले आया करेगा। उसकी अम्मा भी भला चार लड़कियों पर एकमात्र पुत्र के खर्चे-वर्चे में कमी कैसे बरदाश्त कर सकती थीं?
होते-हवाते कॉलेज में चुनावी माहौल की सरगर्मी तैर गई। मित्रों के आग्रह पर विद्याधर भी कक्षा प्रतिनिधि के लिए खड़े हो गए। लोकप्रियता की पहली सीढ़ी तो वे कॉलेज में प्रवेश लेने के दौर में ही चढ़ गए थे। इसी कारण उन्हें छात्रसंघ के भूतपूर्व नेताओं का भरपूर समर्थन मिला। कॉलेज राजनीति के साथ कूटनीति का पाठ भी उन्हीं से विद्याधर ने सीख लिया। इस दौर में विद्याधर उन छात्राओं के भी पैर छूने से नहीं चूके जिन्हें वे कॉलेज कैम्पस में सिगरेट के छल्ले उड़ाकर गन्दी-गन्दी फब्तियाँ कस, छेड़ने से नहीं चूके थे। आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र की चारों नीतियाँ�साम, दाम, दण्ड और भेद को खूब अपनाया-भुनाया। और अन्ततः विद्याधर सगर्व चुनाव जीत गए। इस तरह महाविद्यालय के प्रमुख छात्रों में उनकी गिनती हो गई। चुनाव में विजयी होने के बाद विद्याधर कुछ रईस छात्रों के निकट आ गए थे। उनकी निकटता पाकर विद्याधर मांस-मछली खाना एवं मयखानों में हलाहल मदिरा भरकर हलक के नीचे गटागट उतारना सीख गए।
कुछ समय पश्चात् विद्याधर को खबर मिली कि बिमला ने गाँव के खारे कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर ली। सुनी-सुनी यह भी खबर मिली कि बिमला को तीन माह का गर्भ था। ऐसा नहीं था कि बिमला की मृत्यु की खबर सुनकर विद्याधर को दुख न हुआ हो। वे बेहद दुखी हुए। प्रत्यक्षदर्शी डालचन्द का कहना था कि खबर वाली रात, रात भर रोते रहे थे।
समय की नियति है गुजरते रहना, सो समय गुजरता गया। विद्याधर थर्ड डिवीजन से बीए पास कर गए। एमए में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार बने। वहाँ तक आते-आते विद्याधर बहुत परिपक्व हो गए थे। कॉलेज राजनीति वे एक साधारण खेल की तरह खेल रहे थे। मँजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह वे अध्यक्ष पद के चुनाव में भारी बहुमत से विजयी घोषित हुए। यहाँ राजनीतिक पार्टियों का उन्हें खुला समर्थन मिला। इसी वजह से वे शहर के प्रमुख राजनीतिज्ञों के निकट आ गए। अब विद्याधर ज्यादातर उन्हीं के साथ उठते-बैठते थे।
विद्याधर अब चौबीसवें वर्ष में सफर कर रहे थे। वे एमए कर चुके थे और रोजी-रोटी की जुगाड़ में किसी धन्धे की जुगत बिठाने के चक्कर में थे। नौकरी उन्हें आसानी से मिल जाए इतनी योग्यता वे खुद में नहीं पाते थे। तब धन्धे के लिए मुद्रा संकट उनके सामने मुँह बाए खड़ा था। स्थानीय नेताओं से दबाव डलवाकर नगरपालिका से एक गुमटी उन्होंने हथिया ली थी। फिर अपने बूते का सारा जोर लगाकर बैंक से पच्चीस हजार रुपये का कर्ज भी ले लेने में वे सफल हो गए। अब क्या था, विद्याधर पान के पत्तों पर कत्था-चूना रगड़ने लगे। पर कुछ ही दिनों बाद उन्हें लगने लगा कि वे इस धन्धे में जम नहीं पाएँगे।
सुबह ले लेकर रात दस बजे तक कमर तिरछी करके बैठे रहना उनकी औकात से बाहर की बात थी।
खैर, दुकान पर जमे रहने के लिए उन्होंने भाँग की गोलियों का सहारा लेना शुरू कर दिया। रोज ही वे पाँच से लेकर पन्द्रह गोलियाँ गटक जाते। कुछ दिन तो वे सहज रहे, पर कुछ ही दिनों में उन्हें महसूस होने लगा कि दोपहर बाद उनका मस्तिष्क चटकने लगता है और सारे शरीर में जैसे गर्मी भर जाती है। तब वे दुकान में ताला डाल देते और घण्टों नदी की धारा में लेटे रहते। पानी की शीतलता से उन्हें शान्ति मिलती। मस्तिष्क में तरावट की अनुभूति होती। पर यह कोई स्थायी इलाज नहीं था। रोज दोपहर के बाद मस्तिष्क की नसें फटने लगतीं। ऐसी विषम परिस्थिति में विद्याधर कोई काम न कर पाते। उनके मस्तिष्क में बुद्धि जैसे उस वक्त गायब हो जाती। सिर में जैसे कोई सनक सवार होकर उन्हें अनर्गल हरकतें करने को बाध्य करने लगती। बुद्धि अनियन्त्रित होने लगती। उन्हें लगता कि मन-मुताबिक कोई काम हाथ नहीं होने के कारण वे जिन्दगी की गति से कदमताल नहीं मिला पा रहे हैं। शायद इसी का दुष्परिणाम है कि वे मनोरोगी होते जा रहे हैं। आखिर इस समस्या के स्थायी उपचार के लिए मित्रों की सलाह पर उन्होंने मनोचिकित्सक का रुख किया। मनोचिकित्सक ने उन्हें कुछ बिजली के झटके दिए और एक माह के लिए खाने की गोलियों का कोर्स दिया। इस संयुक्त उपचार के बाद उन्हें लगने लगा कि दिमागी तन्त्र में कोई ऐसी रासायनिक प्रक्रिया शुरू होने लगी है जो उन्हें अवसाद से उबारने के काम में जुटी है।
प्रिय पाठको यहाँ हम आपको बता दें कि यह वह समय है जब आपात्काल की काली छाया से मुक्त होने के बाद देश आम चुनाव के दौर से गुजर रहा है। आपात्काल का उद्घोषक दल और उसके नेता बदलते हालातों से हैरानी में हैं और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभार में आया गैर काँग्रेसवाद उफान मार रहा है। अपनी अकूत धन-सम्पत्ति को बचाने के लिए कई पूर्व राजा-महाराजा, सामन्त नियोजित योजना के अन्तर्गत हित-सुरक्षा की विलक्षण नीति अपना रहे हैं। माँ,भाजपा में सिरमौर है तो बेटे ने काँग्रेस का दामन थाम लिया है। ऐसा ही कुछ तमाशा इस क्षेत्र में परवान चढ़ रहा है, जिस क्षेत्र में विद्याधर जैसे परिवार व समाज से नकार व बिसार दिए गए पात्र चरित्र विकास और वैयक्तिक उत्थान में लगे हैं।
श्रीमन्त और महाराज जैसे अप्रजातान्त्रिक सम्बोधनों से सम्बोधित किए जानेवाले महाराजा इस इलाके के काँग्रेस समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार हैं। वे काँग्रेस समर्थित इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने जब यह अनुभव किया कि काँग्रेस के विपरीत लहर है तो उन्होंने काँग्रेस के चुनाव-चिह्न पर चुनाव लड़ने की बजाय अपने राजवंश के प्रतीक चिद्द ‘उगते सूरज' पर चुनाव लड़ा। महाराजा को काँग्रेस समर्थित प्रत्याशी बनाए जाने से, जो बुनियादी काँग्रेसी, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और वैचारिकता से जुड़े थे, उनकी नाराजगी स्वाभाविक थी, क्योंकि ये काँग्रेसी, एकाएक उस राजवंश के वंशज से कैसे तालमेल बिठाते, जिनकी राजशाही के विरुद्ध उन्होंने संग्राम लड़ा। जेल गए। बहरहाल महाराजा ने कुटिल चतुराई से काम लेते हुए युवाओं को अपने वैभव से लुभाने के लिए शतरंजी चालें चलना शुरू कर दीं। उन्हें अपनी विदेशी आलीशान कार में ही नहीं हेलीकॉप्टर में भी एक-एक कर बिठाना शुरू कर दिया। युवा प्रमुखों को प्रचार के लिए जीपें तो दी ही गईं, उन्हें मुक्तहस्त से खर्चे के लिए नकद राशि भी दी गई। रात्रि में लौटने पर कार्यकर्ताओं को भोजन की उत्तम व्यवस्था के साथ शराब के भी इन्तजामात कर दिए गए। इस इलाके में चुनाव के दौरान वैभव प्रदर्शन और फिजूलखर्ची के हालात पहली बार निर्मित हो रहे थे। इस वैभव और फिजूलखर्ची के समक्ष प्रतिद्वन्द्वी स्वतन्त्रता संग्राम से जुडे़ जनता दल प्रत्याशी लाचारी की स्थिति में थे। उनकी स्थिति तब और बिगड़ गई जब महाराजा से पारिवारिक सम्बन्धों का लिहाज करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और विजयाराजे सिन्धिया जैसे आला नेताओं ने इस क्षेत्र में चुनाव-प्रचार के लिए आने से ही इनकार कर दिया।
हमारे नायक विद्याधर ऐसे ही किसी अचूक मौके की तलाश में थे। वे अपने कॉलेज अध्यक्ष जैसी उपलब्धि और वाक्चातुर्य के चलते महाराजा के निकट आ गए। अपनी कॉलेज टीम को भी विद्याधर ने प्रचार अभियान से जोड़ लिया। एक जीप भी उन्हें प्रचार के लिए दे दी गई। लौटने पर रात्रि में थकान मिटाने का इन्तजाम पूर्व से थे ही। अब क्या था विद्याधर मौज में थे। शराब के मुफ्त सेवन की दिनचर्या से उनकी भाँग की लत जाती रही।
विद्याधर महाराज की नजरों में बने रहने के लिए यह चतुराई हमेशा बरतते कि महाराज का आसपास के जिस किसी भी गाँव अथवा कस्बे में दौरा कार्यक्रम, सभा, नुक्कड़ सभा होती तो वे वहाँ हरहाल में उपस्थित बने रहकर अग्रणी बने रहते। माल्यार्पण में भी आगे रहने के साथ महाराज के चरणों में सिर रखने से विद्याधर कभी न चूकते।
ऐसे ही एक अवसर पर एक कस्बे में जब महाराज नुक्कड़ सभा ले रहे थे तब अनायास ही एक अनहोनी घट गई। विरोधी दल के कुछ हुड़दंगे एकाएक प्रगट होकर चिल्लाने लगे, ‘‘देश के गद्दारों!...भागो...। रानी झाँसी और तात्याटोपे के हत्यारों भागो...।'' और फिर महाराज पर ईंट-पत्थर फिंकना शुरू हो गए। सभा में भगदड़ मच गई। सभा भंग हो गई।
विद्याधर के लिए जैसे चुनौतीभरा यह शुभ अवसर था। वे मौके की नजाकत समझ महाराज की तरफ भीड़ को धकियाते दौड़ पड़े। फिर महाराज के ठीक आगे आकर महाराज का हाथ पकड़ उन्हें लगभग खींचते हुए कार की तरफ चल पड़े। चालक पहले से ही कार स्टार्ट किए व फाटक खोले खड़ा था। विद्याधर ने तुरन्त महाराज को कार के भीतर ठेला और फिर खुद भी जब कार में घुसने लगे तो एक पत्थर उनकी कनपटी में लगा। विद्याधर ने फुर्ती से फाटक बन्द कर दिया और चालक को हुक्म दिया, ‘‘भगा गाड़ी, जितनी तेज भगा सके।'' विद्याधर ने जैसे महाराज को मौत के बवण्डर से निकालने में कामयाबी हासिल कर ली हो...? कार की एक खिड़की और पीछे का काँच-पत्थर लगने से चटक गए थे।
जब कस्बे की सरहद छोड़ कार खुले में आई तो महाराज की दुश्चिन्ता दूर हुई और विद्याधर को कनपटी में लगे पत्थर का अहसास हुआ। विद्याधर ने जब चोट लगी जगह पर अँगुली लगाई तो गीलेपन की अनुभूति हुई। और फिर जब अँगुली आँखों के सामने लाकर देखी तो खून से लाल थी। महाराज की निगाह भी खून पर पड़ी। वे एकाएक बोले, ‘‘अरे विद्याधर तुम्हें तो चोट लगी है, खून बह रहा है। यह रूमाल लगा लो...।'' महाराज ने कुर्ते की जेब से रूमाल निकालकर विद्याधर को दिया।
विद्याधर रूमाल लेते हुए बोले, ‘‘महाराज ऐसी चोटें तो मनमाने लगती हैं, आपको खरोंच भी आ जाती तो मुश्किल थी...।''
‘‘तुम्हारी वजह से मैं बच गया। वरना पत्थर मुझे भी लगते। मैं तुम्हारी इस वफादारी का हमेशा खयाल रखूँगा विद्याधर...।''
‘‘हमें तो आपका वरदहस्त चाहिए महाराज...कभी भी आजमा लेना, रामभक्त हनुमान की तरह आप मेरी छाती में बसे मिलेंगे...।''
‘‘मुझसे दिल्ली आकर भी मिलते रहना, मैं तुम्हारे लिए कुछ सोचूँगा...।''
‘‘जी महाराज...। आपका जो हुक्म, सिर माथे!'' और विद्याधर ने महाराज के घुटनों में सिर रख दिया।
चुनाव परिणाम घोषित हुए तब महाराज तो जीत गए, लेकिन उनका दल हार गया। केन्द्र और ज्यादातर राज्यों में गैर काँग्रेसी सरकारें वजूद में आईं। महाराज ने सरकारी बैठकों में हिस्सेदारी के लिए विद्याधर को अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। विद्याधर की पूरे जिले में जैसे हैसियत बढ़ गई।
महाराज के काँग्रेस में आगमन और लोकसभा चुनाव के जीतने के बाद काँग्रेस पूरे लोकसभा क्षेत्र में दो फाँक हो गई। एक में वे बुजुर्ग और वरिष्ठ काँग्रेसी थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान सामन्तशाही की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया था। इसके विपरीत एक दूसरी काँग्रेस भी वजूद में आ गई थी, जिसमें बीस साल की उम्र से लेकर पैंतीस साल का युवा तबका था। अब यह तबका बुनियादी व असली काँग्रेस की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा था। इसका नेतृत्व महाराज के लोकसभा प्रतिनिधि होने के नाते विद्याधर जिन्दादिली से कर रहे थे।
चलिए अब हम आपको काँग्रेस भवन ले चलते हैं, जहाँ 28 दिसम्बर होने के कारण काँग्रेस दिवस मनाने की तैयारी में असली काँग्रेस जुटी है। विद्याधर को काँग्रेस दिवस मनाये जाने की खबर लग गई। वे फौरन अपने दर्जन भर विश्वस्तों के साथ काँग्रेस भवन पहुँच गए। विद्याधर ने देखा मंच पर महात्मा गाँधी,
पं. नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस की तसवीरें रखी थीं और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी व अन्य बुजुर्ग काँग्रेसी कार्यक्रम शुरू करने की तैयारी में थे, तभी विद्याधर ने अपनी आमद ही दर्ज नहीं कराई हस्तक्षेप करते हुए एक सवाल उछाल दिया, ‘‘हमारे इलाके के सांसद महाराज हैं, और वे काँग्रेसी हैं। इसलिए उनकी तसवीर भी मंच पर रखनी चाहिए...?''
‘‘ऐसा होता है क्या, कहाँ महाराज और कहाँ काँग्रेस के तपस्वी...बलिदानी नेता!'' स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी पं. नरहरिप्रसाद शर्मा बोले थे।
‘‘हमने माना कि मंच पर जिन महान नेताओं की तसवीरें रखी हैं वे बलिदानी हैं...तपस्वी हैं...लेकिन अब महाराज भी काँग्रेस में आकर इन्हीं नेताओं की परम्परा में चल रहे हैं और हमारे क्षेत्र के सबसे बड़े नेता होने के साथ इलाके के विकास में लगे हैं...वे विकास के मसीहा हैं। पूरे मध्यप्रदेश में अकेले काँग्रेस के सांसद हैं, इसलिए उनके सम्मान का खयाल रखते हुए उनकी तसवीर भी दिग्गजों के साथ रखनी ही चाहिए। अन्यथा हम काँग्रेस दिवस मनाने नहीं देंगे...।'' विद्याधर ने चुनौती दे डाली।
‘‘अबे कल के छोरे हमें अल्टीमेटम दे रहा है जिन्होंने काँग्रेस अपने खून-पसीने से सींची...। सालों जेल में कैद रहे। अंग्रेजों के कोड़े खाए...शर्म आनी चाहिए तुझे...!'' इस बार तैश में आकर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी संगठन के अध्यक्ष पं. रामसिंह वशिष्ठ बोले थे।
‘‘तो लो मना लो काँग्रेस दिवस....।'' और विद्याधर ने आगे बढ़कर वह चादर खींच दी जिस पर महात्मा गाँधी, पं. नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस की तसवीरें
ईंटों से टिकाकर रखी गई थीं। पलभर में ही सब कुछ छितरा गया। विद्याधर महाराज के जयकारे लगाते हुए अपनी टीम के साथ काँग्रेस भवन से वापस हो लिये।
और फिर तत्काल विद्याधर ने दूरभाष केन्द्र पहुँचकर अपनी इस हरकत को उपलब्धि मानते हुए महाराज से अर्जेण्ट कॉल बुक कर दिल्ली बात की। महाराज की बाँछें खिल गईं। वे बोले, ‘‘तुमने ठीक किया विद्याधर, मुझे तुम जैसे ही फॉलोवर चाहिए।''
देखते-देखते ढाई-पौने तीन साल में गठबन्धन से केन्द्र में अस्तित्व में आई जनता दल सरकार गिर गई। और फिर लोकसभा के हुए उपचुनाव में काँग्रेस बहुमत में आ गई। महाराज भी अच्छे मतों से जीते। इन्दिरा गाँधी ने प्रधानमन्त्री बनते ही प्रान्तों की गैरकाँग्रेसी सरकारों को भंग कर दिया।
फिर क्या था युवाओं के लिए राजनीति में वर्चस्व हासिल कर लेने के रास्ते खुल गए। इस क्षेत्र के सारे टिकट बाँटे जाने की जिम्मेदारी हाईकमान ने महाराज को सौंप दी। विद्याधर को जब यह खबर लगी तो उनके अन्तःकरण को न जाने कहाँ अन्तःप्रेरणा मिली कि वे अपने पाँच-सात भरोसेमन्द नुमाइन्दों के साथ महाराज से टिकट माँगने राजधानी आ पहुँचे। अब महाराज भी ऐसे निष्ठावान अनुयायी को टिकट देने से कैसे चूकते, जिसने अपनी जान की बाजी लगाकर उनकी जान बचाई थी और काँग्रेस दिवस के दिन महाराज को सम्मान दिलाने के लिए मूल काँग्रेसियों से भिड़ गया था। अन्ततः विद्याधर का महाविद्यालयीन रिकॉर्ड देखकर महाराज हाईकमान से विद्याधर को टिकट दिलाने में सफल हो गए। और फिर जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो विद्याधर तो जीते ही प्रदेश में उन्हीं की पार्टी की सरकार बनी।
और जब विद्याधर विधायक बनने के बाद पहली बार अपनी टीम के साथ अपने गाँव पहुँचे तो उनके पिता ने विद्याधर की ग्रामीणों के साथ आवभगत करते हुए कहा�
लीक-लीक गाड़ी चले, लीकै चले कपूत।
ये तीनों छाड़ि चले, शायर, सिंह, सपूत'
और फिर मूल्य, सदाचरण व नैतिकता को ठेंगा दिखाकर निरन्तर सोपान चढ़ रहे विद्याधर ने फिर कभी पीछे पलटकर नहीं देखा।
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बेहतरीन लेखन
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