( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'नकटू' से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी रोड, ...
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'नकटू' से जारी...) प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी रोड, दरियागंज नयी दिल्ली-110002 मूल्य : 250.00 रुपये प्रथम संस्करण : सन् 2011 ISBN NO. 978-81-7714-291-4 आवरण : जगमोहन सिंह रावत शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032 मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032 ---- जीवनसंगिनी... आभा भार्गव को जिसकी आभा से मेरी चमक प्रदीप्त है...! --- प्रमोद भार्गव जन्म 15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.) शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि। प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित। सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित। अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर। सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी। पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र) दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224 ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com ---- अनुक्रम मुक्त होती औरत पिता का मरना दहशत सती का ‘सत' इन्तजार करती माँ नकटू गंगा बटाईदार कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की किरायेदारिन मुखबिर भूतड़ी अमावस्या शंका छल जूली परखनली का आदमी ---मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
गंगा बटाईदार
अजीब पशोपेश में है गंगा बटाईदार!
गंगा बटाईदार कुछ बरस पहले तक अटलपुर का सबसे नामी-गिरामी बटाईदार हुआ करता था। हालाँकि उसका पूरा नाम गंगाराम था, पर बटाईदारी खानदानी पेशा होने के कारण अनायास ही उसका नामकरण हो गया गंगा बटाईदार! यही नाम जनप्रिय होकर चलन में आ गया। गंगा से पहले उसके पिता रामलाल राव साहब के यहाँ लगभग बेगारी की बिना पर बटाईदारी किया करते थे। बारह जिले और चौबीस परगनेवाले ग्वालियर राज्य में ‘राव' एक पदवी हुआ करती थी, जो राजघरानों के हितसाधकों अथवा राजद्रोह की सामर्थ्य रखने वाले ताकतवरों को दी जाया करती थी। पदवी से अलंकृत हो जाने के बाद कथित राव साहब शरणागत की अवस्था में राजा के जयकारे लगाने और उनके सूत्र-वाहक की भूमिका में आ जाया करते थे। आजादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयास व दबाव की सह-रणनीति के चलते राजशाही मध्य भारत में मर्ज हुई और फिर मध्यप्रदेश के अस्तित्व में आने के साथ ही राजतान्त्रिक व्यवस्थाओं पर जनतान्त्रिक व्यवस्थाएँ भारी पड़ती चली गईं। ऊँची कद-काठी के साफाधारी राव साहब की ठसक अपनी हवेली की चहारदीवारी के बीच जमीन-जायदाद को बचाए रखने का उपक्रम जारी रखते हुए कुन्द होकर भारी अवसाद के प्रभाव में कुण्ठित होने लगी।
इस बदलते परिवेश का एक सुनहरे अवसर की तरह सबसे ज्यादा लाभ गाँव के ब्राह्मण और कायस्थों के युवाओं ने उठाया। इन जातियों के किशोर होते छोकरों ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए गाँव में अध्ययन-अध्यापन के साधन न होने के बावजूद ईषागढ़ से प्राइमरी और पोहरी के आदर्श विद्यालय से अंग्रेजी मिडिल की सर्टिफिकेट परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। तब पूरे नरवर जिले में (शिवपुरी आजादी के बाद जिला बना) अकेले पोहरी में ही माध्यमिक विद्यालय हुआ करता था।
वहाँ के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी गोपाल कृष्ण पुराणिक ने ग्वालियर राज्य के अधीन पोहरी के कमोबेश उदार प्रवृत्ति व स्वराजवादी जमींदार मालोजी नरसिंहराव शितोले को विश्वास में लेकर पोहरी और भटनावर में बमुश्किल पाठशालाओं की नींव रखी। वरना, पढ़-लिखकर आम आदमी जागरूक न हो जाए इसलिए नये विद्यालय खोले जाने पर राजशाही में प्रतिबन्ध था।
बहरहाल इतिहास की पृष्ठभूमि में बहुत गहरे जाना हमारा ध्येय नहीं है इसलिए कहानी के मूल पाठ पर आते हैं...।
जैसे-जैसे ये ब्राह्मण और कायस्थ छोकरे प्राइमरी और मिडिल परीक्षाएँ उत्तीर्ण करते चले गए वैसे-वैसे परिवर्तित हो रही नयी सत्ता में पटवारी एवं मास्टरी के सरकारी पदों पर नियुक्ति पाते भी चले गए। लिहाजा परिवर्तित प्रक्रिया से गुजर रहे शासन-प्रशासन की लाभकारी सभी जानकारियाँ इनके पास थीं और शासन-प्रशासन में इनकी पहुँच भी आसान हो गई थी। नतीजतन जब सीलिंग कानून के तहत जमींदार, जागीरदार और राव साहबों के पास जो सैकड़ों एकड़ जमीनें थीं उनको राजसात कर भूमिहीनों को पट्टे देने की कार्यवाही शुरू हुई तो इन नये नौकर-पेशाओं ने नामी-बेनामी, बालिग-नाबालिगों के नाम पट्टे लेकर ज्यादातर जमीनें बिना किसी होड़ के हथिया लीं। राव साहब तो कहीं ठसक को अनायास ही ठेस न पहुँच जाए इस अनिश्चित भय से हवेली के कुहासे से बाहर ही नहीं निकले।
गाँव के नये नौकर-पेशाओं ने कुटिल चतुराई बरतते हुए इतनी उदारता जरूर बरती कि जितने भी अटलपुर के आसपास के गाँवों में उनके जजमान थे उनको भी जमीनों के पट्टे करा दिए। इसी कार्यवाही के दौरान पंडित अयोध्या प्रसाद ने दस बीघा भूमि का पट्टा राव साहब की बटाईदारी छोड़ देने की शर्त पर रामलाल को भी करा दिया था। फिर क्या था रामलाल राव साहब की सिन्ध में डूबती नैया से छलाँग लगाकर पंडित अयोध्या प्रसाद के चरणों में, ‘‘अब तो महाराज तुमरैई संग लगकै जा जीवन की वैतरणी पार होएगी....।'' रामलाल वैसे भी पंडितजी का जजमान था। तब से रामलाल गाँव में हाल ही में रोब-रुतबा गालिब कर लेने वाले पंडितजी का बटाईदार हो गया। रामलाल के स्वर्ग सिधारने के बाद उसके मसे फूट रहे बेटे गंगाराम ने बटाईदारी का यह काम बतौर विरासत हासिल किया।
माली हालत कभी भी सन्तोषजनक स्थिति में नहीं पहुँचने के बावजूद गंगा बटाईदार सब धन सन्तोष समाना की तर्ज पर पंडितजी की बटाईदारी करते हुए सुखी था। महाराज अयोध्या प्रसाद तो अब रहे नहीं। उनके बेटों ने खेती-बारी का कामकाज सँभाल लिया था। पंडितजी के मरने के बाद उनके लड़कों का गाँव से नाता कम से कमतर होता चला गया। अब शिवपुरी में ही उन लोगों ने स्थायी ठौर बनवा लिये थे, वहीं से गाँव की सत्ता का संचालन करते पुरखों की निशानी बनी रहे इसलिए खेती-किसानी चल रही थी, वरना भाइयों में जमीन बेचकर धन बाँट लेने की बात भी गाहे-बगाहे चल पड़ती थी।
सब कुछ मिलाकर गंगा बटाईदार मजे में था। मालिकों के शिवपुरी में रहने के कारण वह आटे में नोन बराबर टाँका भी मुनासिब मौका देख लगा लिया करता और महाराज की दम पर अपनी जाति-बिरादरी में रोब भी गाँठे रखता। महाराज से गाढ़ी छनने के बूते ही उसकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत सुरक्षित थी, इसलिए वह कहीं महाराज के आगे गलती फूट न पड़े इसलिए हर कदम फूँक-फूँककर रखता। पर गंगा के ही संगी-साथी उसकी गरदन पर छुरी चलाने के नजरिये से वक्त-बेवक्त शिवपुरी पहुँचकर महाराज को चुगलखोरी कर बरगला आते। कहते, ‘‘महाराज सेमरी के गेंत में दस हजार को तो जाने घासई बेच दओ, जबकि तुमैं आठई हजार को बताओ है? मुड़िया में एक सौ अठारह बोरी सोयाबीन निकरो, जबकि तुमैं एक सौ दस बोरी गिनाई। रातई रात आठ बोरा टंकार गओ। अबकी से महाराज जाए बदल देऊ। कोऊ और खों देके तो देखो पैदावार में कितेक फरक आवत है...? नईं तो पूरी जमीन ठेके पे उठा दो महाराज, एक मुश्त रकम मिलेगी और चोरी-चकारी के झंझट से भी मुक्ति?'' शिवशंकर महाराज गंगा को शिवपुरी तलब करते। गंगा चिरौरी में कट्टा भर मक्के के भुट्टे तो कभी बूँटों (चना) का गट्ठर तो कभी भुना होरा-बालें लाकर पेश करता और महाराज के पैताने बैठ जाता। फिर महाराज खोद-खोदकर गंगा से संदिग्ध सवालों के जवाब माँगते? गंगा खून-पसीने की ईमानदारी की कमाई की दुहाई देता। बाल-बच्चों की सौगन्ध लेकर गंगाजल उठाता। उसकी आँखें छलछला आतीं। महाराज भी गंगा की आँखों में दुख का पानी देख पसीज जाते। उन्हें लगता गाँव के ईर्ष्यालु खेल बिगाड़ने के लिए उन्हें खोटी सलाह दे जाते हैं। आखिर में महाराज मुस्कराकर गंगा को झिड़की देते, ‘‘देख गंगा काम पूरी ईमानदारी से करिओ। आगे मोय शिकायत मिली तो मैं अगली बार से खेती ठेके पर ही उठांगो।'' और लब्बोलुआब यह कि बात आई-गई हो जाती।
इधर पंडित अयोध्याप्रसाद का सबसे छोटा बेटा साकेत जब से इन्दौर से एमबीए करके क्या लौटा है हर चीज में कुशल प्रबन्धन को पैसा कमाने की कुंजी का फार्मूला बताने लगा है। उसने गाँव की खेती को भी कुशल प्रबन्धन के हाथों ठेके पर सौंप देने की वकालत की। चारों भाई मिल बैठे तो साकेत ने प्रबन्धन के मार्फत बिना कोई जोखिम उठाए मुनाफे का गणित समझाया और जमीन अगली बरसात से ठेके पर उठा देने की बात इतने प्रभावकारी ढंग से कही कि सबसे बड़े भाई शिवशंकर को छोड़ अन्य तीनों भाइयों में खेती ठेके पर उठा देने के मुद्दे पर लगभग सहमति बन गई। शिवशंकर ने खेती की प्रकृति पर निर्भरता होने का बहाना लेकर गंगा को अधबटाई पर ही खेती चलती रहने की बात पूरी वजनदारी से रखी थी, पर जब उन्हें लगा कि भाइयों की पत्नियाँ भी धन के लालच में हस्तक्षेप करने पर उतारू हैं तो उन्होंने बड़प्पन से काम लेते हुए हथियार डाल दिए। शिवशंकर नहीं चाहते थे कि साकेत की शादी होने तक घर में फूट पड़ने की बात बाहर तक जाए।
मरता क्या न करता, तमाम मिन्नतें करने के बाद भी जब अधबटाई पर खेती उठा देने की बात नहीं बनी तो गंगा बटाईदार ने एकमुश्त साठ हजार की लिखा-पढ़ी कर खेती ठेके पर उठा ली। वरना दूसरे उसकी छाती पर मूँग दलने के लिए पैंसठ हजार से भी ऊपर में जमीन लेने को तैयार ही खड़े थे। साकेत के दखल के चलते इस मर्तबा लिखा-पढ़ी भी बाकायदा स्टाम्प पेपर पर हुई। वरना, बड़े महाराज तो एक कोरे कागज के टुकड़े पर लिखतम करते तो करते नहीं तो केवल कागज के निचले हिस्से पर उसके दस्तखत करा लिया करते थे। बड़े महाराज पर उसे विश्वास भी अटूट था, इसलिए कोरे कागज पर भी सालों से दस्तखत करते चले आने के बावजूद उसे कभी शक-शुबहा नहीं होती और वर्षा की शुरुआत के साथ ही बतर आने पर वह नये उत्साह और ऊर्जा में भरकर महाराज के टगर के खेतों की जुताई हल से करता और बड़े खेत किराए के ट्रैक्टर से जुताता।
लेकिन अब जब से गंगा स्टाम्प पेपर पर दस्तखत करके लौटा है तभी से उसका गला सूखा जा रहा है। तमाम कुशंकाएँ महूक की मक्खियों की तरह उसके सिर के इर्द-गिर्द भिनभिनाकर उसका सिर चकरा दे रही हैं। उसे लगा, जैसे मक्खियों का ढेर उसका खून चूसने में लग गया है। तमाम शंका-कुशंकाओं से उबरने का उपक्रम करते हुए उसे बड़े महाराज डूबते को तिनके का सहारा महसूस हुए। उसके सूखते खून में आर्द्रता आई और कुछ रक्त-संचार भी बढ़ा। उसके भीतर ही भीतर एकाएक उत्तरोत्तर प्रबल होते जा रहे आत्मविश्वास ने उसे जताया कि कुछ होनी-अनहोनी होगी तो महाराज सँभाल लेंगे। बीते तीस-पैंतीस साल से वही तो डूबने को होती नैया को खेते चले आ रहे हैं।
साकेत का परिवार-कुटुम्ब में ही नहीं पूरे गाँव और आसपास के चौदह गाँवों में दखल बढ़ रहा था। इन सभी गाँवों में उनकी पुरोहिताई जागीर की तरह थी जो पारस्परिक निर्भरता और भरोसे की डोर से बँधी पिछली सदी से चली आ रही थी। महाराज शिवशंकर से सम्बन्ध प्रगाढ़ बनाए रखने की जो परम्पराएँ सालों-साल चली आ रही थीं उनका निर्वाह अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए बखूबी करते चले आ रहे थे। वे गाढ़े समय में जजमानों के काम भी आते। वक्त-जरूरत, दुःख-बीमारी, सगाई-ब्याह में किसी जजमान को रुपयों की जरूरत पड़ती तो रकम या खेत रहन रखकर दो प्रतिशत ब्याज की दर से दे देते। कभी बिना रकम रखे भी दे देते। वक्त पर पैसा न लौटाने वाले किसान को भी थोड़ी-बहुत खरी-खोटी सुनाकर भड़ास भर निकाल लेते, पर बैर पालकर सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने की स्थिति से बचे रहते, क्योंकि वे भलीभाँति जानते थे कि जजमानों से उनकी भी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। इसी समझदारी भरी चतुराई के चलते पूरे चौदह गाँव की पुरोहिताई में आज तक उनका सम्मान बरकरार था और उनका पैसा भी कभी नहीं डूबा।
पर साकेत ने नफा-नुकसान के आधार पर सम्बन्धों को तौलने की प्रक्रिया शुरू की। हाल ही में वह एक खाद बेचने वाली कम्पनी की मार्केटिंग करने लगा। जिसमें सैलरी तो कम थी पर कमीशन आकर्षक था। इस बार खेती की दृष्टि से बरसात अच्छी हुई थी। खेतों में ज्वार, मक्का और सोयाबीन की फसलें लहलहा उठीं। खेतों में हरियाली देख गंगा बटाईदार की तबीयत भी हरी हो जाती। उसके मन में लड्डू फूट पड़ते। सोचता, ‘‘ईश्वर की कृपा बनी रहे तो खरीफ की फसल पैंतीस-चालीस हजार की निकर ही आएगी और इतेकई रबी की फसल हो जाएगी। दसेक हजार का बंजर और परती पड़ी भूमि में वह घास भी बेच ही लेगा। इतने में उसकी पौ-बारह है। महाराज के साठ हजार चुका के पच्चीस-तीस हजार की रकम बच गई तो जा जेठ-वैशाख में सयानी हो रही मोड़ी की कहीं ढंग-डोल को मोड़ा देख शादी कर देंगो। मोड़ी के ब्याह से मुक्ति पा लई तो समझो कुम्भ में डुबकी लगाय लई।''
गंगा बटाईदार अपनी घरवाली और बाल-बच्चों के साथ दिन-दिनभर निराई-गुड़ाई में लगा खून-पसीना एक करता रहता। उसे जिन खेतों में फसल कमजोर जान पड़ी उनमें उसने घर के पीछे की खुड़िया में घूरे के बहाने पूरे साल तैयार हो रही खाद को खेतों में डालने की तैयारी शुरू कर दी। घूरा क्या था गाय-बैल, भैंसों का गोबर-मूत था, जो बिना कोई पूँजी खरच किए सड़-गलकर उम्दा किस्म की खाद में तब्दील हो गया था।
गंगा तीन-चार गाड़ी ही खेतों में गोबर-खाद डाल पाया था कि जीप में सवार साकेत गाँव आ धमका। उसके साथ थे सहकारी बैंक के दो कर्मचारी और दो खाद कम्पनी के एजेंट। एक के कन्धे पर माइक टँगा था। खाद की गुणवत्ता जाहिर करने वाली प्रचार सामग्री भी उनके पास थी। आसमानी के चबूतरे पर टीम ने मदारियों की तरह मजमा लगाया और बेचे जाने वाले खाद के चमत्कारिक गुणों की चाशनी चढ़ी बोली में बखान किया। किसानों को बताया गया, जिस सोयाबीन की फसल आप एक बीघा में दो क्विंटल ले रहे हैं, इस खाद को खेतों में डालने के बाद पैदावार दोगुनी से भी ज्यादा लेंगे। मसलन एक बीघा में चार से पाँच क्विंटल उपज! एक ही साल में वारे-न्यारे।
साकेत के साथ होने के कारण लोगों को भरोसा जल्दी बैठ गया। सहकारी बैंक के कर्मचारी साथ थे ही, सो हाथों-हाथ बैंक सोसायटियों के जरिए खाद उधारी पर दे देने का सिलसिला शुरू हो गया। जिन किसानों ने न-नुकुर की उन्हें साकेत ने रिश्तों से तौलकर भुना लिया। गंगा भी बैंक से कर्ज लेकर खाद लेने को तैयार नहीं था, पर साकेत ने भविष्य में सम्बन्ध खत्म कर देने का जो भय दिखाया तो बेचारा सहमत हो गया। दस हजार का खाद उसके सिर मढ़ दिया गया। वह भी उसकी भूमि स्वामी वाली जमीन की भू-अधिकार एवं ऋण पुस्तिका पर।
खेतों में खाद लेने के बाद पन्द्रह दिन बीते तो गंगा को ही क्या सभी किसानों को लगा, ठगे गए। खाद के असर के बाद तो पौधा तेजी से बढ़ने के साथ फैलना था, पर हुआ उलटा। पौधे बौने रह गए। पत्तियाँ पीली पड़ गईं और सोयाबीन की फलियों में पूरे दाने नहीं पड़े। बाद में खोजबीन करने पर पता चला कि साकेत जिस खाद कम्पनी का एजेंट था उसकी बिक्री ही मध्यप्रदेश में प्रतिबन्धित थी। पर कम्पनी ने कृषि विभाग के अधिकारियों, सहकारी बैंक के प्रबन्धकों और खाद विक्रेताओं से साँठगाँठ कर पूरे इलाके में टनों नकली खाद बेचकर खुद तो वारे-न्यारे कर लिये पर कर्ज किसानों के सिर चढ़ा दिया। उड़ती-उड़ती गाँव में यह भी खबर फैली कि इस खाद बेचने के गोरखधन्धे में साकेत का लाखों का कमीशन बना। बहरहाल तहसीलदार से लेकर कलेक्टर तक तमाम शिकवे-शिकायतें हुईं। पर परिणाम शून्य। जाँच जारी है...।
गंगा ने फसल काटकर खलिहान में लाकर दाँय करने के बाद तौली तो बमुश्किल तीस बोरी ही निकली। दाना भी खराब था, झुर्रियोंयुक्त! तुषार के मारे दाने जैसा, जो अगली फसल के लिए बीज के काबिल कतई नहीं था। अच्छा होता तो उसकी घरवाली अगले साल बोने के लायक बीज कुठीला में भरकर जतन से रख देती। बाकी सोयाबीन गंगा बदरवास मण्डी ले जाकर बेच आता। अब तो गंगा के लिए मुश्किलें और बढ़ गईं लगता है? ठेके पर खेती उठाकर बड़ी भूल की उसने? अधबटाई से होती तो हानि का पूरा ठीकरा उसके सिर तो न फूटता? महाराज और वह आधा-आधा उठाते? साकेत ने रचनई ऐसी रची कि जमीन ठेके पर उठाना उसकी लाचारी थी? फिर मुए ने खाद और जबरन सिर-माथे लाद दओ। कैसे चुकाएगा साठ हजार...? बैंक का कर्जा अलग से। पर गंगा अभी से हार मान गया तो रबी की खेती कैसे करेगा...? अभी तो जैसे पूरा पहाड़ उसके सामने है...चढ़ाई के लिए। हिम्मत तो भरनी ही पड़ेगी।
नस्ल अच्छी नहीं होने के कारण गंगा को सोया का मण्डी में वाजिब दाम नहीं मिला। गंगा को उम्मीद भी यही थी इसलिए ज्यादा निराशा नहीं हुई। सात सौ पचास क्विंटल के मान से सोया बिका। तीस क्विंटल सोया के बाईस हजार पाँच सौ रुपये उसकी गाँठ में थे। जिनसे उसे खेतों में किराए के टै्क्टर से जुताई कराकर चने की बोनी करनी थी और सिंचाई भी करानी थी। डीजल पम्प तो उसके पास था, पर वह क्या सूखा चलता है? उसकी टंकी में तेल तो चाहिए ही, सो उसका इन्तजाम भी इसी राशि से करना था। जो उसे बड़ा ही मुश्किल जान पड़ रहा था। जान साँसत में थी। फिलहाल अपने हाल को भगवान भरोसे छोड़कर गंगा ने रबी की फसल के लिए खेतों को हाँकने की तैयारी शुरू कर दी।
दो बार हैरो चलवाकर खेत कामीदा बनाने के बाद उसने अगली सुबह ड्रिल मशीन से बीज डालने का मन बना लिया। घरवालों से वह सुबह ही कह आया था कि कुठीले से बीज निकालकर आँगन में फैलाकर जरा हवा खिला देना, सींड़ जाती रहेगी।
साँझ ढले घर में घुसा तो चौखट से उसका सिर फूटा। अशगुन ने उसे अन्देशे से घेर लिया। आँगन में दीवार से मुँह छिपाए घरवाली रोने लगी थी। वह आसन्न संकट की दस्तक ठीक से समझ पाता इससे पहले ही बेटी ने बुरी खबर देकर माथा ठनका दिया, ‘‘दद्दा, बीज के चने में तो घुन लग गओ...।''
गंगा ने झुककर मुट्ठी भर दाना उठाया। उसे हथेली पर फैलाया तो गंगा को जैसे साँप सूँघ गया, ‘‘दाना बीज के काबिल का कतई नहीं रह गया था।'' गंगा के घर मातम मना। किसी ने हलक में अन्न का दाना तक नहीं डाला। पानी पी-पीकर सूखी रात बमुश्किल गुजारी। गंगा से तो जैसे किस्मत ही रूठने लगी है।
साकेत अब एक जेनेटिक मोडीफाइड बीज बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनी की मार्केटिंग करने लगा था। उसे जब पता चला कि वह नकली खाद बनाने वाली कम्पनी में काम कर रहा है और इस गोरखधन्धे में पुलिस उसे भी आरोपी बना सकती है तो तत्काल उसने खुद को कम्पनी से अलग कर लिया। लेकिन नयी कम्पनी में नकली खाद भी बड़ी मात्रा में बेचने का हुनर रखने का दावा कर उसने नयी नौकरी जल्दी ही हासिल कर ली। अब उसकी सैलरी भी ज्यादा थी और कमीशन भी। यह कम्पनी आनुवंशिक तौर पर विकसित किए गए बीजों का निर्माण कर वितरण करती थी। इन बीजों को खेत में डालने से उपज कई गुना बढ़ जाने की गारंटी कम्पनी के दलाल जताते।
अगले ही दिन कम्पनी के दो और साथियों के साथ चमचमाती ऐसी कार से साकेत गाँव आ पहुँचा। उसने फिर मजमा लगाया। एक सुन्दर से बॉक्स में, सुन्दर से डिब्बों में बडे़ ही सुन्दर से बीज थे। मस्त और चिकने। चना-बीज की कई किस्में...। जो आज से पहले अटलपुर के किसानों ने न सुनी थी, न देखी थी।
गाँववालों ने जब नकली खाद की चर्चा उठाई तो साकेत ने बड़ी ही विनम्र साफगोई से सफाई दी, ‘‘मुझे कतई जानकारी नहीं थी कि खाद नकली है। वरना मैं अपने ही गाँव, में नकली खाद बेचता? अपने ही खेतों में नकली खाद डलवाता? मेरे और आपके बीच कई सदियों पुराने तालुकात हैं, क्या इन्हें जरा से नफा के लिए बलि चढ़ा देता...?''
सब शान्त। सन्तुष्ट...। खुसुर-फुसुर हुई, ‘‘नामी घर को लरका है, जान-बूझ के थोरे ही नकली खाद बेचो होगो....? वाके संग भी धोकोई भओ होगो।'' इन कानाफूसियों ने साकेत का धोखाधड़ी का दाग जैसे धो दिया। साकेत ने इलाके के पूरे चौदह गाँवों में क्विंटलों चना और गेहूँ का जेनेटिक मोडीफाइड बीज बेचा। गंगा ने भी दस बीघा जमीन बाबू बनिया के यहाँ गिरवी रखकर जरूरत के मुताबिक बीज खरीदा।
इलाके के किसानों के साथ फिर धोखा हुआ। उपज के जो दावे किए गए थे वे खरे नहीं उतरे। किसान फिर ठगे गए। गंगा बटाईदार भी ठगा गया। उस पर तो दोहरी मार पड़ी थी। दोनों ही फसलें चौपट। तिस पर भी बुरी तरह फँस चुका कर्ज के जंजाल में। महाराज के पूरे साठ हजार बकाया। बैंक का खाद कर्ज और बनिया के बीज की उधारी। गंगा को लगा तोते हाथ से उड़ चुके हैं। किसान की जिन्दगी खेत-खलिहान के आसरे कटती है लेकिन अब खेत बचेंगे न खलिहान! प्राण बचे रहें यही बौत है? खेत की बाबू बनिया को रजिस्ट्री कराकर ही उसे कर्जों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता सूझता दिखाई दे रहा था।
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(अगले अंकों में जारी...)
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