( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'सती का सत' से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी...
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'सती का सत' से जारी...)
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म 15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानी
नकटू
नकटू अब दस साल का हो गया था। अपने नाम के ही अनुरूप वह बेशरम था, बल्कि यों कहा जाए कि उसका नाम उसके जन्म के कारण ही नकटू पड़ गया था तो ज्यादा व्यावहारिक होगा। वह अपनी विधवा माँ का नाजायज पुत्र था। माँ ने गाँव के लोगबागों के गिले-शिकवे और विष बुझे बाणों की मार से घायल होते रहने से हमेशा के लिए निजात पाने के लिए खारे कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। घर में नकटू की नानी के अलावा और कोई था नहीं। नानी ने ही जैसे-तैसे उसे पाला-पोसा, बड़ा किया। नकटू का पिता कौन है ठीक-ठीक किसी को ज्ञात नहीं। बताते हैं एक बार उसकी माँ का देवर यानी कि उसका काका अपनी विधवा भाभी भुर्रो की सुधबुध लेने के बहाने गाँव आया था और अर्से तक रुका था। उसके जाने के बाद से ही भुर्रो के शरीर में परिवर्तन शुरू हो गए थे और पूरे गाँव में यह काना-फूसी होने लगी थी कि भुर्रो के पैर भारी हो गए हैं।
अवैध सन्तान होने के कारण ही उसे उच्च जाति का होने के बावजूद जाति-बिरादरी, सगे-सम्बन्धी, नाते-रिश्तेदारों और गाँव में वह आदर नहीं मिला जिसका वह हकदार था। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, नानी की पकड़ से बाहर होता चला गया था। ब्राह्मणों की बस्ती उपरेंटी के बच्चे उसके साथ इसलिए नहीं खेलते क्योंकि उनकी माँओं ने बच्चों को जता दिया था कि यह नकटू नासपीटा पाप की औलाद है। कुछ बच्चे उसे ‘पाप की औलाद' कहकर चिढ़ाते थे। हालाँकि नकटू यह नहीं समझता था कि ‘पाप की औलाद' के मायने क्या होते हैं? लेकिन अपने प्रति हमउम्र बच्चों की हीनता देख उसका बालसुलभ मन यह जरूर ताड़ गया था कि पाप की औलाद कोई बुरी बात होती है, जिसके चलते गाँव के लोग उससे नफरत करते हैं और हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। जबसे उसमें इस समझ का अंकुरण हो आया था कि पाप की औलाद होना एक तरह की गाली
है, तब से उसने आक्रामक रुख अपना लिया था। अब, जब भी कोई बच्चा उसे पाप की औलाद कहकर चिढ़ाता, वह उसे पीटने लग जाता। उसमें बला की फुर्ती थी। शरीर में उम्र से ज्यादा ताकत थी। उसके स्वभाव में भरपूर निडरता थी। उसके द्वारा आक्रामक रुख अपनाने के बाद से बच्चे उससे भय खाने लगे थे। अब उनकी हिम्मत उसके मुँह पर पाप की औलाद कहने की न होती।
चूँकि उच्च वर्ग के लिए नकटू उपेक्षित था इसलिए वह सहराने के बच्चों में ज्यादा हिल-मिल गया था। सुबह वह साइकिल का पुराना टायर दौड़ाता हुआ तलैया पर पहुँच जाता। वहीं सहरियों के बच्चे आ जाते। उन्हीं के साथ वह गुल्ली-डण्डा, सितोलिया, होलक-डण्डा खेलता रहता। कभी-कभार वे पिड़कुलिए मारने, पठार से नीचे जंगल में भी उतर जाते। पिड़कुलिए मारने के लिए उन्होंने गुलेलें बना ली थीं। नकटू का कुछ किरार के लड़कों और चमारों के लड़कों से भी दोस्ताना हो गया था। चूँकि इस दल का संगठक नकटू था और नकटू का कहा ही सब मानते थे इसलिए वह एक तरह से दल का अघोषित नेतृत्वकर्ता बन बैठा था।
उसमें बहस-मुबाहिसा करने का माद्दा था। प्रबल हठी था। अपने दोस्तों के प्रति उसका समर्पित भाव था। कोई साथी अगर गलत काम कर दे, झूठी बात कह दे तो भी वह खुलकर उसी का साथ देता। सद्गुणों और दुर्गुणों का उसके चरित्र में आनुपातिक सम्मिश्रण था। वह पढ़ने में भी होशियार था। स्कूल रोजाना जाता और पढ़ने में सब विद्यार्थियों से अव्वल रहता। पढ़ाई में अव्वल होने के कारण गाँव के जो समझ रखने वाले लोग थे वे नकटू के प्रति दया और स्नेह का भाव रखते थे।
गर्मियों की छुटि्टयाँ हो गई थीं। गाँव की एकमात्र हवेली जो पूरे साल वीरान पड़ी रहती थी, उसकी साफ-सफाई शुरू हो गई थी। चौकीदार पहरा देने लगा था और उसने गाँव के बच्चों को हवेली की लम्बे-लम्बे दालानों में खेलते रहने पर रोक लगा दी थी। गोधूलि वेला के समय दालानों में आइस-पाइस खेलना बच्चों की दिनचर्या थी। नकटू भी खेलता था पर अब वह भी वंचित हो गया था।
हवेली की रंग-बिरंगी सभी बत्तियाँ जलने लगी थीं। तीन दिन में ही हवेली राजमहल के माफिक जगमगा उठी थी। सिन्धिया स्टेट के जमाने में अटलपुर के जमींदार की यह हवेली राजमहल-सा ही वैभव भोगती थी। पर वे जमाने लद गए, अब न राजे-रजवाड़े रहे, न जमींदार और जागीरें। अटलपुर के जमींदार ने जागीरें खत्म होने के तत्काल बाद ही मुम्बई और इन्दौर में व्यापार खोल लिया और अपने दोनों लड़कों को वहीं जमा दिया। व्यापार अच्छा चल निकला। जमींदारी में लखपति थे तो व्यापार में करोड़पति हो गए। सामन्त शाही के दौर में जो रुतबा था वह लोकतन्त्र में भी बरकरार रहा। जमींदारी नहीं रहने के बावजूद उनके पास बावन कमरों की हवेली थी और एक हजार बीघा का लम्बा-चौड़ा कृषि फार्म था। अटलपुर वे साल में एक मर्तबा ही आते, गर्मियों में। यह पूँजीपति परिवार अपने देवताओं से बड़ा खौफ खाता था। इसलिए वे प्रत्येक वर्ष बेनागा देवताओं पर सत्यनारायण भगवान की कथा कराने के बहाने यहाँ आते और पन्द्रह-बीस दिन रुककर लौट जाते।
तीन गाड़ियों में लदकर वे अटलपुर आए। परिवार के सदस्य वातानुकूलित गाड़ी में थे बाकी दो गाड़ियों में सामान था। उनके आते ही गाँव के लोगों की हवेली के सामने भीड़ जुट गई। बड़े बुजुर्ग उन्हें झुककर प्रणाम करने लगे। कइयों ने जमींदार साहब के पैर छूते हुए अपने छोटे-छोटे बच्चों से भी जमींदार साहब के पैर छुवाए। नकटू भी गाँववालों के साथ था लेकिन उसने न जमींदार साहब के पैर छुए और न ही नमस्कार की। वह उनके साथ आए उस गोरे-चिट्टे, भरे हुए बदन वाले लड़के को देखता रहा जो उसकी ही उम्र का था। वह जमींदार साहब के छोटे लड़के का लड़का था। उसका नाम डिंपल था। कइयों ने जमींदार साहब को अन्नदाता और माई-बाप कहते हुए उनके चरणों में सिर रखकर आशीर्वाद लिया तो कई बेवजह जमींदारों के जमाने में सुख-चैन बरपा रहने का गुणगान करते हुए उनकी तारीफों के पुल बाँधने लगे। नकटू चुपचाप सब देखता-सुनता रहा। उसे जमींदार साहब को अन्नदाता व माई-बाप कहना अटपटा लग रहा था। वह यह अच्छी तरह जानता था कि ‘‘किसानों के अन्नदाता तो खेत हैं, खलिहान हैं, गाय-बैल हैं, नदी-नाले हैं। ये जमींदार अन्नदाता कैसे हो गए?''
डिंपल के गाँव में आने के साथ ही अजब परिवर्तन होने शुरू हो गए थे, जो नकटू के लिए नागवार थे। डिंपल जब भी हवेली से उतरता तो अजीबो गरीब खेल-खिलौनों के साथ प्रकट होता। उसकी पैंट और शर्ट की जेबें तरह-तरह के बिस्किट्स और चॉकलेट के पैकेटों से भरी होतीं। हवेली के द्वार पर उसके लिए सवारी सजी रहती। कभी वह बैटरीवाली कार, कभी तीन पहिए, दो पहिए और चार पहिए की साइकिल पर सवार होकर हवेली के सामने वाले गलियारे में अपनी सवारी दौड़ाता। दो नौकर आजू-बाजू उसके साथ होते। अटलपुर के आभिजात्य मोहल्ले के उच्च जातियों के बच्चे विस्मयपूर्वक डिंपल की सवारियों, कपड़ों और बिस्किट्स-चॉकलेट्स की चर्चा करते हुए डिंपल की खुशामद-मलामद करते हुए उसे घेर लेते। इस वक्त उनके मुखों में लार होती और वे थूक का घूँट गटक रहे होते। जब कुछ बच्चों की डिंपल से निकटता बढ़ गई तो वे उसकी सवारी में धक्का लगाने का अधिकार प्राप्त कर गए। क्रमानुसार एक-एक लड़का उसकी साइकिल में धक्का लगाता हुआ बंसी सेठ की हवेली तक ले जाता और फिर वहाँ से लौटकर हवेली के दरवाजे तक छोड़ देता। धक्का लगाने का चांस जिस लड़के को मिल जाता वह अपने को धन्य समझता। अन्य लड़के उसे भाग्यशाली कहते। डिंपल को जिस लड़के का धक्का लगाना सुखदायक लगता उसे वह इनाम स्वरूप एक-दो बिस्किट्स या एक-दो चॉकलेट दे देता। पुरस्कृत लड़का इनाम पाकर पुलक उठता और उसका चेहरा प्रगल्भता से भर जाता। बहुत देर तक वह उस चीज को निहारता रहता। अपने मित्रों को दिखाता। फिर दौड़ लगाता हुआ घर पहुँचकर माँ-बहनों को दिखाता। चॉकलेट कहीं छिन न जाए इसलिए वह धीर-गम्भीर इत्मीनान के साथ उसकी पन्नी उतारता और पन्नी को सँभालकर पाठ्य-पुस्तक के पन्नों में छिपा देता। डिंपल का बिस्किट्स का डिब्बा जब खाली हो जाता तो वह आनन्द के लिए उसे बच्चों के बीच उछाल देता। बच्चे उस डिब्बे को लूटने के लिए कटी पतंग की तरह झपट पड़ते। जो लड़का डिब्बा पा जाता वह उसे छाती से चिपकाए घर की ओर दौड़ लगा देता। और डिंपल अपने वाहन पर उछल-उछलकर इस खेल का आनन्द ले रहा होता।
यह सारा मन बहलाने का खेल नकटू दूर खड़ा तमाशे की तरह देखता और मन ही मन ईर्ष्यावश चिढ़ता रहता। उसके भी मुँह में कैडबरी चॉकलेट और पारले बिस्किट देखकर लार आ जाती। जीभ चखने के लिए मचलने लगती। ऐसा ही हाल उसका तब होता जब वह सरपंच के यहाँ टीवी में विज्ञापन देख रहा होता। टीवी की यह विज्ञापनी दुनिया उसे स्वप्न की तरह छलावा लगती। वह सोच ही नहीं पाता था कि गाँव की चहारदीवारी के बाहर वास्तव में ही ऐसी ही थिरकती हुई मनमौजी बच्चों की दुनिया है। कभी-कभी वह सोचता टीवी के पर्दे पर पत्थर मारे और उछलते-कूदते लड़के के हाथ से बिस्किट का पैकेट छुड़ाकर ले भागे। लेकिन वह जानता था इस बक्शानुमा डिब्बे में लड़का-वड़का कोई नहीं होता यह तो सब पर्दे पर विज्ञान का करतब भर है। किन्तु जबसे डिंपल गाँव आया था तब से उसे यह विश्वास हो गया था कि गाँव के बाहर शहरों में एक दुनिया बच्चों की जरूर ऐसी है जो टीवी के बच्चों की तरह मनमौजी है। अल्हड़ है। यदि नहीं होती तो यह डिंपल कहाँ से खा पाता कैडवरी...पारले...? कहाँ घूम पाता साइकिल और बैटरीवाली गाड़ी पर...? नकटू की तरह ही उसके सहराने और चमरानेवाले मित्रों को डिंपल की शान पर विस्मय होता।
ऐसे ही एक दिन चम्पेबारी के दालान में बैठा नकटू डिंपल की साइकिल का इधर से उधर, उधर से इधर आना-जाना देख रहा था कि एकाएक नकटू के सामने बीच गलियारे में डिंपल ने साइकिल रोक दी और धक्का लगाने वाले व बेवजह पीछे दौड़ते रहनेवाले बच्चे बॉडीगार्डों की तरह डिंपल के दाएँ-बाएँ खड़े हो गए। डिंपल सगर्व ललकार भरे लहजे में बोला, ‘‘अबे...नकटू इधर आ''
नकटू को अव्वल तो डिंपल के बोलने का लहजा असहनीय लगा लेकिन वह डिंपल का मन्तव्य समझने के लिए चुपचाप आगे बढ़कर डिंपल की साइकिल के पास खड़ा हो गया और बोला, ‘‘का...?''
‘‘मेरी साइकिल में धक्का लगा...।'' डिंपल रोब में बोला था।
डिंपल का विनम्र अनुनय होता तो नकटू कुछ सोचता भी? किन्तु वह तो हुक्म था और नकटू यह बखूबी समझता था कि हुक्म का पालन एक तो नौकर करते हैं दूसरे चमचे। जबकि नकटू डिंपल का न नौकर है और न ही चमचा! फिर वह इस रईसजादे की साइकिल में धक्का क्यों लगाए?
‘‘जल्दी कर बे....'' इस बार डिंपल थोड़ा गर्जा था।
नकटू को काटो तो खून नहीं। नाक पर गुस्सा चढ़ाए रखने वाले नकटू को इतना सहन कैसे होता? और उसने पूरी ताकत से साइकिल में एक लात दे मारी। दाएँ-बाएँ खड़े लड़के दूर छिटक गए और डिंपल औंधे मुँह गिरा धूल खा रहा था। साइकिल उलटकर डिंपल के पैरों पर थी। डिंपल अंग्रेजी में गालियाँ बकता हुआ रोने लगा था। नकटू अगला मोर्चा सँभालता इससे पहले हवेली के द्वार पर खड़े दरबान दौड़े-दौड़े आए और नकटू के दोनों हाथ पकड़कर हवेली की ओर घसीटते हुए ले गए। नकटू हाथ-पैर पटकता हुआ छुड़ाने का असफल प्रयास करता रहा। एक दरबान ने डिंपल को उठाया। उसके कपड़ों से धूल झाड़ा और उसे गोदी में लादकर हवेली की ओर ले गया। धक्का लगाने वाले लड़के पीछे-पीछे साइकिल धकियाते हुए चल दिए।
डिंपल के रोने की आवाज सुनकर उसकी मम्मी, उसके बाबा और हवेली के सभी नौकर-नौकरानियाँ दौड़े-दौड़े, ‘क्या हुआ? क्या हुआ'? कहते हुए नीचे आए और डिंपल को घेरकर उसकी सुध लेने लगे। नौकरों और चाटुकारों ने सारा माजरा कह सुनाया। लड़कों ने सोचा नकटू बेटा आज बड़ी मुश्किल से अंटी में आया है इसलिए इसे आड़े हाथों लेकर क्यों न पुरानी कसर निकाल ली जाए। फिर क्या था, प्रतिद्वन्द्वियों ने कुढ़नवश सारा दोष नकटू के सिर मढ़ दिया।
डिंपल की मम्मी ने आव देखा न ताव और चार-छह चाँटे नकटू के गालों पर जड़ दिए। क्रोधान्द मम्मी और भी मारती किन्तु प्रतिकारस्वरूप नकटू ने गालियाँ बकते हुए उनकी ओर लातें फेंकना शुरू कर दी थीं। और वे प्रत्युत्पन्न मति से काम लेते हुए नकटू कुछ ऐसी-वैसी हरकत न कर दे जिससे उनकी जगहँसाई हो, इस अनुभूति के साथ चार कदम पीछे हट गई थीं।
जब मम्मी हट गईं तो डिंपल के बाबा नकटू के सामने आकर बोले, ‘‘तूने क्यों मारा बच्चे को?''
‘‘मैंने डिंपल को नहीं मारा। खाली साइकिल में लात दी थी, वह गिर पड़ा तो मैं क्या करूँ?''
नकटू के दोनों हाथ नौकर पकड़े हुए थे। वह अपने वजूद के पूरे रोब के साथ छाती ताने खड़ा था। उसकी आँखों में न आँसू थे और न ही पछतावा था, न भय था और न ही बेइज्जती हो जाने की शर्म थी।
‘‘तूने साइकिल में लात क्यों मारी?''
‘‘उसने मुझसे नौकरों की तरह क्यों कहा कि मेरी साइकिल में धक्का लगा? मैं क्या उसके बाप का नौकर हूँ या उसका दिया हुआ खाता हूँ? मैं क्यों लगाऊँ धक्का?''
अटलपुर जागीर के भूतपूर्व जमींदार उस लड़के के दो-टूक जवाब को सुनकर सन्न रह गए। अस्सी वर्ष की उम्र में उनकी इतनी बेइज्जती अंग्रेज अधिकारियों के अलावा किसी ने नहीं की थी। वे सोचने लगे काश! आज जमींदारी का जमाना होता तो वे इस लड़के को हाथी के पैर के नीचे कुचलवाकर, लाश तलैया पर चील-कौवों को खाने के लिए डाल देते। किन्तु वे विवश थे अब न अटलपुर की जागीर थी और न वे जमींदार। इस बीच काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। बच्चों से लेकर किशोर, जवान-प्रौढ़ और बुजुर्ग। गाँव के एक प्रौढ़ शिक्षक आगे आकर बोले, ‘‘बेटा, जरा धक्का लगा देता तो तेरा क्या जाता...बदले में बिस्किट, मिट्टी गोली खाने को मिलती''
‘‘मैं क्या बिस्किट, चॉकलेट का भूखा हूँ जो धक्का लगाऊँ...? खाने को इतनी ही जीभ लपलपा रही है तो तुम्हीं धक्का लगाओ माटसाब...।''
मास्टर साहब की एक झटके में ही बोलती बन्द हो गई। फिर लोगों में यह खुसुर-फुसुर होने लगी कि ‘‘वह थोड़े ही किसी की मान रहा है, वह तो नम्बर एक का बेशरम है तभी तो उसका नाम नकटू पड़ा। कहें भी तो किससे कहें डुकरिया भी बेचारी परेशान रहती है।''
इस बीच डुकरिया (नानी) को भी खबर लग गई। वह बेचारी हाथ में खजूर की टान लिये भागी-भागी आई। उसने आते ही नकटू को नौकरों के हाथ से छुड़ाया और उसको गालियाँ देते हुए सुतउअल पिटाई लगाना शुरू कर दी, ‘‘धुआँलगे, नासपीटे, नकटा। तू का मेरे करमन में लिखो तो...? जाने मुरहू कौन पापी को बीज जनके अपन तो चलती भई और मेरे प्राण खावे जाए छोड़ गई।''
नानी जब पीटकर लस्त हो गई तो जमींदार साहब के पास जाकर हाथ जोड़कर बोली, ‘‘महाराज जो तो ऐसोई पापी है, जाए माफ कर देईओ...मैं तुमरे पाँव पड़तों।'' और नानी ने जमींदार के पैरों में सिर रख दिया था।
उस दिन जैसे-तैसे नानी द्वारा मिन्नत-चिरौरी करने से मामला सुलट गया था। किन्तु नकटू के अन्दर आहत सर्प की तरह प्रतिहिंसा रह-रहकर प्रज्वलित होती रही थी। उसने अन्तर्मन में संकल्प ले लिया था कि वह अपनी बेइज्जती का बदला जरूर लेगा। दूसरे दिन से ही वह मौके की तलाश में रहने लगा कि डिंपल को कब मजा चखाया जाए? हालाँकि नकटू के पीटे जाने के बाद से डिंपल का रुतबा थोड़ा बढ़ गया था फिर भी डिंपल नकटू की शक्ल देखते ही सहम जाता और नकटू से दूर रहने का प्रयास करता। हालाँकि उस घटना के बाद से डिंपल ने कन्धे पर नकली बन्दूक लटकाना शुरू कर दी थी और वह अपने दोस्तों से यह कहकर रोब पेलता कि ‘‘अबकी मर्तबा बोलेगा तो साले को गोली मार दूँगा।''
नकटू की सार्वजनिक तौहीन हो जाने की वजह से उसके सहराने और चमराने के मित्र भी उससे कन्नी काटने लगे थे। उन्हें यह भय सताने लगा था कि यदि वे नकटू का साथ देंगे तो नौकर उन्हें पकड़कर भी डिंपल की मम्मी के हाथों पिटवा सकते हैं। किन्तु उन्होंने अपनी असलियत नकटू पर जाहिर नहीं की थी। दिखाने को तो वे नकटू के भी दोस्त बने रहे और नकटू के साथ डिंपल को पीटने की मोर्चाबन्दी साधने में भागीदारी भी करते रहे। दरअसल वे कुटिल बुद्धि से काम लेते हुए नकटू के भी साथ थे और डिंपल के भी।
वह दिन भी आया जब देवताओं पर कथा हुई। आज के दिन हवेली के सभी नौकर, पंडितों और गाँव के सवर्ण जाति के लोगों के खान-पान की व्यवस्था में लगे थे। बारह बजे के करीब कथा समाप्त हुई। कथा में डिंपल देवताओं के सामने जजमान बनकर बैठा। उसी के हाथ से पंडित को दक्षिणा दिलाई गई और नारियल फोड़वाया गया। प्रसाद बँटने के बाद भोज सम्पन्न हुआ। डिंपल और उसके साथियों ने तुरत-फुरत भोजन किया और चुपचाप साइकिल घुमाने के लिए चल दिए। आज डिंपल के हाथ में एक बड़ा बिस्किट्स का पैकेट था जो उसने अभी खोला नहीं था।
देवताओं का स्थान गाँव से बाहर हवेली के पिछवाड़े की ओर था। वहाँ से थोड़ी दूर चलकर तलैया थी और तलैया के पीछे पठारी जंगल था। डिंपल ने आज अपने मित्रों से तलैया तक घूम आने की इच्छा प्रकट की। उसके दोस्त साइकिल धकियाते हुए तलैया की ओर चल दिए।
नकटू अपने सहराने के मित्रों के साथ बरगद के नीचे होलक-डण्डा खेल रहा था। साइकिल की चींची, चर्र...चर्र की आवाज सुनकर एकाएक वे चौंके और कान खड़े करके गैल की तरफ देखने लगे। डिंपल की साइकिल पर नजर पड़ते ही नकटू धीरे से बोला, ‘‘छिप जाओ डिंपल का बच्चा इधर ही आ रहा है। नौकर भी कोई साथ नहीं है। अब देखता हूँ बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी।''
और सभी लड़के बरगद के पीछे छिप गए। नकटू के हाथ में होलक खेलने का बाँस का डेढ़ हाथ लम्बा तेल पिलाया डण्डा था। जैसे ही साइकिल बरगद क्रॉस करके तलैया की ओर बढ़ी कि नकटू साइकिल की ओर झपट पड़ा। नकटू को देखते ही डिंपल के दोस्त साइकिल छोड़ गाँव की ओर भाग खड़े हुए। अविलम्ब नकटू ने डिंपल का गिरेबान पकड़कर उसे साइकिल से खींच लिया। डिंपल के हाथ का बिस्किट का डिब्बा छीनकर नकटू ने एक मित्र को दे दिया। और फिर वह डिंपल पर पिल पड़ा। डिंपल के पौदों, टखनों में दस-बीस डण्डे मारे। जब वह रोता-बिलखता ‘मम्मी...मम्मी' चिल्लाता धरती पर लोटपोट होने लगा तो उसे लात-घूँसे मारने लगा। नकटू के दोस्तों ने जब देखा कि अब बाजी पूरी तरह नकटू के हाथ में है तो वे भी बहती गंगा में हाथ धोने के बहाने डिंपल को लात-घूँसे मारने लगे। डिंपल के मुँह और नाक से जब उन्होंने खून बहता देखा तो वे सहम गए और वे सब डिंपल को वहीं छोड़कर पठारी जंगल की ओर भाग निकले। नकटू ने पीछे पलटकर तो देखा, गाँव की तरफ से डिंपल के नौकर बेसाख्ता भागे चले आ रहे हैं।
नौकर डिंपल को लादकर भागे-भागे हवेली लाए। डिंपल की मम्मी और उसके बाबा ने नौकरों को जली-कटी सुनाते हुए गालियाँ दीं, चाँटे भी मारे। फिर फौरन डिंपल को कार में लिटाकर उपचार के लिए इन्दौर रवाना हो गए।
इधर नकटू और उसके मित्र पठारी जंगल पारकर सिआँखेड़ी गाँव के गेंत भी पार कर गए थे, यहाँ से भरखा का जंगल शुरू होता था। यहाँ रुककर वे सुस्ताए फिर बिस्किटों को चार बराबर हिस्सों में बाँटा। बिस्किटों का स्वाद लेते ही उनकी दौड़ने की थकान जाती रही। सिआँखेड़ी के टपरों पर रहनेवाले सहरिए अटलपुर के सहरियों के नातेदार थे। अतः नकटू अपने मित्रों के साथ सहरियों के टपरों में रुक गया।
जब चार दिन गुजर गए तब उन्होंने गाँव की सुध ली। अटलपुर के पठारी जंगल में पहुँचने पर उन्हें अटलपुर के ग्यारें (ग्वाले) मिल गए। ग्यारें सब सहराने के सहरिए थे। यह सुनकर उन्हें तसल्ली हुई कि डिंपल, उसकी मम्मी, उसके बाबा, उसके नौकर सब माल-असबाब गाड़ियों में लादकर उसी दिन अटलपुर से कूच कर गए थे। नकटू अब पूरी जिन्दादिली के साथ निर्भय होकर गाँव में घूमता। ब्राह्मण और बनियों के जो लड़के उससे कतराते थे वे अब डिंपल के साथ हुए हश्र से सहमकर उसकी चिरौरी में अपनी भलमनसाहत समझने लगे। नकटू जैसे-जैसे उम्र के सोपान चढ़ रहा था, वैसे-वैसे जिन्दादिली के साथ उसमें अद्भुत नेतृत्व क्षमता का उभार होता जा रहा था।
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(अगले अंकों में जारी....)
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