( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'दहशत' से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी रोड,...
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'दहशत' से जारी...)
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म 15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानी
सती का ‘सत'
कनकलता पैंतालीस-छियालीस साल की एक सुशिक्षित सम्भ्रान्त महिला। अच्छी माँ, सुघड़ गृहिणी। घर के कामकाज में पारंगत जैसी नियमित दिनचर्या उसी के अनुरूप सलीके से व्यवस्थित घर। आदर्श पत्नी के रूप में पति की आज्ञाकारी भी वे रहीं, पर भला पति का साथ उन्हें मिला ही कितना..., मात्र सात साल। तभी से उनके भावविहीन गौरवर्णी गोल चेहरे पर दुख-दर्द की परत ठहरी हुई है। इधर ठहराव के बावजूद कैसे पंख लगाकर फुर्र हो गए बीस-इक्कीस साल।
आज सुबह कनकलता की नजर जब अखबार की मुख्य हेडलाइन पर ठहरी, पंचानबे साल की महिला सती, बेटों ने ही माँ को सती होने के लिए उकसाया, तो उनका मस्तिष्क बुरी तरह परेशान हो गया। सती होनेवाली घटनाओं से सम्बन्धित समाचार पढ़कर वे अक्सर भीतर तक दहल जाया करती हैं। आज से ठीक बीस साल पहले राजस्थान के दिवराला गाँव में रूपकुँवर के सती होने की घटना सामने आई थी तब भी वे परेशान हो उठी थीं। कैसे अठारह-उन्नीस साल की यौवन ग्रहण कर रही नवोढ़ा रूपकुँवर को पति की चिता के साथ जल जाने के लिए लाखों लोगों के बीच चुनरी रस्म का आयोजन किया गया। ढोल-धमाकों के बीच सती होने के लिए उकसाकर लाचार बना दी गई देह को लकड़ी के भारी गट्ठरों के बीच दाब दिया गया। फिर देवर ने ही जिन्दा औरत को मुखाग्नि दे दी। कहा तो यह जा रहा था कि सती के ‘सत' से आग निकलेगी? पर सती के सत से कभी आग निकलती है भला? वह तो पाखण्डियों द्वारा आग निकलने का आडम्बर रच दिया जाता है।
रूपकुँवर के शरीर ने जब आँच पकड़ी तो वह रहम की भीख माँगती हुई मदद के लिए चिल्लाई भी थी। पर सती के बहाने हत्या के लिए आमादा खड़े निर्मम पाखण्डियों ने रूपकुँवर को लकड़ियाँ बिखेरकर चिता कहाँ फलाँगने दी। देखते-देखते सती माता के आकाश चीरते जयकारों के बीच दया की गुहार लगाती दर्दनाक चीखें खामोश होती चली गईं। एक समूची दुल्हन के रूप-श्रृंगार से सुसज्जित स्त्री-देह आग की लपटों के हवाले थी। काश रूपकुँवर को रीति-रिवाज और खोखली परम्पराओं की निष्ठुर आग से बचाने के लिए कनकलता के ससुरालवालों की तरह रूपकुँवर के परिजन भी आड़े आ गए होते? पर अनायास गौरवशाली जातीय परम्पराओं की भावनाओं के वशीभूत कर दी जानेवाली स्त्रियाँ कनकलता की तरह सौभाग्यशाली कहाँ होती हैं? ज्यादातर मामलों में सती हो जानेवाली स्त्रियों के परिजन ही सामाजिक मान्यताओं और परिस्थितियों के दास होकर सती हो जाने का माहौल निर्मित करने में सहायक हो जाते हैं। रूपकुँवर की चूनरी रस्म उसके पिता ने ही की थी। और अब पंचानबे साल की कुरइया देवी को चिता के हवाले उसके चार बेटों ने ही किया।
कनकलता के मन-मस्तिष्क में यादें यथास्थिति का खुलासा करते हुए जीवन्त हो उठी हैं...। इक्कीस साल पहले उस दिन सन्तान सातें थी। और कनकलता अपने मायके दतिया में थी। दतिया, बुन्देलखण्ड के प्रभाव क्षेत्र में होने के कारण पारम्परिक पर्व-त्यौहार, रीति-रिवाज और मान्यताओं से कहीं गहरा वास्ता रखनेवाला क्षेत्र। सन्तान सातें यानी अपनी पुत्र सन्तानों में गुणकारी चरित्र प्रवाहित करने के लिए अलौकिक शक्ति से प्रार्थना एवं उपासना का दिन। कनकलता ने दोनों बेटों पीयूष और कुणाल की लम्बी उम्र और मेधावी बुद्धि के लिए व्रत रखा। वहीं कनकलता के चार बहनों की पीठ पर इकलौते भाई के लिए उसकी माँ ने भी व्रत रखा। उस दिन माँ-बेटी ने सुबह जल्दी उठकर दिनचर्याएँ निपटाने के बाद श्रृंगार किया। कनकलता ने गहरी नारंगी साड़ी पहनी। मेहँदी-महावर रचाया। माँग में चुटकी भर सिन्दूर की लम्बी रेखा, पति की लम्बी आयु के लिए खींची। माथे पर गोल टिकी जड़ी। सवा-सवा तोले की सोने की चूड़ियाँ कलाइयों में पहनीं। सात और पाँच साल के बेटों के लिए कड़ाही में आसें (पूड़ियाँ) तलीं। गुड़ और कठिया गेहूँ के चून में सनी आसें। फिर गोबर से लिपे आँगन में चौक (रंगोली) पूरकर पटा रखा गया। पटे पर आले से उठाकर पीतल के छोटे-छोटे भगवान विराजे गए। आसें रखी गईं। कलश में आम के पत्तों का झोंरा रख नारियल रखा गया। तब सन्तान सातें की कथा बाँचकर पूजा पूर्ण हुई। नारियल फोड़कर बेटों को तिलक किया और उन्हें आसें खिलाईं। कनकलता माँ और बहनें आँगन में ही बैठ मंगल-गीत गा रही थीं, तभी एकाएक कनकलता के देवर रामगोपाल आँगन में आ खड़े हुए। चारों बहनें और माँ अगवानी को तत्पर। देखा शान्त रामगोपाल सम्पूर्ण संयम बरतते हुए बुदबुदाने की कोशिश तो कर रहे हैं, पर बोल नहीं फूट रहे। फिर बमुश्किल बोले, ‘‘भाभी तत्काल मुरैना चलना है।''
मस्तिष्क में आसन्न आशंकाओें के उठते विवर्तों के बीच चैन खो रही कनकलता बोली, ‘क्यों'? और उसने फिर अनुभव किया जैसे देवर लाला भीतर से उठ रहे किसी गुबार को जबरन साधने की कोशिश में लगे हैं। कनकलता ने फिर उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह आशंकित हो गई जरूर कोई अनहोनी घटित हुई है। कनकलता माँ से निर्णायक स्वर में बोली, ‘‘मैं जा रही हूँ माँ।''
‘‘तेरे पिता को तो आ जाने दे।''
‘‘उन्हें भी मुरैना भेज देना।'' रामगोपाल बोले थे।
रामगोपाल पलटकर बाहर हो गए। पीछे-पीछे दोनों बेटों को लगभग घसीटती-सी कनकलता थी।
बेचारी कनकलता का भाग्य जैसे किसी शरारती घोड़े की तरह बिदक रहा है। भाग्य तो शायद पहले से ही बिदका हुआ था। सनत की वह जब ब्याहता बनी थी तब अपने भाग्य पर सखी-सहेलियों के बीच खूब इतरायी थी। कुमारियाँ कल्पनाओं में जिस राजकुमार के ख्वाब देखा करती हैं सनतकुमार उन्हीं कल्पनाओं के साक्षी थे। एकदम अपेक्षित आकांक्षाओं के भव्य और दिव्य पुरुष। थे भी इंजीनियर। अच्छा वेतन। ऊपरी आमदनी अलग से। सब कुशल था। लेकिन विवाह के सात माह बाद जब कनकलता ने सतमासा बच्चा जन्मा तो सनत को नयी-नयी आशंकाओं ने घेर लिया। वे अपने ही अंश से उत्पन्न पुत्र को अवैध करार देते-देते लगभग बौरा गए। बौराई बुद्धि के उपचार के लिए सासू माँ ने जब सन्दूक से मनोरोग चिकित्सक डॉ. मल्होत्रा के पुराने पर्चों की फाइल निकालकर देवरजी को दी तब कहीं रहस्य खुला कि सनत के मन की नम धारा पर मनोविकार के पौधे पिछले कई सालों से गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। और अब जब भी अपनी इच्छाओं के विरुद्ध कोई अनहोनी घटित देखते हैं तो मन पर से बुद्धि का नियन्त्रण दूर हो जाता है और वे सनक के दायरे में आनेवाले ऊटपटाँग वाक्य बकने लगते हैं। विवाह से पूर्व सनत की सनक को कनकलता और उसके परिजनों से छिपाया गया था। बेचारी कनकलता माथा पकड़कर भाग्य को कोसती बेबस रह गई। अब सफाई दे भी तो किसे? और सफाई सुने भी तो कौन? जिस पति की काबिलियत पर कल तक कनकलता इतराती थी आज उसी की हरकतों को सामान्य व्यवहार जताकर छिपाने की नाकाम कोशिश करती रहती है। औरत की जिन्दगी की विचित्र विडम्बना है यह। लेकिन उसकी भी अपनी स्वार्थ भावनाएँ हैं जो उसे पुरुष की प्रतिच्छाया बनी रहने के लिए मजबूर बनाए रखती हैं।
कलंक दंश झेलती कनकलता बौराई अवस्था में भी पति का साथ निभाती रही। इस बौराई अवस्था में भी दैहिक सुख के लिए गोंच की तरह कैसे उसकी देह से चिपटे रहते थे सनत। काम-सुख के दौरान पवित्रता-अपवित्रता का सनत की बौराई बुद्धि को भी कहाँ खयाल रहता था? डॉ. मल्होत्रा मैडम के उपचार से सनत साल-छह माह के लिए ठीक हो जाते और जब कभी कोई बात काँटे की तरह चुभ जाती तो फिर खिसक जाते। कठिन परिस्थितियों से समझौता करती कनकलता चार साल बाद एक और बेटे की माँ बनी। नवजात शिशु की शक्ल ने जब हू-ब-हू बड़े बेटे की शक्ल से मेल खायी तो सनत की शंकाएँ उन्हीं के शरीर में कहीं डूब गईं। कनकलता ने चैन की साँस ली और जीवन फिर पटरी पर आ गया। पर सनत का तबादला जब एकाएक दूर-दराज सतना कर दिया गया तो मनःस्थिति फिर विचलित होकर बौराने लगी। सतना में उनका मन नहीं लगता। बच्चों का बहाना लेकर बार-बार भाग आते। परसों ही तो सनत कुतुब एक्सप्रेस से सतना गए थे। फिर क्या वे लौट आए और लौटने के बाद उन्होंने कहीं कुछ कर तो नहीं लिया...? क्योंकि वे अक्सर रेल से कटकर मर जाने की धौंस दिया करते हैं।
मुरैना घर के पास पहुँचने पर कनकलता हैरान...,भयभीत! परिचित-अपरिचित लोगों की भीड़। मातमी सन्नाटा! कनकलता आगे बढ़ी तो लोगों ने गैल छोड़ दी। कनकलता आँगन में पहुँची तो देखा मुँह में पल्लू दबाए बैठी औरतों से आँगन ठसा था। सभी औरतें उसे ही विचित्र निगाहों से देखे जा रही थीं। कनकलता समझ गई सनत के साथ कोई न कोई अनहोनी घट चुकी है। खुद को सँभालती वह भीतर के कमरे थी। कमरे के कोने में वह दीवार के सहारे खड़ी हुई और फिर दीवार के सहारे ही खिसककर बैठ गई। सासू माँ भीतर आईं तो कनकलता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अम्मा?''
‘‘का मुँह से कहूँ दतिया बारी तेरे करम फूट गए।'' और सासू माँ छाती पीटकर बुक्का फाड़ रो पड़ीं। उन्हें सँभालने को बुजुर्ग औरतें दौड़ी आईं। प्रलाप करती हुईं वे बेटे की मौत का रहस्य भी उजागर करती जा रही थीं, ‘‘सबरेईं कुतुब से लौटो हतो...। केततो अम्मा मोय कलसेई जा भ्यास रई ती कि कनकलताए...और दोनों मोड़ा...ने...काउ ने तलवार से काट दये...। बाबूजी गोपाल के संग ग्वालियर दिखा लावे के इन्तजाम में लगेई हते...के जाने कब पिछवाड़े के किवाड़ खोल निकर गओ...। फिर कछु देर में तो खबर...ई...आ गई के सनत रेल से कट मरो...। कौन बुरी घड़ी आन परी भगवान...रक्षा करिओ...।''
इतना सब घटने के बावजूद कनकलता बेअसर, शान्त। आलथी-पालथी मारे प्राणायाम की मुद्रा में धीर-गम्भीर। कोई आँसू नहीं। पति का साथ छोड़ देने का रुदन-क्रंदन नहीं। उसका आभामण्डल चेहरे की लालिमा से जैसे अलौकिकता लिये दीप्त हो उठा हो...। कनकलता की तात्कालिक परिस्थितियों में निर्लिप्त, निर्विकार हालत देख आँगन में बैठी औरतें फुसफुसाई भीं, ‘‘कैसी विचित्र औरत है, भर जवानी में आदमी के मर जाने पर भी आँसू नहीं फूट रहे।'' जितने मुँह, उतनी बातें।
लगभग दिव्य प्रतिमा में परिवर्तित कनकलता किसी साध्वी की तरह बोली, ‘‘हमें मालूम था यही होना है। हम भी जाएँगे। हमारा उनसे वादा था। हम उन्हीं के साथ जाएँगे। सती होएँगे। हमें वहाँ ले चलो जहाँ हमारे परमेश्वर का शरीर रखा है। आप लोग रोएँ नहीं, शान्त रहें। जल्दी करो, हमें पति देवता के पास ले चलो।''
कनकलता एकदम उठी और बाहर की ओर दौड़ पड़ी। उसकी सास, जिठानी और भतीजियों ने उसे हाथ पकड़कर थाम लिया। सास बोली, ‘‘ऐसा नहीं करते बेटी, बच्चों की तरफ देख, बाप का साया तो उठ ही गया तेरा और उठ जाएगा तो इन दुधमुँहों को कौन पालेगा..., दुलारेगा...?''
‘‘कोई फिकर नहीं अम्मा, उनके सब हैं। दादा-दादी हैं। नाना-नानी हैं। काका-काकी हैं। इन सब बुजुर्गों का आशीर्वाद उन पर रहेगा ही..., फिर ईश्वर मालिक है। हमें किसी से कोई मोह नहीं...? हम जाएँगे। हमें जाने दो। अब हमें दुनिया की कोई ताकत सती होने से नहीं रोक सकती। यही ईश्वर की इच्छा है।''
‘‘हमरे तो वैसेई जवान मोड़ा के भर बुढ़ापे में साथ छोड़ जाने से प्राण हलक में आ अटके हैं। हमरे अब कछु बस की नईं रई। अब तो ईश्वर से एकई प्रार्थना है जल्दई प्राण हर ले, तासे बचो-खुचो जो जनम सुधर जाए। बुद्धि-संयम से काम ले बहू और बच्चों की ओर देख...।'' सासू माँ ने खुद को संयत करते हुए कनकलता को समझाइस दी। संवाद-प्रति-संवादों का दौर जारी रहा।
कनकलता का पति के प्रति अतिरिक्त लगाव से सनाका खिंच गया। कुछ महिलाएँ उसे सँभाल रही थीं तो कुछ सती की शक्ति समझ सहमकर पीछे हट गई थीं, कहीं सती का श्राप न लग जाए। कुछ ही पलों में कनकलता के सती होने की खबर घर से बाहर आई तो देखते-देखते पूरे कस्बा और आसपास के ग्रामों में फैल गई। फिर कनकलता के घर की ओर तमाशाइयों का रेला फूट पड़ा। गली-गलियारों में लोग। छतों पर लोग। पेड़ों पर बैठे व लटके लोग। सती माता के जयकारों से आकाश फूट पड़ा। ढोल-धमाके, मँजीरे-चिमटों की सुरी-बेसुरी ध्वनियों ने जैसे सती मैया को पति की चिता के साथ अग्निस्नान कर लेने के लिए सम्पूर्ण माहौल ही अनायास रच दिया हो।
जवान बेटे की अकाल मौत के गम में भी शव-विच्छेदन की कानूनी कार्यवाही में लगे पंडित रामनारायण के कानों में बहू के सती होने की रट लगाए जाने की खबर पहुँची तो बेहाल कागजी कार्यवाही जस की तस छोड़ अपने भाइयों के साथ घर की ओर भागे। पुलिस बन्दोबस्त के लिए भी कहते आए।
रामनारायण और उनके भाइयों ने घर पहुँचने पर विचित्र माहौल देखा तो हैरान रह गए। जिधर आँख फेरो, उधर ही लोगों का ताँता। ढोल-धमाकों के बीच, सती मैया के जयकारे। एक क्षण तो उन्हें लगा यह तो 1942 की अगस्त क्रान्ति-सी स्थिति बन गई। रामनारायण ने भी इस आन्दोलन में भागीदारी की थी। अंग्रेजी हुक्मरानों की लाठियाँ खाई थीं। जेल भी गए थे। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी होने के कारण पूरे इलाके में उनकी साख भी थी और धाक भी। सती प्रथा, बाल विवाह और दहेज जैसी कुरीतियों के वे सदा मुखर व प्रबल विरोधी रहे। स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह के वे प्रबल पक्षधर थे। वे खुद तो पाँचवीं जमात तक पढे़ थे लेकिन बहू-बेटियों को पढ़ाने में कभी पीछे नहीं रहे। कनकलता ब्याह के वक्त केवल हायर सेकेण्डरी थी। लेकिन बाबूजी (रामनारायण) के आग्रह के चलते उसने बीए किया और अब संस्कृत से एमए कर रही है।
रामनारायण ने घर पहुँचकर परिस्थिति को समझा और कुछ ही क्षणों में ठोस निर्णय लेकर ढोल-धमाके बजाने वालों को डाँटकर बन्द कराया। जयकारे लगा रहे लोगों को भी उन्होंने डाँटकर चुप कराने की कोशिश की। परन्तु भीड़ इतने बड़े क्षेत्रफल में फैली थी कि रामनारायण की आवाज बिना माइक के सब लोगों के कानों तक नहीं पहुँच सकती थी। बहरहाल माहौल कुछ शान्त जरूर हुआ। लेकिन पेड़ों पर बैठे-लटके लोगों का कोई-न-कोई समूह सती मैया के जयकारे लगा ही देता।
रामनारायण थोड़ी-बहुत स्थिति नियन्त्रित होती देख सीधे कनकलता के कमरे में दाखिल हुए। चार-छह महिलाओं द्वारा जबरन थामे रखी कनकलता उनके समक्ष थी। झूमा-झपटी में उसकी साड़ी का पल्लू नीचे सरक गया था। बाल बिखर गए थे। बेजा ताकत का इस्तेमाल करने के कारण माँग का सिन्दूर माथे से लकीरों में बहकर उसके चेहरे को डरावना बना रहा था।
दीवार बने बाबूजी दहाड़े, ‘‘यह क्या नाटक बना रखा है बहू...? ईश्वर ने जो जीवन दिया है वह अकाल व अनावश्यक बलिदान के लिए नहीं है? तुम जो सोच रही हो वह जीवन का अनादर है। जीवन को मारकर नहीं जीवन कोजीकर पति को याद किया जा सकता है...। पति की स्मृति में बेटों को अच्छा इंसान बनाने का व्रत संकल्प लो यह सती-अती का आडम्बर छोड़ो...। सती अपराध कर्म है।''
‘‘नहीं बाबूजी हम जाएँगे। हमारा उनसे वादा था...।''
‘‘वादे जीवितों कें संग निभाए जाते हैं बेटी। मरों के संग मरना तो जीवन की हार है। अपने मन को उस दलदल से बाहर निकालो जहाँ तुमने अपने लिए सोचना ही बन्द कर दिया है?''
‘‘नहीं बाबूजी हम कुछ नहीं सुनेंगे..., हम तो सती होएँगे। परमात्मा की यही इच्छा है।''
इस बार रामनारायण कड़क हुए, ‘‘हमारे जीते-जी यह अनर्थ नहीं हो सकता। सती ईश्वरीय इच्छा होती तो राजा दशरथ की रानियाँ सती न हुई होतीं? वे तो तीन-तीन थीं...एकाध हुई सती? बहुत हो गया अब त्रिया प्रपंच! इसे चार औरतों के साथ कमरे में बन्द करके द्वार पर ताला जड़ दो...। सती में सत होगा तो ताला भी आपसे आप खुल जाएगा और द्वार भी! हमें भी तो चमत्कार से साक्षात्कार हों?''
सती के सत का कोई चमत्कार सामने नहीं आया। कनकलता को भी बाद में लगा उसकी सती होने की जिद भी बौराई बुद्धि की तरह एक मतिभ्रम ही थी। बाबूजी इतनी शक्ति से पहाड़ की तरह आड़े न आए होते तो वह कब की जल-मरकर खप गई होती...। उस वक्त उसके अन्तर्मन में न जाने कहाँ से पति की चिता के साथ जल जाने की भावनाएँ एकाएक विकसित हो तीव्र हो उठी थीं। उसे तो लगने लगा था, निश्चित रूप से किसी अलौकिक शक्ति का अनायास ही प्रगटीकरण होगा और बाबूजी समेत सब उसके सतीत्व के समक्ष चमत्कृत होकर दण्डवत होंगे और वह भीड़ को चीरती हुई पति की चिता पर पहुँचेगी। पति का सिर गोदी में रखेगी और फिर कोई अलौकिक शक्ति अग्नि बन फूट पड़ेगी?
पर अब लगता है धार्मिक अन्ध विश्वासों के चलते सती के सत से चिता में आग पकड़ लेने का रहस्य विधवा स्त्री के विरुद्ध एक सामाजिक षड्यन्त्र के अलावा कुछ नहीं है? वाकई जीवन की सार्थकता सती के बहाने मर जाने में नहीं थी बल्कि सम्पूर्ण जीवटता और सामाजिक सरोकारों के साथ दायित्वों का निर्वहन करते हुए ही जीने में थी। कनकलता फिर स्मृतियों में...।
रात नौ बजे कनकलता के कमरे के द्वार खोले गए। कुछ औरतों ने भीतर
जाकर सूचना दी दाह-संस्कार हो गया। कनकलता के कानों तक भी खबर पहुँची। शायद उसे सुनाने के लिए ही खबर पहुँचाई गई थी। कनकलता बुदबुदाई, ‘‘बाबूजी ने हमारे साथ अच्छा नहीं किया। कम-से-कम हमें अन्तिम दर्शन तो कर लेने देते। परिक्रमा तक नहीं कराई...?'' फिर जैसे-जैसे उसके अन्तर्मन में यह विश्वास पुख्ता होता चला गया कि वाकई पति का अन्तिम संस्कार हो चुका है तो उसकी आँखें डबडबा आईं और वह फूट पड़ी। कमरे में मौजूद अनुभवी औरतों ने जैसे चैन की साँस ली और कनकलता को जी भरकर रोने के लिए अपने हाल पर छोड़ दिया। पौर में कुटुम्बियों के साथ बैठे रामनारायण के कानों में बहू के कर्कश रुदन- क्रंदन ने टंकार दी तो हथेलियों से चेहरा छिपाते उनका साहस भी जैसे टूट गया, ‘‘बड़ा अनर्थ कर दिया रामजी...? अब विपदा सँभालने की ताकत भी तू ही देना।''
और फिर बिलखते-सुबगते कर्मकाण्ड की तैयारियों व निवृत्तियों में पहाड़-सा समय बीतने लगा। तीसरे दिन अस्थि संचय के बाद कनकलता ने बच्चों के साथ इलाहाबाद संगम पर जाकर पति के फूल विसर्जन की इच्छा जताई तो बाबूजी ने इजाजत दे दी। कनकलता के मन को सन्तोष हुआ। उसका टूटा धीरज बँधने लगा। बेटों के प्रति भी वह आकर्षित हुई। कनकलता की जिजीविषा पल प्रति पल चैतन्य हो रही थी और उसके भीतर अनायास यह भाव उभरने लगे थे कि वह जिएगी...। बच्चों को अच्छा पढ़ा-लिखाकर लायक बनाएगी...।
असमय पति की मौत के दंश ने कनकलता की चंचलता लगभग हर ली थी। खामोशी की भाषा ही जैसे उसके आचरण-व्यवहार, इच्छा-अनिच्छा को व्यक्त-अव्यक्त करने का प्रमुख आधार बन गई। श्वसुर रामनारायण ने बहू को कभी सहारे का अभाव या आश्रय की कमी नहीं खटकने दी। बेटे की तेरहवीं के बाद वे बहू को लेकर ग्वालियर पहुँचे और शिक्षा विभाग में अनुकम्पा नियुक्ति के लिए अर्जी लगवा आए। कुछ दिन की भागदौड़ के बाद सरकारी विद्यालय में कनकलता को सहायक शिक्षिका के पद पर अनुकम्पा नियुक्ति भी मिल गई। बाबूजी ने अपनी ही बिरादरी के एक मित्र के मकान में कनकलता को दो कमरे किराये से दिला दिए और दोनों बेटों के साथ कनकलता को ग्वालियर रख दिया।
कनकलता ने सरकारी नौकरी के आर्थिक आधार और बाबूजी के वरदहस्त के चलते जीने की शुरुआत की तो फिर न तो उसने कभी पीछे पलटकर देखा और न ही कभी बिरादरी समाज में कमजोर साबित हुई? विद्यालय के वरिष्ठ शिक्षक भगवान स्वरूप शर्मा का उसे विशेष सहयोग प्राप्त होता रहा। सरकारी काम से लेकर घरेलू कार्यों तक जब कभी भी कनकलता को मदद की जरूरत पड़ती तो वे हमेशा ही निर्लिप्त, निर्विकार भाव से तत्पर रहते। घनी दाढ़ी में छिपे दार्शनिक चेहरे के भावों को पढ़ते हुए कनकलता अक्सर अनुभव करती कि शर्मा उसकी भावनाएँ किसी भी स्तर पर आहत न हों इसका बड़ा खयाल रखते हैं। उनके व्यवहार में कनकलता की लाचारगी के प्रति हमेशा ही दया भाव बना रहता। जिसका अहसास भर कनकलता को संबल प्रदान करता रहता। शर्मा एमएस-सी होने के साथ विश्वविद्यालय प्रावीण्य थे। लिहाजा वे कनकलता के बेटों के लिए जरूरत पड़ने पर उचित मार्गदर्शन भी देते। ऐसे तमाम सहयोगी कारणों के चलते शर्मा कनकलता के पारिवारिक शुभचिन्तक की भूमिका में थे। कनकलता के बेटे भी उन्हें परिवार के वरिष्ठ सदस्य की तरह मान-सम्मान देते।
किस्मत कहिए या संयोग उसके दोनों बेटे पढ़ने में इतने अव्वल निकले कि बड़ा न्यूरो सर्जन बन लन्दन में बस गया। डॉक्टर लड़की से ही उसने शादी रचा ली। छोटा बेटा इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी में इंजीनियरिंग कर बंगलौर स्थित बहुराष्ट्रीय कम्पनी में अच्छी सैलरी पर जॉब पा गया। उसने भी सजातीय इंजीनियर लड़की से शादी कर ली।
उम्र के प्रौढ़ पड़ाव पर कनकलता के समक्ष जैसे-जैसे वैभव अठखेलियाँ करने को आतुर हो रहा था...,वैसे-वैसे उसे आशंका हो रही थी कि उसके भाग्य का घोड़ा फिर से भटकने को बेताब हो रहा है...। कनकलता संस्कृत से एमए करने के बाद यूडीटी हो गई थी और फिर कुछ सालों बाद ही पदोन्नत होकर लेक्चरर। उसके सहयोगी भगवान स्वरूप शर्मा उसी विद्यालय में प्राचार्य हो गए थे। उसके दोनों बेटों ने आठ-आठ लाख रुपये मिलाकर माधवनगर में आलीशान मकान खरीदकर उसके जन्मदिन पर उपहार में दे दिया था। लेकिन अकेली कनकलता घर में क्या करे? बेटे-बहुएँ, नाती-पोते होते तो दुलारते-पुचकारते, डाँटते-डपटते दिन फुर्र...र्र से गुजर जाता। पर अकेले में तो खाली दिन जैसे काटने को दौड़ता है। स्कूल के बाद रिक्तता दिनभर जैसे उसे निचोड़ती रहती है। समय गुजारने के लिए टीवी ऑन करती तो स्क्रीन पर उभरती उत्तेजक तस्वीरें बीस-इक्कीस साल से वैधव्य की गाँठ से बँधे मन की चाहतों को जैसे रेशा-रेशा कर कैशोर्य की अल्हड़ता की ओर धकेलने लगतीं। उम्र के इस दौर में तीव्र बेचैनी के साथ अपने आप में ही वह खुद को तलाशने लगती? वैधव्य ढोते-ढोते सामाजिक मर्यादा और बन्धनों की औपचारिकता में उसके अवचेतन में ही स्त्री दबकर कहीं लुप्त हो गई थी। एक आदर्श स्त्री के भीतर छिपी एक और स्त्री। जिसे शरीर में ही उभरते वह कई दिनों से अनुभव करती, शर्मा को बेहद निकट पा रही थी। कनकलता ने जब उस स्त्री का पिछले शनिवार को प्रगटीकरण कर अभिव्यक्त किया, तब जैसे विद्यालय में भूचाल आ गया...।
शनिवार को महिला दिवस था। इस अवसर पर महिला सम्बन्धी किसी भी विषय को चुनकर विचार गोष्ठी आयोजित किए जाने के निर्देश लोक शिक्षण संचालनालय द्वारा दिए गए थे। कनकलता के विद्यालय में भी गोष्ठी आयोजित होनी थी। विषय चयन किया गया, ‘बढ़ती सती की घटनाएँ और समाज' कनकलता से इस विषय पर बोलने के लिए विशेष आग्रह किया गया। क्योंकि सब जानते थे कनकलता भी अपने पति की मृत्यु के समय सती होने की जिद के दौर से गुजरी है। ऐसे में उसकी तात्कालिक मानसिकता, स्थितियाँ और उनसे उबरने की जीवटता का वास्तविक चित्रण करने की अपेक्षा जरूरी थी। हालाँकि कनकलता बहस-मुबाहिशा, चर्चा-परिचर्चा और भाषण-सम्भाषण से हमेशा ही बचे रहने की फिराक में रहती। पता नहीं मंच से बोलते-बोलते वाणी से नियन्त्रण कब हट जाए और मुँह से अनायास ही कुछ ऐसा-वैसा निकल जाए जो बेवजह बवेला खड़ा कर देने का सबब बने। पर इस मर्तबा प्राचार्य शर्मा से लेकर ज्यादातर शिक्षकों की जिद थी कि कनकलता का तो भाषण जरूरी है। बहरहाल न-नुकुर करती कनकलता ने भी विचार व्यक्त करने की हामी भर ली।
सभाकक्ष ठसाठस। बतौर मुख्य अतिथि क्षेत्रीय विधायक, विशिष्ट अतिथि संयुक्त संचालक शिक्षा और अध्यक्षता का दायित्व जिला शिक्षा अधिकारी सँभाल रहे थे। वक्तव्यों का दौर शुरू हुआ तो ज्यादातर वक्ता सामाजिक उदारता और प्रगतिशील विचारों से परे सामाजिक कट्टरता, रूढ़ियों के खोखले आडम्बरों को महिमामण्डित करने के साथ वैचारिक पिछड़ेपन को उभारने का उपक्रम करते हुए सती हो जाने के लिए किसी हद तक स्त्री को ही दोषी ठहराने की कोशिश करते रहे। जैसे सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की होड़ में लगे हों। पर जब कनकलता की बारी आई तो जैसे स्त्री के प्रति वैचारिक क्रान्ति के शंखनाद ने आकाश भेद दिया हो, ‘‘लाचारी की अवस्था में स्त्री की लाचारगी को लेकर बहुत गहरे विचार व्यक्त करते हुए पीड़ा जताने की जरूरत नहीं है। क्योंकि शुभचिन्तकों से बतौर सहानुभूति, पीड़ा जताए जाने के मायने हैं स्त्री को और ज्यादा कमजोरी के दायरे में लाना। सती की घटनाएँ तो अब अपवाद स्वरूप ही घटित होती हैं, लेकिन दहेज के अभाव में नवविवाहिताएँ रोज आत्महत्याएँ कर रही हैं। मेरा ऐसा अनुभव और विश्वास है, जब एक स्त्री के तिल...तिल प्राण निकल रहे होते हैं तब निर्णायक घड़ी में उसे बचा लेने के ठोस उपाय हम
कहाँ कर पाते हैं? हाँ, मर जाने के बाद जरूर मुड़े-तुड़े पत्रों में कहीं दहेज प्रताड़ना की चन्द पंक्तियाँ खँगालते हुए पुलिस कार्यवाही के लिए जितने बेचैन होते हैं, उतने पहले ही हो गए होते तो शायद एक जा रही जान को बचाया जा सकता था। जैसा कि आप में से जयादातर जानते हैं एक बुरे दौर में, मैं सती होने की जिद के दौर से गुजरी हूँ। उस वक्त यदि मेरे श्वसुर कहीं गहरे आँसू बहाने में ही लगे रह गए होते तो मैंने भी पति की चिता में कूदकर आत्महत्या कर ली होती। यदि हर विवाहिता को मेरे स्वर्गवासी श्वसुर जैसा आशीर्वाद मिले तो न स्त्रियाँ सती हों और ना ही दहेज के लिए जलाई जाएँ अथवा आत्महत्याएँ करें? मुझे तो अपने पितातुल्य श्वसुर पर इतना विश्वास था कि यदि मैं पुनर्विवाह की इच्छा जताती तो वे निश्चित मेरा पुनर्विवाह करने के लिए समाज की कोई परवाह किए बिना आगे आ जाते...? चूँकि हम परम्परावादी सोच और आदर्श छवि के छिलकों से ढँके हैं इसलिए खुद को ईमानदारी से अभिव्यक्त करने में इतनी सतर्कता बरतते हैं कि कहीं लांछनों के घेरे में न आ जाएँ? अन्त में मेरा उन सब महानुभावों से, प्रगतिशीलों से यही विनम्र विनती है कि मरने की स्थितियों से जूझ रही स्त्री को बचाने के लिए सही घड़ी पर सतर्क हो जाइए। घड़ी चूक गई तो तय मानकर चलिए एक और स्त्री की जान गई।
कनकलता के क्रान्तिकारी भाषण से बैठे लोग स्तब्ध रह गए। यह कनकलता क्या बोल गई, इसके वक्तव्य का क्या अर्थ लगाया जाए, यही कि कनकलता के मन में पुनर्विवाह के लिए भी कहीं दबी इच्छा थी, अथवा है? लोग सोचने लगे,यह कनकलता नहीं, उसके भीतर से इक्कीसवीं सदी की आधुनिक नारी बोल रही थी? भगवान स्वरूप शर्मा के मन में भी कनकलता की अन्दरूनी भावनाओं को लेकर तमाम सवाल उभर रहे थे। जिनके उत्तर पाकर वे जिज्ञासाओं पर विराम लगा देना चाहते थे। उन्होंने रात नौ बजे के करीब कनकलता को फोन लगाया, ‘‘तुमने तो आज स्त्री मन के भेद का उद्घाटन कर क्रान्तिकारी भाषण दे डाला। बड़ी चर्चा है।''
‘‘न जाने क्यों लोग स्त्री से अपेक्षा करते हैं कि वह देह की कारा से मुक्त होने की बात सोचे ही नहीं...? अब आपसे क्या छिपाऊँ शर्माजी...पति के मर जाने से स्त्री का मन थोड़े ही हमेशा के लिए मर जाता है...।'' और कनकलता ने फोन काट दिया। शर्मा की जिज्ञासाओं पर विराम लगने की बजाय रहस्य और गहरा गया लेकिन उधर कनकलता खुद को अभिव्यक्त कर सम्पूर्ण सन्तुष्ट थी। बीस-इक्कीस साल के विधवा जीवन में आज जैसी सन्तुष्टि की अनुभूति उसे शायद पहली बार हो रही थी।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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