(पिछले अंक से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी रोड, दरियागंज नयी दिल्ली-110002 मूल्...
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण ः सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण ः जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन ः कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक ः बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानीदहशत
बलुआ दहशत में है! इससे पहले बलुआ ने कभी अब तक के जीवन में अन्दरूनी भय का अनुभव नहीं किया। उसकी मेंड़ से लगे खेतों की टुकड़ियों को खरीदने का जो सिलसिला विधायक राजाराम ने लगाया है, वह थम ही नहीं रहा है। पाँच सहरियों को तीस साल पहले मिले पट्टों की जमीन बेचने की मंजूरी कलेक्टर से लेकर एक के बाद एक रजिस्ट्री करा कैसे राजाराम जागीर पसारता जा रहा है, जैसे जमींदारी चली आ रही हो? वाकई लोकतन्त्र के तो ये नेता जैसे जागीरदार ही बन बैठे? ये आला अहलकार भी अजब हैं वैसे तो चिरी अँगुलियाँ पे पैसा लेकर भी मुश्किल से मूतेंगे, लेकिन जो विधायक के इशारे पर कैसे पटवारी, गिरदावर, तहसीलदार, एसडीओ और कलेक्टर तक कागजी खानापूर्ति में लगे हाथों-हाथ मंजूरी देने में लगे हैं? वरना सैर-आदिवासी की विक्रय से वर्जित भूमि स्वामी की जमीन बेचना क्या आसान है? लेकिन ये अहलकार चाँदी के जूते और नेताओं की फटकार के आगे कैसे भीगी बिल्ली बन मनमाफिक कलम चला देते हैं।
बलुआ सहर की बेचैनी तब से और बढ़ गई जब ट्यूबवेल की मशीन का बर्मा उसके खेत की बगल से घरघराता हुआ गहराई में उतरने लगा। उसे तो लग रहा है यह बर्मा धरती की छाती में नहीं जैसे उसी की छाती में उतर रहा है। मशीन पातालतोड़ है सो बर्मा तो जाएगा अमोख पानी लाने, सात-आठ सौ फीट की गहराई तक, पर उसके गेंत और अन्य छोटे-छोटे गेंतों में जो कुएँ-कुइयाँ हैं उन सबका पानी जई ट्यूबवेल में समा जाएगा। सो बलुआ की फिकर मुनासिब है। बलुआ ने अपनी यह चिन्ता बन्दूकधारी सुरक्षा गार्ड के साथ खड़े विधायक राजाराम पर जताई भी, ‘‘एमएलए साहब गरीबन पे किरपा करो....जा ट्यूबवेल को चार-छह पगहिया बीच में खों-खिसका के खुदवाय लेओ, तासै हमरे कुआँ-कुइँयन में भी पानी बनो रहे...''
‘‘अब मैं का बताऊँ बलुआ, तूने देखो नईं का पंडत ने जहीं अच्छो पानी शोधो है। कहते हैं जो पाइंट पे चार इंची पानी है। अब गुणी-ज्ञानी पंडत की बात कैसे टालूँ...।''
‘‘अरे महाराज धरती की कोख मेंई तो सबहीं जगह पानी है। कहीं बौत भई तो दो हाथ ऊपर तो कईं दो हाथ नीचे....। पंडत का बतावे गो?''
सहर की इतनी हिमाकत? पंडित जैसे गुनइया पर ही सवाल उछाल रहा है। विधायक जी की आँखें चमकीं। चेहरे पर रोब प्रगट हुआ। और फिर वाणी में चुनौतीभरी ठसक बैठ गई, ‘‘वा...रे...कुपढ़ बलुआ...तो में तो बड़ी अकल आ गई...तूने तो पत्र...ई बाँच दओ। पंडतई ये चैलेंज करने लग गओ...। शगुन-अशगुन, विचार-महुरत सब अकारथ! अकारण भये? अब तो लगत है ज्ञान-धर्म गाँव के सहरियन सेई सीखन पड़ेगो...?'' फिर विधायक ने आँखें तरेरीं, ‘‘मूरख...! जबान लम्बी मत कर..., धरम-ईमान से कछु भय खा...।''
लाचार बलुआ क्या करता, अपना-सा मुँह लेकर रह गया। न्याय की बात कही जाने पर भी खिल्ली उड़ी। अन्य किसी ने हाँ में हाँ भी नहीं मिलाई। जबकि कल हानि आजू-बाजू के सभी गेंत वालों को उठानी पक्की है? अकेला पड़ा बलुआ कुछ देर चुप्पी साधे खड़ा रहा, फिर पराजय का बोध लिये खिसक लिया। इसके सिवाय उस असहाय के पास चारा भी क्या था।
अपने गेंत में आकर मड़ैया की थुमिया के छेद में खुरची चिलम व गाँठ पर लटकी गाँजे की थैली उठाते हुए भीतर काम-धाम में लगी घरवाली को हेला देते हुए, ‘‘ला...सुनरी तो चूल्हे की राख से कुरेदकर अंगारा तो ले आ...। नेक चिलम सुलगाऊँ...।'' और वहीं उकड़ईँ बैठ गया।
तेज कशों के साथ सुलगती-बुझती चिनगारी के संग उसके मन में विचार कौंधने लगे....। भय धरम-ईमान का नहीं, अधरमी-बेईमानों का है। धरम गरीब की जिन्दगी से खिलवाड़ के लिए है? खुद की हवस अधरमी होकर बेकाबू हुई जा रही है। बेईमानी के धन से सहर-चमारों की भूमि हड़प बीघों में पसरा फारम बना लओ है। राशन की दुकानें भी सब हड़प लईं। हमरे कारड का लम्प का सबै तेल मोटर मालिकों को बेच दे रहे हैं....। बीपीएल का गेहूँ-चावल सीधे बाजार में बेच दे रहे हैं। गोला पे बसें-जीपें भी इनकी...ई दौड़ रई हैं। गरीब के हित की हर स्कीम इनकी बपौती बन गई। जा फूल की सरकार के तो नेता और उनके लरका-बच्चा, पूरो कुटुम्ब-कुनबा तो कैसे...ई पइसा कमाने की होड़ में पागलपन की हद तक लग गओ। कितेक दौलत खड़ी कर लई? मुकतान जायदाद
तो ऊपरईं दिखन लगी...। एकाध करोड़ की तो ऐन होगी। नईं तो अबैईं पाँच साल पैले का हतो जापे? सायकल पाछे बुकरे-बुकरियैं लाद कै मीट मारकेट में बेचतो। रूख-रूख बुकरे-बुकरियन ने पत्ते-पत्ती तोड़त फिश्रत्ते...? अब देखो सीधे मौं बात करवै मेई कतरात...? दौलत ने कैसो घमण्डी बना दओ...। अबकी से वोटन की बारी आवेगी तब साले को देखेंगे? फिर बलुआ ने जैसे खुले आसमान में सिर उठाकर टेर लगाई -
‘हे रामाजी! सुनो तो सही,
इन नेतने थोड़ी-बौत धरम रक्षा की,
गरीबन के भले की बुद्धि तो देऊ...।'
फिर उसने तमतमाये गुस्से में आकर चिलम बुझाकर थुमिया के छेद में खुरची और घुल्ले से लटकी कुल्हाड़ी उठाकर मेंड़ पर खड़े एक लम्बे-तगड़े बबूल के पेड़ को काटने में भिड़ गया। पेड़ के तने पर कुल्हाड़ी के प्रहार उसके शरीर में खदबदा रहे लावे का प्रतिफल था या जरूरत का सबब, इस हकीकत से रू-ब-रू के लिए थोड़ी साँस थाम लें...।
तो गाँव और सहराने से दूर थोड़ा अलग-थलग पाँच बीघा का यह खेत बलुआ-सहर का है। ऐन राह पर पाँच जरीब की पट्टी होने के कारण इसकी कीमत अमोल है। आम तौर से अटलपुर के अन्य सहरियाओं के पास ऐसी सिंचित कामीदा जमीन नहीं है। पर बलुआ आम सहरियों की तरह आलसी और भाग व भगवान भरोसे बैठे रहनेवाला इंसान भी नहीं रहा। हाड़तोड़ मेहनती होने के साथ बला की फुर्ती है उसके गठीले बदन में। फसल की निराई, गुड़ाई, फलदार रूखों की कटाई-छँटाई में लगा ही रहता है। उसी के जोड़ की उसे संयोग से घरवाली भी मिल गई। संयोग इसलिए क्योंकि बलुआ का विवाह माता-पिता की मर्जी से नहीं हुआ था। उनके समाज में चलित ‘हरण' प्रथा से उसने फुल्ली से ब्याह रचाया था। इस प्रथा को ‘भगेली' भी कहा जाता है।
हुआ यूँ कि जब वह चौदह-पन्द्रह साल का था, मसें उभर रही थीं, तब वह बदरवास के साप्ताहिक हाट-बाजार में गया था। वहीं साज-श्रृंगार का सामान खरीद रही, लगभग उसकी ही उम्र जितनी फुल्ली से उसकी आँखें चार हुईं। बड़ी-बड़ी आँखें, गोल चेहरा और ठोड़ी पर तीन बिन्दियों के गुदने के निशान वाली छोरी एकाएक ही बलुआ को भा गई। बलुआ पटवा की उस दुकान पर नये डिजाइन की कंघी खरीदने पहुँचा था। दोनों परस्पर खोने-समाने लगे। फिर जैसे पटवन अम्मा ने उनकी किशोरजन्य खुमारी को झटका दिया, ‘कहाँ खो गए रे बचुओ, जल्दी करो। दिखात नइयाँ का? हाट-बाजार में कितनी भीड़ उमड़ रई...है।' फिर दोनों की जैसे तन्द्रा टूटी। चेतना लौटी। दोनों मुस्कराए। बलुआ की हिम्मत बढ़ी। पूछा, ‘‘तेरो नाम का है?''
‘‘फुलविया!'' वह चकोर-सी चहकी।
‘‘कौन गाँव की हो?''
‘‘काहे?...भगेली करने की मंशा है का?''
‘‘कछु, कछु हो तो रई है...। तैई मंशा भी तो जता...?''
‘‘पूरनमासी की संझा को सेमरी के ताल की पार पर महुआ के नीचे आ जा। बछेरुओं को पानी पिवाने के बहाने आऊँगी...। दम हो तो हाथ पकड़ ले जा।''
‘‘पक्को वचन है...?''
‘‘जो झूठ निकरै, तो गैल चलते जहाँ भी मिल जाऊँ, गरो पकर कै घिटली की नाईं मरोड़ दैईये...! जब जानै चीं बोल जाऊँ...!''
और फिर पूरनमासी की प्रतीक्षा में दोनों तिर्र-बिर्र हो गए।
पूरनमासी की संझा...।
फुलविया छेरी-बछुरेओं को तालाब में पानी पिलाने के बहाने अपनी एक गुइयाँ के साथ निकल आई थी। सजी-धजी भी अपने हिसाब से खूब थी। घाँघरे के ऊपर सलूका पहने हुई थी। गले में चाँदी की हसली थी। कानों में झुमकियाँ। नाक में ठुल्ली। कलाइयों में सितारे जड़े लाख के कड़े और अँगुली में पीतल की अँगूठी थी।
महुआ के नीचे आकर जब उसने अटलपुर की गैल पर नजर दौड़ाई तो तालाब की पार के छाेर पर बलुआ उसे बना-ठना नजर आया। उसकी आँखें जैसे हँसने लगीं। वह रस-विभोर हो गई। उसने साथ लाई सखी से कहा, ‘‘सुन रामवती, हमरी बाई से कहिये, अटलपुर का बलुआ फुल्ली को भगेली बना ले गओ....।'' और फिर उतावली फुल्ली बलुआ की ओर बढ़ चली...। बलुआ भी अपने हाथ में सिर से एक ब्यांत ऊँचा तेल पिलाया लट्ठ लिये खड़ा था। कमर में लिपटे सफेद अँगोछे के ऊपर उसने कमीज पहनी हुई थी और सिर पर साफा बाँधा था। जब फुल्ली बगल में आ गई तो दोनों ने परस्पर हथेलियाँ मिला, अँगुलियाँ कसकर जकड़ लीं।
‘‘बिजली-सी दमक रही हो, फुलविया...।'' बलुआ बोला।
‘‘तुम कौन कम लगत हो, लट्टू से चमकत हो...।''
फिर दोनों मुक्त गगन की शीतल छाँह में परस्पर खुलते हुए आदमी ऊपर एक हाथ लम्बे ज्वार के खेतों में बिला गए। अब वे मनु-श्रद्धा थे। आदम-हव्वा थे। कामदेव-रति थे। मानव सृष्टि की रचयिता जोड़ी उच्छृंखल प्रकृति की गोद में अठखेलियाँ करती निमग्न थीं।
रात चढ़ आई तो दिन में हरिया-तोतों से रखवाली के लिए खेत में बनाई गई मचान पर चाँदनी ओढ़कर सोये। चिड़ियों की चहचहाट के बीच उठे तो नरिया किनारे दिशा-फारिग हुए। भूख लगी तो ज्वार के भुट्टे तोड़े, सेंके और फिर गुनगुने दाने निकाल-निकाल खाये।
मुक्ताकाश में स्वच्छन्द विचरण करते हुए पेट की भूख सालने लगी तो दरिया किनारे पहुँच, वहाँ फैली झरबेरियों से बेर तोड़े। फुल्ली ने किनारे के सपाट पटपरे पर बेरों को कुचलकर बुरचन बनाया। फिर उस बुरचन को दरिया के पानी में धीरे-धीरे डालने लगे। जब मछलियों का झुण्ड बुरचन के टुकड़े झपटने को इकट्ठे हो गए तो हाथ में बाँस की फंचट लिये खड़े बलुआ ने झुण्ड पर फंचटी की फटकारें मारीं। चार-छह फटकारों में ही चार-छह मछलियाँ जल की सतह पर चित्त पड़ी थीं। फुल्ली ने फुर्ती से मरी-अधमरी मछलियाँ समेटी और फरिया के छोर में बाँध लीं। दोनों ने एक साफ-सुथरी जगह ढूँढ़ी। मछलियों को पेट की जगह से एक नुकीली लकड़ी में बिंधोया। आग जलाई। मछलियाँ सेंकी और खाने लगे। जब अघा गए तो जूठन चील-कौओं को छोड़ दी।
थोड़ी ही देर में पेट के भीतर उठी जठराग्नि ने दोनों को अलसा दिया। हाथ में हाथ लिये आगे बढे़। दरिया जहाँ ऊँची पथरीली खड़ी चट्टानों के बीच से गुजरती है, वहाँ पानी कुछ गहरा है और ओट भी है। आसपास के ग्रामों की महिलाओं को नहाने-धोने के लिए यह स्थल आरक्षित होने के कारण सयाने और वृद्ध पुरुष मर्यादा का पालन करते हुए इस घाट से अक्सर गुजरते नहीं हैं। दो फर्लांग दूर पगडंडी से ही गुजर जाते हैं। हाल ही में चौमासा बीता होने के कारण गाँव-पुरवा के कुएँ-पोखर, ताल-तलैये लबालब भरे हैं, इसलिए भी इतनी दूर आकर नहाने-धोने की भला क्या जरूरत? सो डग नापते चले आ रहे बलुआ-फुलविया के डग इस मनोरम स्थल पर थम गए। आसमान से सूरज देव चटकीली धूप फेंक रहे थे और भीतर जठराग्नि सुलग रही थी। सो दोनों मारक उमस महसूस रहे थे। दोनों जैसे बिना प्रगट किए ही एक-दूसरे की भावनाएँ भाँप रहे थे। बलुआ ने सिर से उतार साफा नीचे धरा तो फुल्ली ने चुनरी धर दी। बलुआ ने कमीज
उतार धरी तो फुल्ली ने पोलका उतार धरा। कोई संकोच नहीं। कोई लाज-शरम नहीं। निर्बन्ध देहें हिलोर उठीं तो दोनों चट्टान के शिखर पर चढ़े और छलाँग लगा दी। फिर मटरगश्ती का जुनून चलता रहा। डूबे-उतराये। तरा-ऊपर हुए। तैराकी में कौन कितना माहिर है सो किनारों को तुरत-फुरत नापने की होड़ मची। फिर शरीरों ने थकान अनुभव की तो किनारे पर जा बैठे। थोड़ा सुस्ताये। फिर मार की चिकनी मिट्टी को शरीर पर साबुन की तरह मलने लगे। फिर दोनों ने बेफिक्री के लिए चहुँओर आँखें फेरीं। जब निश्चिन्त हो लिये कि निकट कोई मानव-आहट नहीं है तो दोनों ने कमरबन्ध भी खोल दिए। फिर दोनों चिकनी मिट्टी में लोट-पोट हुए। लट्ट-पट्ट। चित्त-पट्ट। गुत्थम-गुत्था। शरीर चूर-चूर हो गए। जठराग्नि ठण्डी पड़ गई। उमस जाती रही। तब उठे। पानी में उतरे। मल-मलकर मिट्टी, अंग-अंग से धोई। बाहर आए। वस्त्र धोकर निचोड़े। गीले ही पहने। और चल दिए।
तीन दिन, तीन रात सेमरी और अटलपुर के बीच पसरी सहरियों की छोटी-छोटी टुकड़ियों में यही क्रम चलता रहा। चूँकि ‘भगेली' कर वरण करने में समाज में रिवाज था। इसलिए उनके द्वारा परम्परा का निर्वाह बिना किसी खटके के जारी रहा। खेतों पर काम कर रहे सहरिया दम्पति उन्हें दुलारते-पुचकारते। बहलाते-फुसलाते। सुभाशीष देते। खेत-खुड़ियों से मक्का-ज्वार के भुट्टे, फूटें-ककड़ी, कचरिहा-मकोई तोड़ खाने को मनाही न करते। इस तरह प्रकृति की गोद में प्राकृतिक भोग-उपभोग करते हुए उनके तीन दिन, तीन रातें बड़ी ही अलमस्त मौज-मस्ती में बीतीं।
फिर दोनों जोन-जुनइया के भिनसारे में गाँव आ गए। बलुआ ने फुल्ली को अपने घर के पिछवाड़े सार की देहरी पर बिठाया। फिर खुद मुख्य द्वार से घर में घुसा। माँ ने बेटे को देखा तो खुश हो गई। आँगन में खाट पर लेटे पति को झकझोरा, ‘‘ए उठो तो मोड़ा बहू लै आओ।'' और सार की ओर दौड़ पड़ी।
किवरिया खोली तो फुल्ली देहरी पर फिरया ओढ़े गुड़ी-मुड़ी बैठी थी। बलुआ की माँ बोली, ‘‘आय गै सीते अब बाहर काहे बैठी, मार थोरी डारेंगे तो खों।'' लड़की जब चुप्पी साधे रही तो पिता बोले, ‘‘अब आय गै सीते, तो भगै की मत सोच, रहन देव। परेम से रह।''
और फिर फुल्ली के पीछे खड़े बलुआ ने हाथ ऊँचा करके लोटा भर पानी छप्पर पर उँड़ेला, जिसकी धार फुल्ली ने अपने सिर पर झेली। शगुन पूरा हुआ।
बहू घर में आ गई। पिता बाहर दौड़े। पटेल, कोटवार को खबर की। पूरे सहराने में खबर फैल गई। मंगल उल्लास सहराने में हिलोर उठा।
शाम को जश्न मना। तीन-चार बलिष्ठ युवा जंगल गए और कुल्हाड़ियों से एक जंगली सूअर और दो खरहा (खरगोश) का शिकार कर लाए। कुछ लोगों ने महुआ की दारू उतारी। ढोल-ढमाके बजे। औरतें नाचीं। फिर सबने कुल्हड़ों में भर-भर दारू पी। मांस खाया। आधी रात तक लुक्कों की रोशनी में जश्न चलता रहा। बरगद के नीचे वाली सहराने की धरती की धमक से पूरा गाँव डोलता रहा।
समय बीता। फुल्ली लरकोरी हुई। बलुआ बाप बना। फिर बलुआ के पिता ने खाट पकड़ी तो उठे नहीं। तीन दिन देसीदवा-दारू लेते सरग सिधार गए। उनके पीछे ही माँ भी चल बसी। बलुआ ने दोनों दफा अपनी सामर्थ्य अनुसार मृत्यु-भोज दिया। रीति-रिवाजों का बड़े-बुजुर्गों के कहे मुताबिक पालन किया।
फिर एकाध महीना बीतने के बाद पटवारी रामजी दादा ने उसे फोती नामान्तरण करके खसरे की नकल दी। तब उसे खयाल आया कि बरी के बगल से उसके हक की पाँच बीघा पड़ती भूमि भी है। सीलिंग कानून के मार्फत यहाँ के जमींदार की हजार-बारह सौ बीघा जमीन सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी। फिर भूमिहीनों के लिए कलेक्टर की निगरानी में पट्टे बाँटे गए थे। तब कलेक्टर ने पाठशाला में दो दिन का कैम्प लगाया था और अटलपुर, बरखेड़ा, सेमरी व वंडखेरे के एक-एक सहरिया को बुला-बुलाकर पट्टे बाँटे थे। बाकी भूमि के पट्टे अन्य जातियों के भूमिहीनों को बाँट दिए गए थे।
अब क्या था, जहाँ चाह वहाँ राह! बलुआ ने बंजर भूमि को उपजाऊ भूमि में बदल देने की ठान ली। कुल्हाड़ी हाथ में ली तो जमीन की सूर करने पूरे पन्द्रह दिन, दिन-दिनभर लगा रहा। वहीं फुल्ली सिर पर रखी कोंडरी, पर जल भरा मिट्टी का घड़ा और उस पर छन्ने में बँधी ज्वार की रोटियाँ, चटनी, हरी मिर्च, गोंदरी की दो गाँठें और बच्चे को कइयाँ लिये दोपहर शुरू होने से पहले चली आती।
बच्चा काम में बाधा न बने और नजर में भी रहे, इतनी दूर कथरी बिछाकर बैठा देती। उसकी मुट्ठी में झुनझुना थमा देती। बतौर खिलौने कुछ चिकने गोल पत्थर के ढेले डाल देती। फिर वह भी आदमी के बराबर काम में जुट जाती। झाड़-झंखाड़ घसीट-घसीटकर जमीन की सीमा से बाहर करती। बबूल-छौले के
ढूँड़ एक जगह इकट्ठा करती, जिससे सूखने पर जलावन के काम आएँ। जब सूरज सिर चढ़ आता तो दोनों बच्चे को उठा बरी के पेड़ की छाँह में दुपहरिया बिलमाने आ जाते। वहीं रोटी-पानी खाते-पीते। हाथ को सिरहाना बना एक-दूसरे के विपरीत लेट लगा, थकान मिटाते। फुल्ली बालक को छातियों से चिपटा, धोती के पल्लू में छिपा लेती। जब सूरज ढलान पकड़ता तो दोनों उठते। कुल्ला करते। मुँह धोते और काम में जुट जाते। देखते-देखते लोग-लुगाई की मेहनत रंग लाई। बंजर भूमि मैदान में तब्दील हो गई।
फिर दोनों की जुगल जोड़ी खेत की बागड़ करने में जुट गई। बलुआ ओव से जमीन में गड्ढे करता। सूखी मिट्टी नरम करने के लिए गढ़े में पानी डालता और फिर पूरी ताकत से ओव धाँसता। जब एक कतार में आठ-दस गड्ढे हो जाते तो वे उनमें जार गाढ़ने का सिलसिला शुरू कर देते। फुल्ली सिंगारी में बिंधा-बिंधाकर जार लाती और बलुआ उन्हें गड्ढों में धाँसता। जार जब कम पड़ गए तो बलुआ अपने काका के लड़के के संग बैलगाड़ी लेकर जंगल गया और शाम होते-होते जारों से गाड़ी भर लाया।
सूर और बागड़ से निपटने के बाद उसने खेत में कुरे से खरार लगाई। जिससे खरपतवार की जड़ें उखड़कर वैशाख-जेठ के ताप से सूखकर अंकुरण की क्षमता खो दें और जब पहली बारिश हो तो धरती जल सोख ले। और फिर अषाढ़ लगने के बाद पहली बारिश ने ही खेत-खुड़ियें पानी से लबालब कर दिए। बतर आने पर बलुआ और फुल्ली की जोड़ी ने खेत में ज्वार बोई। आधेक बीघे में मक्का बोई। कार्तिक-पौष में जब ज्वार के भुट्टे पके तो बलुआ की बाँछें खिल गईं। एक बीघा में दो-ढाई गाड़ी के मान से फसल निकली। साल भर के खाने और बीज के लायक ज्वार कुठीला में सुरक्षित रखने के बाद बची ज्वार बलुआ गाड़ी में पाल लगाकर बदरवास की मण्डी में बेच आया। लौटते में उसने फुल्ली के लिए चाँदी की झुमकियाँ खरीदीं और मुन्ने के लिए झबला। घर आने पर जब बलुआ ने फुल्ली के हाथ पर एक हजार ऊपर से दो सौ रुपये, झुमकियाँ और बेटे के आँग के लिए झबला रखे तो फुल्ली पुलक गइर्। उसके रोम-रोम खिल गये। फुल्ली ने बलुआ की चौड़ी छाती पर सिर रख दिया और फिर दोनों गोबर लिपी निखन्नी धरती पर ही लोट-पोट हो गए।
आमद होने पर बलुआ की हौसला आफजाई हुई। फुल्ली की भी हुमक बढ़ी। और फिर दोनों खेत के बीचोबीच कुआँ खोदने में जुट गए। डेढ़ महीने में दोनों ने मिलकर आठ हाथ चौड़ा और सोलह हाथ गहरा कुआँ खोद डाला।
इतनी गहराई पर ही चार-चार झिरें निकल आईं। धरती से चार हाथ नीचे से ही पुर्तीले पटपरे की परतें थीं। सो कुएँ की बँधाई में भी ज्यादा पैसा खर्च नहीं हुआ। खदान से बैलगाड़ी से दो गाड़ी चिंखारी तोड़ लाया। सिन्ध नदी से दो गाड़ी बजरी भर लाया। बदरवास जाकर चार बोरी सीमेंट खरीदकर गाड़ी में लाद लाया। कारीगर लगाकर चार दिन में कुएँ की चिनाई कराकर ऊपर घाट बनवा दिया। कुएँ में ऐसा अमोख पानी निकला कि दिन-रात रेंहट-चरस चलाओ, टूटता ही नहीं।
लेकिन अब...हालात भयावह होते जा रहे हैं।
विधायक के खेत में नलकूप के उत्खनन से बलुआ चिन्तित व आशंकित है कि उसके कुएँ का अमोख पानी टूटकर नलकूप की पातालतोड़ गहराई में समा जाएगा। उसकी चिन्ता वाजिब है क्योंकि जल की तो नीचे की ओर बहने की प्रवृत्ति है। इस समस्या से छुटकाया पाए तो कैसे? शिकायत भी करे तो किससे? एमएलए के खिलाफ कौन सुनेगा उसकी? आखिर इस कमीन खों वोट देने से क्या फायदा हुआ? सोच तो ये थी कि छोटी जाति से है तो छोटी जातियों, दलित-हरिजनों, गरीब-गुरजन के हित साधेगो? पर जै तो बई लेने पर चल निकरो है जा लेन पे बामन-ठाकुर थे। जमींदारों-सी जायदाद फैलाने में लगो है नीचकमीन!
बलुआ के मगज में आ-जा रहे द्वन्द्वों, अन्तर्विरोधों ने उसकी बेचैनी बढ़ा दी। भीतरी आक्रोश का उबाल दाँत भींचने, कटकटाने, होठ भींचने अथवा पूरी ताकत से मुटि्ठयाँ जकड़ लेने में दिखाई देता। फुल्ली जब भाँप लेती कि गहरी चिन्ता में रहकर मगजमारी में लगे हैं तो वह कोई न कोई काम कर लेने के बहाने टोक देती, ‘‘चिन्ता में काहे पड़े हो...? कछु काम में मन नईं रम रओ तो जै बबूल तीन दिन से कटो पड़ो है, जइये बदरवास लै जाके आरा मशीन पे चिरवा लाओ। तासे हल के हरष, पहराई और खुरीता बन जावें। नईं तो पुरानों हल टूटो पड़ो है, खेत में पानी भी पूरो लगो जातै, जमीन काय से जोतेंगे?''
फुल्ली की बात पर बलुआ ने गौर किया। बोला, ‘‘बदरवास तो मैं चलो जात हों...पर मोय फिकर जा सता रई है कि जा विधायक को टूबवेल दिन-रात भल-भल पानी फेंक रओ है, कईं अपने कुआँ को पानी न उतर जावे...। ता वजे से मेरो कछु काम-धाम में मनईं नईं लग रओ...?''
‘‘फिजूल की चिन्ता-फिकर छोड़ो...। धरती की कोख में का पानी को टोटो है...सो पानी सूख जाओगो...? फिर का हाथ-पाँव टूट गए का...? रोजगार गारंटी में मजूरी कर खाएँगे...?''
‘‘हाँ...तोय धरी ए मजूरी...? महीना-महीना भर काम करै बैठे हैं...पूछ आ एकई ए मजूरी मिली हो...? कारड सरपंच, सचिव ने घर में धर लये...। जा विधायक की शह पे गुलछर्रे मार रये हैं...। जै भी भ्रष्टाचार में शामिल है...। तबहीं दो-तीन बेर मजूरी नईं मिलने की शिकायत एसडीओ, कलेक्टर तक कर आए...आज तलक सुनी काऊ ने? बावरी...तोय दुनियादारी की कछु खबर नईं है...? नेता ऐलकार सब हब्सी हो गए हैं, हब्शी...! इनकी भूख तरप्त होने की बजाय और...और बढ़त जा रई है...। लकइया लग जाय इन सब में..., तब मोय चैन परे।''
‘‘अब जैसी भी हालत होएगी निबटेंगे...भगवान पर भी कछु भरोसो करो।''
बलुआ ने बदरवास पहुँचकर आरामशीन पर गाड़ी बिलमाई तो नयी मुसीबत में घिर गया। रेंजर जैसे उसी की बाट जोहता खड़ा था। फटकार के लहजे में बोला, ‘‘काय रे कौन से जंगल से काट लाओ?''
‘‘जंगल से काहे काटा होगा...जै तो मेरे खेत की मेंड़ से काटो है...। हल बनाने चिरवाने लाओ हों।''
‘‘ला, दिखा तेरी जमीन की खसरे की नकल, वामें पेड़ इन्द्राज है का? नईं तो बेट्टा...पेड़ समेत बैलगाड़ी जप्त होगी और दो हजार को जुर्मानो ठुकवे के बाद कलेक्टर के जहाँ से गाड़ी छूटेगी...।''
‘‘मैंने का पेड़ चुराओ है...जो गाड़ी जबत होगी और दण्ड मिलेगो...। तुमपे का सबूत है कि जो पेड़ रेंज को है?''
बलुआ के पलटवार से रेंजर तिलमिला गया। बोला, ‘‘अच्छा, चोरी और सीना जोरी...! ठहर अभी पंचनामा बनाकर सब सामान जप्त करता हूँ, तब तेरी अकल ठिकाने लगेगी।''
रेंजर बैग से कागज कार्बन निकालकर पंचनामा बनाने का उपक्रम करने में लीन हो गया। इसी बीच आरा मशीन का मालिक बलुआ का हाथ पकड़कर थोड़ा बगल में ले जाकर बोला, ‘‘काहे को कोरट-कचेरी के चक्कर में पड़तो है। सरकार से कोई जीता है...? पाँचेक सौ रुपये का इन्तजाम कर ला जहीं निपटाये देता हूँ...। नहीं तो कागज का पेटा भर गया तो बैलगाड़ी जप्त होगी और जुर्माना ठुकेंगे सो अलग...।''
‘‘मेरो कोई दोष होय तब न पइसा देऊँ। खेत की मेंड़ पे चल के देख लेवें रेंजर कि सच्चाई का है...? सच्चाई को तो जमानोई जात रओ...।''
‘‘फिर ऐसा कर रेस्ट हाउस में विधायक जी बैठे हैं, उनसे मोबाइल से बात करा दे। मुफत में काम हो जाएगो।''
बलुआ को यह बात कछु जँची। पर एमएलए से मदद माँगने में उसे अपनी ठसक पर असर पड़ता नजर आ रहा था। फिर उसने कुछ लापरवाही से सोचाविधायक तो हमरेई वोटन से बनो है, गुजारिस करवे में का जात है।
और वह रेस्ट हाउस पहुँच विधायक के सामने खड़ा था। विधायक राजाराम ने उसे देखकर भेद भरी चुटकी ली, ‘‘कायरे बलुआ कैसो आओ, बोल फटाफट।''
‘‘एमएलए साहब हल बनावे खों बबूल चिरवाने आरा ले आओ तो, रेंजर धमक आओ...। बोलतो है जंगल से चोरी से काट के लाओ है। बैलगाड़ी समेत जप्ती होगी...। जबकि मैंने ब-दिना...तुमरेई आँखन देखी मेंड़ पर लगो बबूल काटो तो...।''
‘‘हाँ...हाँ...मोय सब पतो है...। तू काय फिकर करता है, अभी फटकार लगाता हूँ, देखें कौन कमीन रेंजर है...।''
विधायक ने एक मिनट मोबाइल पर रेंजर से गुटर-गूँ की। बात पूरी हो जाने पर बलुआ से बोले, ‘‘जा बबूल चिरवा ले जा, रेंजर अब कछु नईं बोलेगो। डपट दओ सारे खों मैंने।''
‘‘बड़ी किरपा करी महाराज...।''
‘‘पर सुन बलुआ...काहे खों खेती-किसानी की मगजमारी में लगो है...तेरी जमीन मोय बेच दै और परेम से तेरी मेहरारू समेत मेरे यहाँ महीवारी कर। तेरी मंशा रहे तो तेरे खेत ए तूई अधबटाई से करत रईए...। दरअसल तेरो खेत मेरे फारम की सूरत बिगाड़ रओ है...। जै खेत वई लेने में शामिल हो जाओगो तो मेरे खेत को माजनो सुधर जाओगो...। जो वादो रओ, तोय जीवन भर कोई परेशानी नईं होन दंगो...। जा सोच-विचार लै...।''
बलुआ बिना कुछ उत्तर दिए चल दिया। रेंजर के संकट से तो वह छूट गया था, लेकिन विधायक की मंशा उसे परेशान किए जा रही है। पेड़ चिराकर लौटते में वह सोच रहा था कि यह सब उस पर दबाव बनाने की कहीं चाल तो नहीं थी? खुद के खेत को माजनो सुधार वे खों दूसरों के का जीवन कोई माजनो बिगाड़ेगो...। जा कैसी उलटबाँसी है। मालिक से खेत बिकवा के महींदारी करवे की सलाह दै रओ है, का सहरियनें सफाई मूरख समझ लये? अकल पाछें थोरीई लगी है।
गाँव-गेंत की ओर बढ़ते हुए बलुआ को आज न बैलों के गले में बँधी घंटारी सुनाई दे रही थी, न उसे घोंसलों में लौटते कतारबद्ध पक्षियों का कलरव सुनाई दे रहा था। रास्ता चलते किसी पहचान वाले ने जै-रामजी की, तो उसके उत्तर
में भी उसने बमुश्किल हूँका ही भरा। बराबरी से प्रसन्न मन से ‘जै रामजी की' नहीं की। ऊहापोह की मनःस्थिति से गुजर रहा बलुआ बैलों को भी हाँका नहीं लगा रहा था। वे गाँव-घर की गैल के अभ्यस्त थे, सो अपने मन से ही परस्पर तालमेल बिठाये गाड़ी खींचे ले जा रहे थे। बदरवास से लौटते में ऐसा कई बार हुआ है कि बलुआ की आँख लग जाने के बावजूद बैलों ने गाड़ी ठिकाने लगा दी। पर आज तो बलुआ खुली आँखों के बाद भी सूनमटान था।
गाड़ी जब गेंत के टटा के बगल में रुकी तो फुल्ली मुँह बिगाड़े टटा खोले ही खड़ी थी। रुआँसी-सी। बोली, ‘‘कुआँ से पानी उतर गओ...।'' और फरिया के पल्लू से आँखों में छलक आए आँसू पोंछने लगी।
बलुआ का माथा ठनका। कुशंका सही साबित भई। बलुआ को लगा, का वाकई उसे विधायक के खेत को माजनो सुधारने के लाने, खेत बेचनो होगो? तीस-पैंतीस साल पहले जिस महींदारी का जुआ उसने बाप की गर्दन से उतारो थो...का उस जुए को अपनी गर्दन पर लादने के हालात फिर से धनी लोगों और नेताओं ने पैदा कर दए? का गाँव में जमींदारी जनता राज का मुखौटा लगाकर फिर से वजूद में आ गई? पर इतनी आसानी से तो वह अपने खेत की सूरत बिगाड़ लेने की शर्त पर विधायक के खेत की सूरत सुधरने नहीं देगा?
गाँव के लोगों ने तो सोचा था कि लोकतन्त्र की उम्र बढ़ने के साथ जीवन की सरलता बढ़ेगी...सुविधाएँ बढ़ेंगी; पर हो उलटा रहा है, ग्रामीणों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। इसी वजह से फिलहाल तो कुएँ का पानी क्या उतरा, बलुआ और फुल्ली के चेहरों का पानी जरूर उतर गया।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
शिल्प और ग्राम्यांचल की भाषा .....सभी कुछ बेहतरीन ...बाँध कर रखने में सक्षम .....ज्वलंत विषय को कहानी का मुद्दा बनाने के लिए साधुवाद . भार्गव जी ! वाकई जातियां सिर्फ दो ही हैं -गरीब और अमीर ....हम सब भ्रम में हैं कि हमारी जमात का आदमी नेता बना है तो हमारे दुःख-दर्द को समझेगा .......दूर करने में मदद करेगा ......यह मरीचिका ही देश का दुर्भाग्य है. भगेली प्रथा के बारे में सुना ज़रूर था पर कैसे क्या होता है यह पता नहीं था .इन तीन दिनों का आँखों देखा जैसा हाल सुनाने के लिए धन्यवाद. ग्राम्यांचल के बहुत से शब्द शहरीकरण के कोहासे में गुम होते जा रहे हैं ...उन्हें अपनाकर आपने हिन्दी की आत्मा को बचाने का अनुकरणीय कार्य किया है. एक बार पुनः साधुवाद.
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