( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'मुक्त होती औरत' से जारी... ) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268....
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'मुक्त होती औरत' से जारी...)
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानी
पिता का मरना
नीम बेहोशी की स्थिति में भी कबीरबाबू की अन्तर्चेतना कायम थी। इसलिए उन्होंने जबसे अपनी पत्नी और बच्चों का फुसफुसाहटनुमा जो वार्तालाप सुना, तब से उन्हें नीम बेहोशी में बने रहना न जाने क्यों राहत पहुँचाने जैसा लगने लगा है। जब अपने सबसे निकटतम रक्तबीजों और जन्म-जन्मान्तर का दावा करने और ‘मेरी उम्र भी तुम्हें लग जाए' का पातिव्रत्य धारण करनेवाली पत्नी ही उन्हें न्यस्त मानने लगे तो अपने निष्प्राण में तब्दील हो रहे प्राण रूपी शरीर की वर्चस्व स्थापना बनाए रखने के लिए नीम बेहोशी का भ्रम ही सुकूनदायी है।
अट्ठावन वर्ष की यह ढलती उम्र, तिस पर भी बेहद खर्चीली लाइलाज बीमारी और छोटे बेटे को रोजगार की जरूरत ने शायद उन्हें अपने ही संकटमोचनों के दरमियान एक जर्जर सामान की तरह ला पटक दिया है। नाक में ठसी ऑक्सीजन की नली और सन्नाटे-सी छायी मस्तिष्क में बेहद गहरी धुन्ध सी अर्द्धचेतन अवस्था में भी बन्द खिड़की-दरवाजों के बावजूद हठधर्मी की हद पार करती सूरज की किरण कहीं उन्हें अहसास करा रही थी कि वे एक ऐसे सामान के रूप में लगभग परिवर्तित हो चुके हैं जो वक्त के साथ प्रायः अपनी पहचान खो देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे इसी चिकित्सालय की प्रयोगशाला में पड़े कंकाल! इस अस्पताल की अड़तीस साल की नौकरी में कंकालावस्था पहुँच रहे कबीर बाबू की स्मृति में आया सम्बन्धों को कंकाल होते उन्होंने कई बार देखा, लेकिन अपनों के ही बीच वे जरावस्था में पहुँचकर खुद कंकाल भर रह जाएँगे यह सोच उनके लिए विस्मयकारी थी? ऐसी हालत में उनकी स्मृति सम्बन्धी कुछ तन्त्र-नलिकाओं में मामूली तड़क के साथ स्फुरण हुआ और अनुभूति हुई, कैसे रिश्ते वस्तुओं की तरह रंग बदलने लग गए हैं...।
बड़ा बेटा
अर्द्धचेतन अवस्था में भी कबीर बाबू की स्मृति पटल पर बड़े बेटे के क्रियाकलाप और उसके भविष्य को लेकर चन्द ऐसे सवाल उभर रहे हैं, जो हमेशा उनके जेहन में जीवित रहे। लेकिन पुत्र की पलटवार स्वरूप उलाहनाभरी झिड़की न मिल जाए इसलिए वे चुप्पी साधे रखने में ही अपनी खैर समझते रहे। हालाँकि ऐसा नहीं है कि कबीर बाबू ने कभी बेटे के बढ़ रहे वाजिब...गैरवाजिब कदमों पर सवाल उठाए ही न हों..., पर प्रश्न..., फिर प्रतिप्रश्न, उत्तर फिर प्रतिउत्तर के झमेले में बढ़ता वार्तालाप गृह क्लेश में परिवर्तित होने-सा लगता। बहरहाल खुद का रक्तचाप एक सौ बीस से ऊपर न चढ़ने लगे और बेटा तैश में आकर कुछ अनर्गल न कह दे इसलिए वे ही प्रश्नों को विराम दे देते। अन्ततः वे सिर्फ आत्म मन्थन करते हैं...।
कहावत बहुत पुरानी है, ‘‘बेटे का पैर जब बाप के जूते में आने लगे तो वह बराबर का माना जाने लगता है।'' लेकिन कद-काठी में बराबर हो जाने से सत्ताईस साल का पुत्र सत्तावन-अट्ठावन साल के पिता की तरह अनुभवी तो नहीं हो जाएगा? अपने पुत्र शेखर की बातें पहले तो उन्हें उम्र के चलते बड़बोलापन लगतीं और कबीर बाबू बेटे की बातों को ज्यादा तरजीह ही नहीं देते या अनसुनी कर निर्लिप्त-निर्विकार भाव बनाए रखते। पर उन्हें तब हैरानी होने लगी जब बेटे के बड़बोलेपन का लहजा फैसलों में तब्दील होने लगा और इन फैसलों में कबीर बाबू की भूमिका गौण मानी जाने लगी। बेटे की कार्यप्रणाली न तो उन्हें मन भाती थी और न ही वे किसी भी दृष्टि से उन्हें लायकी के दायरे में मानते थे। कबीर बाबू बेटे के भविष्य को लेकर इसलिए आशंकित थे कि कथित नेता साधु- सन्त, फलाने-ढिकाने अतीन्द्रिय शक्तियों का अपने में वशीभूत करने का ढोल पीटने वाले बाबा एवं सरकार बेटे को जीने लायक कोई ठोस व सम्मानजनक आर्थिक आधार दे पाएँगे?
कबीर बाबू कथित चमत्कारों से दूर ही रहे। प्रेमचन्द और शरतचन्द के यथार्थवादी साहित्य के अध्ययन के चलते वे किसी रीति-रिवाज, कर्म-काण्ड, पूजा-पाठ तथा अन्य किसी ऐसी अतीन्द्रिय शक्ति के फेर में नहीं पड़े, कि केवल इन शक्ति मात्र की शरण में जाकर जीवन जीने का ठोस आधार आसमान से आ टपके। फिर सत्यार्थ प्रकाश ने ‘चमत्कारों के पाखण्ड' और मार्क्सवाद ने ‘धर्म अफीम का नशा है' वाली सोच ने भी उन पर गहरा असर डाला था, पर आज
के युवक हनुमान चालीसा के अलावा कहाँ कुछ पढ़ते हैं? पर्याप्त साहित्य घर में उपलब्ध होने के बावजूद उनके बेटे ने भी कब कुछ पढ़ा? हाँ, प्रति मंगल व शनिवार को सुबह-शाम स्कूटर उठा बाँकड़े के हनुमान, चिन्ताहरण और मंशापूर्ण हनुमान के दर्शन, गुरुवार को सिद्ध स्थल पर पीपल के नीचे घी का दीपक और शुक्रवार को राजेश्वरी मैया पर नारियल चढ़ाना जरूर उसकी सुनिश्चित चर्या बन गई थी। इधर हर शनीचरी अमावस्या को दतिया की पीताम्बरा पीठ पर धूमावती के दर्शन और हर माह की पूर्णमासी को साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी तय कर गोवर्धन परिक्रमा। पीताम्बरा और गोवर्धन परिक्रमा के लिए बेटा जब मित्र मण्डली के साथ टैक्सी से जाता तो लौट न आने तक उनके प्राण हलक में आ लटके रहते, क्योंकि वे अक्सर अखबारों की सुर्खियों में पढ़ते, ‘‘गोवर्धन परिक्रमा से लौट रही जीप घाटीगाँव के पास दुर्घटनाग्रस्त, चालक सहित चार मरे, तीन की हालत गम्भीर।''
बेटे के मण्डली के साथ लौट न आने तक बेटे की आकस्मिक मौत जैसी हृदयविदारक अशुभ चिन्ताएँ उनके हृदय का रक्तचाप बढ़ाकर झिंझोड़ती रहतीं। तब उनकी स्मृति में विकृत और रक्तरंजित मूल पहचान खो चुकी लाशों की झलकें दिखतीं और बेटे के शरीर को इन लाशों में विलय होते देखते। नहीं सोचने की लाख कोशिशें करने के बावजूद इन दृश्यों की काल्पनिक उपस्थिति उन्हें भीतर तक कँपकँपाकर किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में ला देती। ऐसे में उन्हें कतई नहीं लगता कि अतीन्द्रियशक्ति अवतरित हो बेटे का सुरक्षा कवच बनेंगी? लेकिन बेटे को पिता की धमनियाँ धड़का देने वाली इन पीड़ाओं का अहसास भला कहाँ था? उसे तो हर देवी-देवता के दर्शन मात्र में अलौकिक अनुभूति होती और अटलपुरा सरकार तो जैसे उसके लिए साक्षात् चमत्कार थे।
जनश्रुति है कि बुन्देलखण्ड के एक गाँव में निकम्मे-कपूत का दर्जा हासिल कर निकला भगोड़ा कालान्तर में अटलपुरा सरकार ऐसी हस्ती के रूप में विख्यात हुआ, जिसके वशीभूत कई अतीन्द्रीय शक्तियाँ हैं और वह दरबार की शरण में जा पहुँचे सच्चे भक्त की भावना को भाँप लेता है। उद्योगपति, विधायक, मन्त्री एवं सांसद अपनी पत्नियों के साथ लग्जरी पीली बत्ती की कारों से आकर उनके चरणों में शीश झुकाते हैं और अपने जीवन को सार्थक व उत्सर्गमयी बनाए रखने के लिए प्रार्थना कर आशीर्वाद की चाह रखते हैं।
कबीर बाबू सोचते हैं, जब वे असाध्य बीमारी की चपेट में आकर रुग्णावस्था में आए तब से बेटे ने कई मर्तबा अटलपुरा सरकार की भभूत लाकर उन्हें चटाई,
लेकिन असर बेअसर ही रहा? उन्हें जो भी स्वास्थ्य लाभ मिला या लाचारी की अवस्था में बने रहने की उम्र को जो भी संजीवनी मिली वह एलोपैथी की ही बदौलत। इतने पर भी बेटे की आस्था कहाँ ठिठकी...कहाँ डिगी, फिर भी बेटे और बेटे जैसे अन्य वहमियों के दिमाग अन्धविश्वास से कहाँ मुक्त हो पाए?
बीते विधानसभा चुनाव में सरकार की शरण में जब विधायकी के उम्मीदवार गगनसिंह नहीं गए तो अटलपुरा सरकार ने मुस्लिम उलेमाओं की तर्ज पर जैसे फतवा ही जारी कर दिया था कि पथभ्रष्ट पापी गगनसिंह को कोई वोट न दें, उसके बदले कृपाशंकर चौधरी के पक्ष में मतदान कर, उन्हें जिताएँ, इससे ईश्वर प्रसन्न होंगे। क्षेत्र में विकास की गंगा बहेगी। जन कल्याण को बढ़ावा मिलेगा और सही मायनों में रामराज्य स्थापित होगा। पर जनता तो ठहरी जनता, वह धर्मभीरु भले ही हो, पर क्षेत्र की राजनीति के लिए कौन उपयुक्त है, इसकी समझ उसे भलीभाँति है। लिहाजा अटलपुरा सरकार का फतवा आम जनता ने सिरे से खारिज कर अपनी परिपक्व राजनीतिक सोच का परिचय देते हुए सरकार समर्थित उम्मीदवार की जमानत ही जब्त करा दी थी।
समझदारी की उम्र से ही जिज्ञासु रहे कबीर बाबू इस फतवे की तह में जाकर यह सूत्र भी खोज लाए थे कि अटलपुरा सरकार ने गगनसिंह को हराने का ऐलान क्यों किया था? कुछ साल पहले अटलपुरा सरकार ने इलाके में अपनी वर्चस्वस्थापना के लिए ‘श्रीमद्भागवत कथा' के समापन के साथ विशाल भण्डारे का आयोजन किया था और जिसमें बढ़-चढ़कर एक लाख से भी ज्यादा लोगों को भोजन-परसादी पा लेने का दावा कर इसे एक चमत्कार सिद्ध करने का प्रयास भी उनके भक्तों ने किया था। अन्धभक्त शिरोमणियों का तो यहाँ तक कहना था कि कड़ाही में जब पानी के भरे कनस्तर डाले गए तो कड़ाही में जलधार के गिरते ही वह शुद्ध देशी घी में बदलती चली गई। जिसमें तली पूड़ियाँ, कद्दू के रायते, आलू-भटे की सब्जी और मुट्ठियाँ भर-भर छर्रा बूँदी के साथ इलाके भर के लोगों ने छककर खाईं। पर जब ग्यारह सूत्रीय कार्यक्रम की बैठक में मुखर विधायक गगनसिंह ने कलेक्टर और जिला खाद्य अधिकारी से पिछले माह का राशन गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन' (बीपीएल) कर रहे कार्डधारियों को क्यों नहीं बाँटा गया का हिसाब माँगा तो कलेक्टर और फूड ऑफिसर नजरें चुराकर बगलें झाँकते हुए निरुत्तर हो गए। दरअसल वहाँ की महिला जिला कलेक्टर भी सरकार की शरण में थीं और जब-तब उनके सिर संकट की तलवार लटकने की आशंकाएँ प्रबल होतीं तो वे अटलपुरा सरकार से प्रदेश के मुख्यमन्त्री को मोबाइल पर सिफारिश करा देतीं। सरकार को मोबाइल भी कलेक्टर ने भेंट किया था और संकट मोचन के लिए मुख्यमन्त्री भी अपना ‘पवनदूत' (हेलीकॉप्टर) सरकार के आश्रम पर गाहे-बगाहे उतारकर उनके चरणों में शीश झुका आया करते थे। इसलिए विशाल भण्डारे को जिस चमत्कार के जरिए सम्पन्न होना घोषित किया गया था वास्तव में वह सरकार के एक इशारे पर जिलाधिकारियों ने बीपीएल के गेहूँ, चावल बाजार में बेचकर सम्पन्न कराया था। कबीर बाबू ने बेटे को सच्चाई से अवगत कराने के लिए आठ-नौ साल पहले ‘जनसत्ता'में छपी खबर की दुर्लभ कतरन भी दिखाई थी, लेकिन अपने आराध्य पर चोट होते देख बेटे ने कोई तर्क-वितर्क किए बिना कतरन पिता के हाथ से छीनी और बड़बड़ाते हुए पैर पटक, तमतमाया चेहरा लिये घर की देहरी फाँद गया। अब अन्धविश्वासियों को कौन समझाए जब सब चमत्कार ही था तो कड़ाही में पानी भरे कनस्तर उँड़ेलने की भी भला क्या जरूरत थी?
जीवन और मृत्यु के झमेले में उलझे हताश कबीर बाबू को लगा उनके समय की पीढ़ी पर तो साहित्य और धर्म के मूल रहस्य का कुछ अर्थ था भी, इसी कारण पाखण्ड और आडम्बरों से उनकी पीढ़ी कमोबेश दूर भी रही। लेकिन कॉन्वेंटी शिक्षा प्राप्त वर्तमान पीढ़ी को क्या हुआ जो वह पाखण्ड और आडम्बरों के दलदल में धँसकर संचित ज्ञान और बुद्धि के सर्वथा विपरीत आचरण अपनाने को मजबूर हो रही है। कबीर बाबू ने बेटे और उसकी मित्र मण्डली के समक्ष कितनी बार असफल कोशिश की कि अटलपुरा सरकार कोई पुराण साहित्य के हिन्दू अवतारों की तरह मिथक नहीं है, लेकिन वास्तविकता को मिथ से निकालकर यथार्थ में लाने के उनके प्रयास नितान्त व्यर्थ ही रहे। बेटे सहित मित्र मण्डली के लिए तो अटलपुरा सरकार पूरे क्षेत्र में प्रचलित किंवदन्ती की तरह शैशवास्था में ही हिन्दू अवतारों की तरह अपने विस्मयकारी अनन्त चमत्कारों के चलते मिथ के रूप में विद्यमान हो गए थे। उनकी तीस-पैंतीस साल की उम्र में यह भी सम्भव होकर लोकमान्य हो गया कि अटलपुरा सरकार इस चराचर जगत् में एक जीवित मिथ हैं। कबीर बाबू ने चमत्कारमयी भक्तिधारा में बहे जा रहे अपनों को कथित सरकारों और बाबाओं से दूर रहकर कर्म में जुट जाने के लिए प्रेरित करने का अपना निजी, नैतिक और सामाजिक कर्तव्य-बोध तो समझा ही, साथ ही इसे वे एक चुनौती मानकर भी चले कि युवा पीढ़ी कथित अवतारों के ढकोसलों से उबरकर रोजगार के साधन, साध्य के लिए संघर्ष की राह पर चलकर जीवटता का परिचय दें। पर उनकी सीख, उनके तर्क-वितर्क नक्कारखाने में तूती भर रह
गए। आखिर कबीर बाबू ने अपने निरर्थक उद्देश्य पर इसलिए पूर्ण विराम लगाना उचित समझा कि इस चराचर जीव-जगत् में सम्भवतः आत्मा अथवा अन्तरात्मा जैसी कोई शक्ति निश्चित है जिसकी प्रभा, प्रज्ञा, चेतना तर्क की कसौटी से परे हैं।
तमाम चेष्टाओं के बावजूद बड़ा बेटा उसी राह का राही बना जो कबीर बाबू की दृष्टि में जीवन की सार्थक राह नहीं थी। एक ओर तो वह अटलपुरा सरकार की शरण में था दूसरी ओर क्षेत्रीय सांसद का निष्ठावान अनुयायी बन गया। इन दोहरे शिष्यत्व से कबीर बाबू के नजरिए से देखें तो दुष्परिणाम यह निकला कि बेटा लगभग दलाल चरित्र का हो गया। वह बतौर रिश्वत लेकर छोटे-मँझोले सरकारी कर्मचारियों के मनचाही जगहों पर स्थानान्तरण कराने लगा तो दूसरी ओर जिले में चल रहे विकास सम्बन्धी निर्माण कार्यों की सूचना के अधिकार के अन्तर्गत लगभग सबक सिखा देने के धमकी भरे लहजे में अवैध धन वसूली करने लगा। कई मर्तबा बेटे के देर रात घर लौटने पर जब वे दरवाजा खोलते तो उन्हें गहन और विश्वसनीय अनुभूति होती कि बेटे की सधी साँस से सुरा-गन्ध फूट रही है। उनके जेहन में सवाल कौंधता कि क्या वर्तमान राजनीति दलाली का चरित्र और कथित धर्मगुरु दुराचरण का निर्माण करने में अपनी ऊर्जा का होम करने में लगे हैं...?
कबीर बाबू की नजर में बेटा इन असामाजिक हरकतों के चलते समाज में बदनाम न हो जाए इससे पहले वे समझदारी व दूरदृष्टि से काम लेते हुए बेटे की इन्हीं हरकतों को उसकी उपलब्धियों की मिसालें जताकर आनन-फानन में स्वयंवर रचाकर बहू घर में ले आए। बेटे के लिए दुल्हन जुटाने के लिए वे जब अपने सगे-सम्बन्धियों के समक्ष अवगुणों का गुणगान करते तो उन्हें अपनी अन्तरात्मा को कितना मसोसना पड़ता, यह सिर्फ वे ही समझ सकते हैं। लेकिन क्या करें अपने ही आसपास रोजगार और आय का कोई निश्चित स्रोत नहीं होने और भ्रूणहत्या के चलते पुरुष की तुलना में स्त्री के तेजी से घटते अनुपात के चलते कबीर बाबू अनेक उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं को बिना ब्याहे ही उम्रदराज होकर कुँआरे रह जाने को मजबूर होते देख रहे थे और वे युवाओं के अनब्याहे ही प्रौढ़ हो जाने की इस समस्या को समाज में लगातार बढ़ रहे बलात्कारों का एक मजबूत कारण भी मानते थे। क्योंकि कबीर बाबू भूख, प्यास और काम को स्वस्थ शरीर की एक कुदरती जरूरत मानकर चलते थे। इनके भोग में जो आनन्द है वही मल, मूत्र और वीर्य स्खलन के रूप में परमानन्द है। आनन्द और परमानन्द की इस अलौकिक अनुभूति को कबीर बाबू प्रकृति प्रदत्त लौकिक व्यवहार की तरह देखते थे।
छोटा बेटा
कबीर बाबू बड़े बेटे को लेकर फिर भी सन्तोष कर लेते हैं। लेकिन, छोटे बेटे कुणाल के रोजगार को लेकर बेपनाह चिन्तित रहते हैं। कबीर बाबू सोचते थे, बेटे जब अपने रोजगार-धन्धों से जुड़कर जीवन जीने को स्वतन्त्र हो जाएँगे तो उम्मीदों का फासला ही उम्मीदों का सेतु बन जाएगा। पर अफसोस कुणाल की उम्मीदें हाथ मलती ही रह गईं। बेरोजगारी के तनाव ने उसे कुण्ठा के कगार पर ला खड़ा कर दिया। कबीर बाबू बेरोजगार युवकों की खड़ी फौज के लिए सरकार की नीतियों को दोषी मानते। सरकार वैश्विक समुदाय में शक्तिशाली राष्ट्र बनने के लिए अमेरिका से परमाणु सन्धि तो करती है पर आजादी के बाद आधी से ज्यादा सदी बीत जाने के बावजूद सरकारें जनता को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने में असफल दिखाई दे रही हैं। नयी आर्थिक नीतियों के जरिए उस दिशा में धकेला जा रहा है जहाँ गरीब, फैसले थोपने वाले वर्ग के लिए अर्थहीन होता जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के सरकारी उपक्रमों में निजीकरण का सिलसिला चलाकर शिक्षित बेरोजगारों को फुटपाथ पर ला खड़ा कर दिया। कबीर बाबू इसका दोष नौकरशाहों पर मढ़ते हैं जिन्होंने जबरदस्त लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हस्तक्षेप कर गरीबी और बेरोजगारी उन्मूलन की सभी सम्भावनाओं को ध्वस्त कर दिया। जिससे देश, भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबकर अराजकता और आपसी वैमनस्य की ओर बढ़ता जा रहा है। उन्हें भी अब ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, कि कुणाल रोजगार के रथ पर सवार हो जाएगा। ऐसे में यदि पत्नी और बड़े बेटे के दिमाग में कुणाल के लिए अनुकम्पा नियुक्ति का खयाल आता है तो इसमें हर्ज ही क्या है? कबीर बाबू ने कटु अनुभव किया है समाज में बदली आर्थिक सोच के चलते अब शिक्षा नहीं रोजगार की प्रबल महत्ता है। तभी तो बेरोजगार एमए, एम.एस-सी, यहाँ तक कि इंजीनियरिंग की हाईटेक शिक्षा प्राप्त युवक घर बैठे उम्र बढ़ा कुण्ठित होने के साथ अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार हो रहे हैं जबकि शासकीय सेवा में कार्यरत पिता की आकस्मिक मौत के बाद मात्र इण्टर पास युवक अनुकम्पा नियुक्ति पाकर सामाजिक और आर्थिक उपलब्धियों के सोपान चढ़ रहे हैं। अनुकम्पा नौकरी पाए युवाओं से कोई पूछे कि इनकी सही मायनों में योग्यता क्या है? शासकीय सेवारत पिता की मौत का प्रमाण-पत्र अथवा उसका शैक्षिक सर्टिफिकेट या डिग्री...?
बेटे कुणाल के साथ कबीर बाबू ने जब अपनी मौत के प्रमाण-पत्र का खयाल किया तो उनका मन कुछ पलों के लिए प्रफुल्लित हो उठा कि चलो अब
बेटे को अनुकम्पा नौकरी मिल जाएगी। इस आधार पर दहेज के सामान समेत करीब पाँच लाख की शादी हो जाएगी। नवेली दुल्हन के साथ बेटा पिता की मौत के प्रमाण-पत्र पर जाति-बिरादरी, यार-दोस्तों के बीच इतराने व अठखेलियाँ करने का हक हासिल कर लेगा। कुण्ठा खुशियों में तिरोहित हो जाएगी। पिता की मौत के बाद, परिवार के लिए कितनी सार्थकता है अनुकम्पा नियुक्ति की? यह अनुभव कबीर बाबू ने तब किया जब चल रहे वार्तालाप के दौरान बड़े बेटे ने लाइलाज अवस्था में पहुँच चुके पिता के इलाज पर पैसा खर्च करना फिजूलखर्ची जताकर पिता को ग्वालियर अथवा दिल्ली ले जाने से इनकार कर दिया था। तब छोटे बेटे ने सवाल उठाया था, ‘‘लोग क्या कहेंगे मम्मी...?'' तब करुणावती बेटों को जीवन के रहस्य का दर्शन जता रही थी, ‘‘लोग किसी के बारे में बहुत अच्छा नहीं सोचते। जिसमें जाति-बिरादरी के तो कतई नहीं। जो लोग अपनी ताकत से उपलब्धियों के सिरमौर बने रहते हैं, उनके गुण बखाने जाते हैं और जो नाकाम या कमजोर साबित होते हैं, उनकी निन्दा होती है। तुलसीदास तो पहले ही कह गए हैं, ‘समरथ को नहिं दोस गुसाईं।''
पत्नी
पत्नी करुणामयी, वैधव्य का गहन पीड़ादायी मर्मान्तक दंश झेलने को तत्पर है।
कबीर बाबू ने परस्पर पत्नी और बेटों के बीच जो वार्तालाप सुना तो वे जैसे विचलित होने लगे। हालाँकि अक्सर वे विवेक से काम लेते हैं, पर जब वार्तालाप के जरिए जो यथार्थ सामने आया तो उससे विचलित हो जाना स्वाभाविक ही था। विकट परिस्थिति इंसान को इस कदर लाचारी की अवस्था में ला खड़ा करेगी कि सात जन्मों का बन्धन, सात फेरों के संग निभाने वाली पत्नी भी बेटों की इच्छा के समक्ष वैधव्य-भार ढोने की सहमति दे देगी, यह विचारणीय प्रश्न था। कबीर बाबू पत्नी के बारे में सोच रहे हैं...
करुणावती नाम की इस अठारह साल की अनूठी नायिका से जब उनका वैदिक रीति से ब्याह सम्पन्न हुआ, कबीर बाबू उसके रूप-लावण्य को देखकर दंग रह गए थे। इतनी सुन्दर, इतनी सुडौल, इतनी सफाई पसन्द और इतने सलीके से साड़ी-ब्लाउज पहनने वाली, कि बिरादरी में दूसरी ऐसी नववधू न थी। इसलिए अम्मा ने बहू को बैरनों की टेढ़ी नजर न लग जाए की आशंकाओं के चलते काजल की डिब्बी में सीधे हाथ की मध्यमा अँगुली का पोर छुला ठोड़ी पर बतौर टोटका बिन्दी जड़ दी थी।
कबीर बाबू जब अपने जीवन की नायिका के साथ संसर्ग में आए तो उन्हें लगा जैसे करुणा की सुगठित काया निहायत नाजुक रेशमी व चंचल कोशिकाओं की जटिल संरचनाओं से निर्मित है। मांसल सौन्दर्य की महिमा से लवरेज रूप की रानी को पाकर कबीर बाबू की हृदय धमनियाँ दर्प के वितान से तन गईं और भरपूर प्रेम-उपहारों के आदान-प्रदान का सिलसिला परस्पर सर्वस्व समर्पण भाव से चल निकला और फिर समय गुजरने के साथ-साथ कबीर दम्पति का आँगन दो बेटों और एक बेटी के कलरव से गुंजायमान हो गया। तब सरकार का परिवार नियोजन के लिए भी यही नारा था, ‘‘बस दो या तीन बच्चे होते हैं घर में अच्छे।'' तब अस्पतालों की दीवारों पर चिपके रहनेवाले वे पोस्टर आज भी उनके दिलो-दिमाग में मुस्कराते दो लड़के और एक लड़की खिलखिलाते, फुदकते दर्ज थे। यही विज्ञापन अमीन सयानी की खनकती आवाज में आकाशवाणी के ‘विविध भारती' कार्यक्रम और ‘यह रेडियो शीलोन है' में गूँजता तो लगता वाकई आसमान से पुराणयुग की आकाशवाणी चेतावनी देती हुई परिवार नियोजन के लिए उत्प्रेरित कर रही हो? कबीर बाबू ने भी इस चेतावनी को आत्मसात् करते हुए सार्थक किया। प्रकृति का चक्र अपरिवर्तनीय परम्परा की तरह निरन्तर गतिमान रहता है। बढ़ती उम्र में कायापलट कर कुदरत कब शरीर को लाचारी की अवस्था में पहुँचा देती है इसका ठीक से अहसास ही नहीं होने पाता। पारिवारिक जिम्मेवारियाँ और बच्चों को ठीक से ठिकाने लगा देने की गहन चिन्ता ने सेवानिवृत्ति की उम्र के सन्निकट आते-आते पहले तो कबीर बाबू को रक्तचाप की गुंजलक में जकड़ा और फिर वे चिकित्सकों की रायानुसार दिल की बीमारी के मरीज हो गए। असाध्य और बेहद खर्चीले रोग...। इन बीमारियों को लेकर कबीर बाबू जब भी चेतनावस्था में सुषुप्त स्मृतियों पर जोर डालते हैं तो वे लगभग दहल से जाते हैं। तब उन्हें अपने वे मित्र-परिजन याद आते हैं जो उन जैसी बीमारियों की चपेट में आकर पर्याप्त इलाज के बावजूद लाइलाज बने रहे और आखिर में बीवी-बच्चों को आर्थिक बर्बादी के कगार पर छोड़कर ‘‘राम नाम सत्य हुए''।
और करुणावती...! उसका रूप-लावण्य का दम्भ भी बढ़ती आयु के साथ-साथ ढलान पकड़ने लगा। रूप-श्रृंगार की महक बासी पड़ने लगी। करुणा का मांसल सौन्दर्य शनैः-शनैः सयानेपन की गम्भीरता से जड़ होने लगा। आखिर उसे भी तो बच्चों के व्यवस्थित घर बस जाने की चिन्ता व्याकुलता की पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है। करुणा और कबीर बाबू जब कभी अपने घर में एकान्त में बैठे असमय प्रभु को प्यारे हुए, अपने निकटतमों के बारे में परिस्थितिजन्य चिन्तन-मन्थन करते हैं तब अनायास ही दोनों के संवाद कैसे यथार्थ वाक्य बनकर प्रस्फुटित हो पड़ते। परलोकगामी निजी प्रैक्टिशनर डॉ. परमानन्द लाल का क्या हश्र हुआ? ग्वालियर में तमाम जाँचें कराने के बाद उन्हें पता चला कि किडनी ने जवाब दे दिया है। भागे-भागे इन्दौर गए। नये सिरे से हुई जाँचों के बाद पता चला एक नहीं दोनों किडनी फेल हो चुकी हैं। जान बचाने के लिए एक किडनी ट्रांसप्लांट करनी होगी। पत्नी-बच्चों ने रक्त सम्बन्धियों के आगे, भरी आँखों से पैरों में सिर रखकर सौ-सौ निहोरे किए। तब कहीं अनुज ने स्कूटर दिला देने की शर्त पर एक किडनी दान दी। बहनें तो उम्रदराज हो चुकने के बावजूद साफ मुकर ही गई थीं। भाई को एक किडनी के आसरे छोड़ डॉ. परमानन्द को असहनीय यन्त्रणाओं के बीच किडनी ट्रांसप्लांट हुई। आखिरकारभारी खर्चीली शल्यक्रिया सफल रही। दो सप्ताह अस्पताल में रहने के बाद डॉ. परमानन्द अपने घर शिवपुरी लौटे। पर यह क्या तीन दिन बाद ही तबीयत उखड़ने लगी। हडि्डयाँ कँपकँपा देनेवाली शीतलता शरीर में बैठ गई। थर्मामीटर का पारा एक सौ चार डिग्री पार कर गया। बड़े बेटे ने इन्दौर दूरभाष पर बातचीत कर चिकित्सीय सलाह ली। डॉक्टर ने तुरन्त रोगी को इन्दौर लाने की सलाह दी। आनन-फानन में टैक्सी से रातोंरात भागे। डॉक्टरों की टीम ने बद्-परहेजी बरतने का कारण जता परिजनों को डाँट-फटकार लगाते हुए दुष्परिणाम भुगतने की चेतावनी तक दे डाली। खैर, डॉ. परमानन्द की बिगड़ी स्थिति में फिर सुधार आया और वे फिर शिवपुरी लौट आए। एक माह बाद फिर हालत लड़खड़ाई...फिर दूरभाष पर सलाह-मशविरा फिर टैक्सी से इन्दौर के लिए रवानगी...और फिर वही लानत-मलानत, परिजनों पर लापरवाही का इल्जाम...। जीने में, न मरने में रहे डॉ. परमानन्द को इसी तरह ग्यारह माह के भीतर सात बार इन्दौर ले जाने का सिलसिला जारी रहा। पर सातवीं मर्तबा जब डॉ. परमानन्द इन्दौर गए तो फिर उनकी मृत देह ही लौटी। इस महँगे और जानलेवा इलाज के फेर में बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए बैंकों में जमा दस लाख की पूँजी भी जाती रही और नतीजा निकला अति कष्टदायी नारकीय मौत...!
तब ठण्डी आह भरते हुए कबीर बाबू ने पत्नी-मुख से सुना था, ‘‘इससे तो अच्छा होता परमानन्द बिना इलाज के ही मर जाते। जमा-पूँजी से बेटी की शादी हो जाती और बेटे छोटी-मोटी दुकान खोलकर आमदनी का कोई ठीहा बना लेते।'' तब कबीर बाबू की प्रतिउत्पन्न मति में यह कदापि नहीं आया था कि डॉ. परमानन्द की तरह कहीं वे भी उम्र के एक निश्चित पड़ाव पर आज जैसी
स्थिति में पहुँच गए तो करुणा बच्चों के भविष्य को लेकर यही आत्मगुन्थन करेगी। स्मृतियों की स्मृति में पत्नी करुणावती से चल रहे संवाद, प्रतिसंवाद में कबीर दम्पति को अपने कई मृत्यु को प्राप्त मित्रों, रिश्तेदारों..., आस-पड़ोसियों का स्मरण हो रहा है...धर्मवीर शर्मा..., रघुबीर शरण पाठक..., हृदयेश मिश्रा..., सत्यानारायण भार्गव...और फिर रुककर उन्हें याद आए अपने पड़ोसी धर्मपाल! जैसा नाम वैसा ही उज्ज्वल चरित्र। ईश्वर भक्त, नियमित दिनचर्या। संयमित आहार, व्यसनों से कोसों दूर...। महाविद्यालय में खेल व्याख्याता के चरित्रानुरूप पूरे सौ फीसदी चुस्त-दुरुस्त। पर निर्मोही काल का कहर जब उन पर असाध्य रोगों के रूप में टूटा तो धर्मपाल हाड़-मांस के एक ऐसे लुंज-पुंज शक्तिहीन लाचार कपड़े के पुतले की तरह बनकर रह गए कि हर अंग सहारे के बल ही गतिमान हो पाता। पहले उन्हें जबरदस्त हृदयाघात पड़ा। जिसका उपचार दिल्ली के हार्ट सर्जरी हॉस्पिटल में हुआ। बड़े ऑपरेशन के बाद ठीक से शक्ति-संग्रह कर ताकत पकड़ते इससे पहले शरीर का बायाँ हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। उनसठ साल की इस लाचारी से भरी उम्र में जब कबीर बाबू मास्टर धर्मपाल से रू-ब-रू होते तब धर्मपाल की छलछलाई आँखों और रुँधे गले से जो पीड़ा फूटती है, ‘‘इन सहारों के सहारे जीवित रहने से तो अच्छा था वे मर ही जाते। उन्हें भी कष्ट भोगने से मुक्ति मिलती और पत्नी-बच्चे भी सुखी हो जाते।'' कबीर बाबू को अनुभव होता कि मास्टर धर्मपाल उनके गले से लिपटकर फूट-फूटकर रोने को आकुल हैं। पर कैसी विडम्बना है कि गले से लिपटने के लिए भी असहाय मास्टर धर्मपाल को एक और सहारे की जरूरत है?
कबीर बाबू को याद आ रहा है लाचारावस्था में पहुँच चुके धर्मपाल पर करुणावती की प्रतिक्रिया थी, ‘‘इससे तो अच्छा है रिटायर होने से पहले धर्मपाल भाई साहब स्वर्ग सिधार जाएँ। बेटे को अनुकम्पा नियुक्ति मिल जाएगी....बीमा व जीपीएफ के धन से बेटी की धूमधाम से शादी हो जाएगी और पेंशन मिलने से पत्नी पराश्रित नहीं रहेगी। भगवान की कृपा से घर अपना है ही...।''
कबीर बाबू उस वक्त करुणावती के इस कठोर किन्तु व्यावहारिक सोच से लगभग सहमत थे, लेकिन अब जब यह खरा सोच उन पर ही लागू है तो वे क्यों विचलित व दुखी होने लगे? जीवन के ठोस धरातल पर कब आदमी को ऐसा सुव्यवस्थित जीने का ढंग मिला है, जिसमें दुख से पाला ही न पड़े? उन्होंने दुख के अथाह सागर में सोच की गहरी डुबकी लगाई और फिर सतह पर उभरे। निर्लिप्त, निरापद स्थिति में उन्होंने कुछ ताजगी का अनुभव कर मन मन्थन किया,
आज वे धर्मपाल की हालत में हैं और डॉ. परमानन्द के अन्त की दुखद परिणति उनके समक्ष है। ऐसे में यदि करुणा पुत्रों के साथ यह सोच रही है कि शेखर के पिता मर क्यों नहीं जाते...? तो इसमें गलत है ही क्या? छोटे बेटे को अनुकम्पा नियुक्ति मिल जाएगी। बीमा, भविष्य निधि और ग्रेच्युटी से बेटी का ब्याह ढंग से सम्पन्न हो जाएगा और करुणावती का जीवन पेंशन से कमोबेश सन्तोषजनक ढंग से कट ही जाएगा। करुणावती का सोच ही शायद सही है।
कबीर बाबू का रक्त-संचार कुछ तीव्र हुआ उनकी चेतना स्फुरित हुई और फिर उन्होंने सोचा, ‘‘तुम धन्य हो करुणावती! तुम जो सोच दे रही हो वह इस बात का द्योतक है कि स्त्री ही समाज में परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत कर सकती है क्योंकि तुम पति अथवा पुरुष नहीं बल्कि वर्तमान परिस्थिति को स्वयं की दृष्टि देख रही हो और समाधान भी तलाशने में प्रयासरत हो। करुणावती तुम वाकई धन्य हो...। कबीर बाबू के शरीर में उग्र स्फूर्ति एकाएक प्रकट हुई उन्होंने अनायास ही यथाशक्ति लगाकर नाक में ठुँसी ऑक्सीजन की नली खींच दी। पत्नी और बेटे अचकचाए...। पत्नी ने पूरी ताकत से कबीर बाबू के हाथ अपने हाथों में इस दृष्टि से जकड़ लिये कि वे किसी बेहूदी हरकत की पुनरावृत्ति न कर डालें। बेटों ने पैर पकड़ लिये और बेटी नर्स व डॉक्टर को बुलाने दौड़ पड़ी।
कबीर बाबू बुदबुदाए..., ‘‘समय रहते मुझे मर जाने दो शेखर की माँ...कुणाल को अनुकम्पा नियुक्ति मिल जाएगी, बेटी के हाथ पीले हो जाएँगे और तुम्हारी शेष जिन्दगी पेंशन से कट जाएगी।''
‘‘नहीं-नहीं...!'' करुणावती लगभग चीखी-सी थी। इतने में ही बहदवास बेटी के साथ डॉक्टर और नर्स दौड़ आए। डॉक्टर ने ऑक्सीजन नली फिर से नाक में लगभग ठूँस दी। नर्स ने कॉम्पोज का इंजेक्शन लगा दिया। फिर से बेहोशी की हालत में लौटते कबीर बाबू बड़बड़ाए..., ‘‘उपचार के चलते रिटायर होने से पहले कहाँ मर पाऊँगा?'' सन्नाटे को चीरता कबीर बाबू का यही सवाल गहन चिकित्सा इकाई कक्ष में बार-बार गूँजकर प्रत्यावर्तित होता रहा।
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(अगले अंकों में जारी... अगली कहानी : दहशत)
ये अटलपुरा सरकार एक बार यहाँ के भी एक गाँव में पधार चुके हैं .....जंगल से सागौन काट-काट कर करोडपति बने लोग उनकी सेवा में भाग-दौड़ कर रहे थे ...उन्हीं के आमंत्रण पर आये थे ......छोटा सा गाँव ....अमीर-गरीब सब उनके आशीर्वाद के लिए भागे जा रहे थे ...किसी नें मुझसे भी कहा ....मैंने कुछ टिप्पणी के साथ जाने से मना कर दिया ....बेटी की कमाई से आजीविका चलाने वाले बुज़ुर्ग वाजपेयी जी को बर्दाश्त नहीं हुआ ....उन्होंने सारी मर्यादाओं को ताक पर रख कर मेरी जम कर ऐसी तैसी कर डाली. आज आपकी कहानी पढ़कर सरकार और वाजपेयी जी की याद आ गयी.
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