( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'छल' से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी र...
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'छल' से जारी...)
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म 15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानी
जूली
जूली...! यह नाम किसी अभिजात्य आधुनिका का नहीं है। हालाँकि नाम से यह जाहिर जरूर होता है कि जूली नाम की लड़की या महिला कोई फैशनेबल मॉडल गर्ल या वूमेन होगी? जिसकी अंग-प्रदर्शन करनेवाली विचित्र वेशभूषा होगी। विचित्र घने-गहरे काले बालों की स्टाइल होगी...नाक, कान और नाभि अटपटे गहनों से सुसज्जित होंगे। चिकनी त्वचा पर गोदने होंगे। दरअसल पाश्चात्य बयार से आयातित इस शब्द से अहसास ही कुछ इस तरह का होता है। लेकिन हमारी जूली ऐसी कतई नहीं है। बस उसका नाम भर जूली है। उसके उलटे हाथ पर उसी का नाम जरूर गुदा है जो उसके माता-पिता ने बदरवास की हाट में गुदवाया था।
हमारी जूली आदिवासी अंचल की ठेठ ग्रामीण अनपढ़ जूली है। अँगूठा छाप कह लें, कोई हर्ज नहीं; उसके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर! यदि वह अँगूठा छाप नहीं होती, अँगूठा उसके राजनीतिक इस्तेमाल का जरिया नहीं बनता तो वह आज जहाँ है, वहाँ सम्भवतः न होने की बजाय रामलाल दादा के कृषि फार्म पर सहज भाव से खेती-बारी, गोबर-सानी कर रही होती। दादा को भी उसके राजनीतिक इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ती, यदि त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली में आरक्षण और उसमें भी एक-तिहाई महिलाओं की भागीदारी की व्यवस्था के अन्तर्गत दलित, आदिवासी, हरिजन व पिछड़े वर्ग की महिलाओं की बराबरी की हिस्सेदारी न की गई होती। फिर भला, इलाकाई राजनीतिक रसूखदारों को जूली की जरूरत कहाँ थी?
जूली उसके परिजन और उसके गाँव के कुछ परिवार करीब दो दशक पहले झाबुआ जिले के भाँवरा गाँव से रोजगार के लिए पलायन करके शिवपुरी जिले के दूरांचल के गाँव सिआखेड़ी-बड़ोखरा में आकर वन भूमि में बस गए थे। झाबुआ में मिशनरियों के प्रभाव के चलते ही उसका नाम जूली पड़ा होगा? मेहनतकश इन भील आदिवासियों ने जेठ की तपती दुपहरिया में कुल्हाड़ी चलाई तो वन भूमि खेती की उपजाऊ काली मिट्टी में तब्दील हो गई। बच्चे पालने के लिए इन गठीले और ठिगने कद के भीलों ने आसपास के गाँवों में मेहनत से मजदूरी कर ईमानदारी की छाप छोड़ी। तीर-कमान से शिकार में सिद्धहस्त इन भीलों ने मजदूरी न मिलने पर तीतर-परेबों और खरहों का शिकार कर अपनी उदरपूर्ति की। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश की राजस्थान से जुड़नेवाली सीमा पट्टी पर ये भील रच-बस गए।
इनकी ईमानदार मेहनत ने इलाके में ऐसी छाप छोड़ी कि इलाके के नामी-बेनामी बड़े काश्तकार अपने खेतों की सुरक्षा व खेती-किसानी के लिए इन भील परिवारों को लालच व एडवांस देकर बतौर नौकर खेतों पर ले जाकर बसाने लगे, रामलाल दादा ने भी जब इनकी मेहनत व ईमानदारी की तारीफें सुनीं तो उनके मन में भी अटलपुर के डेढ़ सौ बीघा के चक में किसी भील परिवार को बसा देने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। दादा का यह खेत दामाद राकेश के साझे में था। ससुर-दामाद चाहते भी थे हरामखोर और आलसी स्थानीय सहरियों से छुटकारा। रोज-रोज की किल्लत से मुक्ति के लिए किसी भील परिवार का ठौर पर ठिकाना बना देने का निश्चय कर लिया।
और अगले दिन ही दादा जिप्सी में सवार हो बड़ोखरा गए और जूली के परिवार को अटलपुर ले आए। दादा को कोई खास परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ा, क्योंकि उनकी साख और बात का विस्तार जिले के सभी दूरांचलों में था। सो सभी ने दादा के यहाँ जूली के सुखी व बाइज्जत रहने की एक तरह से जमानत दे दी थी।
एक दशक पहले जब जूली अटलपुर आई थी, दरअसल तब उसका कोई भरा-पूरा परिवार नहीं था। तब हाल ही में गबरू छैला से उसकी नयी-नयी शादी हुई थी और वह भी सहमी, सकुचाई नयी-नवेली दुल्हन-सी ही थी। दादा ने फार्म पर ही बने घर में जूली को ठहरा दिया। जूली ने लीप-पोतकर घर सँवारा। जूली को दादा का खूब स्नेह मिला। दादा की बेटी ममता से भी जूली को सहेली-सा संरक्षण मिल गया। पति-पत्नी ने हाड़तोड़ मेहनत कर खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ा दी। जूली को भी अटलपुर का पानी लग गया और वह पति के साथ वहाँ की मिट्टी में खूब रच-बस गई। इस बीच जूली ने दो बेटे जने और ममता ने जच्चा-बच्चा की सेहत दुरुस्त रखने के लिए बिस्वार के लड्डू बनाकर खिलाए। दादा और जूली के बीच ऐसा तालमेल बना कि जूली को काम के लिए किसी और का
ठिकाना तलाशने की जरूरत नहीं रह गई। हालाँकि जूली और उसके पति की मेहनत व ईमानदारी से प्रभावित होकर अन्य रसूखदारों ने अतिरिक्त लालच के बहाने उसे दादा से अलग करने की कोशिशें भी कीं, लेकिन दादा के निश्चल वात्सल्य भाव ने दुष्टों की दाल नहीं गलने दी।
दादा एक मर्तबा जिला पंचायत के अध्यक्ष रह चुके थे। उनकी आगे भी पद पर काबिज बने रहने की कामना थी, लेकिन जालिम आरक्षण ने मंसूबों पर पानी फेरकर रख दिया। भोपाल में शिवपुरी की जिला पंचायत अध्यक्ष की पर्ची ने आदिवासी महिला के लिए सीट आरक्षित कर दी। पिछड़ा वर्ग के लिए पर्ची निकली होती तो दादा अपनी इकलौती बेटी को अध्यक्षी दिलाने के लिए जोड़-तोड़ में लग गए होते। दादा के मन में फिर एक हूक उठी कि चलो उपाध्यक्षी तो अनारक्षित है, तो क्यों न बेटी को उपाध्यक्ष बना देने में जुट जाएँ। फिर थोड़ी देर बाद ही दादा का तीसरा नेत्र खुला। मन-मस्तिष्क में बिजली-सी कौंधियाई। दादा कुटिलता पूर्वक मुस्कराए। आसन्न उपलब्धियों की प्रबल सम्भावनाओं से उनकी धमनियों में रक्त प्रवाह तीव्र हुआ और मन ही मन खुशी की प्रगल्भता उनके प्रौढ़ चेहरे पर उभरकर ठहर गई। दादा ने जैसे एकाकी और सर्वोत्तम निर्णय ले लिया हो।
जिला पंचायत के लिए दादा ने ठान ली कि जूली को जिला पंचायत सदस्य के लिए आरक्षित वार्ड से चुनाव लड़ाएँगे और बेटी को पिछड़ा वर्ग महिला के लिए आरक्षित वार्ड से। दादा को लगा जैसे उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं। एक जेब में अध्यक्षी और दूसरी में उपाध्यक्षी। जूली अनपढ़-गँवार वह क्या अध्यक्षी करेगी?अध्यक्षी तो उनकी बेटी मुनिया करेगी। उन्हें अद्वितीय व असीम आनन्द की अनुभूति हुई। बेटी पर दादा जब सम्पूर्ण लाड़ उँड़ेलते हैं तो उसे मुनिया ही कहते। मुनिया की पुकार में उनके वात्सल्य का बेटी के लिए चरमोत्कर्ष भाव होता है। आत्मविश्वास से लबरेज दादा अपनी बैठक में पड़े तख्त से उठे और टेढ़ी टाँगवाले हनुमान के दरबार में मुराद पूरी होने पर श्रीमद्भागवत सप्ताह बँचाने की अर्जी लगा आए।
टेढ़ी टाँगवाले ने बहुत कुछ दादा की सुन भी ली। उनकी बेटी और जूली दोनों ने ही जिला पंचायत सदस्य के लिए विजयश्री हासिल कर ली। अब जैसे दुनिया दादा की मुट्ठी में आ गई हो। लेकिन इतना आसान कहाँ दुनिया मुट्ठी में करना! दादा के बन्द पत्ते जैसे खुलने लगे। तेईस सदस्यीय जिला पंचायत में तेरह सदस्य मुट्ठी में हों तब कहीं अध्यक्षी और उपाध्यक्षी की आसंदियों पर कब्जा सम्भव हो? बाहुबली और अर्थबली विधायक जेपी ने अपनी चेली रामवती आदिवासी को अध्यक्ष बनाए जाने के लिए टँगड़ी फँसा दी। जेपी की गिरफ्त में सात सदस्य और दादा के पास छह। सात और छह तेरह। दो धड़े मिलें तब बात बने। जेपी की शर्त बिना अध्यक्षी के कोई समझौता नहीं। जेपी की गुण्डईनुमा ख्याति से दादा कुछ दहलते भी थे। फिर जब दादा पिछली मर्तबा जिला पंचायत के अध्यक्ष बने थे, तब जेपी ने दादा का खुलकर साथ दिया था। इस नाते दादा जेपी का लिहाज भी करते थे। बहरहाल दादा ने कृतज्ञ भाव से समर्पण करते हुए इस शर्त पर जेपी से समझौता कर लिया कि उपाध्यक्ष उनकी बेटी ही बनेगी। अज्ञात व गोपनीय स्थल पर गंगाजली उठाई गई और मौखिक समझौता सम्पादित हो गया।
पर यह क्या...राजनीति में अप्रत्याशित और अनायास ताकतें कब उभर आएँ कोई भरोसा नहीं। दादा परेशान, सब हैरान। दादा को लगा जैसे मुटि्ठयों में भिंचे तोते अब उड़ने को ही हैं। किसी धूमकेतु की तरह जितेन्द्र ने मैदान मारने के लिए बेखौफ मैदान में आ डटकर बाहुबली अर्थबली जेपी को खंब ठोंककर बाजी मारने की चुनौती दे डाली। किसी का कोई खौफ नहीं। जब सिर पर इलाकाई दिल्ली में बैठे सांसद आका का वरदहस्त हो तो भला खौफ कैसा और क्यों? आका ने जितेन्द्र को कहा राजनीति की कोई भी चाल चलो जीत हमारी होनी चाहिए। इधर आका ने टेलीफोन पर दादा को हड़का दिया। भयभीत दादा ने अपने पास के सदस्य जूली व ममता सहित जितेन्द्र को सौंप दिए। आधी ताकत मिलने के साथ ही जितेन्द्र का हौसला बढ़ गया और तिजोरी खोल दी। जितेन्द्र ने अपने मातहतों से कहा बोली लगाओ सदस्यों की और खरीद लो।
दो दिन के भीतर ही देखते-देखते बाजी पलट गई। बन्दूकों के साए में सफारी और स्कारपियो, कारों से वोट उतरे और जूली अध्यक्ष निर्वाचित घोषित कर दी गई। विरोधियों को जैसे साँप सूँघ गया। जेपी एक कोने में सनाके में खड़े रहे और दादा तो परिणाम का पूर्वाभास कर मतदान स्थल पर आए ही नहीं। कलेक्टर द्वारा जीत की उद्घोषणा के साथ ही क्षण भर में जितेन्द्र, जितेन्द्र भाई साहब हो गए। जूली वोट डालने आई तो ममता के साथ थी। लेकिन ममता के साथ लौटी नहीं। वह जितेन्द्र की बाजू में खड़ी थी। भीड़ छँटनी शुरू हुई तो जूली जितेन्द्र की गाड़ी में थी और फिर जितेन्द्र के घर। राजनीतिक हलकों में सवाल खड़े होने लगे जूली अब किसके कब्जे में रहेगी, दादा या जितेन्द्र के?
बहरहाल दादा मन मसोसकर रह गए और जूली जितेन्द्र के साए में चली गई। दिल्ली बैठे आका की भी यही इच्छा थी। अब जूली जितेन्द्र की हो गई। जूली का आवास जितेन्द्र का घर हो गया। जितेन्द्र की पत्नी जूली को सजाने-सँवारने के साथ शहरी संस्कारों में भी ढालने लगी। जूली का दफ्तर जितेन्द्र ने घर में ही बनवा दिया। सरकारी डाक और फाइलें वहीं पहुँचने लगीं। जूली पढ़ना-लिखना तो जानती नहीं थी लेकिन जब से उसके अध्यक्ष बनने की उम्मीदें बढ़ने लगी थीं तब ममता ने उसे दस्तखत करना सिखा दिया था। जितेन्द्र जहाँ कहते, जूली वहाँ हाउ-बिलाउ से नोटशीट पर दस्तखत कर देती। हालाँकि जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए सरकारी बँगले का प्रावधान है और पूर्ववर्ती अध्यक्षों को बँगला मिलता भी रहा है। लेकिन जूली जितेन्द्र के यहाँ ही रहेगी। क्योंकि जितेन्द्र को आशंका है जूली को कहीं दादा हथिया न लें। जूली जैसे जूली न हुई कोई अचल सम्पत्ति हो गई, जो हथिया ली जाएगी? जैसे जूली हाड़-मांस का शरीर न हुई अदृश्य धागों से बँधी कठपुतली हुई।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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