( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'भूतड़ी अमावस्या' से जारी...) मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. ...
(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'भूतड़ी अमावस्या' से जारी...)
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म 15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानी
शंका
‘‘चाचाजी...''
सुबह-सुबह दरवाजा पीटने से मेरी नींद खुल गई थी। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि गुड्डा इस उकताहट के साथ मुझे क्यों पुकार रहा है। मैंने तत्परता से उठकर दरवाजा खोला। गुड्डा मुझे और द्वार को ठेलता हुआ दो कदम कमरे में घुसकर बोला, ‘‘चाचाजी चाचाजी...टिल्लू के पापा ने गले में फाँसी लगा ली।''
‘‘क्या...?''
एकाएक मैं यह कैसे हो सकता है कि सम्भावना करते हुए चौंक पड़ा।
‘‘अभी मैं डेयरी पर दूध लेने गया था तो सब लोग यही बात कर रहे थे। फिर मैं उनकी गली से ही होकर आया हूँ, उनके घर पर बहुत भीड़ इकट्ठी हो गई है।''
गुड्डा ने अपनी बात प्रमाणित करने के लिए दो सबूत दे दिए थे। अब उसकी बात पर शक करने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी। गुड्डा की खबर सुनते ही मेरी पत्नी भी बिस्तर छोड़कर मेरी बगल में आकर खड़ी हो गई थी। खबर की सत्यता महसूसते ही वह निढाल होकर जहाँ की तहाँ बैठ गई।
मैंने अविलम्ब कुर्ता-पाजामा पहना और पत्नी से कहा -‘‘जल्दी आओ।''
बाहर निकलने पर मैंने अनुभव किया कि गुड्डा ने खोजी रिपोर्टर की तरह खबर सारे मोहल्ले में फैला दी है। मेरे मकान की सभी औरतें आँगन में इकट्ठी होकर चर्चा में जुट गई थीं। गली की तमाम औरतें भास्कर मास्टर तथा कोयले वाले लालाजी के द्वार पर खड़ी खुसुर-फुसुर करने लग गई थीं।
मेरे गली से गुजरते वक्त सबकी चौकन्नी निगाहें मुझ पर टिक गई थीं -कुछ-कुछ शंकित-सी। मैंने किसी से कोई जानकारी प्राप्त करने की कोशिश नहीं की, क्योंकि मैं जानता हूँ इस तरह के लोगों पर ज्यादातर कच्ची और मनगढ़न्त जानकारियाँ होती हैं। अक्सर इस तरह के मामलों में सही और उचित धारणाओं की बजाय गलत और अवैधानिक धारणाएँ गढ़ ली जाती हैं। मैं तीर के निशाने की तरह टिल्लू के पापा की गली में मुड़ गया।
टिल्लू के पापा यानी सतीश भार्गव। सतीश से मेरी बहुत गहरी अथवा बहुत पुरानी दोस्ती नहीं थी। लेकिन नयी होते हुए भी घनिष्ठ मित्र बन गए थे। उसका साहित्य पढ़ने में रुझान था, जबरदस्त रीडिंग हैबिट थी उसमें। मैं थोड़ा-बहुत लिखने के कारण साहित्यिक पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का नियमित ग्राहक तथा पाठक था, इसलिए मेरे निजी पुस्तकालय में चुनी हुई पुस्तकों का अच्छा भण्डार था। मार्क्सवादी विचारधारा का उस पर अतिरिक्त प्रभाव था। कुछ मार्क्सवादी साहित्य वह अपने ड्राइंगरूम की अलमारी में डेकोरेशन पीस की तरह सजाकर रखता था। एक बार उसने मुझसे कहा भी था, ‘‘तुम प्रतिबद्ध होकर मार्क्सवादी लेखन क्यों नहीं करते?''
‘‘प्रतिबद्धता लेखन को ईमानदार नहीं बनाती। हम बे-वजह रचना को प्रतिबद्धता के कारण विचारधारा के चौखटे में डाल देते हैं। इस कारण रचना की यथार्थता समाप्त प्राय हो जाती है। फिर...कोई भी वाद या विचारधारा किसी राष्ट्र को समृद्धिशाली नहीं बनाते, राष्ट्र समृद्धिशाली बनता है- व्यक्ति की निजी ईमानदारी और राष्ट्रीय दायित्वबोध से।''
उस दिन मुझे अहसास हुआ था कि सतीश की मानसिकता पर मेरी बात ने कहीं गहरा असर किया है। उसके बाद उसने मुझसे कभी प्रतिबद्ध लेखन करने का आग्रह नहीं किया।
सतीश को इस शहर में आए हुए यह चौथा वर्ष था। अपनी जन्मभूमि शाजापुर से स्थानान्तरित होकर वह शिवपुरी आया था। शिवपुरी का अपना यह आकर्षण है कि जो भी अधिकारी-कर्मचारी एक बार यहाँ आ जाता है, फिर स्थायी तौर पर बसने की उसकी तमन्ना बलवती हो उठती है। भ्रष्ट लोगों को नम्बर दो का पैसा खपाने की और किसी काम में कोई ठीक-ठाक गुंजाइश नहीं दिखती, सो वे किसी अच्छी कॉलोनी में मुँहमाँगे दाम देकर प्लॉट खरीद लेते हैं और आलीशान कोठी या बँगला तान देते हैं। इन भ्रष्टाचारियों के भवनों की आधारशिला रखने के लिए�इस रमणीय शहर से जुड़े खेतिहरों को थोड़ा-बहुत आर्थिक लाभ मुहैया कराकर पूँजीपतियों ने बे-दखल किया और वैध-अवैध कॉलोनियों का निर्माण कर डाला। सीमित व्यवस्थाओं एवं साधनों के बीच अत्यधिक बसीगत होने के कारण यह शहर तमाम बुनियादी समस्याओं एवं प्रदूषण का शिकार होता जा रहा है।
मेरे घनिष्ठ मित्र सतीश ने भी चार माह पूर्व 6 लाख का प्लॉट 95 हजार की रजिस्ट्री कराकर खरीदा था और वर्तमान में वह प्लॉट पर अच्छे नक्शे का मकान बनवा रहा था। कभी-कभी मैं भी अचम्भित होकर सोचता कि यह कैशियर जैसी छोटी-सी पोस्ट पर काम करनेवाला आदमी कैसे अच्छे ढंग से रह लेता है और कैसे मकान बनवा रहा है? इस रहस्य के बारे में न कभी उसने बताया और न कभी मैंने जानने की कोशिश की। किसी व्यक्ति के निजी जीवन की अन्दरूनी परतें खोलना मेरे स्वभाव में नहीं था।
सतीश के घर वाली गली में पहुँचते ही मैंने देखा, गली में ठसाठस जन-मानस उमड़ रहा है। पैर रखने को भी जगह नहीं है। मकानों की बालकनियाँ भी औरतों-बच्चों से भरी हुई हैं। मृतक की लाश को एक बार देख लेने की सबकी गहरी लालसा है।
जब भी इस शहर में कोई दुर्घटनाग्रस्त होकर अकाल मौत मरता है, तब इस शहर के लोग मृतक की डेड बॉडी के दर्शन करने के लिए बेहद उतावले हो जाते हैं। शहर के अच्छे-अच्छे जीनियस लोगों में मैंने यह उतावलापन देखा है। ऐसे लोगों का व्यक्तित्व भले ही देश-समाज के लिए महत्त्वपूर्ण रहा हो अथवा न रहा हो, महत्त्वपूर्ण होता है सिर्फ मृत्यु का कारण�हत्या है, आत्महत्या है, पुलिस का शिकार है। अभी पुलिस ने कुछ दिन पूर्व मुठभेड़ में डाकू मारे थे, फिर उनकी लाशों को खाटों से बाँधकर पोलोग्राउंड में प्रदर्शन भी किया। बिना किसी ऐलान के पुलिस की बहादुरी की खबर हवा की तरह सारे शहर में फैल गई। जन-समूह उमड़ पड़ा। पोलोग्राउंड के पास में जितने भी सरकारी कार्यालय थे, उनके सभी कर्मचारी अपने-अपने काम छोड़कर पोलोग्राउंड भागे। ऐसा लग रहा था मानो डाकुओं की नहीं, किसी महान देशभक्त की मृत्यु हुई हो।
इस घटना के कुछ दिन बाद ही महान स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी मिश्राजी की स्वाभाविक मृत्यु हुई थी। आजादी की लड़ाई में उनका सराहनीय योगदान रहा था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के भाषणों से प्रभावित होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के बिल्ले-तमगों को उतार फेंककर पैरों से रौंद दिया था। और ब्रिटिश आर्मी के मेजर जनरल पद को ठोकर मारकर नेताजी की शरण में पहुँच आजाद हिन्द फौज के साधारण सिपाही बन गए थे। कई मोर्चों पर उन्होंने जमकर ब्रिटिश हुकूमत से युद्ध किया था। बायीं बाजू में गोली भी लगी, जिससे उनका एक हाथ सदा के लिए बेकार हो गया था। बाद में दिल्ली के लालकिले पर मुकदमा भी चला। वहाँ से मुक्ति के बाद उन्होंने घर-गृहस्थी के बन्धनों में बँधने की बजाय जीवनभर देशसेवा करने का व्रत ले लिया और शिवपुरी जैसी छोटी-सी जगह में आकर बस गये। लेकिन उनकी अन्तिम क्रिया में बमुश्किल बीस आदमी रहे होंगे।
ऐसी परिस्थिति में मुझे अपने शहर के लोगों की ही नहीं, पूरे देश की मानसिकता विकृत लगती है। जिस व्यक्ति के निर्वाण-उत्सर्ग के प्रति हमें श्रद्धांजलि अर्पित कर कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए, उनकी तो हम अवहेलना करते हैं और जो देश-समाज के लिए जीवनभर घातक रहते हैं उनको हम अनावश्यक महत्त्व देते हैं।
जैसे-तैसे भीड़ को ठेल-ठालकर मैं सतीश के घर तक पहुँचा। दरवाजे पर दो सिपाही खड़े हुए थे। बगल में ही कुर्सी पर पसरे दारोगाजी सिगरेट फूँक रहे थे। इस सारे मातमी माहौल से निर्लिप्त रहकर। मुझे देखते ही सतीश के दोनों बच्चे ‘अंकलजी-अंकलजी' कहते हुए मेरे पैरों से लिपट गए। मेरा पूरा शरीर अजीब-सी कँपकँपा देनेवाली सिहरन से भरकर रोमांचित हो उठा और मैंने मन में ही कहा -‘‘क्या कायरतापूर्ण हरकत की तुमने, सतीश?'' बच्चों के सिर पर मैंने स्नेह-भरा हाथ फेरा, गालों पर दुलार-भरे चुम्बन दिए और उन्हें छाती से चिपका लिया।
ड्रेसिंग-रूम में अनेक औरतें सतीश की पत्नी को सँभाले हुए विलाप कर रही थीं। वे बेहोश थीं, उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। बाल बिखरकर रूप को विकराल बना रहे थे। जब एकाएक उनकी बेहोशी टूटती तो वे अपनी पूरी ताकत से चिल्ला पड़तीं, ‘‘कहाँ गए तुम...? इन दुधमुँहों को लिये मैं किस-किस के द्वार पर भटकूँगी? हाय, बच्चों का तो जरा खयाल करते...? हे भगवान! तू भी कितना निष्ठुर हो गया है...''
मेरे शरीर का रोम-रोम सिहर उठा था। मैं अपने को बहुत भारी महसूस कर रहा था। अचानक फुसफुसाहट के साथ कुछ शब्द मेरे कानों से टकराए -‘‘यहीं बैठा रहता था रात-रातभर...।'' मुझे अपने पैरों तले की जमीन खिसकती-सी लगी। मगर मैं जैसे-तैसे संयत रहते हुए स्टोर रूम के द्वार पर था।
मेरी आँखों के सामने सतीश की झूलती हुई लाश थी। इस तरह के भयावह दृश्य से साक्षात्कार करने का यह मेरा पहला अवसर था। सकते में आकर कुछ क्षणों के लिए मैं जड़ हो गया था। फोटोग्राफर विभिन्न एंगिल्स पर कैमरा केन्द्रित कर फ्लैश फेंक रहा था। इस चकाचौंध में मैं सतीश को विस्फारित नेत्रों से घूरता रहा। सुख और सुविधाओं के उपकरणों से भरे इस कमरे की एक-एक वस्तु कितनी खामोश, जड़ और निष्क्रिय-सी हो गई थी, बस, शून्य अँधेरे के विवर बन-मिट रहे थे।
लड़खड़ाते कदमों से बाहर निकलते हुए फिर कुछ शब्द मेरे कर्णपटों से टकराए, ‘‘आज रात भी आधी रात तक यहीं था...। राम जाने का खिचड़ी पकाते रहे रातभर, अब देखो राँड़ खसम खाकर कैसी सत्ती भई जा रही है...'' मैंने उस औरत की ओर पलटकर देखा -मेरी आँखें मिलते ही उसने नजरें झुका लीं थीं और घूँघट खींचकर चेहरा ढँक लिया था। उसकी यह हरकत सफेद झूठ पर पर्दा डालने की कोशिश थी। मेरे शरीर में क्षणिक उत्तेजना आई और फिर क्षणिक व्यंग्यात्मक सोच। और मैं बाहर निकल गया।
मेरे बाहर आते ही मेरी पत्नी अन्दर प्रविष्ट हो गई थी। मैं समझ गया था यहाँ की कुचर्चाओं का पत्नी के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और शाम को अन्तर्द्वन्द्व से मेरा सामना करना मुश्किल हो जाएगा। पर मैं जानता था कि मैं कहीं गलत नहीं हूँ। इसीलिए किसी प्रकार की अस्थिरता या घबराहट मेरे अन्दर पैदा नहीं हुई।
और फिर व्यस्तताओं में खड़े-खड़े पूरा दिन ही गुजर गया। पोस्टमार्टम के लिए लाश को अस्पताल ले जाना, रिपोर्ट लेना, फिर लाश को लाना, फिर अन्तिम क्रिया के तमाम सामान जुटाना। इस बीच मेरी आँखों के सामने जो भयंकर विद्रूप दृश्य था�अर्थी पर सतीश की पत्नी की कलाइयाँ पटकवाकर चूड़ियाँ फुड़वाना। कितनी अमानवीय परम्परा...। तमाम जगहों से उसकी कलाइयों से खून रिसने लगा था। अन्ततः आर्त चीखों के बीच यह दुखद प्रक्रिया मुझसे देखी नहीं गई थी और मैंने आँखें मींच ली थीं। शाम लगभग छह बजे हम बारह-पन्द्रह लोग अर्थी लेकर श्मशान भूमि गए थे और कपाल-क्रिया करने के बाद रात दस बजे लौटे थे।
अपनी गली आज मुझे कुछ ज्यादा ही सन्नाटे में डूबी हुई प्रतीत हो रही थी। गली के दोनों ओर खड़े बहुमंजिले मकान दैत्याकार लग रहे थे। अजीब दार्शनिक चिन्तन-मनन की अन्तर्व्यथा के बीच मैंने अपने घर के मुख्यद्वार का शटर खींचा और पत्नी को आवाज दी ‘‘प्रभा...!''
कोई जवाब नहीं आने पर मैंने पुनः गुहारा, ‘‘प्रभा...!''
किन्तु इस बार भी कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। मैंने सोचा, शायद प्रभा ऊपर हो...किन्तु ऊपर वह हमेशा ताला लगाकर जाती है और इस समय दरवाजे पर ताला नहीं लगा था। यहाँ तक कि बाहर से कुण्डी भी नहीं चढ़ी थी। किवाड़ों को मैंने जैसे ही धकियाया, खुलते चले गए। कमरे में घुप्प अँधेरा था। लाइट जलाने पर देखा तो प्रभा पलंग पर सोयी हुई थी। सीलिंग फैन अपनी पूरी गति से चल रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ, आज के दुख और विषादभरे माहौल में प्रभा इतनी गहरी नींद कैसे सो गई। जबकि आज तो हमारे पास चर्चा करने के लिए ताजा विषय था। ताजा विषय नहीं होने पर भी रोज सोते समय घण्टे-दो घण्टे किसी न किसी विषय पर पे्रमपूर्वक बातें करते। हालाँकि इस तरह की रोज-रोज की बातों में पुनरावृत्ति के अलावा कुछ नहीं होता था। लेकिन हमारा एक-दूसरे के प्रति आकर्षण इतना था कि हम गलबहियाँ डाले घण्टों बतियाते रहते।
‘‘प्रभा, उठो न, देखो मैं कितनी देर से खड़ा हूँ...।''
‘‘क्यों चिल्ला रहे हो, बेकार में...आँगन में बाल्टी, साबुन, कपड़े रखे हैं जाकर नहा लो और सो जाओ।''
मैं एकाएक चौंककर सन्न रह गया। यह रोब...,यह रुतबा...,नहीं-नहीं, यह प्रभा नहीं हो सकती। लोच मधुरिमा से बिद्ध उसकी वाणी एकदम खरी-खोटी कैसे हो सकती है? वह भी मेरे प्रति। खैर, मैं फिलहाल स्वयं को अशुद्ध और क्लान्त महसूस कर रहा था सो मैंने कुछ बोलना उचित नहीं समझा। चुपचाप आँगन में पहुँच नल के नीचे बाल्टी लगाई और स्नान करने लगा। पानी की तरलता ने पूरे शरीर में शीतलता का संचार किया और मैंने शरीर में एक नयी ताजगी का अनुभव किया।
अब मैं प्रभा के निकट था। प्रभा के सिर के पास बैठकर मैंने उसका सिर अपनी गोदी में रखा और बालों में हाथ फिराने लगा। प्रभा ने बेदर्दी से मेरा हाथ झटक दिया और गोदी से सिर उठाकर तकिये पर रखते हुए बोली, ‘‘बहुत हो गया नाटक...! तुम कितने नीच और कमीने हो, यह तो आज पता लगा?''
प्रभा का यह परिवर्तित आचरण निस्सन्देह मुझे चौंकानेवाला था। उसकी आँखों में क्रोधाग्नि के लाल डोरे देखकर मैंने अन्दाज लगाया जरूर कहीं कोई गड़बड़ है! अब मुझे शान्त रहकर उसकी मनःस्थिति को समझना था। हमारे सफल दाम्पत्य जीवन का यह मनोवैज्ञानिक कारण था कि किसी के गुस्सा होने पर एक शान्त रहकर मुस्कराता रहता था। ऐसा नहीं था कि आज पहली बार मुझे प्रभा ने नीच-कमीना कहा हो। एक-दूसरे को हमने खूब-खूब गालियाँ दी हैं-गन्दी-गन्दी। लेकिन इस तरह का माहौल हमेशा ही बनावटी तथा गढ़ा हुआ होता था। हम मनोरंजन के लिए, एक-दूसरे से आत्मसात् बनाए रखने के लिए लड़ते-झगड़ते थे। हमारा यह झगड़ा जितना ज्यादा लम्बे समय तक चला, समाप्त होने पर उससे भी ज्यादा लम्बे समय तक हम प्यार करते। सिर्फ प्यार। अमृतमय स्वच्छन्द सरोवर में डूबते-उतराते प्रेम के इन क्षणों के लिए हमारा यह प्रयास रहता कि ये क्षण सदा-सदा के लिए ऐसे ही वर्तमान बने रहें।
‘‘आखिर बात क्या है प्रभा?...''
‘‘पूछो मेरी सौत से जाकर...''
प्रभा के मुँह से सड़क छाप औरतों की तरह बात सुनकर मेरा माथा ठनका। सतीश के घर पर मुझे लेकर औरतें जिस तरह की चर्चाएँ कर रही थीं, उन्हीं का प्रभाव प्रभा पर स्पष्ट परिलक्षित था। मैं समझ गया सतीश की पत्नी और मुझे लेकर अवैध सम्बन्धों की कथाएँ गढ़कर प्रभा को गलतफहमी का शिकार बनाया गया है और फिलहाल प्रभा शंकालु तीरों की शिकार हो गई है। जरूर इस तरह की झूठी महिमा गढ़ने में हमारे समाज की औरतें आगे रही होंगी। क्योंकि हमारे समाज का न तो कोई अपना चरित्र है न निश्चित दृष्टिकोण और न ही कोई राष्ट्रव्यापी लक्ष्य। पति-पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रहनेवाले इस समाज के लोग जब कोई श्रेष्ठ उपलब्धि हासिल नहीं कर पाते तब उनके लिए सारी श्रेष्ठता, शारीरिक चरित्र पर केन्द्रित होकर रह जाती है। वह भी स्त्री के चरित्र को लेकर कुछ ज्यादा ही मर्यादित और कठोर होती है जबकि मेरे लिए शारीरिक चरित्र गौण है, राष्ट्रीय चरित्र श्रेष्ठ!
ऐसे नाजुक क्षणों में मुझे सन्तुलित दिमाग से काम लेना था, वरना दाम्पत्य-जीवन के दरक जाने का भय था।
‘‘प्रभा, आखिर बात क्या हुई, कुछ मुझे भी बताओ न...?''
‘‘मैं क्या बताऊँगी...? पूछ लो मोहल्ले की सारी औरतों से, सारे समाज की औरतों से, जिनमें तुम और तुम्हारा कुनबा नाक चढ़ाये घूमता है।'' वह मोर्चा सँभालते हुए मेरे सामने बैठ गई थी।
‘‘देखो...अब बहुत हो गया। व्यर्थ मुँह फुलाने की बजाय जो भी कहना है, ठीक-ठीक कहो?'' मैं डपटते हुए बोला था।
‘‘ जानते हो, सारी की सारी औरतें इस दुर्घटना का कारण तुम्हें मान रही हैं।...बल्कि कुछ तो...''
‘‘हाँ-हाँ, बोलो, कुछ तो क्या?''
‘‘कुछ तो यहाँ तक कह रही थीं कि यह आत्महत्या नहीं, हत्या है...और इसमें तुम्हारा हाथ है।''
प्रभा की आँखें भर आई थीं। उसने सिसकते हुए मेरी गोदी में सिर रख दिया था। कुछ क्षणों के लिए मेरी साँसें जहाँ की तहाँ थम गई थीं। अँधेरे के वृत्त मेरी आँखों के सामने मँडरा रहे थे। सिसकते हुए ही वह पुनः बोली, ‘‘मेरा तो वहाँ एक-एक क्षण बैठना दूभर हो गया, राज...!''
मेरी समझ में नहीं आ रहा था, लोग मृतात्मा के प्रति शोक-संवेदना प्रकट करने जाते हैं या उसका अपनी कुत्सित मानसिकता के अनुरूप मनगढ़न्त चरित्र गढ़ने? अभी किसी कहने वाले व्यक्ति से कह दिया जाए कि आपकी बातें सही हैं तो चलिए थाने में चलकर बयान लिखाइए...सब-के-सब बगलें झाँकने लगेंगे। कायर चरित्रता अटकलबाजियों के अलावा और कोई साहसपूर्ण सराहनीय कदम नहीं उठा सकती।
‘‘प्रभा...।''
‘‘हाँ...।''
‘‘मैं कल रात कितने बजे घर आ गया था?''
‘‘यही कोई साढ़े दस-ग्यारह बजे के बीच।''
‘‘फिर तो मैं सारी रात तुम्हारे साथ था न?''
‘‘हाँ...फिर तो हम गुड्डा के पुकारने पर ही सोकर उठे थे?''
‘‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक सतीश ने डेढ़ और दो बजे के बीच आत्महत्या की है। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट है कि मौत गला कसने के कारण ही हुई है।''
‘‘फिर ये औरतें तुम पर क्यों शक कर रही हैं?''
प्रभा चुप हो गई थी। उसकी बौखलाहट संयम और धैर्य में परिवर्तित हो रही थी। मुझे अनुभूति हो रही थी कि प्रभा की लौटी चेतना मेरे प्रति आश्वस्त होती जा रही है।
‘‘देखो, अब किसी की जुबान तो मैं पकड़ नहीं सकता। लेकिन एक बात जरा गौर से सोचो�कल तक तो ये औरतें मेरे बारे में कुछ नहीं कहती थीं, आज अचानक परिस्थिति बदल जाने के कारण इनकी भावना ही बदल गई। विचारधारा ही बदल गई।''
‘‘हाँ, ये तो है। लेकिन उन्होंने आत्महत्या की क्यों?''
‘‘हाँ, यह एक सोचने का कारण हो सकता है। फिर पत्रादि भी तो वह कोई लिखकर नहीं छोड़ गया। लेकिन जहाँ तक मैं उसे और उसके परिवार के बारे में जानता हूँ तो ऐसा महसूस करता हूँ कि कारण जो भी रहा हो, ऑफिशियल या अन्य होना चाहिए। देखो, शायद डाक में कोई चिट्ठी डाली हो। लोकल डाक होगी तो कल नहीं तो परसों तक मिल ही जाएगी।''
‘‘मेरा तो दिमाग सारे दिन से न जाने कैसा-कैसा हो रहा था। लग रहा था, नसें अब फटीं...अब फटीं। अब जाकर कुछ शान्ति मिली है।''
प्रभा को मानसिक रूप से सन्तुलित होते देख मैंने चैन की साँस ली और कहा, ‘‘अब तुम सो जाओ। दिनभर गहरे तनाव से गुजरी हो।''
‘‘अरे, मैं भी कैसी पागल हूँ, तुमने सारे दिन से कुछ खाया-पिया भी नहीं होगा और मैं बिना सोचे-विचारे मूर्खों की बातों में आकर अपना रोना लेकर बैठ गई। अभी आधे घण्टे में फटाफट खाना बनाए देती हूँ।''
प्रभा के शरीर में सामान्य फुर्ती और प्रफुल्लता देखकर मेरे शरीर और मन की थकान लुप्त होने लगी थी।
दूसरे दिन का सवेरा और दिनों की भाँति ही सामान्य था। प्रभा मुझसे कुछ समय पूर्व उठ गई थी। उसने चाय से भरा गिलास मेरे पास रखते हुए दुलार से कहा था, ‘‘अब उठो न, चाय ठण्डी हो जाएगी।''
मैं उठ गया था। प्रभा के साथ चाय पी। फिर दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर सतीश के घर की ओर चल दिया।
सतीश के माता-पिता और भाई तो कल ही आ गए थे। उनसे मैं पूर्व से ही परिचित था। एक माह पूर्व ही तो जब सतीश ने अपने मकान की आधारशिला रखी थी, तब वे आए थे और लगभग एक सप्ताह रुके थे। गृह प्रवेश के बाद उन्हें बेटे की अन्तिम क्रिया में आना पड़ेगा यह कौन जानता था।
घर पहुँचने पर मैं सतीश के पिता को मौन अभिवादन करता हूँ। वे मुझे सोफे पर बैठने का संकेत करते हैं। मैं बैठ जाता हूँ। उनके चेहरे पर धैर्य, शान्ति, गाम्भीर्य और दृढ़ता का अद्भुत सामंजस्य है। इस दर्दनाक दुखान्त परिस्थिति में मैंने एक क्षण के लिए भी उनका मानसिक सन्तुलन विचलित होते हुए नहीं देखा। उन्होंने आते ही सबसे पहले सतीश की पत्नी का खयाल किया। उसके सिर पर हाथ फिराते हुए सान्त्वना दी, ‘‘सब भाग्य का खेल है, बेटा...! धैर्य रख। मैं जब तक जिन्दा हूँ, तुझे अपनी और बच्चों की चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।'' फिर उन्होंने अपने हाथों से बच्चों की कसम दिलाकर उन्हें एक गिलास जूस पिलाया।
मुझे लगा था, इस पूरे जनसमूह में सतीश की पत्नी के प्रति सही संवेदना-सहानुभूति रही है तो वह सतीश के पिता की। बुजुर्गियत, बड़प्पन और स्नेह से भरा यही वरदहस्त सतीश की पत्नी में जीवनी-शक्ति का संचार कर सकता है, बाकी आर्त्त चीखें तो एक कायराना मातमी माहौल पैदा भर करने के लिए ही थीं। तिस पर भी संदिग्ध परिस्थिति। पूरा माहौल क्षुद्र औरतों ने सतीश की पत्नी के विरुद्ध रच दिया था। लगभग सभी रिश्तेदार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सतीश की हत्या अथवा आत्महत्या का कारण सतीश की पत्नी का चरित्रहीन होना ही मान रहे थे। साथ में यह दलील भी दे रहे थे, ‘‘वरना क्या जरूरत थी ऐसे धीर-गम्भीर कमाऊ सपूत को मरने की? लोग सारा जीवन किराये के मकान में गुजार देते हैं। सिर ढँकने के लिए अपनी एक झोंपड़ी तक नहीं बना पाते। और उसे देखो, पॉश कॉलोनी में क्या शानदार मकान बनवा रहा था? रहता भी क्या ठाट-बाट से था...कोई खानदानी रईस भी क्या रहेगा? पुरुष के भाग्य और स्त्री के चरित्र को देव भी नहीं जान सके।'' सतीश की माँ तो चिल्ला-चिल्लाकर कई बार ताने
मार चुकी थीं, ‘‘हे भगवान! इस कुलच्छनी का काला मुँह देखने से पहले तूने मेरी आँखें क्यों नहीं मूँद दीं? यह बुढ़ापा खोटा होने से पहले मुझे उठा लेता।''
सतीश के पिता को यह सब सुनना कतई बरदाश्त न होता। वे माँजी को डाँटते हुए कहते, ‘‘चुप भी रहो, सतीश की माँ...। क्या दुनिया की बातों में आकर उलटा-सीधा बके जा रही हो। तुम्हारा क्या है, तुम्हारी तो चार दिन की जिन्दगी शेष है। उस बेचारी की सोचो, उस पर क्या गुजर रही होगी...? उसके सामने तो अभी पहाड़ जैसी जिन्दगी है...और नन्हे-मुन्नों का साथ...। अभी तो उसकी उम्र ही खेलने-खाने की है...?''
उनकी फटकार से कुछ समय के लिए मौन सन्नाटा छा जाता। पर उनके जरा देर के लिए इधर-उधर होते ही द्वेष-विद्वेष आरोप-प्रत्यारोप की पुनरावृत्ति होने लगती।
सारा दिन ऐसे ही गुजर गया। उम्मीद थी डाक से शायद सतीश का कोई पत्र प्राप्त हो, पर हुआ नहीं।
आज भी मेरी पत्नी की मनःस्थिति तनावपूर्ण रही। हालाँकि आज उसने किसी प्रकार की आशंका जाहिर नहीं की थी, पर उसके हाव-भाव से ऐसा जाहिर हो रहा था कि अभी भी वह मेरे पाक-चरित्र होने के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसके चेहरे की व्यथा स्पष्ट संकेत दे रही थी कि वह अजीब कशमकश की मनःस्थिति से गुजर रही है। मैंने उसे कुरेदना कतई उचित नहीं समझा। चुप रहने में ही मैंने दोनों की भलाई समझी।
अगले दिन अचानक अप्रत्याशित रूप से वस्तुस्थिति स्पष्ट हो गई...
बैंक खुलने के साथ ही, बैंक के एक चपरासी ने जो दो दिन से छुट्टी पर था, बैंक मैनेजर के सामने तीन लिफाफे रखते हुए कहा, ‘‘ये तीनों लिफाफे मुझे नरसों भार्गव साहब ने रजिस्टर्ड डाक से भेजने के लिए दिए थे। साथ में पचास रुपये का एक नोट भी दिया था। किन्तु नरसों देर से पोस्ट ऑफिस पहुँचने के कारण रजिस्ट्रियाँ नहीं ली गईं। अतः मैं अगले दिन रजिस्ट्रियाँ करने की सोच घर चला गया। उसी रात मुझे अपने एक रिश्तेदार के साथ किसी बहुत जरूरी काम से ग्वालियर जाना पड़ गया। उस दिन हड़बड़ाहट में रजिस्ट्रियों की बात भूल ही गया। ग्वालियर से लौटने पर मुझे भार्गव साहब के साथ घटी दुर्घटना के बारे में समाचार मिला, तब मैंने इन लिफाफों को शंका की दृष्टि से देखा और डाक से भेजने की बजाय सीधे आपके पास ले आया।''
उन तीन लिफाफों में एक बैंक मैनेजर के नाम और एक-एक एसपी तथा
कलेक्टर के नाम थे। मैनेजर ने तुरन्त एसपी को सूचना दी। कुछ समय बाद पुलिस कस्टडी में तीनों लिफाफे खोले गए। उन तीनों लिफाफों में सतीश की हस्तलिपि में लिखा एक ही प्रकार का मजमून था -‘‘मैं अपने सम्बन्धियों और साथियों में अपनी प्रतिष्ठा बनाना चाहता था। इस प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए मैंने बैंक से नकली ड्रॉफ्ट्स के जरिए पाँच लाख की हेरा-फेरी की। प्रतिष्ठा तो मेरी बनने लगी थी...किन्तु चोरी पकड़ी जाने का डर मेरे मन-मस्तिष्क पर बुरी तरह हावी हो गया था। एक-एक पल मेरा चैन में गुजारना दुर्लभ हो गया। अन्ततः मैंने इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या का उपाय ही ठीक समझा है और आज रात मैंने अपनी जिन्दगी को समाप्त करने का निश्चय कर लिया है''
‘‘मेरी पत्नी पर किसी प्रकार का शक न किया जाए। वह इस घोटाले में किसी भी रूप में शरीक नहीं है और न ही उसे कोई जानकारी है।''
नीचे सतीश के हस्ताक्षर और तारीख थी। सभी हतप्रभ रह गए।
सतीश के लिखे पत्रों से विवाद का खुलासा हो जाने के बाद मेरी पत्नी का व्यवहार मेरे प्रति बिलकुल सामान्य हो गया था, बल्कि सगर्व मुझसे बोली थी, ‘‘मुझे तो पहले ही विश्वास था, राज तुम ऐसे हो ही नहीं सकते।'' अब हमारा दाम्पत्य जीवन तोड़ देनेवाली खबरों से मुक्त हो गया था।
सतीश की तेरहवीं के बाद उन्होंने यह शहर छोड़कर शाजापुर में ही रहने का निश्चय कर लिया था। पत्रों द्वारा मृत्यु का खुलासा हो जाने के बाद सतीश के पिता बेहद टूट गए थे। पत्र पढ़ते ही उन्होंने कहा था, ‘‘राष्ट्र के साथ विश्वासघात, धोखाधड़ी सबसे बड़ा पाप है। इस उम्र में देशद्रोह कर मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा गया। इस स्थिति से अब शायद ही मैं कभी उबर पाऊँ।'' उन्होंने मकान की रजिस्ट्री बैंक के हवाले कर दी थी।
सतीश की पत्नी की अब चेतना लौट आई थी। वे स्वस्थ दिखने लगी थीं। घरेलू कार्यों में हाथ बँटाने के साथ-साथ उन्होंने घर आनेवालों से बोलचाल भी प्रारम्भ कर दी थी। मात्र समाज में ऊँचा दिखने के लिए भोग-विलास की वस्तुएँ जुटाने के लिए सतीश द्वारा किया गया गबन उन्हें नितान्त निम्न हरकत लगी। उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे पूरे आत्मबल और साहस के साथ स्वयं के बलबूते पर जियेंगी और बच्चों को उचित शिक्षा देंगी।
उनके निर्णय से अवगत होने के बाद उनके प्रति मेरे अन्दर श्रद्धा पैदा हो गई। मैंने सोचा - मेरे सम्पर्क की तमाम औरतों में मात्र सतीश की पत्नी ही चरित्रवान और सम्मानीय स्त्री है। मेरी इच्छा हुई, झुककर उनकी चरण-रज ले लूँ.
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