प्रमोद भार्गव का कहानी संग्रह : मुक्त होती औरत (10) - मुखबिर

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  ( पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'किरायेदारिन' से जारी...) मुक्‍त होती औरत   प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्‍थान 4268. अं...

 

(पिछले अंक में प्रकाशित कहानी 'किरायेदारिन' से जारी...)

मुक्‍त होती औरत

 

pramod bhargava new

प्रमोद भार्गव

प्रकाशक

प्रकाशन संस्‍थान

4268. अंसारी रोड, दरियागंज

नयी दिल्‍ली-110002

मूल्‍य : 250.00 रुपये

प्रथम संस्‍करण : सन्‌ 2011

ISBN NO. 978-81-7714-291-4

आवरण : जगमोहन सिंह रावत

शब्‍द-संयोजन : कम्‍प्‍यूटेक सिस्‍टम, दिल्‍ली-110032

मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्‍ली-110032

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जीवनसंगिनी...

आभा भार्गव को

जिसकी आभा से

मेरी चमक प्रदीप्‍त है...!

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प्रमोद भार्गव

जन्‍म 15 अगस्‍त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)

शिक्षा - स्‍नातकोत्तर (हिन्‍दी साहित्‍य)

रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्‍य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्‍ययन में विशेष रुचि।

प्रकाशन प्‍यास भर पानी (उपन्‍यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्‍यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।

सम्‍मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्‍य के क्षेत्र में चन्‍द्रप्रकाश जायसवाल सम्‍मान; 2. ग्‍वालियर साहित्‍य अकादमी द्वारा साहित्‍य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्‍मान; 3. भवभूति शोध संस्‍थान डबरा (ग्‍वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्‍वतन्‍त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्‍धु सम्‍मान'; 5. म.प्र. हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्‍य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्‍मानित।

अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्‍वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।

सम्‍प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्‍पादक - शब्‍दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।

पता शब्‍दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)

दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224

ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com

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अनुक्रम

मुक्‍त होती औरत

पिता का मरना

दहशत

सती का ‘सत'

इन्‍तजार करती माँ

नकटू

गंगा बटाईदार

कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की

किरायेदारिन

मुखबिर

भूतड़ी अमावस्‍या

शंका

छल

जूली

परखनली का आदमी

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कहानी

मुखबिर

दोहरी चाल चल रहे गंगाराम गड़रिया को पूरी रात ठीक से नींद नहीं आई। वह करवटें बदलता रहा। वह बार-बार सूख-सूख जाते गले को लोटा भर पानी गटककर तर करने का उपक्रम करता रहा। पर बार-बार मुताश आ जाने से उसे मोरी पर जाकर मूतना पड़ता और उसे फिर से शरीर में जल अभाव का अनुभव होने लगता। इस बार-बार की हलचल से उसकी घरवाली की भी शायद नींद उचट गई। वह कुनमुनाई, ‘‘मुनिया के बापू तुम अब डकैतों से रिश्‍ता खत्‍म कर ये मुखबिरी का काम छोड़ो। जा काम में दोई तरफ से जान पर आफत बनी रहत है। इतै..., डकैत दयाराम-रामबाबू की दबिश..., तो उतै पुलिस की...। जा में ऐसी खास आमदनी भी नहीं कि मोड़ा-मोड़ी ठीक से पल जाएँ।''

‘‘मुनिया की अम्‍मा तेरी बात मेरे दिमाग में बैठत तो है, पर मोए ऐसो भान होत है कि गिरोह को जब सफाया होए, तबहीं जाके मुक्‍ति मिलै। ला रसद की गठरी लाके मोए दे और किवाड़ खोल, भुनसारो होवे से पेलेईं गाँव की सीमा पार कर जंगल की डगर पकड़ईँ।''

गंगाराम की घरवाली ने बिछौना छोड़ा। चौके में जाकर उसने बच्‍चों के सो जाने के बाद डकैतों के लिए रात में ही देशी घी में बनाकर रखी पूड़ी-सब्‍जी की गठरी उठाई और द्वार पर आ गई। उसने बेंढ़ा और साँकल खोल एक किवाड़ इतने धीरे से खोला कि आस-पड़ोस के किसी के कान में कोई ऐरो सुनाई न दे जाए।

गंगाराम ने किवाड़ों के बीच से गर्दन निकालकर घुप्‍प अँधेरे में झाँका तो उसके शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गई। चारों ओर व्‍याप्‍त सन्‍नाटा उसे बेहद भयावह-सा लगा। दरवाजा पार कर गलियारे में जब वह आया तो उसे लगा जैसे वह मौत की अन्‍धी सुरंग में प्रवेश कर रहा है। उसने पत्‍नी के हाथ से पोटली लेते हुए उसका हाथ कसकर पकड़ लिया, जैसे इंगित कर रहा हो कि अब मैं जीवित न लौटूँ तो मेरे बच्‍चों का भविष्‍य तेरे ही हाथों में है। और फिर वह दबे पाँव चल दिया। वह जानता है कि मुनिया की अम्‍मा को इस क्षण अनायास ही किसी अज्ञात गर्भ को फोड़ उठे बवण्‍डर से उपजी शंका-कुशंकाओं ने जकड़ लिया होगा। लेकिन वह कब लाचार मुनिया की अम्‍मा के कहे को तवज्‍जो देता है। वह तो शुरू से ही डकैतों की मुखबिरी करने की खिलाफत करती रही है। वही है जो समाज में अपना रोब-रुतबा बनाए रखने के लिए खूँखार गिरोह से मिला रहकर अपनी जान को हथेली पर रखे फिरता है। इस मदद के बदले में उसे कुछ धन जरूर हासिल हो जाता है। पर वह यह भी जानता है कि यदि दयाराम-रामबाबू को नेकई सन्‍देह हो गया कि वह पुलिस से भी मिलकर दोहरी चाल चल रहा है तो दूसरे मुखबिरों की तरह उसकी सड़ी-गली लाश वीरान जंगल के किसी गड्‌ढे में मिलेगी।

लम्‍बे-लम्‍बे डगों से कोस नापता हुआ गंगाराम पहली ही बरसात में हरिया चुके खोड़न के जंगल की परिधि में पहुँच गया था। गर्मी को राहत देनेवाली सुबह की ठण्‍डी हवा की पुरवाई चलने के बावजूद गंगाराम की रूह काँप रही है। उसे अनुभव हो रहा है जैसे सावन-भादों का महीना न होकर पूस-माघ की हड्डियों के जोड़ कँपकँपा देनेवाली ठण्‍ड हो। वह फिर सोच में पड़ गया कि उसने भी कहाँ, यह बेवजह मुखबिर बन जाने की जोखिम उठा ली। एक तरफ गिरो तो कुआँ और दूसरी तरफ गिरो तो खाई। पुलिस और डकैत! ये दो पाटन के बीच पिसते-पिसते मुएँ पूरे छह साल गुजर गए, पर चैन कहाँ? बीते दो साल पहले जर-जमीन और बन्‍दूक के लालच में वह पुलिस का भी मुखबिर बन बैठा। इन दो सालों में उसने दो मर्तबा पुलिस को दयाराम-रामबाबू गड़रिया गिरोह की उपस्‍थिति की पिनपॉइन्‍ट खबर भी दी, पर पुलिस कहाँ गिरोह का बाल भी बाँका कर पाई? हर बार नया बहाना गढ़कर पुलिस ने सीधी मुठभेड़ टाल दी। इस बार उसने भी पक्‍का मन बना लिया है कि अबकी बार पुलिस ने मुठभेड़ टाली तो वह फिर पुलिस के लिए मुखबिरी कभी नहीं करेगा। दारोगा आलोक भदौरिया से बेहिचक कह देगा, ‘‘कोई और मुखबिर ढूँढ़ो साहब और हमारे प्राण बख्‍शो!'' मुखबिरी के दौरान जान हलक पर आ अटक जाती है, साँस फूल जाती है और जुबान से बोल तक नहीं फूटते। गड़रिया को कहीं जरा भी भनक लग गई कि गंगाराम कहीं दाल में कुछ काला कर रहा है तो उसकी इहलीला खत्‍म! अब तक कितने ही मुखबिरों का काम तमाम कर चुके हैं दयाराम-रामबाबू बन्‍धु।

सूरज देवता प्रगट हो गये थे। जंगली पेड़ों के डाल-पत्तों से टकराकर सूर्य-किरणें आँखमिचौनी खेल रही थीं। पक्षियों की चहचहाहट भी शुरू हो गई थी। दूर-दराज से बरसाती झोरों के बहने की स्‍वर लहरियाँ भी वातावरण में गुंजायमान थीं। प्रकृति के इस मधुर परिवेश में गंगाराम को जंगल एक ठहरा हुआ सन्‍नाटा अनुभव हो रहा था। सर्प चाल-सी लहराई पगडण्‍डी पर गंगाराम लम्‍बे-लम्‍बे डग भर रहा था। उसे जब हलक सूखा-सा जान पड़ता तो वह छैले के पत्ते तोड़कर चबाते हुए आगे बढ़ता रहता। उसे जौराई टीले के नीचे बहने वाले झोरे के पास पीपल के पेड़ तक शीघ्र पहुँचना था। यहीं से दयाराम-रामबाबू गड़रिया गिरोह के गुजरने की खबर उसके पास गिरोह द्वारा पहुँचाई गई थी। उसे हुक्‍म था कि वह भोजन लेकर झोरे पर हाजिर हो।

समय करीब आ रहा था। कई मर्तबा वह इस दुर्गम सफर पर निकला है, पर वक्‍त की पाबन्‍दी की शर्त से बँधा होने के कारण उसे आज का सफर बेहद लम्‍बा महसूस हो रहा था। उसे एक तरफ तो गिरोह को रसद पहुँचानी थी, दूसरे पुलिस को भी सीधी मुठभेड़ के लिए उसने खबर दे दी थी। पुलिस ने अब तक चुपचाप मोर्चा सँभाल लिया होगा, ऐसी पिनपॉइन्‍ट खबर बमुश्‍किल ही मिलती है। खबर देते वक्‍त भदौरिया दारोगा ने उसकी पीठ थपथपाते हुए उसके हाथ पर दस हजार की गड्डी रख दी थी। उस गड्डी के स्‍पर्श से उसके सारे शरीर में अनायास ही गर्माहट पैदा हो गई थी। इसके पहले गंगाराम की हौसला-आफजाई के लिए भदौरिया दारोगा ने उसे मढ़ीखेड़ा डेम के रेस्‍ट हाउस में पुलिस कप्‍तान से भी मिलवाया था, तब कप्‍तान साहब ने उसे हिदायत दी थी कि मुठभेड़ स्‍थल ऐसा चुनना जो पुलिस के लिए पूरी तरह सुरक्षित व मुफीद हो और गिरोह को पुलिस होने की भनक तक न लगे। कप्‍तान साहब ने इसी वक्‍त पुलिस को यह भी सख्‍त हिदायत दी थी कि गिरोह के गुजरने के दौरान पहली गोली कप्‍तान साहब ही चलाएँगे। इसके पहले मोर्चे पर तैनात कोई भी सिपाही गोली नहीं दागेगा। गैंग भले ही गुजर जाए। गंगाराम को तो बस ऊँची जगह पर खड़े होकर गिरोह द्वारा झोरा पार करते समय बीड़ी सुलगाकर मोर्चे पर तैनात पुलिस बल को इशारा भर देना था कि गिरोह गुजर रहा है। बस फिर क्‍या था पुलिस की बन्‍दूकें आग उगलेंगी और दयाराम-रामबाबू का राम-नाम सत्‍य!

लम्‍बे कदम नापता हुआ गंगाराम निर्धारित स्‍थल पर पहुँच ही गया। उसने पूरे जतन से सहेजकर लाई रसद की पोटली झोरे के किनारे एक समतल चट्टान पर रख दी। फिर वह पीपल के नीचे आकर खड़ा हो गया। उसके लिए यह जगह कोई नयी नहीं थी। खोड़न से लेकर डोंगरी झोंपड़ी बम्‍हारी और रीछ खो के जंगल का चप्‍पा-चप्‍पा उसका देखा-परखा था। वह यह देखकर आश्‍वस्‍त हो गया कि पुलिस ने उसके आने के पहले ही दो तरफ से मोर्चा सँभाल लिया है। उसने कन्‍धे पर टँगी साफी से मुँह पर छलछला आए पसीने को पोंछते हुए सोचा, ‘‘ईश्‍वर की कृपा हुई तो आज गड़रिया गिरोह का सफाया तय है। व्‍यूह रचना तो कुछ ऐसी ही रची जा चुकी है कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बस गैंग दिए वचन अनुसार इस मौके से गुजर भर जाए।''

दम साधे गंगाराम पीपल के सहारे खड़ा है। भय, संशय और बेचैनी उसे भीतर ही भीतर इस आशंका से खाये जा रही है कि कहीं ऐन वक्‍त पर कोई गड़बड़ी न हो जाए? कहीं उसी के जान के लाले न पड़ जाएँ? एक बार तो उसे लगा कि उसकी ऊर्जा कहीं शरीर में ही वाष्‍पीकृत होकर रोम-रोम से निकलती जा रही है और वह जैसे गश खाकर गिरने ही वाला है। कुछ पलों के लिए उसने पीपल के तने का सहारा लेकर खुद को भगवान भरोसे निढाल-सा छोड़ दिया और गहरी साँस लेकर आह भरी, ‘‘हे रामजी अब एक तेरा ही आसरा है।''

गंगाराम ने निस्‍तब्‍ध वातावरण में साहस जुटाया। दूसरे क्षण उसे लगा कि जैसे कुछ समय के लिए लकवाग्रस्‍त हो गए उसके शरीर में प्राणवायु संचारित हो रही हो...। उसने पेड़ का सहारा छोड़ा। कुर्ते की जेब से बीड़ी का बण्‍डल और माचिस निकाले और बीड़ी सुलगाने के लिए जैसे ही तत्‍पर हुआ कि उसकी चेतना ने स्‍मृति लौटाई, ‘‘बीड़ी तो गैंग के सामने से पास होने पर ही सुलगानी है।'' उसे भयमुक्‍त होने की अनुभूति हुई और उसने बीड़ी पीने का मंसूबा फिलहाल टाल दिया।

गंगाराम ने अपनी समस्‍त इन्‍द्रियाँ सतर्क करने की कोशिश की..., बियाबान जंगल में झाड़-झंखाड़ों के खड़कने के साथ दायीं ओर से पग ध्‍वनियों की आहट सुनाई दी। गैंग के आगमन का संकेत भी इसी दिशा से था। चौकन्‍ना होकर गंगाराम ने आहट की ओर दृष्‍टि उठाई...। पहले वीरा धोबी...फिर सिरनाम आदिवासी...फिर गिरोह का मुखिया, शातिर दिमाग, मास्‍टर माइंड..., पाँच लाख का इनामी सरगना दयाराम और फिर दयाराम का माँजाया छोटा भाई रामबाबू गड़रिया...! और फिर अन्‍य गिरोह के सदस्‍य डकैत।

गंगाराम ने पीपल के नीचे खड़े रहते हुए ही हाथ जोड़कर डकैतों का अभिवादन किया और फिर हिम्‍मत जुटाकर अपने कर्तव्‍य के पालनार्थ बीड़ी सुलगाने के लिए तीली माचिस के रोगन से रगड़ी..., फुर्र सी हुई और तीली बुझ गई।

एकाएक उसकी देह थराथरा उठी। उसने भरपूर संयम व विवेक की चेतना से मन-मस्‍तिष्‍क पर जोर डालकर अनायास ही थरथरा उठी देह को नियन्‍त्रित करने की पुरजोर कोशिश करते हुए फिर से नयी तीली को रोगन पर रगड़ा...। चिनगारी लौ में तब्‍दील हुई। तुरन्‍त उसने हवा के प्रवाह से लौ को बचाने के लिए तीली हथेलियों की ओट में ले ली और फिर बमुश्‍किल बीड़ी सुलगाने में कामयाब हुआ।

वीरा धोबी रसद की पोटली उठाकर झोरा पार कर गया था और फिर एक-एक कर सब झोरा पार कर करधई के जंगली पेड़ों से आच्‍छादित पहाड़ की सुरक्षित ओट में होते चले गये। गंगाराम बीड़ी के लम्‍बे-लम्‍बे सूटे लेकर धुआँ उँड़ेलकर पुलिस को गैंग के गुजरने का संकेत देता रहा, पर पुलिस की बन्‍दूक की नालों ने धुआँ नहीं उँड़ेला। आशंकित गंगाराम किंकर्त्तव्‍यविमूढ़! यह क्‍या इतना सुनहरा अवसर पुलिस ने गँवा दिया...? पुलिस की गोलियाँ चलतीं तो एक-एक कर गिरोह के पूरे सदस्‍य धराशायी होकर धरती पर पड़े होते। पर पुलिस ने गोली क्‍यों नहीं चलाई? क्‍या पुलिस डकैतों से सीधी मुठभेड़ करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाई...?

बदहवास गंगाराम उस टीले के पीछे पहुँचा जहाँ पर पुलिस तैनात थी, पुलिस कप्‍तान भारी-भरकम गोल पत्‍थर के पीछे ए.के.47 थामे उकड़ईँ बैठे मोर्चा सँभाले हुए थे, परन्‍तु उनके चेहरे पर पसीने की उभरी लकीरों के साथ उससे आँखें न मिला पाने की लाचारी स्‍पष्‍ट झलक रही थी। उम्र के थपेड़े खाये गंगाराम ने कप्‍तान साहब के चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ा, ‘‘शायद कप्‍तान साहब का ईमान पहले से ही डोला हुआ था, फिर चाहे वह जान के लालच में डोला हो अथवा पकड़ों को छोड़ने वाली फिरौती की धनराशि के कमीशन में!''

पुलिस और डकैत, दो पाटों के दरमियान खड़ा गंगाराम सोच रहा था कि सीधी मुठभेड़ को अंजाम नहीं देने के यथार्थ का अर्थ जैसे उसके समक्ष विश्‍वास की अँधेरी सुरंग फाड़कर उजागर हो रहा है। गंगाराम अनजाने खौफ से बेखयाली के आलम की गिरफ्‍त में आने लगा। बेसुधी की हालत में उसे अहसास हुआ कि वह किसी भयंकर अजगर की गुंजलक में जकड़ता जा रहा है।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का कहानी संग्रह : मुक्त होती औरत (10) - मुखबिर
प्रमोद भार्गव का कहानी संग्रह : मुक्त होती औरत (10) - मुखबिर
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