1 दिसंबर विश्व एडस दिवस के अवसर पर एड्स बनाने वाली दवा कंपनियां अब एड्स के नये मरीज तलाश करने के लिए ग्रामीण महिलाओं में एड्स के विषा...
1 दिसंबर विश्व एडस दिवस के अवसर पर
एड्स बनाने वाली दवा कंपनियां अब एड्स के नये मरीज तलाश करने के लिए ग्रामीण महिलाओं में एड्स के विषाणु गैर सरकारी संगठनों द्वारा खोजने में लग गये हैं। जिससे इस जानलेवा रोग के बहाने करोड़ों रूपये की दवाओं की खपत सरकारी महकमों में की जा सके। हरियाणा में 1219 ग्रामीण महिलायें एड्स से पीड़ित बताई गई हैं। ये आंकड़े एड्स कंट्रोल सोसायटी ने जारी किये हैं। सोसायटी ने यह भी आगाह किया है कि ये आंकड़े केवल शहरी और कस्बाई अस्पतालों व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से इकट्ठे किये गये हैं, यदि सुदूर ग्रामों में सोसायटी सर्वे करें तो आंकड़ों की संख्या भयावह हो सकती है। हैरानी में डालने वाली यह बात है कि ये सभी महिलायें गरीब होने के साथ गंदी बस्तियों से जुड़ी हैं। सोसायटी द्वारा एच.आई.वी. पोजिटिव से जुड़ी हाईप्रोफाइल एक भी महिला एड्स पीड़ित नहीं दर्शाई है। इससे जाहिर होता है कि ये आंकड़े एक पक्षीय होने के साथ केवल दवा कारोबारियों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से उछाले गये हैं। आंध्रप्रदेश सरकार तो एड्स रोगियों के लिए पेंशन तक दिए जाने का अदूरदर्शी फैसला लेने की सोच रही है। इधर लखनऊ के एक आयुर्वेदिक चिकित्सक ने एड्स की ऐसी अचूक दवा बना लेने का दावा किया है जिसे एड्स उपचार की गारंटी माना जा रहा है। ऐसे में एड्स को हौवा बनाकर सर्वेक्षणों के द्वारा इसके नये रोगी क्यों तलाशे जा रहे हैं ?
हमारे देश में एड्स फैलने की जिस तरह से भयावह तसबीर पेश की जा रही है, वह बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का सुनियोजित षड्यंत्र व देश के आम, गरीब व लाचार नागरिकों से किया जा रहा छल है। और हम हैं कि इसे इस हद तक स्वीकारते चले जा रहे हैं कि हाल ही में आंध्र-प्रदेश सरकार ने एड्स के मुफ्त इलाज की सुविधा लेने वाले रोगियों को पेंशन देने तक का अदूरदर्शी फैसला ले लिया है। एड्स रोगियों को पेंशन देने की शुरूआत के साथ ही उत्तरोत्तर पूरे देश में एड्स मरीजों की संख्या में आश्चर्यजनक ढंग से इजाफा शुरू हो जाएगा। क्योंकि एड्स का खतरनाक हौवा खड़ा करने वाली जो देशी-विदेशी आर्थिक अनुदान प्राप्त समाज सेवी संस्थाएं हैं, दरअसल वे एड्स दवा निर्माता कंपनियों की कठपुतली हैं। उनकी रोजी-रोटी, स्वाबलंवन और आत्मनिर्भरता इन्हीं कंपनियों की अनुकंपा और अनुदान पर टिकी है। निकम्मे व निठल्ले चरित्र के लोग भी पेंशन के लालच में खुद को एड्स रोगी घोषित कराने से गुरेज नहीं करेंगे। चूंकि एड्स रोगी की पहचान गुप्त रखने की शर्त भी जुड़ी है इसलिए सामाजिक लांछन, प्रताड़ना व बहिष्कार से भी ये लोग बचे रहेंगे। सरकारी क्षेत्र में हमारे देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है इसलिए रिश्वत लेकर चिकित्सकों को इच्छुक व्यक्ति को एड्स रोगी घोषित करने में भी कोई परहेज नहीं होगा।
अव्बल तो यह जरूरी नहीं है कि एचआईवी पॉजिटिव प्रत्येक व्यक्ति एड्स का मरीज हो ? एड्स व टीबी की दवाएं लेकर वह लंबे समय तक एकदम स्वस्थ्य रह सकता है। लेकिन बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां गैर सरकारी समाजसेवी संगठनों के माध्यम से एड्स का इतना खतरनाक हौवा खड़ा करती हैं कि दवा कंपनियों को अपने व्यावसायिक हित साधने में आसनी हो जाती है। ऐसे ही हल्लों के नतीजतन आंध्रप्रदेश सरकार एड्स रोगियों को पेंशन सुविधा देने के लिए मजबूर हुई और कालांतर में इसका विस्तार अन्य राज्यों में भी होना निश्चित है। क्योंकि अब तक ये दवा कंपनियां सूचीबद्ध एड्स रोगियों को पकड़कर उसे अपनी दवा खपाती थीं और अब महामारी का तांडव रच सीधे राज्य सरकारों को दवाएं खपायेंगी।
दरअसल एचआईवी ग्रस्त रोगी को ही जानलेवा एड्स का रोगी मान लिया जाता है और उसे चिकित्सक एंटी रिट्रोवाइलर थेरेपी लेने की सलाह देते हैं। इन दवाओं की पहली खुराक की कीमत आठ हजार के लगभग होती है जो अस्पतालों अथवा एड्स नियंत्रण केन्द्रों से मुफ्त में मिलती है। इन दवाओं के नियमित सेवन से मूल रोग तो बेअसर रहता है लेकिन रोगी की प्रतिरोधात्मक क्षमता का बेतहाशा हृास हो जाता है। परिणामस्वरूप दूसरे और तीसरे चरण की खुराकें निश्चित रूप से लेने की सलाह चिकित्सक देते हैं। इन दोनों चरणों की दवाएं रोगी को मुफ्त में देने का प्रावधान अब तक नहीं है लिहाजा मजबूरीवश बेहद मंहगी इन दवाओं को रोगियों को खरीदना होता है। और दवा कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो जाती है। करोड़ों-अरबों की दवाएं सरलता से खप जाती हैं।
हालांकि लखनऊ के आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ. संतोष पाण्डे ने 22 हर्बल पौधों के मिश्रण से तैयार सीरप और एक केप्सूल के मार्फत 19 महीने में एड्स को जड़ से ठीक करने का दावा किया है। मई 2010 में इन्हें इस दवा का 240422 क्रमांक से पेटेन्ट भी मिल गया है। यह पेटेंट उन्हें करीब 11 साल के लंबे संघर्श के बाद मिला। पेटेंट के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अबदुल कलाम ने भी इंडियन सिस्टम ऑफ मेडिसिन एंड होम्योपैथिक संस्था को सिफारिश भी थी। हालांकि यह दवा कितनी प्रभावशील है, इसकी अभी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं मिली है। लेकिन एकाएक दवा के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता।
1995 से लेकर 2005 तक पूरे एक दशक में एड्स की तरह हेपीटाईटिस ‘बी' का भी हल्ला रहा था और इसे एड्स की तरह ही महामारी बताया जाता रहा था। गैर सरकारी संस्थाओं के आंकड़ों के अनुसार देश के चार करोड़ रोगियों में हेपीटाईटिस ‘बी' के विषाणु आस्ट्रेलियन एंटीजन बताये गये थे। इससे मुक्ति पाने के लिए पूरे देश में सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर मुहिम चलाई गई। इस मुहिम में जागृति के किसी कार्यक्रम के बजाय हेपीटाईटिस ‘बी' से आजीवन मुक्ति के लिए टीका लगाये जाने का उपचार बताया गया। उस समय इस एक टीका के कोर्स की कीमत लगभग तीन हजार रूपये थी और इसकी निर्माता थीं विदेश बहुराष्ट्रीय कंपनियां। नतीजतन देखते-देखते करोड़ो अरबों रूपये के टीके इस रोग के रोगियों से लेकर स्कूली बच्चों तथा स्वस्थ लोगों तक को समजासेवी संस्थायें रोटरी और लायंस क्लब भी टीका लगाये जाने की मुहिम में शामिल हो गईं। बाद में पता चला हेपीटाईटिस ‘बी' का भय बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत में दवा खपाने का षड्यंत्र था और जिसमें वे सफल भी रहीं। अब हेपीटाईटिस संक्रमित लोग हैं उनमें से एक तिहाई से भी ज्यादा टी.बी. से पीड़ित हैं। अब सच्चाई यह है कि एड्स को लेकर दुनिया के वैज्ञानिक खुले तौर से दो धड़ों में बंट गए हैं।
ब्राजील में कंसॉर्शियम टु रिस्पॉण्ड इफेक्टवली टु दी एड्स-टी.बी. एपिडेमिक (क्रिएट) द्वारा ग्यारह हजार लोगों पर एक अध्ययन किया गया। इनमें से कुछ लोगों को सिर्फ एंटीरिट्रोवायरल (एच.आई.वी.-रोधक) दवा दी गई, कुछ लोगों को सिर्फ टी.बी. की दवा आइसोनिएजिड दी गई जबकि तीसरे समूह को दोनों तरह की दवाऐं दी गईं। नतीजतन एंटीरिट्रोवायरल औषधि से टी.बी. संक्रमण से 51 प्रतिशत बचाव हुआ। सिर्फ आइसोनिएजिड से 32 प्रतिशत बचाव हुआ। जबकि मिली-जुली दवाएं देने से टी.बी. संक्रमण का खतरा 67 फीसदी तक कम हो गया। इस निष्कर्ष को महत्व देते हुए अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एच.आई.वी. संक्रमित रोगियों के लिए मिली-जुली दवा देने की अनुशंसा की है। फिलहाल यह अलग बात है कि इस सिफारिश का पालन भारत में नहीं किया जा रहा है। क्योकि भारत सहित दक्षिण अफ्रीका में टी.बी. की रोकथाम के लिए आइसोनिएजिड के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है। यह रोक इस डर से लगाई गई थी कि कहीं आएसोनिएजिड के अत्यधिक इस्तेमाल से टी.बी. का बैक्टीरिया इसका प्रतिरोधी न बन जाए ? मगर वैज्ञानिकों को अब यह आभास हो रहा है कि सिर्फ एंटीरिट्रोवायरल दवा देने से पूरा फायदा नहीं मिल पाता और मरीज टी.बी. का शिकार हो जाता है। अब विश्व स्वास्थय संगठन का स्पष्ट मत है कि टी.बी. पर नियंत्रण एड्स से संघर्ष में सबसे प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए।
इसके पूर्व एड्स के सिलसिले में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जो रिपोर्ट जारी की गई थी, तब यह दर्शाया गया था कि अफ्रीकी देशों में 38 लाख एड्स के रोगी हैं। 22 रोगियों की एड्स के कारण मौतें भी हुईं हैं। तब अफ्रीकी राष्ट्रपति और वहां के वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट को नकारते हुए एड्स के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया था। इस रिपोर्ट पर सख्त असहमति जताते हुए अफ्रीकी सरकार ने न तो इस जानलेवा रोग से निजात के लिए दवाएं उपलब्ध कराईं और न ही एड्स के विरूद्ध वातावरण बनाने के लिए जन-जागृति की मुहिम चलाई। बल्कि इसके उलट अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति थावो मुबेकी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 33 विशेषज्ञों का पेनल बनाया। इस पेनल की खात बात यह थी कि इसमें सेंटर फॉर मालीक्यूलर एंड सेलुलर बायोलॉजी, पेरिस के निदेशक प्रो. लुकमुरनिर भी शामिल थे। प्रो. लुकमुरनिर वही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. गैली के साथ मिलकर 1984 में एड्स के वायरस एच.आई.वी. का पता लगाया था। इसके साथ ही इस पेनल में अमेरीका, ब्रिटेन, भारत और अटलांटा के सी.डी.सी. के वैज्ञानिक डॉ. ऑन ह्यूमर भी शामिल थे।
इस पेनल ने अप्रैल 2001 में अपनी अति महत्वपूर्ण रिपोर्ट अफ्रीकी राष्ट्रपति को सौंपते हुए एड्स के वायरस एच.आई.वी. के अस्तित्व पर तीन सवाल उठाते हुए नये सिरे से इस पर अनुसंधान करने की सलाह दी थी। रिपोर्ट का पहला सवाल था कि सम्भावित एड्स पीड़ित रोगी में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होने की वास्तविकता क्या है, जिससे मौत होती है ? दूसरा, एड्स से होने वाली मौत के लिए किस कारण को जिम्मेदार माना जाए ? तीसरे, अफ्रीकी देशों में विपरीत सैक्स से एड्स फैलता है, जबकि पाश्चात्य देशों में समलैंगिकता से, यह विरोधाभास क्यों ? इस रपट में एड्स रोधी दवाओं की उपयोगिता पर भी सवाल उठाए गए हैं। दरअसल इस परिप्रेक्ष्य में दबी जुबान से वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि एड्स रोधी दवाओं के दुष्प्रभाव से भी रोगी के शरीर में प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होती जाती है और नतीजतन रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अब हमारे देश में हालात ऐसे बनाए जा रहे है कि एड्स रोधी दवाओं कि ज्यादा से ज्यादा खपत बड़े और रोगी तो रोगी आम आदमी भी पेंशन की लालच में इसकी गिरफ्त में आ जाएं।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
दिमाग के दरवाजे खोलने वाली पोस्ट है | आभार |
जवाब देंहटाएं"...हमारे देश में एड्स फैलने की जिस तरह से भयावह तसबीर पेश की जा रही है, वह बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का सुनियोजित षड्यंत्र व देश के आम, गरीब व लाचार नागरिकों से किया जा रहा छल है।"...
जवाब देंहटाएं---यह एक पूर्ण सत्य है--- एच आई वी यदि +व है तो भी उसका अर्थ एड्स नहीं है----यह सब विदेशी कम्पनियों द्वारा कुप्रचार ( जिसमें उनके देश भी शामिल होते हैं...) चलाया गया धन्धे- का जाल है जिसमें धन्धेबाज़ लोग शामिल हो जाते हैं---जब सारी एच आई वी किटें बन्द होजायंगी तो यह प्रचार भी बन्द होजायगा...
---भारत व अन्य विकास शील देशों को इस व्यर्थ के जाल में उलझाकर उन्हें अन्य बातों पर सोचने व उन्नति न करने देने का विकसित देशों का षडयन्त्र है यह--जिसमे ्हर एक-दो वर्ष बात एक नया हौवा खडा कर दिया जाता है कि वे इन देशों से आगे न बढें और हमारा बेचने का धन्धा चलता रहे....
आंखे खुल गयीं।
जवाब देंहटाएंइस बार के चर्चा मंच पर आपके लिये कुछ विशेष
जवाब देंहटाएंआकर्षण है तो एक बार आइये जरूर और देखिये
क्या आपको ये आकर्षण बांध पाया ……………
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (20/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
जागरुकता लाने वाली अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
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