सतीश वर्मा ने अपने कई काव्य संग्रह प्रकाशित किये हैं बड़ी उग्र और नितान्त मौलिक शैली में। आपको आघात लगता है, रोष उत्पन्न होता है और हिंसा क...
सतीश वर्मा ने अपने कई काव्य संग्रह प्रकाशित किये हैं बड़ी उग्र और नितान्त मौलिक शैली में। आपको आघात लगता है, रोष उत्पन्न होता है और हिंसा के साथ शब्द शब्द सामना होता है। कहीं अंगुली नहीं रख सकते लेकिन दिमाग घूम जाता है। सतीश वर्मा में बड़ी संवेदनशीलता मिलेगी जिससे जीवन की कुंठाओं, पीड़ाओं, दुविधाओं को बड़े सकारात्मक रूप से इन्होंने उभारा है, रास्ता ढूँढते हैं, अन्धेरे को चीरते हैं और हाथ पकड़ कर रोशनी की ओर मुड़ जाते हैं। लड़ाई है, ज़ख्म है, पीड़ा है परन्तु हारने की प्रकृति नहीं। जीवन के कटु सत्यों को झेला है परन्तु कभी भी छोटे रास्तों से समझौता नही किया। अपनी ईमानदारी की गठरी को सिर पर रख कर मंझधार पार की है। गिरे हैं, टूटे हैं, रक्तरंजित हुए हैं और फिर उठकर चल दिये हैं। आज की हिंसा, विध्वंस, विनाश को बखूबी समझा है, कविताचित्रों में इस त्रासदी को उकेरा है इसकी निष्फलता और निस्सारता को प्रदर्शित किया है। कहीं कहीं प्रकृति के बहुत सूक्ष्म सौन्दर्य को दिखाया है। इनके प्रतीक और बिम्ब अलौकिक हैं, बिल्कुल अभिन्न और अभूतपूर्व। यह अभिनव बिम्बों के समृद्ध शब्द शिल्पी हैं। कविताएं स्वत: स्फुरित, उद्भाषित दार्शनिक और विजनयुक्त एवं चिन्तनपरक हैं। सतीश वर्मा 35 वर्षों तक डीएवी कॉलेज, अजमेर में वनस्पति विज्ञान का अध्यापन करने के बाद अब अजमेर में ही एक चैरिटेबल संस्था सेवा मन्दिर फाउन्डेशन का संचालन कर रहे हैं।
प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ
आगमन
यह चाँद की चेतावनी
थी रात को
कि जुगनुओं का देह व्यापार बन्द कर दिया जाये
जब आकाश में हुए विस्फोट
को लाखों सितारे अचम्भित
हो कर देख रहे थे
मैं नींद के झोंकों में मस्त था और
नये प्रस्फुटित विचारों के होंठों से
विद्युत बीजों को चुन रहा था
शरीर की रेतघड़ी में
बालू खत्म हो गई थी
दूर था अस्थियों का किला
जो काली विषैली मकड़ियों के शरीर
पर चुना गया था और समुद्र धुन्ध को चाट रहा था
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एकाकीपन
जो हो रहा था, वो इतना क्रूर था
कि तुम जीने के लिये मौत
का निर्वासन करते हुए दंभ को
गले लगा रहे हों
एक नकल किसी प्रतिभा का ऐसा
गुणगान कर रही थी जैसे शब्द
बाल्टीभर झूठों पर गिर रहे थे
पीठ से पीठ मिला कर सूखे बाँध
टूटते जा रहे थे आप्लावित हो रहे थे
मनीषियों की जैसे पाषाणी शव-पेटिकाएं?
और वृक्षों के तनों पर वार्षिक वलय
और गहरे, कंगाली की काई में डूबे
उसके चाँद की किताब काली हो गई थी
विदा, न डूबने वाले अन्धकार
मैं अपने दुःख के अथाह सागर
में दुबारा जन्म ले रहा हूँ
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प्रतीक्षा
*ऑरकिअस के रास्ते मत जाओ
वो सोचता था, दोस्त सड़क पर अजनबियों की तरह
मिलते हैं, क्या निर्बाध अवर्तमान हवा
में एक बड़ा छेद ढूंढ सकेगा? सत्य का काल
बड़ी देर से उगता है; हवा में नहाये चन्द्रमा
को गवाह के रूप में बुलाता है
यह कम्पन बैंजनी डर को खौफ
की चलनी से आसवित कर लेगा
और नीले किनके गिरना शुरू होंगे
सहमति ने अब असत्यता का नया अर्थ
ढूँढ निकाला है, फिर झुकती है, सम्भवतः
एक वृहत सृष्टि के लिये
पागल करते मूक विरोधों के बीच में बच्चे की लाश
कचरे के ढेर पर मिली थी, शाकाहारी लोग कुछ नहीं कर रहे थे
तुम भी एक मृत शरीर की तरह कमज़ोर हो गये हो और
पट्टी बँधे चेहरे से आँखें नहीं खोलना चाहते
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*एक प्राचीन युनानी कवि
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उदासी के साथ
गुरदों की आग
टोकरी को जला रही थी
हरे अंगूठों की गोपनीयता
इसमें आत्मीय रूप से शामिल थी
आओ इस मोमबत्तियों के अभियान से
कलियों की खातिर भागीदारी करें
जो बूढ़े पक्षियों के लिये
खिल नहीं पाईं
उस शहीद का यह स्मृति-लेख मुझे
दुबारा पढ़ कर सुनाओ जिसने बहते
हुए दरिया के दर्द के कारण
किसी यश की कामना नहीं की
उस एकाकी बन्दे के उन्माद की हद
न रही जब गुलाब की क्यारी पर
एक बाँध ने सड़ी हुई लकड़ियाँ
उगल दीं
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अनूठी गूँज
होठों पर एक
चुम्बन स्पष्ट शैली में
एक सुगन्धित व्यवहार के साथ वापिस लौटता है
मैंने सुना नहीं
उन असीमित नज़रों के साथ, बेड़ियों
में जकड़ा एक कैदी जो आत्मरक्षा पर उतर आया था
लाल रंग के सारे छायाभास
सागर के ऊपर चले रहे थे
एक काली खोपड़ी पानी पर फिसलती है
रात पोर पोर में भर जाती है
तूफान काले हिरणों को मार रहा था,
शिकारी भाग रहे थे
वो मायावी
बड़े कपट से काम ले रहा था, तुम्हें
गृह-युद्ध में मरने वालों की सही संख्या कभी पता नहीं चलेगी
उसने वाणी के उपहार को कभी स्वीकार नहीं किया
शब्द और सीटियाँ अतियथार्थ की प्रतिध्वनियाँ थीं
और मुझे एक नाक तलवार की तरह दिखाई देती थी
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अवरोही
मैं अपने आप को तैयार कर रहा था अपमान
और सीने में दर्द के लिये, अनकटे बालों को काँटों की तरह परिरेखाओं पर
खड़ा करके, अज्ञात मोड़ों पर चाँद-नीली पहाड़ियों पर बादलों
का जीर्णोद्धार करते हुए, वृक्षों पर जलरंग बिखराते हुए, कोई
एक जना समाधि-स्थल के भीतर तूफान मचा रहा था, पीले कमरे में
एक फकीर के पदचिह्न थे, जो रहस्योद्घाटन के पश्चात आँखें
बन्द कर के शमशानों में चलता था, उसके चीथड़ों की अब
पूजा होती थी बाद के सालों में उसके टेक लगी देह के
अन्धेरों से रोशनी दमकने लगी थी गुलाब ही गुलाब चहुँ
ओर, वो जल्लाद से कह रहा था गीत के स्वर में कि खम्बे
कितने ऊँचे थे
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जयन्ती
तुम्हारे शरीर के चारों ओर
एक नैशसंगीत फैलाते हुए
मैं दंग रह गया
एक नागराज खड़ा हो गया था
हम दोनों के बीच में, जैसे एक बाँध क्रोध और उन्माद
में फट गया हो,
मैं शब्दों के साथ श्रद्धाहीन तरीके से खेलने लग गया था
एक काँच के मर्तबान में बड़ी बड़ी मकड़ियाँ
गोल भूरी आँखों से टकटकी बाँधे घूर रही थीं,
आह अब जघन दृश्य कष्टकारी है, सेक्स और पैसा
संगीत उन्माद में फेंका जाता है, अछूती कला पर
हमला हुआ है, अणु-अस्त्रों की दौड़ में संरक्षक अपने
पैंतरे बदलते हैं, एक गुनहगार का बयान था कि, क्या यह सड़क
का तमाशा था, या एक धूर्त का असमंजस, भूरी चमड़ी की
शिराओं में पर्याप्त रक्त नहीं था जो मन्दिर के फर्श
को रंग सके, मौत इन्तज़ार करेगी, पहिले जनता के सामने
फाँसी शुरू हो, हवाओं में फुसफुसाहट है कि पवित्र
धूर्तता का आखिरी उत्तरजीवी मर गया था
-
कड़कती गरमी
बेघर छत के नीचे, रोशनी
को कैद करते हुए, काफी नहीं था
सन्ताप में हुए एक जन्म की चीत्कार?
तिक्त वक्ष से होते हुए स्त्राव में
आखिर तुम ने गेंदे के फूलों के साथ गठबन्धन तोड़ दिया
नीललोहित आँखें, प्रक्षेपणास्त्र मृत्यु
की ओर धकेलते हुए, चीखें मैंने एक
पेपरवेट शिराओं के ऊपर रख दिया था ताकि
स्तनाग्रों से निकलता हुआ काला खून रूक जाये
सुबह, अभी बहुत दूर थी, मातृदेवी पृथ्वी की बर्फ
को साँस में खींच रही थी
-
क्षय
शाँति की कीमत होती है यादृच्छिक
इच्छाशक्ति के समुद्र द्वारा घुटने घुटने गहरे
खारे कीचड़ों में धकेली हुई ध्वंस के बाद,
हस्ती में हस्ती ताकि असहमति ज़िन्दा रहे
मुझे बताओ मृत्यु के बीच में तुम रोशनी की
चाप में कैसे पहुँचे रक्तिम जल की ठन्डी खुशियाँ
में डुबकी लगाते हुए? प्रचलित निवर्तन अन्तहीन
गिनतियों को छितरा गया है अनन्त क्षणों में
स्थायित्व और कपट की बात करें, एक ही चेहरा
एक वक्त में दो कैनवसों में विद्यमान था,
समुद्री शैवाल में अवसाद विजयी हो रहा था
और वृक्षीय चाँद के लिये रात बूँद बूँद झर रही थी
जब पक्षियों के घरौदों में भविष्य आयेगा
तो में कोयल के अन्डे ढूंढूंगा, इससे पहिले
मैं तुम्हें दुबारा जान सकूँ एक छिपे हुए चुम्बन
के लिये कीटभक्षी वीनस फ्लाईट्रेप अपनी मधु ग्रन्थियाँ खोल देगी
-
*संघात
उसने मुझे उत्तेजित कर दिया है
अब मैं एक कविता लिखूँगा
प्रलापी चाँद ने मुझे
त्वचा के नीचे से निकाल कर बीन लिया था
सुरक्षा-पिन टूट गई थी
अब भीड़ मुझे नंगा कर देगी
जब जब मेरा दर्द तुम्हें रुला जाता है
तब यह नांरगियाँ नहीं बिकेंगी
एक कौलीजियम तो ज़ख्मों को सी लेगा
किन्तु एक जाति के नाम पर देश बलि चढ़ जायेगा
सतीश वर्मा
* ‘साइमोन म्यूनिच’ का काव्य संग्रह ‘आरेन्ज क्रश’ पढ़कर
पहली कविता मुकम्मल तौर से पढी है, अति उत्तम ।
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