हमारे देश में रोटी और रोजगार का सबसे बड़ा संसाधन बनी भूमि की गुणवत्ता अथवा उसकी बिगड़ती सेहत को जांचने का अब तक कोई राष्ट्रव्यापी पैमाना ...
हमारे देश में रोटी और रोजगार का सबसे बड़ा संसाधन बनी भूमि की गुणवत्ता अथवा उसकी बिगड़ती सेहत को जांचने का अब तक कोई राष्ट्रव्यापी पैमाना नहीं है। जबकि देश की कुल आबादी में से सत्तर फीसदी आबादी कृषि और प्राकृतिक संपदा से रोजी-रोटी जुटाती है। भूमि की उर्वरता और क्षरण को लेकर टुकड़ों में तो आकलन आते रहते हैं लेकिन इस स्थिति की वास्तविक हालत का खुलासा करने वाला कोई एक मानचित्र देश की जनता के सामने पेश नहीं किया गया। हालांकि अशासकीय स्तर पर इस मांग की आपूर्ति अहमदाबाद की संस्था ‘स्पेस एप्लिकेशन सेंटर' ने सत्रह अन्य इसी काम से जुड़ी एजेंसियों के साथ मिलकर की है। जमीन की सेहत से जुड़ा यह शोध बताता है कि आधुनिक व औद्योगिक विकास, जल व वायु प्रदूषण और कृषि भूमि में खाद व कीटनाशकों के बढ़ते चलन ने किस तरह से उपयोगी भूमि को रेगिस्तान में तब्दील करने का सिलसिला जारी रखा हुआ है। यदि जमीन की गुणवत्ता और क्षरण रोकने के उपाय राष्ट्रीय स्तर पर जल्दी एक अभियान के रुप में शुरु नहीं किये गये तो देश की एक बड़ी आबादी आजीविका का संकट के दायरे में तो आएगी ही देश की जैव-विविधता भी खतरे में पड़ जाएगी।
‘स्पेस एप्लिकेशन सेंटर' द्वारा किए शोध के मुताबिक राजस्थान का 21.77 प्रतिशत, जम्मू और कश्मीर का 12.79 प्रतिशत और गुजरात में 12.72 प्रतिशत क्षेत्र रेगिस्तान में बदल चुका है। मध्यप्रदेश में चंबल के बीहड़ पिछले 60 साल में 45 प्रतिशत बढ़े हैं। महाराष्ट्र में विदर्भ और उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश में बुंदेलखण्ड क्षेत्र की कृषि का अनावृष्टि के कारण तेजी से क्षरण हो रहा है। वहीं भू-जल के बेतहाशा दोहन और अल्पवर्षा के चलते खेतों में दस सेंटीमीटर नीचे एक ऐसी कठोर परत बनती जा रही है जो कालांतर में फसल की उत्पादन क्षमता को प्रभावित करेगी।
रेगिस्तान के विस्तार की तह में अतिवृष्टि और अनावृष्टि का चक्र तो है ही 1999 के बाद से मानसून की दगाबाजी ने उपजाऊ भूमि को बंजर भूमि में बदल देने का काम किया है। इन्हीं वजहों से देश के पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्र भूमिक्षरण के प्रभाव में आए। जंगलों का विनाश, चरनोई की भूमि को कृषि व आवासीय भूमि में तब्दील करना और एक तरह की फसल पैदा करने के बढ़ते चलन से भूमि की सेहत बिगड़ी। कुछ ऐसी ही वजहों के चलते बर्फीली वादियों से लेकर घने वनों वाले क्षेत्र भी फैलते रेगिस्तान की गिरफ्त में आ गए।
जिस हरित क्रांति के बूते पंजाब को भारत का अनाज भंडार का दर्जा हासिल हुआ, वही पंजाब आज रासायनिक खादों का बेतहाशा उपयोग करने के कारण बड़ी तादाद में अपनी कृषि भूमि बरबाद कर चुका है। देश के कुल कृषि क्षेत्र का 1.5 प्रतिशत भाग पंजाब के हिस्से में है जबकि देश में कीटनाशकों की कुल खपत का 18 फीसदी उपयोग पंजाब के किसान करते हैं। इसी तरह पंजाब के मालवा क्षेत्र का कपास क्षेत्र पूरे पंजाब का केवल 15 फीसदी है, जबकि यहां पंजाब के कुल कीटनाशकों की खपत 70 फीसदी है। पंजाब के मालवा का क्षेत्र देश के कुल भू-भाग का मात्र 0.5 भाग है, जबकि यहां देश में कुल खपत होने वाले कीटनाशकों की 10 फीसदी खपत होती है। जिस भांखड़ा नांगल बांध को हम पंजाब की उन्नत खेती का आधार मानते हैं, इस बांध से जल रिसाव के चलते पंजाब की अब तक ढ़ाई लाख हेक्टेयर कृषि भूमि दलदल में तब्दील हो चुकी है।
कृषि के आधुनिकीकरण व यांत्रिकीकरण ने भी भूमि की सेहत को बिगाड़ने का काम किया है। इस बाबत ग्वालियर चंबल क्षेत्र में किए गए एक शोध के मुताबिक इस अंचल की भूमि में दो तरह के विकार पैदा हुए हैं। एक कृषि भूमि की सतह में दस सेंटीमीटर नीचे एक कठोर परत (हार्ड-लेयर) बन गई है। दूसरे, भू-गर्भ में करीब एक सौ मीटर की गहराई पर पानी से भरी रहने वाली जगह (पोर-स्पेस) रिक्त पड़ी है। क्षेत्रीय पर्यावरण में आए ये परिवर्तन भू-गर्भीय अथवा सतह पर भूकंप जैसी हलचल की वजह भी बन सकते हैं। डिस्कवरी चैनल द्वारा इस क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन के प्रस्तुतिकरण ने भी दावा किया है कि चंबल व ग्वालियर अंचल में तेजी से रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है।
इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसा परंपरागत खेती को नकारने से हुआ। पहले हलों से खेतों की जुताई होती थी लेकिन अब हैरो, कल्टीवेटर और प्लाऊ जैसे उपकरणों से जुताई हो रही है। ये जमीन को आठ से बारह सेंटीमीटर तक गहरा जोत कर भूमि की उपरी परत को उधेड़ कर पलट देते हैं। नतीजतन मिट्टी सूख कर शुष्क होती जा रही है और वहीं इसके नीचे की परत कठोर। यह परत अब इतनी कठोर हो गई है कि खेतों की मिट्टी का आनुपातिक कुदरती जैविक समीकरण ही गड़बड़ा गया है।
इस अंचल की उस कृषि भूमि में ये लक्षण देखने में आए हैं जो सबसे ज्यादा उपजाऊ मानी जाती है। ये इलाके तंवरघार के मैदानी खेत, चंबल के पठारी क्षेत्र और डबरा-भितरवार की उपजाऊ पट्टी हैं। इसी क्षेत्र में जल संकट भी बढ़ता जा रहा है। जबकि इस क्षेत्र में नदियों और नहरों का जाल बिछा होने के बावजूद जल संरक्षण नहीं हो पा रहा है। कठोर परत जल को नीचे नहीं उतरने देती। इस कारण अतिरिक्त पानी बहकर बरबाद हो जाता है। कुछ ऐसी ही वजहों से भूमि व जल संरक्षण की खेत व तालाब जैसी वैज्ञानिक योजनाएं भी अवैज्ञानिक साबित हो रही हैं। मिट्टी की उर्वरता प्रभावित हो रही है। इसके विपरीत फसल को नुकसान पहुंचाने वाली खरपतवार नष्ट नहीं हो रही।
इन हालातों से भी बड़ा संकट इस क्षेत्र में यह उपजा है कि वे स्थल जो कुछ समय पहले तक पानी से लबालब भरे रहते थे, वे तीस से एक सौ मीटर तक खाली हो चुके हैं। ये खाली स्थान (एक्वीफर) अब प्राकृतिक भू-गर्भीय संरचना के लिए संकट बन रहे हैं। वैज्ञानिक तो यहां तक आशंका जता रहे हैं कि ये विकराल स्थितियां भूकंप को भी आमंत्रण दे सकती हैं। कठोर परत के वजूद में आ जाने से जलभरण के सभी उपाय खारिज होते चले जा रहे हैं।
इधर चंबल क्षेत्र में भूमि के लगातार बिगड़ रहे पर्यावरण ने बीहड़ों के विस्तार का ऐसा भयावह सिलसिला जारी रखा हुआ है जो गांव के गांव लीलता जा रहा है। इस अंचल के भिण्ड, मुरैना और श्योपुर जिलों में हर साल पन्द्रह सौ एकड़ भूमि बीहड़ में तब्दील हो रही है। इन जिलों की कुल भूमि का 25 फीसदी हिस्सा बीहड़ों का है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चंबल नदी घाटी क्षेत्र में 3000 वर्ग किलोमीटर इलाके में बीहड़ों का विस्तार है। इन तीनों जिलों के क्षेत्र में जितनी भी छोटी-बड़ी नदियां बहती हैं, वे जैसे बीहड़ों के निर्माण के लिए अभिशप्त हैं। चंबल में 80 हजार, कुआंरी में 75, आसन में 2036, सीप में 1100, बैसाली में 1000, कूनों में 8072, पार्वती में 700, सांक में 2122 और सिंध में 2032 हेक्टेयर बीहड़ हैं। बीते आठ सालों में करीब 45 प्रतिशत बीहड़ों में वृद्धि दर्ज की गई है। इन बीहड़ों का जिस गति से विस्तार हो रहा है, उसके मुताबिक 2050 तक 55 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बीहड़ों में तब्दील हो जाएगी। नतीजतन करीब दो हजार आबाद गांव बीहड़ लील लेंगे। इन बीहड़ों का विस्तार एक बड़ी आबादी के लिए विस्थापन का संकट पैदा करेगा।
जमीन की सेहत अब प्राकृतिक कारणों की तुलना में मानव उत्सर्जित कारणों से ज्यादा बिगड़ रही है। पहले भूमि का उपयोग रहवास और कृषि कार्यों के लिए होता था, लेकिन अब औद्योगीकरण, शहरीकरण बड़े बांध और बढ़ती आबादी के दबाव भी भूमि को संकट में डाल रहे हैं। जमीन का खनन करके जहां उसे छलनी बनाया जा रहा है, वहीं जंगलों का विनाश करके जमीन को बंजर बनाए जाने का सिलसिला जारी है। जमीन की सतह पर ज्यादा फसल उपजाने का दबाव है तो भू-गर्भ से जल, तेल व गैसों के अंधाधुंध दोहन के हालात भी भूमि पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में सिंचाईं के जो आधुनिक संसाधन हरित क्रांति के उपाय साबित हुए थे, वही उपाय खेतों में पानी ज्यादा मात्रा में छोड़े जाने के कारण कृषि भूमि को क्षारीय भूमि में बदलने के कारक सिद्ध हो रहे हैं। दरअसल अलग-अलग क्षेत्रों में भूमि की सेहत अलग-अलग कारणों से प्रभावित हो रही है। जिसकी देशव्यापी पड़ताल अब तक नहीं हुई है। धरती की बिगड़ती इस सेहत को मानचित्र पर लाना जरुरी है। जिससे आजीविका के संकट से जूझने जा रही आबादी को बचाने के माकूल उपाय तलाशे जा सकें ?
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
सही मुद्दा है और सटीक लेख। बहुत अच्छा लिखा है।
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