“…देश के लोकतांत्रिक इतिहास में 7 दिसम्बर 2010 मंगलवार एक ऐसा ऐतिहासिक दिन साबित हुआ है , जिस दिन तमाम मुगालते टूटे। भारतीय प्रशासनिक सेव...
“…देश के लोकतांत्रिक इतिहास में 7 दिसम्बर 2010 मंगलवार एक ऐसा ऐतिहासिक दिन साबित हुआ है, जिस दिन तमाम मुगालते टूटे। भारतीय प्रशासनिक सेवा की एक ऐसी अनूठी महिला सख्श नीरा यादव को चार साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई, जिसने देश की पहली आईएएस महिला बनने का गौरव हासिल करते हुए योग्यता के क्षेत्र में अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया था।…”
भ्रष्टाचार को अमरबेल बना देने वाले आला नौकरशाह अब दंडित होने लगे हैं। बेबस नागरिकों को यह खबर निश्चित रूप से सुकून देने वाली है। भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को ऐसे ही कठोर और दूरगामी फैसलों से सार्थक अंजाम तक तो पहुंचाया ही जा सकता है, जनता में यह भरोसा भी पैदा किया जा सकता है कि जनता दबाव बनाए और कानून साथ दे तो भ्रष्ट से भ्रष्ट तीसमारखां भी सीखचों के पीछे होंगे। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में 7 दिसम्बर 2010 मंगलवार एक ऐसा ऐतिहासिक दिन साबित हुआ है, जिस दिन तमाम मुगालते टूटे। भारतीय प्रशासनिक सेवा की एक ऐसी अनूठी महिला सख्श नीरा यादव को चार साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई, जिसने देश की पहली आईएएस महिला बनने का गौरव हासिल करते हुए योग्यता के क्षेत्र में अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया था। इसी दिन मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के पूर्व जिलाधीश जगदीश शर्मा के विरूद्ध 35 लाख के छपाई घोटाले में झाबुआ थाना में प्राथमिकी दर्ज कर ली गई। इसी सोमवार 6 दिसंबर को मध्यप्रदेश के देवास की जिला अदालत ने एक मामले में लोक निर्माण विभाग, शाजापुर के उपयंत्री प्रीतमसिंह पर पांच करोड़ का जुर्माना और तीन वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाकर अनुकरणीय पहल की है। इन फैसलों ने बहतरीन नजीर पेश करते हुए इस भ्रम को तोडा़ है कि किसी आईएएस अफसर को सजा नहीं हो सकती ? क्योंकि यह देश के न्यायपालिका के इतिहास में पहला प्रकरण है जिसमें आईएएस को सजा सुनाने के साथ ही तत्काल जेल भी भेज दिया गया। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में प्रीतमसिंह को दी गई सजा भी ऐसी जुदा सजा है, जिसमें शारीरिक तौर से सजा भुगतने के बावजूद प्रीतमसिंह की संपत्ति जब्त रहेगी। इस तरह के मामलों में अब तक ऐसी सजाएं नहीं सुनाई गई हैं। निश्चित रूप से ये सजाएं भ्रष्टाचारियों के मन में खौफ पैदा करेंगी और किसी हद तक बेलगाम भ्रष्टाचार पर अंकुश भी लगेगा। लेकिन जो वैकल्पिक कानून भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं, उनमें यदि कसावट और ला दी जाए तो देश भ्रष्टाचार से मुक्ति की दिशा में मुड़ सकता है।
अब तक अखिल भारतीय सेवा के जितने भी अधिकारी जांच की जद में आए हैं, वे उन जनहित याचिकाओं की देन हैं, जिन्हें आधार बनाकर सर्वोच्च न्यायालय ने इजाजतें दी हैं। अब सजायाफ्ता नीरा यादव के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद प्रकरण संज्ञान में लिया गया था। न्यायालय के निर्देश पर ही उन्हें उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव पद से बेदखल होना पड़ा था। हालांकि उत्तरप्रदेश आईएएस एसोशिएशन ने महाभ्रष्ट अधिकारियों की सूची में उन्हें पहली पंक्ति में रखा था। उन पर 23 विभागीय जांचें भी लंबित थीं और सीबीआई के पांच आरोप-पत्रों में उनका नाम था। इस सब के बावजूद हमारा कानून आला अफसरों का इतना महफूज सुरक्षा कवच है कि दागी से दागी अफसरों को प्रशासन हटाने में नाकाम सिद्ध होता है। इस बाबत केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस के सिलसिले में हम देख ही रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट की लगातार फटकारों के बावजूद थॉमस को पदच्युत करने में केंद्र सरकार लाचार नजर आ रही है। इस एक बानगी से साबित होता है कि देश में नौकरशाही को संवैधानिक संरचना कितनी मजबूत सुरक्षा देती है। इसलिए इन फैसलों को नजीर मानते हुए एक ऐसी स्वस्थ बहस शुरू हो, जिससे वे लौह कवच तार-तार हों जो नौकरशाहों को कानूनी सुरक्षा देते हैं। क्योंकि गुनहगारों को फिलहाल भले ही निचली अदालतों ने कठोर सजा दे दी हो, लेकिन उनका संवैधानिक अधिकार बनता है कि वे इन आदेशों को उच्च न्यायालयों में चुनौती दें और कानून में उपलब्ध विकल्प के रास्ते दोष मुक्त हो जाएं।
कुछ समय पहले सीबीआई ने केंद्रीय विधि और कार्मिक मंत्रालय को सिफारिश की थी कि यदि सरकार भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन चाहती है तो सरकारी अधिकारी व कर्मचारियों द्वारा भ्रष्ट आचरण से अर्जित संपत्ति को जब्त करने की कवायद तेज हो। इस लक्ष्यपूर्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 310 और 311 में भी बदलाव की जरूरत जताई गई थी। क्योंकि यही दो अनुच्छेद ऐसे सुरक्षा कवच हैं जो देश के लोकसेवकों के कदाचरण से अर्जित संपत्ति को संरक्षित करते हैं। अभी तक भ्रष्टाचार निवारक कानून में इस संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान नहीं है। इसलिए उपयंत्री प्रीतमसिंह के खिलाफ देवास के विशेष प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश पीके व्यास ने अनुपात हीन संपत्ति जब्त करने का जो फैसला सुनाया है, अपील की सुनवाई में ऊपर की अदालत उसे खारिज कर देगी, ऐसी प्रबल आशंका खड़ी होती है।
दरअसल इन अनुच्छेदों में भ्रष्टतंत्र को नेस्तनाबूद कर देने की परछाईं में बड़ी साफगोई से प्रशासनिक सुधार आयोग के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय लोकायुक्त' का गठन किए जाने का जो विचार थोपा जा रहा है, उससे विरोधाभास उत्पन्न हुए और मामला ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। राष्ट्रीय लोकायुक्त के वजूद के औचित्य पर सवाल इसलिए उठाए गए क्योंकि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के बहाने अब तक जितने भी आयोग और परिषदें अस्तित्व में लाए गए हैं, वे सब जनता पर सफेद हाथी ही साबित हुए हैं। इसलिए इन ताजा फैसलों की रोशनाई में जरूरी हो जाता है कि अनुच्छेद 310 एवं 311 को परिवर्तित किया जाकर लोकसेवकों से जुड़ी सेवाशर्तों को नए सिरे से परिभाषित किया जाकर उन्हें जनहित में जवाब दे और परिणामोन्मुखी बनाया जाए।
क्योंकि इन अनुच्छेदों में निर्धारित प्रावधानों के चलते ही ताकतवर नेता और प्रशासन जांच एजेंसियों को प्रभावित तो करते ही हैं तथ्यों व साक्ष्यों को भी कमजोर करते हैं। भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों में सीबीआई भी भरोसेमंद व मजबूत गवाहों की तुलना में संख्या की दृष्टि से ज्यादा गवाहों को तरजीह देती है। फलस्वरूप मामला लंबा खिंचता है और गवाहों के बयान विरोधाभासी स्थिति निर्मित करते हैं। जिसका लाभ भ्रष्टाचारी उठाता है। इसके बनिस्बत मामले से सीधे जुड़े इक्का-दुक्का गवाहों को ही तरजीह दी जाए। वैसे भी सक्षम व चश्मदीद गवाहों के बयान ही गुनाह को साबित करने के लिए पर्याप्त होते है। हालांकि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में दस्तावेजी साक्ष्य ही अपराध की पुष्टि करने वाले प्रबल व प्रमुख साक्ष्य होते हैं।
कुछ ऐसे ही कारणों के चलते हमारी अदालतों में भ्रष्टाचार से जुड़े नौ हजार से भी ज्यादा मामले लंबित हैं। मायावती और मुलायम सिंह यादव की आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में सीबीआई तेजी नहीं दिखा पा रही है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सर्वेसर्वा ए राजा के ठिकानों पर सीबीआई ने तब छापे डाले, जब सर्वोच्च न्यायालय ने फटकारों की इंतिहा कर दी। इन बाधाओं से ही मुक्ति का उपाय ‘राष्ट्रीय लोकायुक्त' के गठन के वजूद में देखा जा रहा है। इसके अधीन प्रधानमंत्री को छोड़कर सभी केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त सभी पद और पदासीन व्यक्ति आएंगे। इसी के मातहत देश भर में 72 नई अदालतों का ढांचा खड़ा करने का प्रावधान है। करोड़ों-अरबों रूपए खर्च कर अस्तित्व में लाई जाने वाली यह संस्थागत संरचना भ्रष्टाचार संबंधी मामलों में सीबीआई की तेज गति से मदद करेगी और फिर सीबीआई अदालतें मामलों का निपटारा करेंगी। मामलों के त्वरित निराकरण के ऐसे दावे किए जा रहे हैं।
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में न्यायालयों फैले भ्रष्टाचार पर चिंता जताई है। क्योंकि देश में संपत्ति बनाने के लालच से अब न्यायालय भी मुक्त नहीं रह गए हैं। लेकिन मानहानि के भय से अदालतों में फैला भ्रष्टाचार सार्वजनिक नहीं हो पाता। लिहाजा इस कालिख का खुलासा खुद देश की शीर्ष न्यायालय ने कर दिया। यहां इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों की नैतिकता व ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं। न्यायालयों में न्याय की पवित्रता स्थापित करने की दृष्टि से यह दलील मिसाल बन सकती है। सुप्रीम कोर्ट के ही सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने भ्रष्टाचार को विधि के शासन और लोकतंत्र के लिए खतरनाक तो माना था, लेकिन जब अदालतों को राष्ट्रीय लोकायुक्त और सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की वकालत एक मानवाधिकार संगठन ने जनहित याचिका के माध्यम से की तो उसे खारिज कर दिया गया। इस याचिका के जरिये सूचना के अधिकार के तहत सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की पारिवारिक संपत्ति का ब्यौरा तलब करने की मांग की गई थी। न्यायमूर्ति बालकृष्णन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया था कि उनका कार्यालय सूचना के अधिकार से इसलिए बाहर है, क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर आसीन हैं। जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका को सूचना के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समिति ने यह दलील भी रेखांकित की है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी आखिरकार लोकसेवक ही हैं। लिहाजा सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए। मसलन संसद न्यायपालिका को कोई दिशा निर्देश नहीं दे सकती, क्योंकि यहां न्यायपालिका का विवेक यह मानता है कि वह सूचना के अधिकार से परे है। यहां गौरतलब यह है कि जब सूचना का अधिकार विधायिका और कार्यपालिका पर लागू हो सकता है तो न्यायापालिका पर क्यों नहीं ? यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वेसर्वा है तो भारतीय नागरिक को न्यायपालिका के क्षेत्र में भी जानकारी मांगने का अधिकार हासिल होना चाहिए ? जिससे सुप्रीम कोर्ट ने न्यायालयों में बढ़ते भ्रष्टाचार की जो आशंका जताई है उस पर अंकुश लगाने का रास्ता साफ हो।
वैसे भी हमारे देश में न्यायालयों में बरती जाने वाली अनैतिक गड़बड़ियों के आरोपों पर कार्रवाई करने के नजरिये से कोई न्यायिक-प्रशासनिक ढांचा अस्तित्व में नहीं है। इस कारण आरोपों को सच्चाई की कसौटी पर परखने की प्रणाली को गति नहीं मिला पाती। किसी न्यायाधीश को पद से पृथक करने का एक ही संवैधानिक विकल्प, संबंधित के विरूद्ध संसद में महाभियोग लाना है। लेकिन इस पहल के क्रियान्वयन के लिए जरूरी है कि लोकसभा में कम से कम सौ अथवा राज्य सभा में न्यूनतम पचास सदस्यों की सहमति हासिल हो। इस वजह से यह प्रावधान बेहद पेचीदा है। लिहाजा इस संदर्भ में स्वतंत्र भारत में इसका उपयोग कभी नहीं हुआ।
कुछ समय पूर्व ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया सेंटर फॉर मीडिया स्टेडीज ने एक अध्ययन में पाया था कि हमारे देश में एक साल के भीतर गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों को मूलभूत, अनिवार्य व जनकल्याणकारी सेवाएं प्राप्त करने के लिए तकरीबन नौ सौ करोड़ रूपए की रिश्वत देनी पड़ती है। भ्रष्टाचार संबंधी एक दूसरे अध्ययन में 11 सरकारी सेवाओं का अध्ययन किया गया। जिसमें पुलिस में सबसे अधिक भ्रष्टाचार पाया गया। 2007 में 5 करोड़ 60 लाख परिवारों का वास्ता पुलिस से पड़ा, जिसमें ढ़ाई करोड़ लोगों को 215 करोड़ रूपए रिश्वत में देने पडे़। यह सच्चाई सांस्कृतिक रूप से सभ्य, मानसिक रूप से धार्मिक और भवनात्मक रूप से कमोबेश संवेदनशील समाज के लिए सिर पीट लेने वाली है। इन अध्ययनों ने प्रकारांतर रूप से यह तय कर दिया है कि हमारे यहां राजस्व व पुलिस प्रशासन के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली, ग्रामीण रोजगार गारंटी, मध्यान्ह भोजन, भोजन का अधिकार और शिक्षा व स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं किस हद तक जमीन स्तर पर लूट व भ्रष्टाचार का हिस्सा बनी हुई हैं।
भ्रष्टाचार के ऐसे ही उपायों के चलते भारतीय चिकित्सा परिषद् के पूर्व अध्यक्ष केतन देसाई के घर 1800 करोड़ की संपत्ति मिलती है। मध्यप्रदेश के आईएस दंपत्ति टीनू-आनन्द जोशी के घर में 10 करोड़ नगदी के साथ अरबों की अन्य चल-अचल संपत्ति मिलती है। मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य आयुक्त योगीराज शर्मा के घर से भी करोड़ों का पिटारा बरामद होता है, इसके बावजूद वे बहाल होकर फिर स्वास्थ्य संचालनालय में पदस्थ हो जाते हैं। दरअसल हमारे यहां इन जैसे भ्रष्टाचारियों के लिए अस्तित्व में बनी समानांतर विभिन्न जांचें और वैकल्पिक कानून अपराधी को दण्ड दिलाने की बजाए उन्हें आरोप से मुक्ति के वैकल्पिक उपाय बन रहे हैं। ये सुविधाएं न्यायप्रणाली को लंबा तो खींचती ही हैं, भ्रष्टाचार की कमाई भी इन्हें दोष मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करने में सहायक बनती है। लिहाजा प्रजातांत्रिक मूल्यों में भ्रष्टाचार का सर्वव्यापी हस्तक्षेप राष्ट्रघाती है। यह सामाजिक सद्भाव को खंडित करने का काम करने के साथ उसे विषम भी बनाता है। ये अवैधानिक दखल लोकतांत्रिक और आर्थिक प्रक्रिया में बहुसंख्यक लोगों को भागीदारी से वंचित भी करते हैं। गोया, भ्रष्टाचार संबंधी कानून-कायदों को पेचीदगियों से मुक्त कर एक सीधी सरल रेखा में लाया जाना जरूरी है। इस सिलसिले में इन ताजा फैसलों को बतौर नजीर इस्तेमाल किया जा सकता है।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
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