खुली अर्थव्यवस्था और उदारवादी नीतियों को कानूनी-आधार देते वक्त इनकी वकालत करने वालों का दावा था कि इन नीतियों में उदारता व शिथिलता बरती ...
खुली अर्थव्यवस्था और उदारवादी नीतियों को कानूनी-आधार देते वक्त इनकी वकालत करने वालों का दावा था कि इन नीतियों में उदारता व शिथिलता बरती जाती है तो प्रशासन पारदर्शी बनेगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत, कायदे-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए प्रशासनिक अमले में मनमाने ढंग से काम करने की प्रवृत्ति पनपी। नौकरशाहों ने या तो राजनीति से प्रेरित होकर कार्यों को अंजाम दिया अथवा निरंकुश भ्रष्टाचार के लिए फाइलों को गति दी। नौकरशाही प्रशासनिक नीतियों के क्रियान्वयन तक ही सीमित न रहकर संसद और विधायिका के नीति निर्धारण में न केवल संपूर्ण हस्तक्षेप करती है, बल्कि उन्हें ऐसा मोड़ देती है कि उनकी न तो कोई जवाबदेही सुनिश्चित हो और न ही कार्य की समय-सीमा का निर्धारण हो ? लिहाजा देश में जब-जब घोटालों महा-घोटालों का पर्दाफाश हुआ है उसमें राजनेता तो कठघरे में खड़े हुए हैं लेकिन इस आदमकद शख्सियत नेता की परछाई में कुटिल बुद्धि के चालाक नौकरशाह साफ-साफ बच निकलते हैं। लिहाजा पीजे थॉमस जैसे नौकरशाह पामोलिन तेल निर्यात घोटाले में नामजद होने के बावजूद केंद्रीय सतर्कता आयुक्त जैसे गौरवशाली पद पर सिंहसनारूढ़ हो जाते हैं। उन पर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी शामिल होने का आरोप है। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने जिस आवास ऋण घोटाले से पर्दा उठाया है, जिसमें बरते गए भ्रष्टाचार में बैंकों और भारतीय जीवन बीमा आवास निगम ऋण योजना के आला अफसर लिप्त हैं, के बाबत योजना आयोग ने बड़ी सहज सरलता से कह दिया कि यह रिश्वत से जुड़ा मामूली मामला है। इससे बैकिंग व्यवस्था के बंटाधार हो जाने का कोई खतरा नहीं है। जबकि गौरतलब यह है कि अमेरिका में मंदी की शुरूआत आवास ऋण बैंकों द्वारा कर्ज वसूली नहीं कर पाने के कारण ही हुई थी। वैसे भी भ्रष्टाचार बड़ा हो या छोटा, यदि हम उसे प्रोत्साहित करेंगे तो भ्रष्टाचार की पैठ गहरी होगी और उसके विस्तार में व्यापकता आएगी।
वर्तमान में हमारे देश में घोटालों के परत दर परत खुलते जाने का सिलसिला जारी है। यहां तक की सुरक्षा और विदेश सेवा तंत्र से जुड़ी माधुरी गुप्ता और रविंदर सिंह जैसे अफसर देश की गोपनीयता भंग कर राष्ट्रघाती कदम उठाने से भी नहीं हिचकते। मुबंई विस्फोटों में इस्तेमाल किया गया आरडीएक्स घूस का ही दुष्परिणाम था। आंतकवादियों और माओवादियों के पास से भी सेना व पुलिस के जो हथियार बरामद किए गए हैं, उससे जाहिर होता है कि भ्रष्टाचार भारतवासियों की रक्त धमनियों में सिर से पैर तक दौड़ रहा है। लिहाजा भ्रष्टाचार के ऐसे भयावह परिप्रेक्ष्य में इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह कहना कि घोटाले ऐसे दुःस्वप्न बन चुके हैं कि वे राष्ट्र निर्माताओं के सपनों पर ही कुठाराघात नहीं करते, बल्कि देश को भी तोड़ देने वाला खतरा साबित हो सकते हैं।
बीते तीन-चार महिनों के भीतर ही राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला आदर्श सोसायटी घोटाला और आवास ऋण घोटाला सामने आए हैं। इनमें राजनेता, नौकरशाह और कुछ सैन्य अधिकारियों की साठगांठ व लिप्तता भी साफ हो चुकी है। इनके खुलासे के बाद सुरेश कलमाड़ी, अशोक चव्हाण और ए. राजा जैसे राजनेताओं पर तो गाज गिर चुकी है, लेकिन कोई आईएएस, आईपीएस अथवा सेना अधिकारी की बर्खास्तगी तो छोड़िए मुअत्तली भी हुई हो, ऐसी जानकारी नहीं आई। इससे साफ होता है कि हमारा कानून भ्रष्ट से भ्रष्टतम अधिकारी को भी संरक्षण देता है। नतीजतन खुली अर्थव्यवस्था का उदारवाद जहां भ्रष्टाचारी की भ्रष्ट स्रोतों से आर्थिक ताकत बड़ा रहा है, वहीं किसी भी प्रकार की जवाबदेही से भी चिंता मुक्त बनाए रखने का काम कर रहा है। चूंकि राजनेता को उत्तरदायित्व की कठोर परीक्षा के दौर से गुजरना होता है लेकिन नौकरशाहों को अपने तीस-पेंतीस साल के कार्यकाल में जनता के बीच कोई अग्निपरीक्षा नहीं देनी होती है, इसलिए यदि उसके चरित्र में भ्रष्टाचार के बीज वटवृक्ष का रूप ले चुके हैं तो ये उसके स्वभाव को अंहकारी तो बनाते ही है, निरंकुश भी बना देते हैं। नतीजतन ताकत से ताकतवर नौकरशाह के समक्ष मजबूत से मजबूत राजनीतिज्ञ हस्ती बौनी नजर आती है। मतदाता का सामना किए बिना मनमोहन सिंह जैसे नामित प्रधानमंत्री के कार्यकाल में इस नौकरशाही की निर्मम निरंकुशता और परवान चढ़ी है। गोया, उदारवादी अर्थव्यवस्था ने कर्त्तव्यनिष्ठ व ईमानदार अधिकारी और पक्षपाती व बेईमान अधिकारी के बीच के अंतर को ही समतल कर दिया है।
कुछ ऐसे ही हालातों का दुष्परिणाम केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पदासीन पीजे थॉमस को लेकर है। केंद्र सरकार बखूबी जानती थी कि थॅमस केरल पॉम तेल घोटाले के आरोप में नामजद होने के साथ स्पेक्ट्रम घोटाले में भी शामिल हैं। बावजूद नैतिकता के सभी तकाजों को धता बताकर भ्रष्ट व निरंकुश अधिकारी को प्रतिष्ठापूर्वक लाभान्वित किया गया। इस तैनाती से दो बातें परिलक्षित होती हैं, एक दुर्बल और लाचार राजनीतिक नेतृत्व पर नौकरशाही कितनी हावी है ? दूसरे, सीवीसी के मातहत काम करने वाली सीबीआई को अपने राजनीतिक मकसदों की पूर्ति के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जा सके ? प्रजातांत्रिक संस्थाओं को राजनीतिक हित-साध्य के दृष्टिगत कैसे साधन बनाया जाता है, इस संदर्भ में यह अलोकतांत्रिक कदाचरण एक ताजा उदाहरण है। ऐसे रवैये ही नौकरशाहों को सेवाशर्तों के प्रति जवाबदेह बनाने की बजाए राजनेताओं के जायज अथवा नाजायज आग्रहों अथवा दुराग्रहों के प्रति जवाबदेह बनाने का काम करते हैं। इसी के प्रतिफल स्वरूप नेता और अधिकारी के बीच परस्पर सत्ता के बंटवारे का उदारवादी खेल शुरू हो जाता है। यही खेल घोटालों की आधार-भूमि रचता है।
इस तालमेल के चलते ही अब तक प्रशासन को जनता के प्रति जवाबदेह व पारदर्शी बनाने और भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के जितने भी उपाय तलाशे गए वे सब प्रशासन की चौखट पर दम तोड़ते नजर आए। क्योंकि इन उपायों में न तो अब तक संविधान के अनुच्छेद 310 और 311 में बदलाव की स्थिति निर्मित हो पाई और न ही भारतीय दण्ड संहिता व भू-राजस्व संहिता में कोई ऐसे लोकतांत्रिक परिवर्तन किए गए जो इन्हें नौकरशाह से तानाशाह बन जाने के अवसर तो देते ही हैं, किसी भी भूमि स्वामी की अचल संपत्ति को किसी और के नाम हस्तांतरित कर देने के सुरक्षित अधिकार भी देते है। भू-राजस्व संहिता में आज भी 115-116 ऐसी धाराएं हैं, जिनका उपयोग कर तहसीलदार और नायब तहसीलदार किसी भी मनचाहे का नाम लिखकर उसे भूमि के समस्त स्वामित्वों का अधिकार दे सकते हैं। इन्हीं धाराओं के समानुरूप 190, 110 और 185 धाराएं हैं जिनके तहत यदि पटवारी किसी भी भूमि स्वामी की जमीन पर किसी और व्यक्ति के नाम दर्जगी का प्रतिवेदन तहसीलदार को सौंप देता है तो तहसीलदार इस कब्जे को वैधानिकता देते हुए कब्जाधारी को भूमि स्वामी के स्वत्व दे सकता है। अंग्रेजी राज से चली आ रही ये धाराएं, उस समय इसलिए जरूरी थीं क्योंकि अंग्रेज हुक्मरान किसी भी संपन्न व सक्षम व्यक्ति की जमीन-जायदाद हड़प कर उसे शक्तिहीन बनाकर गुलाम कनाने का काम करते थे। लेकिन स्वतंत्र भारत में इन धाराओं का इस्तेमाल अधिकारी भ्रष्टाचार के खुले खेल के लिए कर रहे हैं। आजादी के 63 साल बाद भी देश की शत-प्रतिशत अराजियों (भूमि) का हस्तांतरण पंजीकृत दस्तावेजों (रजिस्ट्री) के माध्यम से हो चुका है फिर भी ये धाराएं वजूद में हैं, किसलिए ? इन्हें विधेयक लाकर आखिरकार विलोपित क्यों नहीं किया जाता ? इसलिए की लोकतंत्र में भी अधिकारियों का निरंकुश वजूद कायम रहे ?
संविधान के 310 और 311 अनुच्छेद, ऐसे सुरक्षा कवच हैं जो लोकसेवकों द्वारा बरते दुराचरण से अर्जित संपत्ति को न केवल सुरक्षित बनाए रखते हैं, बलिक भ्रष्टाचारियों को दोष से छुटकारा दिलाने का भी आधार बनते हैं। लिहाजा जब तक इन अनुच्छेदों में बदलाव और लोक सेवकों से जुड़ी सेवा शर्तों को नए ढंग से परिभाषित कर भ्रष्ट आचरण से अर्जित संपत्ति का सरकारीकरण के उपाय नहीं किए जाते तब तक बदस्तूर जारी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगना नामुमकिन ही है। कानून सम्मत जटिलताओं को एक सीधी सरल रेखा में फेरबदल किए बिना कठोर और पतनशील नौकरशाही को परिणामोन्मुखी नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए अब समय आ गया है कि ऋषि मनु के उस कथन को अमल लाया जाए, जिसमें उन्होंने कहा था कि लोग कानून का पालन इसलिए नहीं करते कि वह कानून को मानते हैं, बल्कि दण्ड के भय से कानून का पालन करते हैं। कानून की सरलता और उसमें दिए विकल्प लोगों को गलत कदम उठाने की दृष्टि से उकसाते हैं, जबकि कठोर कानून, गैर कानूनी कदम को रोकने का काम करता है। लेकिन खुली अर्थव्यवस्था में लूट की उच्छृंखलता जिस तरह से परवान चढ़ रही है, उसके पर कतरने की जोखिम कौन उठाए ?
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
भारतीय नियम-कानून अंग्रेज़ी साम्राज्य के समय के प्रशासनिक ढांचे पर आधारित है. हम भूल जाते है कि ये कानून अंग्रेज़ो ने भारतीयो का दमन करने के लिये बनाये थे. अब इन कानूनो का इस्तेमाल नौकरशाह और नेतागण जनता का दमन करने के लिये करते है. वे इनमे कोइ सुधार नही करना चाहते क्योकि इससे उनकी मनमानी खतम हो जायेगी.
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