मैं हिन्दू हूँ, इस बात का मुझे गर्व है। मुझे इस बात का भी गर्व है कि मैं हिन्दुस्तान में पैदा हुआ हूँ। उस हिन्दुस्तान में जिसने एक धर्...
मैं हिन्दू हूँ, इस बात का मुझे गर्व है। मुझे इस बात का भी गर्व है कि मैं हिन्दुस्तान में पैदा हुआ हूँ। उस हिन्दुस्तान में जिसने एक धर्म आधारित राष्ट्र बनने के बजाए धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनना पसन्द किया और धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने वालों को अपने से अलग कर दिया।
हिन्दुस्तान से अलग हुए लोगों ने मुस्लिम राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान की स्थापना कर ली, मगर हिन्दुस्तान आज भी विभिन्न धर्म, जाति,और समुदाय के साथ धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में विष्व में एक मिसाल पेष कर रहा है।
विगत तीन दशकों में दुनिया भर में भारी परिवर्तन हुए है। ये परिवर्तन प्राकृतिक, भौगोलिक,वैज्ञानिक और राजनैतिक स्तर के साथ साथ इंसानी तौर पर हुए हैं। इन परिवर्तनों से हिन्दुस्तान भी अछूता नहीं रहा है और न रह सकता था। सोवियत रूस को जातिगत आधार पर और उदारीकरण तथा खुलेपन के नाम पर टुकड़ों में बाँट दिया गया। साम्यवाद पर पूँजीवाद हावी होता गया और राजनीति में सिद्धान्तों के जगह धार्मिकता, जातिगत आधारों और अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों की कूटनीति हावी हो गई। यही सब कुछ सोवियत रूस में हुआ, और ईराक और अफगानिस्तान में भी जो कुछ हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। कमोवेश हिन्दुस्तान में भी इसका अनुसरण किया जाने लगा। भारतीय राजनीति भी जातिगत, धर्मगत और दलित-स्वर्णों एवं अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों के बीच सिमटती जा रही है और इससे हिन्दुस्तान की धर्म निरपेक्षता वाली छवि दागदार होती नज़र आ रही है। धर्म केन्द्रित राजनीति के पीछे आर्थिक साम्राज्यवाद के हाथ होने से काई भी इन्कार नहीं कर सकता, और न ही इनके दुष्परिणामों से। हिन्दुस्तान में अब जिस तरह के मंजर दिखाई देने लगे है उससे राजनैतिक दलों को भले ही वोटों की लहलहाती फसल इनमें दिखाई दे रही हो, मगर इससे असामाजिक तत्वों, माफिया गिरोहों स्वार्थी तत्वों को आम जनता को लूटने की छूट तथा बार-बार फैल रहे साम्प्रदायिक तनावों और परिस्थितियों के विस्फोटक बनने से देष की धर्मनिरपेक्षता वाली छवि क्षतिग्रस्त होती जा रही है, और जिस दो धर्म दो राष्ट्र की विभाजन की मांग को देश सन् 1947 में छोड़ आया था कहीं न कहीं उस ओर कदम बढ़ा रहा है। हालांकि खालिस्तान और गोरखालैण्ड जैसी पृथकतावादी ताकतों ने सिर उठाने की कोशिश की मगर वे अपने मनसूबे में नाकामयाब रही है।
हिन्दुस्तान, हिन्दू राष्ट्र नहीं है, यहाँ हिन्दुओं के अलावा अन्य धर्म के अनुयायी रहते है। सर्वधर्म का ये आधार तो संविधान में भी प्रदान किया गया है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पन्थ निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है। पंथ का आशय धर्म से है। धर्म बँटवारे के लिए नहीं होता। हो भी नहीं सकता। धर्म कोई भी हो वह बाँटना नहीं सिखाता। धर्म तो आश्रय के लिए होता है। बुद्ध कहते हैं- धम्मम शरणम् गच्छामि।
धर्म आन्तरिक है, धर्म जीवन है, धर्म परिभाष्य नहीं है, क्योंकि जो बाहर है उसकी परिभाषा की जा सकती है,लेकिन जो आन्तरिक है उसे कैसे परिभाषित किया जा सकता है। डा. रामविलास शर्मा की माने तो जीवन को धारण करने की व्यवस्था ही धर्म है। धारियति धर्मः। मैं धर्म की व्याख्या नहीं कर रहा और करने की चेष्टा भी नहीं कर सकता। मगर राजनीति। वह तो एक व्यवस्था को संचालित करने की सत्ता का नाम है। धर्म और राजनीति दोनों अलग अलग है। एक आन्तरिक है तो दूसरी बाह्य। धर्म में राजनीति नहीं होती,मगर राजनीति में धर्म होता है तभी तो एक प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री से कहता है कि उसने अपने राजधर्म का पालन नहीं किया। यह राजनीति की शुचिता का प्रश्न हो सकता है।
राजनीति और धर्म आज गड्मड् हो गए हैं जैसे कि राजनीतिक दल और उनके दलदल। कब कौन सा दल किस के साथ हो जाय कुछ कहा नहीं जा सकता। एक राज्य में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले दल दूसरे राज्य में एक साथ सरकार में बैठे नजर आते हैं। कोई सिद्धान्त नहीं रह गए सिर्फ सत्ता और सत्ता का ध्येय इनके सामने है और ये इसे पाने के लिए कुछ भी कर सकते है। बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। यह हिन्दुत्ववाद का उन्माद था, मगर राजनीतिक का चोला पहन कर किया गया कृत्य। राममन्दिर को अयोध्या में बनाने का संकल्प लेकर सत्ता को तो पाया जा सका, मगर अवाम के अन्दर एक गाँठ डाल दी गई। यही गाँठ गुजरात में उजागर हुई। हिन्दुत्व में यदि उन्माद है तो इस्लाम में कट्टरता भी है। यही धार्मिकता, राजनैतिक पैंतरेबाजी और वोटों की खातिर साम्प्रदायिकता में परिवर्तित हो जाती है या कर दी जाती है।
कोई 23 बरस की उम्र रही होगी भगतसिंह की, जब उन्हें फाँसी पर लटकाया गया था। यह उम्र ‘‘समझ'' की दृष्टि से लड़कनपन की होती है इसमें परिपक्वता का अभाव कहा जा सकता है,मगर भगतसिंह ने जो कुछ भी धर्म के बारे में कहा वह अपरिपक्व नहीं था। उसमें एक वैज्ञानिक सोच थी। सन् 1914-15 के गदर आन्दोलन में धर्म को राजनीति से अलग कर देने का जिक्र किया गया है और इसी कारण गदर पार्टी का आन्दोलन एकजुट रहा और इसमें हिन्दु,मुस्लिम एवं सिख अपनी जान की परवाह किए बगैर फाँसी के फंदे पर झूल गए।
जून 1928 में उनका एक लेख ‘‘किस्ती'' में छपा था। वह धर्म और धार्मिकता पर लिखा गया था जिसमें उन्होंने इसके कारणों का भी उल्लेख किया था। ‘‘ भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है,एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन है। अब तो एक धर्म का होना दूसरे धर्म के कट्टर शत्रु होना है। '' उनके अनुसार इन तरह के साम्प्रदायिकता की तह में आर्थिक कारण है।
कारण तब भी आर्थिक थे और आज भी है,और आगे भी रहेगें। इनके उद्गम में है -नवउदारवाद। शक्ल-स्वरूप अब जरूर बदली हुई है मगर तासीर वही है। प्रेमचन्द के उपन्यास ‘‘रंगभूमि'' को स्मरित करें। नायक सूरदास उस समय के नववाद पर कहता है - विकास होगा, कल कारखानें लगेगें,बिक्री बढेगी,मगर आत्मा का क्या होगा ? प्रश्न आज भी यही है कि आत्मा का क्या होगा ?
यह आत्मा क्या है? पंडित जवाहरलाल नेहरू की भारत एक खोज में नजर आता है। नेहरूजी ने लिखा है जब में देश में विभिन्न स्थानों पर काँग्रेस के जलसे में जाता हॅूं और लोग मुझसे मिलते है तो नेताओं के साथ साथ भारत माता की जय के भी नारे लगाते है मैं इस नारे को बहाना बना लेता हूँ उनसे बतियाने का और उनसे पूछता हूँ कि कौन है ये भारत माता ? जिसकी आप लोग जय बोलते है। जवाबों में सवाल उठाता हूँ और उन्हें समझाने की कोशिश करता हूँ कि हिन्दुस्तान का दबा कुचला इन्सान ही भारत माता है। यानी की इस मुल्क का साधारण इन्सान ही इसकी आत्मा है।
सवाल आज भी वही है कि विकास हो रहा है। हम आर्थिक आजादी की ओर कदम बढा रहे हैं। नित नए संसाधनों से हम जीवन को आरामतलब बना रहे है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी की दौड़ में हमारे कदम आगे कि ओर बढ़ते जा रहे है, कहने को हम कह भी रहे है कि सबसे आगे होंगें हिन्दुस्तानी। मगर किस कीमत पर ? फिर सवाल वही, जो प्रेमचन्द ने उठाया था कि आत्मा का क्या होगा ? जल जमीन जंगल सब पर एक नई इबारत। विकास का नया दौर लिखा जा रहा है उदारीकरण के नाम पर। सारी दुनिया एक हो गई। संचार माध्यमों ने दुनिया को सिमटा दिया है। सूक्ष्म तरंगों पर सवार उनकी संस्कृति हवा में तैर कर हमारे घरों में अपनी पैठ बना चुकी है और हमारी दुनिया को एक नया रूप दे कर उस सांस्कृतिक विरासत से दूर कर चुकी है जिसके लिए हम विख्यात थे। दुश्मन अब हमलावर नहीं दोस्त बन कर आया है। आपका उत्थान करने के लिए तमाम तरकीबें हाजिर है,वो भी ऐसी कि जिसमें आत्मा ही नहीं इंसान का क्या होगा कहना मुश्किल है।
विभाजन का जो सिद्धान्त ब्रिटिशों ने बनाया था उसे अर्थ की चासनी में डुबो कर हमें धीमे जह़र की तरह चटाया जा रहा है। धर्म, कौम के नाम पर हमें हमारे लोगों के द्वारा ही विभाजित किए जाने का खेल खेला जाने लगा है और हम मन से विभाजित हो भी रहे हैं। धर्म निरपेक्षता के हमारे उस रूप को क्षतिग्रस्त करने की कोशिशें की जा रही है जो विष्व के सामने मिसाल बनकर खड़ी है।‘‘वसुदेव कुटम्बकम'' की भावना हमारे भीतर है तो फिर ये हमारे दिलों में नफरत की दीवार क्यों पनपाई जा रही है ?
कारण साफ है आर्थिक साम्राज्यवाद को विस्तारित होना है और वह हो भी रहा है। अब समाजवाद नहीं रहा इस बात को लेकर बहस नहीं है,बहस का मुद्दा है कि इस नव-बाजारवाद या आर्थिक साम्राज्यवाद के विस्तार को कैसे रोका जाए?
सत्ता किसी भी दल की हो,सवाल सिद्धांतों का है। नीतियों का है ? देश हित का है ? मानवीय हित का है। एक सभ्यता और संस्कृति का है। ये एक हमला है आर्थिक आजादी के रूप में । विकास चाहिए मगर किस कीमत पर। एक दूसरे का खून बहा कर। एक दूसरे को अलग अलग कर के। भाई को भाई की जान का दुश्मन बना कर। सत्ता में जो लोग है और जो भी सत्ता तक पहुँचेंगे उन्हें उन लोगों के चेहरे क्या नाम भी याद नहीं होंगें जो उस हिंसा में अपनी जान गंवा चुके होंगे जिसे वोटों की राजनीति के लिए भडकाई गई होगी। मंडल के आरक्षण के दौरान कितनी जानें होम हुई किसी को याद है या राम मंदिर आन्दोलन में जान गँवाने वालों लोगों के बीबी बच्चे किस हाल में है कोई नहीं जानता ? अमरीका सद्दाम का मामला हो या ओसामा का। कितने लोग मरे ? पहले लोग शहीद होते थे देश के प्रति। एक उद्देश्य होता था शहादत का। आज तो बिना उद्देश्य ही लोगों को लड़वाया जा रहा है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी किसी ओर मुद्दे पर जिनका कोई उद्देश्य नहीं होता। भीष्म सहानी के तमस को याद करें। वो एक उपन्यास था जो आज हकीकत में परिवर्तित हो रहा है। दंगा फसाद हाने पर सवाल कानून व्यवस्था का हो सकता है। प्रशासन और मजिस्ट्रेटों और मौकों पर मौजूद अधिकारियों को इतने अधिकार है कि वे इनका प्रयोग कर आसानी से दंगाईयों पर काबू कर सकते है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। कर्फ्यू लगाते ही भले ही अधिकांश लोग अपने घरों में दुबक जाते हो मगर दंगाई तो अपना काम करते ही है। अधिकारियों पर राजनेता और सत्ता का इतना दबाव या अपनी नौकरी जाने का भय या वे अपने निजी कारणों से इतने सक्षम नहीं होते कि वे कोई फैसला ले सके। ये कारण क्या होते है किसी से छिपे नहीं है। दंगा होना आम हो गया है। समुदायों के बीच खाईयाँ बढ़ रही है। वे भी तो यही चाहते है। हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई,हम सब है भाई भाई जैसा कौमी एकता का नारा अब नहीं चाहिए। प्रेमचन्द का पंच परमेश्वर भी नहीं चाहिए। न जुम्मन शेख न अलगू चौधरी।
ãश्यामयादव ‘‘श्रीविनायक'' 22 बी, संचारनगर एक्सटेंशन इन्दौर 452016
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