गिरीश काशिद का आलेख - दलित चेतना के कथाकार : विपिन बिहारी

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दलित चेतना के कथाकार : विपिन बिहारी डॉ़ गिरीश काशिद बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में हिंदी कहानी में जो महत्‍त्‍वपूर्ण मोड़ मिलते हैं उनमें ...

दलित चेतना के कथाकार : विपिन बिहारी

डॉ़ गिरीश काशिद

बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में हिंदी कहानी में जो महत्‍त्‍वपूर्ण मोड़ मिलते हैं उनमें से एक प्रमुख मोड़ है हिंदी दलित कहानी। सन्‌ 1960े में मराठी साहित्‍य में दलित साहित्‍य का उद्‌भव हुआ। इसके भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद हुए। तत्‍पश्‍चात भारतीय भाषाओं से मौलिक रूप में दलित साहित्‍य का लेखन होने लगा। और इस साहित्‍य ने जल्‍द ही अपनी पहचान बना ली। हिंदी में ओमप्रकाश वाल्‍मीकि, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, रमणिका गुप्‍ता, अजय नवारिया आदि ने हिंदी दलित कहानी को विकसित करने में महत्‍त्‍वपूर्ण योगदान दिया है। अब दलित हिंदी कहानी अपनी पहचान बना चुकी है। एक ओर हिंदी में भारतीय भाषाओं से दलित कहानियों का अनुवाद हो रहा है तो दूसरी ओर हिंदी दलित कहानी नित नये संदर्भ लेकर अवतरित हो रही है। यह कहानी परंपरा से दबाये गये स्‍वर को वाणी दे रही है। हमारी विषम व्‍यवस्‍था और दोगली मानसिकता पर प्रश्‍नचिह्‌न लगा रही है। ‘दलित कहानी की वास्‍तविक चिंता अपने समाज को पराधीनता की उन परंपराओं से मुक्‍ति दिलाने के लिए है जिसने उन्‍हें सदियों से भारतीय समाज की मुख्‍यधारा में ‘अस्‍पृश्‍य‘ और कमजोर बनाये रखा है।''1 हिंदी दलित कहानी में ये संदर्भ विविध रूप में अभिव्‍यक्‍त हो रहे हैं।

अब हिंदी दलित कहानी का तक दूसरा दौर शुरु हो चुका है। इससे अनेक अछूते संदर्भ उजागर हो रहे हैं। नये कहानीकार नये संदर्भों को रुपायित कर रहे हैं। ‘‘विपिन बिहारी, सुशीला टाकभौरे, असंग घोष,कुसुम वियोगी, बुध्‍दशरण हंस आदि अनेक रचनाकार पूरे तेवर के साथ कलम चला रहे है।''2 विपिन बिहारी का नाम इसमें विशेष उल्‍लेखनीय कहना होगा। झारखंड के देहाती परिवेश में रहकर वे बेहद ईमानदारी से साहित्‍य सर्जन कर रहे हैं। अब तक उनकी सवा दो सौ कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी है। केवल संख्‍यात्‍मक दृष्‍टि से ही नहीं अपितु गुणात्‍मक दृष्‍टि से भी उनकी कहानियाँ उल्‍लेखनीय है। ‘अपना मकान', ‘पुनर्वास', ‘आधे पर अंत', ‘राजमार्ग पर गोलीकांड' और ‘चील' ये उनके अब तक प्रकाशित कहानी संग्रह हैं।

यहाँ विपिन बिहारी के दो प्रतिनिधि कहानी संग्रह ‘पुनर्वास' और ‘आधे पर अंत' के आधार पर उनकी कहानियों में अभिव्‍यक्‍त दलित विमर्श को देखेंगे। विपिन बिहारी का ‘पुनर्वास' कहानी संग्रह सन्‌ 2000 में तो ‘आधे पर अंत' कहानी संग्रह सन्‌ 2001 में प्रकाशित हुआ है। अर्थात इन कहानियों में बिल्‍कुल वर्तमान परिवेश का अंकन हुआ है। इन दो संग्रहों में कुल पंद्रह कहानियाँ संकलित है। इन सभी कहानियों के केंद्र में दलित जीवन है। इसमें उत्‍तर भारत का दलित जीवन पूरे यथार्थ के साथ रेखांकित हुआ है।

‘पुनर्वास' कहानी संग्रह में ‘सीमाएँ', ‘कीर्तन मंडली', ‘प्रतिकार', ‘आमने सामने', ‘काँच', ‘समय चेत', ‘पुनर्वास' ये सात कहानियाँ संकलित हैं। ‘आधे पर अंत' कहानी संग्रह में ‘तीर्थयात्रा', ‘पहचान', ‘पत्‍थर की लकीर', ‘मुक्‍का', षडयंत्र', ‘कठपुतली', ‘बदस्‍तूर', ‘आधे पर अंत' ये आठ कहानियाँ संकलित है। ये कहानियाँ दलित जीवन के विविध संदर्भों की यथार्थ पड़ताल करती है। इनका कथ्‍य गाँव से लेकर नगर तक फैला है लेकिन केंद्र में गाँव ही है। ‘सीमाएँ' हरमेश और जोगंदर इन दो मित्रों की कहानी है। हरमेश सवर्ण है तो जागेंदर अवर्ण बावजूद दोनों में गाढ़ी दोस्‍ती है। हरमेश समता और बंधुता का समर्थक है। उसकी बहन सरोजी बालविधवा है। जोगिंदर और सरोजी में प्‍यार हो जाता है। वे सीमा लाँघते हैं। परिणामस्‍वरूप सरोजी पेट से रहती है। दोनों विवाह भी करना चाहते हैं लेकिन जोगिंदर के दलित होने से सरोजी की माँ भैरोदेवी को यह रिश्‍ता मंजूर नहीं है। दोनों के अवैध संबंध उसे स्‍वीकार है लेकिन वैध संबंध नहीं। जोगेंदर के प्रश्‍न पर वह कहती है,‘‘जोगिंदर तुम जिस बिरादरी को हो उस बिरादरी की औरतें इस घर में आई चाहे जिस रूप में आई। मेरी बिरादरी की औरतें कभी नहीं गई तुम्‍हारी बिरादरी में। कभी नहीं चाहूँगी मैं कि सरोजी ब्‍याह जाए तुमसे।''3 यहाँ सवर्ण वर्ग की दोगली मानसिकता उजागर होती है। हरमेश की शादी में जोगिंदर शामिल होता है तो उसके रिश्‍तेदार आपत्‍ति उठाते हैं। हरमेश सभी को समझाने की कोशिश करता है। जोगिंदर चुप रहना ही मुनासिब समझता है। हरमेश उसे कहता है कि क्‍या तुम्‍हें अपमान-बोध महसूस नहीं होता। इस पर जोगिंदर अपने अस्‍तित्व और अस्‍मिता के प्रति सजग होते हुए कहता है,‘‘मैं भी चाहता हूँ कि स्‍थिति नहीं बदले और मुझमें एक रोष अक्‍सर बना रहे भीतर-भीतर। युगों प्रताड़ित रहा मैं, मेरी बिरादरी, मेरा वर्ग----मैं तो ऐसी कल्‍पना करता हूँ कि मैं प्रतिशोध ले लूँ और उन्‍हें भी ऐसे समय पर अपमानित और प्रताडित करुँ।''4 जोगिंदर के इस कथन के साथ ही कहानी खत्‍म होती है। इसके जरिए कहानीकार ने दलित अस्‍मिता और चेतना को रेखांकित किया है। इसी प्रकार ‘कीर्तन मंडली' कहानी में कनाई गोडाईत अपनी कीर्तन मंडली के आधार पर अपनी चेतना बनाये रखता है।

‘प्रतिकार' कहानी में दलित औरतों का सवर्णों व्‍दारा किया जाने वाला भयावह यौन शोषण चित्रित हुआ है। कहानी में चित्रित ग्रामीण परिवेश में पूँजीवादी, ब्राह्‌मण आदि दुसाधों चमारों की बेटियों का खुलेआम यौन शोषण करते हैं। जिउत और उसकी स्‍त्री सुन्‍नर पांडे के खेत में मजदूरी करते हैं। उन्‍हें जबरन बंधुआ मजदूर बना दिया है। जिउत की बेटी गेंदवा को समझ आने से पहले किसी ब्राह्‌मण व्‍दारा कौमार्य भंग किया जाता है। फिर तो हर कोई उसका शोषण करता है। सुन्‍नर पांडे तो उसका ही नही तो हर दलित औरत का यौन शोषण करते है। जिउत को पाँच सौ रुपये देकर उसे फँसाते है। और गेंदवा का निरंतर यौन शोषण करते है। जिउत सब जानकर भी अनजान बनता है। ‘‘जहाँ भूख, प्‍यास और अभाव से मुठभेड रोज हो जाती हो तो फिर न बेटी की देह का महत्व रह जाता है,न औरत की देह का। सिर्फ पेटपोषण का लक्ष्‍य सामने हो जाता है।''5 जिउत जब गेंदवा की शादी करना चाहता है तो सुन्‍नर पांडे उधार दिये पाँच सौ रुपए के सूदसमेत पच्‍चीस सौ रुपए लौटाने को कहते है। पिता की दशा देखकर गेंदवा बदला लेने की ठान लेती है। जब सुन्‍नर पांडे उस पर फिर बलात्‍कार करने लगता है तो वह उसकी बुरी तरह से पिटाई करती है। उसको पछाड़कर उसके मुँह में पेशाब कर देती है। गॉव में ऐसा होना क्रांति से कम नहीं था। सभी औरतें गेंदवा की बात का समर्थन करती हैं। और प्रतिकार की एक लहर पैदा होती है। ‘पहचान' कहानी में इसी प्रकार लोकनाथ और नंदकेसरी की सुंदर बेटी लाजो का जमींदार जवाहरबाबू यौन शोषण करते हैं। उनका बेटा दशरथ भी उसका यौन शोषण करता है। लेकिन वह जब पेट से रहती है तो दोनों मुकर जाते हैं। इस पर लाजो की माँ नंदकेसरी उन्‍हें सबक सिखाती है। वह अपनी बेटी को अवैध संतान को जन्‍म देने को कहती है। और उस बेटे को जवाहर बाबू को उनका पाप बताकर उनके चबूतरे पर छोड़ आती है। ‘समय चेत ' कहानी में भी दलित मंगरी में अद्‌भुत चेतना मिलती है। जमींदार बदरी बाबू भुइया मजदूरों का शोषण करते हैं। जब उनमें चेतना उत्‍पन्‍न होती है तो वे उन्‍हें शराब की लत लगाकर अपना काम जारी रखते हैं। मंगरी जब समस्‍या की जड जानती है तो अपनी टोली की औरतों का जत्‍था निकालकर शराब की दूकान तोड देती है। इससे क्रोधित बदरी बाबू उसका अपहरण करते हैं तो उनसे भी दो हाथ करती है। ‘बदस्‍तूर' कहानी में यौन शोषण का अलग संदर्भ में चित्रण हुआ है। यहाँ के डोमटोले के लागों को जाति पर आधारित काम सौंपे जाते हैं। जिन पर उनकी रोजी रोटी नहीं चलती। इससे मजबूरन उनकी औरतों को देह विक्रय करना पड़ता है। गूजिया के इस कथन से उसकी बिरादरी की पीड़ा एवं आक्रोश व्‍यक्‍त होता है,‘‘एकरी बहनिया के सबे छुआता हय हमनी से, इ देहिया के का हय जेउ सबके छुआय में रोग-बीमारी लग जाती है।''6इससे यह बात स्‍पष्‍ट होती है कि आज भी ग्रामीण दलित औरत का शोषण किया जाता है।

‘आमने सामने' दलितोध्‍दार का नकाब ओढकर षडयंत्र करनेवालों की पोल खोलनेवाली कहानी है। ब्राह्‌मण श्रीमुख मिश्रा दलितों से काई नेता न उभरे इसलिए उनके नेता बनते हैं। लेकिन संघर्ष के समय वे अक्‍सर अनुपस्‍थित रहते हैं। उनके इस षडयंत्र को शिक्षित कमला पहचान लेता है। हरिहर पांडे का बेटा उसकी बहन पर बलात्‍कार करता है तो वह भी उसका बदला हरिहर पांडे की बेटी पर बलात्‍कार करके लेता है । वह अपनी बिरादरी को संगठित करता है। परंपरा से उसकी बिरादरी पर सौंपे जानेवाले निम्‍न काम करने को इन्‍कार कर देता है। वह श्रीमुख मिश्रा को तक सुना देता है,‘‘युगों से आप पाला बदलते रहे हैं। जब जब आप पर खतरा आया, कई कई शगूफे छोडकर अपनी रक्षा की जिसका कि इतिहास है।''7 यहाँ पर दलितों में से एक व्‍यक्‍ति का शिक्षित होना तक उनमें चेतना जगाने का कारक बन जाता है।

‘काँच' पीढ़ी संघर्ष की कथा है। बसंतबाबू काफी कष्‍ट उठाकर अपना स्‍थान बनाते हैं। उनका बेटा सुयश शिक्षित होता है तो अपनी जिंदगी जीना चाहता है। वह जातीय उपेक्षा, प्रताड़ना से मुक्‍ति चाहता है। पिता जातीय दलदल को दूर करना चाहते हैं और बेटा उससे दूर भागता है। सुयश सवर्ण लड़की से शादी करना चाहता है और बसंतबाबू चाहते है कि वह अपनी बिरादरी की लड़की से शादी करें ताकि अपना समाज उपर उठेगा। उन्‍हें लगता है कि बेटा सवर्ण लड़की से शादी करेगा तो अपनी बिरादरी से कट जाएगा। वे नौकरपेशा है। उन्‍हें अपनी जाति को लेकर गर्व है। इसी कारण वे सुयश को कहते है,‘‘जात से कब तक भागेंगे? जिस जात के बल पर तुमने उँचाई तय की है,उसे भी एक उँचाई दो,न कि भाग जाओ अपना काम निकालकर।''8 लेकिन बेटा अपने निर्णय पर अडिग रहता है और बसंत बाबू का दिल काँच की भॉति टूट जाता है। ‘पत्‍थर की लकीर' कहानी की सुनयना बसंतबाबू के विचारों को अंजाम देती नजर आती है। उसका पिता तेतर शहर में चपरासी है। वह शिक्षा के महत्‍त्‍व को समझकर अपनी बेटी को पढ़ाना चाहता है। गाँव में तमाम मुश्‍किलें सहकर सुनयना पढ़ती है। उच्‍च शिक्षा तेतर के साथ रहकर शहर में लेती है। बचपन से ही वे शैक्षिक माहौल में अकेलापन महसूस करती है। कॉलेज के दौरान उसकी सवर्ण देवेंद्र से दोस्‍ती हो जाती है जो प्‍यार में बदल जाती है। कुछ विरोध के बाद दोनों के माता-पिता इस रिश्‍ते को मंजूरी देते हैं। लेकिन देवेंद्र के माता-पिता उसका धर्मांतर करने की बात करते हैं। अंततः सुनयना इस रिश्‍ते को ही नकारती हुई कहती है,‘‘मैं कम पढ़े-लिखे से ब्‍याह कर लूँगी लेकिन देवेंद्र से नहीं करुँगी। हमारा वर्ग काफी निर्धन, पिछड़ा, अशिक्षित है; मैं एक पढ़ी-लिखी, ब्‍याह होने पर मैं अपने वर्ग से कट ही जाउँगी न तो मेरे पढ़ने लिखने का फायदा किसे मिलेगा।''9 यहाँ सुनयना बसंतबाबू के विचार को मूर्त कर देती है। ‘तीर्थयात्रा' कहानी ऐसे विवाह के परिणाम को सामने रखती है। महेश राम सवर्ण विजया से विवाह करते हैं और धीर-धीरे अपने ही घर में आगंतुक बन जाते हैं। सेवानिवृत्‍ति के बाद तो वे घर के एक फालतू सदस्‍य बन जाते हैं। पत्‍नी विजया दोनों बेटों के विवाह उन्‍हें पूछे बगैर सवर्ण लड़कियों से तय करती है और घर में ही वर्णव्‍यवस्‍था लागू कर देती है। इससे परेशान महेश राम अंततः घर छोड़कर चले जाते हैं।

‘पुनर्वास' एक उल्‍लेखनीय कहानी है। इसमें दलित चेतना के मौन संदर्भ को रेखांकित किया है। दलितों के झोपड़ों को बेवजह आग लगाई जाती है। और फिर पूरा सरकारी तमाशा संपन्‍न होता है। यह घटना बैरागी को काफी उव्‍देलित कर देती है। दलितों की हिफाजत का जिम्‍मा सरकारी होना बैरागी को अखरता और वह सोचता है,‘‘अलबत्‍ता दलित नपुंसक हो गये सरकार की इस नीति से। लाख दो लाख सहायता के नाम पर लुटा देगी सरकार दलितों के बीच लेकिन लाख दो लाख का रोजगार नहीं खडा करवा सकती।''10 सरकार रूपए गरीबी हटाने के लिए खर्च नहीं करती अपितु गरीबी बनाये रखने के लिए करती है। इस झूठी सांत्‍वना नीति को लेकर बैरागी के मन में प्रश्‍न निर्माण होता है। बैरागी तो आग लगानेवाले गाँव के सवर्णों को जानता भी है लेकिन आग लगाने का कारण बूझ नहीं पाता। और बैरागी की अस्‍मिता जाग्रत होती है। वह जूठन खाता नहीं और वह न लाने की बात पत्‍नी को कह देता है। ‘कठपुतली' श्‍याम रज्‍जाक की त्रासद कथा है। दलित श्‍याम रज्‍जाक को मंत्री और उनके चेले प्रमोशन देकर निदेशक बना देते हैं और फिर उनसे अपने काम करवाते हैं। वे अनाकानी करते हैं तो उनकी जवान बेटी का अपहरण कर उसकी इज्‍जत लूटते हैं। उनको भी शराब और औरत की लत लगाते हैं और फिर उन्‍हें ब्‍लैकमेल करते हैं।

‘षडयंत्र' कहानी में ग्रामीण शिक्षा क्षेत्र में व्‍याप्‍त धांधली का चित्रण मिलता है। यह इलाका पिछड़ी जातियों का है और सभी मास्‍टर अगड़ी जाति के है। वे नहीं चाहते के दलित बच्‍चे पढ़े। इसी कारण वे कक्षा में पढ़ाते ही नहीं। मास्‍टर दुबे तो गोडाइत की लड़की निमिया पर बलात्‍कार करने की कोशिश करता है। स्‍कूल में दलित धनेसर राम मास्‍टर आते हैं तो शिक्षा का माहौल बना देते हैं। इससे सवर्ण मास्‍टरों को के अहं को ठेस पहुँचती है। वे उसे धमकाकर भगाने की तक कोशिश करते हैं। लेकिन धनेसर राम उन्‍हें कडा जवाब देता हैं। गॉव के लोग उनके पीछे खडे होते हैं। शिक्षा के प्रति सजग हुए गाँववाले अन्‍य मास्‍टरों को यहाँ तक सुना देते है,‘‘इ स्‍कूल हमरा है, हमरा गाँव का है, हमर जर-जमीन पर है।''11

‘आधे पर अंत' एक लंबी कहानी है। इसके केंद्र में संपत पासवान है। उसके जन्‍म से ही उसकी बीमारी से माता-पिता परेशान है। बचपन से उसे पिता की उपेक्षा सहनी पड़ती है चॅूंकि उसका जन्‍म अशुभ मुहूर्त पर हुआ। दूसरी ओर उसे जाति के कारण बचपन से प्रताड़ना सहनी पड़ती है। लेकिन वह पढाई में तेज निकलता है और अपनी पहचान बनाता है। आगे वह पढाई हेतु शहर जाता है। उसके बी․ ए․ होने पर पिता उसे पढ़ाई बंद कर नौकरी पकड़ने को और शादी करने को कहते हैं। लेकिन संपत नकार देता है। वह टयूशन लेकर एम․ ए․ तक की पढ़ाई पूरी करता है। पढ़ाई पूरी होने पर वह आरक्षण की बैसाखी के बिना नौकरी करना चाहता है लेकिन उसे विचित्र अनुभव आते हैं। अंततः वह ट्रक ड्रायवर बन जाता है। गाँव में आरक्षण को लेकर ताने कोसनेवाले जदु महतो को वह सुना देता है,‘‘नौकरी मिल रही थी लेकिन मैंने नहीं की। मैं कोटे का आदमी हूँ और बन गया ड्रायवर। ये किसी का निजी ट्रक है, न की सरकारी।''12 वह नौकरी छूट जाती है तो वह विधवा अपर्णा देवी का ड्रायवर बन जाता है। दौनों में यौन संबंध भी स्‍थापित हो जाते हैं। अपर्णा देवी उस पर खुश होकर उसको संपत्‍ति का वारिस बना देती है और उसकी शादी भी करवा देती है। फिर संपत जनरल सीट पर चुनाव लड़ता है और हार जाता है। फिर अपने आसपास अपनी जाति की फौज जमा कर देता है। और वह कोटे की सीट पर चुनाव लडकर संसद बन जाता है। उसकी यह यात्रा दिशा-हीन है। उसने जो चाहा वह नहीं हुआ जो नहीं चाहा वह हुआ। उसका अंत आधे पर ही हुआ। अपने विचारों को वह अंजाम न दे सका। उसकी इस दिशाहीनता को ही कहानीकार ने चित्रित किया है।

समग्रतः इन कहानियों में दलित जीवन का विविध कोणों से अंकन हुआ है। इनमें एक ओर दलितों के भयावह शोषण का चित्रण हुआ है तो दूसरी ओर इसके विरुध्‍द पनप रही चेतना का भी अंकन हुआ है। इसमें जो चेतना मिलती है वह आरोपित नहीं लगती। वह वहाँ के परिवेश की उपज तो है ही लेकिन वह प्रजातांत्रिक मूल्‍यों की बुनियाद पर खडी है। इन कहानियों में अभिव्‍यक्‍त दलित चेतना डॉ․ अंबेडकर के ‘पढो, संगठित बनो और संघर्ष करो' पर आधारित है। इसी कारण इन कहानियों के पात्र न्‍याय, स्‍वतंत्रता और समता के लिए संघर्ष करते हैं। उनके संघर्ष में विद्रोह का कड़ा रुख मिलता है। संघर्ष करनेवाले पात्र विभिन्‍न स्‍तर के हैं। डॉ․ अंबेडकर ने कहा था कि गुलाम को उसके गुलाम होने का एहसास करा दो तब वह जाग जाएगा। बिल्‍कुल इसी तर्ज पर ‘समय चेत' कहानी का शिवमूरत अपने टोले के लोगों को कहता है,‘‘जब तलक न लड़ागे अपन हक-अधिकार के खातिर, कुत्ता नहीं पूछेगा और अधिकार बेलडे-झगडे नहीं मिलता।''13 इसी प्रकार ‘आमने सामने' कहानी में कमला अपनी बिरादरी को सजग करता मिलता है। बसंतबाबू, सुनयना आदि पात्रों में जातीय चेतना देखने को मिलती है। कहानीकार ने दलित नारी में उत्‍पन्‍न चेतना को भी सार्थक रूप में प्रस्‍तुत किया है। मंगरी, गेंदवा, सुनयना, नंदकेसरी आदि पात्र अपनी पहचान बनाने में सक्षम है। ये कहानियाँ एक साथ वर्ण और वर्ग संघर्ष के लिए जमीन तैयार करती है। समता, स्‍वातंत्र्य और बंधुता की माँग करती है।

इन कहानियों का कथ्‍य उल्‍लेखनीय है। ये कहानियाँ दलित जीवन के विविध संदर्भों को यथातथ्‍य प्रस्‍तुत करती है। कहानीकार ने कथ्‍य के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। ‘सीमाएँ फलांग रही है', ‘निसवे फाड दिहिस', ‘पिंगल मत पाद', निफिकिर होके पिये चलना मूत', मौग बुतरू को भी मार देगा' जैसे प्रयोग से दलित परिवेश को यथार्थ रूप में वाणी मिली है। ये कहानियाँ कोई कला नहीं करती अपितु सामाजिक परिवर्तन हेतु सार्थक पहल करती है।

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संदर्भ संकेत

1- सं․ प्रो․ कमला प्रसाद, वसुधा अंक 58, जुलाई-सितंबर 2003, पृ․198 (देवेंद्र चौबे, दलित कहानी की जमीन)

2- सं․ जयप्रकाश कर्दम, दलित साहित्‍य वार्षिकी 2005, पृ․ 70

3- (हेमलता महीश्‍वर, हिंदी दलित कथा साहित्‍य की सामाजिकता) विपिन बिहारी, पुनर्वास, पृ․16

4- वही, पृ․ 18-19

5- वही, पृ․33

6- विपिन बिहारी, आधें पर अंत, पृ 134

7- विपिन बिहारी, पुनर्वास, पृ․ 62

8- वही, पृ․ 65

9- विपिन बिहारी, आधे पर अंत, पृ․ 58

10- विपिन बिहारी, पुनर्वास, पृ․ 99

11- विपिन बिहारी, आधे पर अंत, पृ․ 98

12- वही, पृ․ 177

13- विपिन बिहारी, पुनर्वास, पृ․83

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डॉ․ गिरीश काशिद

अध्‍यक्ष,हिंदी विभाग,

श्रीमान भाउसाहेब झाडबुके महाविद्‌यालय, बार्शी

जिला-सोलापुर-413401 महाराष्‍ट्र

Ø शिक्षा - एम․ए․,बी․एड․,पीएच․डी․(हिंदी)

Ø गतिविधियाँ - हिंदी नवलेखक शिविरों में सहभाग

हिंदी विशेषज्ञ - एज्‍युकेशनल एनिशिएटिवज्‌, अहमदाबाद

संपादक मंडल सदस्‍य - पुणे बोर्ड

विभिन्‍न संगोष्‍ठियों में सहभाग एवं शोध आलेखों का प्रस्‍तुतीकरण

आकाशवाणी पर वार्ताओं का प्रस्‍तुतीकरण

Ø लेखन - प्रकाशन -

§ नवम दशक के आंचलिक उपन्‍यास (समीक्षा ग्रंथ)

§ साहित्‍य, संस्‍कृति और भूमंडलीकरण (अनूदित पुस्‍तिका)

§ आषाढ़स्‍य प्रथम दिने (अनूदित काव्‍य संग्रह)

§ माझं क्रांतिस्‍वप्‍न (अनूदित भगतसिंह के लेख)

§ कथाकार संजीव

§ पसीने के फूल (संपादित कथा संग्रह)

§ खाली जमीन वर आकाशः समीक्षा आणि संवाद (संपादन)

§ नेम नॉट नोन (अनूदित आत्‍मकथा)

§ कुर्सी पहियोंवाली (अनूदित आत्‍मकथा)

§ मेरी हकीकत (अनूदित आत्‍मकथा)

§ अमरीकन दौड़धूप (अनूदित आत्‍मकथा)

§ दलित साहित्‍यः प्रकृति और संदर्भ (यंत्रस्‍थ)

§ 05 पत्रिकाओं का संपादन

§ विभिन्‍न स्‍तरीय पत्रिकाओं में लेख, शोध आलेख एवं अनुवाद प्रकाशित

Ø संप्रति -

अध्‍यक्ष, हिंदी विभाग,

श्रीमान भाऊसाहेब झाडबुके महाविद्यालय, बार्शी

तहसील - बार्शी, जिला - सोलापुर

पिन - 413401

दूरभाष - 094232 81750

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गिरीश काशिद का आलेख - दलित चेतना के कथाकार : विपिन बिहारी
गिरीश काशिद का आलेख - दलित चेतना के कथाकार : विपिन बिहारी
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