ओबामा की भारत यात्रा का पहला दिन अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट के राष्ट्रपति के रुप में कम, आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश का सामान बेचने...
ओबामा की भारत यात्रा का पहला दिन अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट के राष्ट्रपति के रुप में कम, आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश का सामान बेचने वाले सफल विक्रय प्रतिनिधि के रुप में ज्यादा सार्थक रहा। 10 अरब डालर के सौदे हुए। अमेरिका में अमेरिकियों के लिए 50 हजार नई नौकरियों की उम्मीद बढ़ी। इस एकदिनी यात्रा के सार से तय है कि अमेरिका अपने हित साधने की ओट में भारतीय हितों की अनदेखी कर रहा है। शायद इसी कूटनीतिक मंशा के चलते इस यात्रा का कोई पूर्व-निर्धारित अजेंडा स्पष्ट नहीं था। ओबामा के साथ अमेरिकी कंपनियों का एक बड़ा व्यापारिक दल भी आया है, जो जाहिर करता है कि ओबामा का लक्ष्य अपने देश के लिए बिजनेस मिशन की पूर्ति है। इस व्यापारिक मकसद की पूर्ति तब और जरुरी हो जाती है जब भारत यात्रा के ठीक पहले अमेरिकी मतदाताओं ने प्रतिनिधि सभा में उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी की बजाए सीनेट में विपक्षी रिपब्लिकनों को तरजीह दी। ऐसे में ओबामा की यह यात्रा अमेरिका को आर्थिक मंदी से उबारने और देश में रोजगार के नए अवसर पैदा करने की दृष्टि से एक ‘राजनीतिक पैकेज' साबित हुआ है। जिसके तईं भारत को उपभोक्ता देश के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
हनुमान के भक्त और महात्मा गांधी के अनुयायी चतुर ओबामा ने भारत को जहां भावनात्मक रुप से भुनाया, ओबामा भारत को भविष्य का बाजार करार देते हुए अपने उत्पादन बेचकर आर्थिक दोहन करने में भी कामयाब रहे। अभी तक ओबामा का ऐसा कोई नजरिया सामने नहीं आया है, जिससे भारत की सामरिक ताकत बढ़े अथवा आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान की लगाम कसे ? कश्मीर के मुद्दे को ओबामा स्पर्श भी करेंगे ऐसा लगता नहीं ? क्योंकि पाकिस्तान अमेरिका के लिए अफगानिस्तान में चल रहे तालिबानी संघर्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण बना हुआ है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि पिछले माह अक्टूबर 2010 में ही वाशिंगटन में अमेरिका और पाकिस्तान के बीच जो तीसरी रणनीतिक वार्ता हुई थी, उसमें कश्मीर मुद्दे को नजरअंदाज करते हुए अमेरिका ने पाकिस्तान को 2 अरब 29 करोड़ डालर की नई सामरिक सहायता देने के मसौदे पर दस्तखत किए हैं। इससे तय है कि अमेरिका को कश्मीरी आंतकवाद की तुलना में तालीबानी आतंकवाद की चिंता ज्यादा है। क्योंकि वह सीधे-सीधे अमेरिका और अफगानिस्तान में तालिबानों से जूझ रहे नाटो सैनिकों को परेशान करने का सबब बना रहा है। अब तक वहां दो हजार से भी ज्यादा नाटो सैनिक जान गंवा चुके हैं। तय है पाकिस्तान को दी गई यह सामरिक मदद आखिरकार कश्मीर में आतंकवाद का वजूद बनाए रखने के रुप में ही काम आएगी। इसी कूटनीतिक दृष्टि के चलते ओबामा ने आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान का नाम लिए बिना महज इतना कहा कि भारत और अमेरिका इस मुद्दे पर एक साथ हैं।
संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे का समर्थन और दोहरे इस्तेमाल की प्रौद्योगिकी तकनीक संबंधी उपकरणों के निर्यात पर लगे प्रतिबंध को हटाने से जुड़े मुद्दों पर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण ओबामा पेश करेंगे ऐसा फिलहाल लगता नहीं है। भारतीय हित साधने वाले इन दोनों ही मुद्दों को उन्होंने ‘बेहद जटिल और कठिन' कहकर पहले ही टाल दिया है। इसलिए एशिया में अपनी वर्चस्व कायमी के लिए अमेरिका भारत की सहभागिता तो चाहता है, लेकिन समानता के आधार पर नहीं ? अमेरिका का यह व्यवहार एक-पक्षीय है। परमाणु सौदे कर लिए जाने के बावजूद भारत छठी परमाणु परमाणु शक्ति के रुप में जाना जाए, ऐसी कोई पहल भी ओबामा करने नहीं जा रहे। हाल ही में ओबामा सरकार ने उन अमेरिकी आईटी कंपनियों पर भारी टैक्स के प्रावधान किए हैं जो भारतीय नौजवानों को नौकरी देकर भारत से अरबों का कारोबार कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए हुए हैं। लेकिन ओबामा की मंशा है कि ये कंपनियां केवल अमेरिकी युवाओं को ही नौकरी देकर अमेरिका में जो बेरोजगारी की दर 15 प्रतिशत तक पहुंच गई है उसे कम करने में योगदान दें। ओबामा हाल ही में सीनेट में आउटसोर्सिंग बंद करने का प्रस्ताव भी लाए थ्ो, संयोग से वह रिपब्लिकन पार्टी के विरोध के चलते पारित नहीं हो पाया। अन्यथा तत्काल भारतीय आईटी बेरोजगारों की संख्या बढ़ जाती। क्योंकि भारत में आईटी कंपनियों का जो कारोबार फल-फूल रहा है उसमें 50 फीसदी की भागीदारी अमेरिका की है। भारतीय हितों का पोषण करने वाले इन मुद्दों को सर्वथा नजरअंदाज करने वाले ओबामा के दृष्टिकोण से तय होता है कि उनकी नजर भारत को केवल एक उपभोक्ता-देश के रुप में इस्तेमाल करने की है।
पहले दिन उर्जा संयंत्र, स्पाइस जेट-33 और आधुनिकतम 737 एयरक्राफट्स बोइंग विमान खरीदने की घोषणायें हो चुकी हैं। लेकिन अब ओबामा की निगाह उन सुरक्षा उपकरणों को बेचने में हैं जो जासूसी के काम आते हैं। इसी नजरिये से भारत और अमेरिका के बीच खुफिया साझेदारी बढ़ रही है। भारत में आतंरिक सुरक्षा के लिहाज से इन उपकरणों का बाजार इसलिए तैयार हो गया है क्योंकि भारत में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद तो पहले से है ही, माओवाद के बहाने नक्सलवाद ने भी एक बहुत बड़े क्ष्ोत्र में पैर पसार लिए हैं। सीमांत प्रदेश अरुणाचल, मणिपुर, असम और नागालैण्ड चीनी शह से अलगाव और उग्रवाद की आग में पहले से ही सुलग रहे हैं। इन कारणों से सुरक्षा उपकरण भारत में खपाने की होड़ में अमेरिका ही नहीं कई पश्चिमी देश भी लगे हैं। भारत सरकार भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने की प्रतिस्पर्धा में राष्ट्रद्रोही गतिविधियों पर निगरानी के लिए नई तकनीक और जासूसी उपकरण खरीदने के लिए नए बजट प्रावधान ला रही है। इस दृष्टि से सुरक्षा उपकरण बेचने के लिए भी अमेरिका बेताब है। भारत को हथियार तो अमेरिका पहले से ही बेच रहा है।
ओबामा अमेरिका में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थ और संचार उपकरण बेचने के लिए भी लालायित हैं। अमेरिका चाहता है कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए भारत अपना बाजार खोल दे। इसी मकसद पूर्ति के लिहाज से ओबामा ने ताज होटल में दिए अपने भाषण में कहा भी कि भारत एक ऐसा देश है जिसने दुनिया में सबसे विशाल मध्यम वर्ग का सृजन किया है। यही वह वर्ग है जो दूध और कृषि उत्पादों को खरीदने की क्षमता रखता है। लेकिन भारत ने इस क्ष्ोत्र में अमेरिका को छूट दी तो तय है, भारत आने वाले समय में एक बड़े संकट का सामना करेगा। क्योंकि इस क्ष्ोत्र में भारत खुद एक अग्रणी देश होने के साथ उसकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि और दुग्ध उत्पादों पर ही निर्भर है। फिलहाल भारत में दुग्ध उत्पादों का विरोध सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि वहां के दुग्ध उत्पादों में बछड़े की आंत और गो-मांस का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में होता है। जो भारत के बहुसंख्यक शाकाहारियों के लिए किसी भी हाल में मंजूर नहीं है। कृषि और दुग्ध उत्पादों की भारत में खुदरा व्यापार के रुप में भी बड़ी हिस्सेदारी है, इसलिए इस क्ष्ोत्र में अमेरिकी दखल बढ़ता है तो भारत में बड़ी तादात में बेरोजगारी का संकट पैदा होगा। इन सब संदर्भों में भारत के राजनीतिकों व रणनीतिकारों के लिए जरुरी हो जाता है कि वे ओबामा को एक राष्ट के राष्ट्रपति के साथ-साथ विक्रय अभिकर्ता के रुप में भी देखें-परखें।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कालोनी
शिवपुरी म.प्र.
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
हनुमान के भक्त? भारतीयों को भी कैसे कैसे भ्रम हो जाते हैं... ओबामा की तरह हमारे नेताओं को भी अपने नागरिकों/सैनिकों की चिन्ता होती तो बेहतर होता..
जवाब देंहटाएंबढ़िया पोस्ट , आभार
जवाब देंहटाएंकेरला से