अनुक्रम १. शिल्प २. अपने हिस्से की ताकत ३. नीली रोशनी ४. मिट्टी के ज़र्रे ५. ऐशट्रे ६. बलात्कार ७. डाली ८. विकास का मुंह टेढ़ा है ...
अनुक्रम
१. शिल्प
२. अपने हिस्से की ताकत
३. नीली रोशनी
४. मिट्टी के ज़र्रे
५. ऐशट्रे
६. बलात्कार
७. डाली
८. विकास का मुंह टेढ़ा है
९. इश्क का घोषणा-पत्र
१०. अधूरे सपने
११. संघर्ष के दस्तावेज़
१२. गुब्बारे
परिचय
दिलीप कठेरिया
जन्म
०४ मई १९७०, शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश
रचनात्मकता
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
संप्रति
एसोशिएट फैलो
भारतीय दलित अध्ययन संस्थान (ऌऌईद)
नई दिल्ली
संपर्क
एल-२३९, फेज- ३
नांगलोई, नई दिल्ली- ४१
ईमेल – dalip_katheria@yahoo.co.in
२
शिल्प
साहित्य के सामंतों को
हमारे साहित्य में
भोगे गए जख़्मों की पीड़ा नहीं
शिल्प कि बुनावट अख़रती है
इनके सरोकारों की धरती पर
पीड़ा के नहीं
शिल्प के पौधे पलते हैं
शिल्प
किसी ख़ूबसूरत लड़की की तरह
इनकी शिराओं में बहते ख़ून को
गर्म करता है
लेकिन हमारे सरोकारों की धरती पर
शिल्प के नहीं
पीड़ा के पोधें पलते है
पीड़ा हमारी ज़िन्दगी को
संघर्ष के लिए संगठित करती है
पीड़ा बयान करने के लिए
हमें
शिल्प की सुन्दर बगिया की नहीं
सिर्फ
एक अदद कलम की ज़रूरत है ।
***
अपने हिस्से की ताकत
कुछ हाथ उठे हैं
वक्त के चेहरे से उतारने नकाब
इन हाथों के सृजन में
ऐसा जहां था
जिसमें ज़िन्दगी थोड़ी ख़ूबसूरत हो
जिसमे बचपना
बचपने की उम्र से
पहले ही न गुजर जाए
जिसमे संजोए गए ख्वाब और ख्वाहिशें
अंजाम तक पहुंचने से पहले ही
दम ना तोड़ दें
लेकिन, इन हाथों में बचा है
दर्द सिर्फ दर्द और दर्द
ये कमजोर हाथ
अगर मुठ्ठी हो जाए
तो बदल दे सियासत की तस्वीर
और, हिला दें लोहे के महलों को भी
इन हाथों की सच्चाई में
आओ मिला दे
अपने हिस्से कि ताकत
ताकि ये हाथ
संघर्ष के बुढ़ाने से पहले
इस लड़ाई का रुख़ बदल दे
और कैद कर ले
नकाब के पीछे की दास्तान ।
***
३
नीली रोशनी
मेरे वक्त के एकलव्य
किसी द्रोणाचार्य के षड्यंत्र में फंसकर
अपना अंगूठा नहीं देंगे
क्योंकि उन्हें
अर्जुन के गांडीव से निकले
तीरों को तोड़ फेंकना है ।
मेरे वक्त के शम्बूक
किसी राम द्वारा
वध नहीं किए जा सकेंगे
क्योंकि उन्हें
तिरस्कृत होकर
धर्म में बने रहना
अब मंजूर नहीं है ।
मेरे वक्त के वाल्मीकि
अब रामायण नहीं लिखेंगे
क्योंकि उन्हें
दलितों के शोषण और विद्रोह का
पथरीला इतिहास लिखना है ।
मेरे वक्त की संतो ताई
अब मैला नहीं उठाएगी
क्योंकि उसने
मनु का सिर फोड़ने के लिए
हथौड़ा उठा लिया है ।
मेरे वक्त की बेटियां
उम्र से पहले ब्याही नहीं जायेंगी
क्योंकि उन्होंने अब
जिन्दगी के पन्नों पर
लिखना सीख लिया है ।
मेरे वक्त की संस्कृति
अब किसी हवेली में
रखैल नहीं होगी
क्योंकि उसने
ज़मींदार को कत्ल कर दिया है ।
मेरे वक्त का भविष्य
हम ही लिखेंगे
क्योंकि
भविष्य लिखने वाली कलम
अब हमारे हाथों में है ।
मेरे दोस्तों !
मेरे वक्त में
इतना सब कुछ हो रहा है
तो क्या में
इस सर्दी से ठिठुरती रातों में बैठकर
किसी आग का
इंतज़ार करता रहूं ?
या फिर निकल भागूं
दूर से आती किसी
नीली रोशनी की ओर ?
***
४
मिट्टी के ज़र्रे
हम मिट्टी के ज़र्रे है
एक दिन चमन पर छाएंगें
वर्ण-व्यवस्था की बेड़ी को
अपने पैरों से ठुकराएंगे
धर्माचार्यों के षड्यंत्र से
दलितों को मुक्त कराएंगे
शिक्षा की सीढ़ी पर चढ़कर
इतिहास खंगालने जाएंगें
जो दफ़न है नायक अपने
उनको न्याय दिलवाएंगे
वेदों में लिखा सब झूठा है
मेरे लोग अब जान जाएंगें
अंबेडकर, फुले, कबीर को पढ़कर
ज्ञान की नई परम्परा बनाएंगे
देर नहीं, अब उगते हुए सूरज को
हम मुठ्ठी में थाम लाएंगे
हम थोडें नहीं बहुत ज्यादा है
एक दिन इकट्ठा हो जाएंगे
हम मिट्टी के ज़र्रें है
एक दिन चमन पर छाएंगे..
***
ऐशट्रे
वर्ण-व्यवस्था रूपी ऐशट्रे
जो बुझी हुई
सिगरेट और राख़ से भरी
मेरे सामने रखी है
और इसमें
दलित समाज रूपी
माचिस की उजली तीलियां
बचने की
लाख़ कोशिशों के बावजूद
धीरे-धीरे
काली पड़ती जा रही है
क्योंकि
राख़ में रहते हुए
काले होने से बचना
घुप्प अंधेरे में
कुछ देख़ लेने जैसा है
लेकिन अब
धीरे-धीरे
माचिस की तीलियां
ख़तरे को भांपते हुए
महसूस करने लगी है कि
उजले बने रहने के लिए
वर्ण-व्यवस्था रूपी
ऐशट्रे को तोड़ना
कितना ज़रूरी हो गया है ।
***
५
बलात्कार
सुना है
भगवान वास करते है
हर इंसा के दिल में
और
भगवान द्वारा रचित है
यह समस्त संसार
तो पूछता हूं मैं
इस दूषित समाज में
जब कोई हैवान
किसी बच्ची की अस्मिता को
करता है तार-तार
तो क्यों नहीं बाहर आता
भगवान दिल से ?
जब रोती चिल्लाती बच्ची
पुकारती है मदद
और सो जाती है
सदा के लिए
तो क्या ?
भगवान ही कराते है बलात्कार ?
***
डाली
ऐ डाली
तुम कांटों से शुरु होती हो
और
फूल पर खत्म होती हो
लेकिन
फूल में आते ही खुशबू
लोग तुम्हें
फूल से रिक्त कर देते है
ऐ डाली
कब ऐसे लोग होंगे
जो
फूल को खिलने देंगे
और
कांटों को सज़ा देंगे ।
***
६
विकास का मुंह टेड़ा है
शिमला के पहाड़ों
और हसीन वादियों के बीच
बहते झरने
सुन्दर तो लगते है
लेकिन
दलितों के श्रम से
बहा पसीना
ज्यादा खूबसूरत है ।
माशूक की गोद के
सिरहाने में रोमानी खयाल
दिलकशं तो है
पर इससे बड़ी हकीकत
बेटी पैदा होने पर
गमज़दा हो जाना है ।
दिल्ली की आलीशान इमारतें
विकास की ऊंचाई छूती दिखती है
पर इन्हें बनाने वालें
मजदूरों के घरों की नीची छतें
बरसात में आज भी टपकती है ।
ऐश्वर्या की शादी की खबर
पूरी दुनियां जानती है
लेकिन उसी देश में
बहुत सी लड़कियां
बिना दहेज के
अभी तक कुंवारी बैठी हैं ।
भारत के कॉल सेन्टर
अंग्रेजी भाषा
गोरों से भी अच्छी बोलते है
लेकिन
हकीकत ये भी है कि
दलित बस्तियों के अनगिनत बच्चे
अभी तक
चाय की दुकान पर
झूठे कप धोने से
आगे नहीं बढ़े हैं ।
शहर के बड़े ऑडिटोरियम में
हो रहे संगीत के भव्य समारोह
बेहूदा नकल है
दलित बस्तियों में
कामगारों की टोलियों के बीच
जिन्दगी की महक को
जिंदा रखने के लिए
गाए जाने वाले तरानों की ।
लम्बी चमचमाती कारें
सड़कों पर दौड़ना बेईमानी है
उस बुढ़े बाप से
जो अपने नौजवान बेटे की लाश को
पोस्टमार्टम के लिए
गांव से शहर तक
साईकिल पर ढो रहा है ।
***
७
इश्क का घोषणा-पत्र
हमें इश्क है
तकलीफों में पाले हुए
उन सपनों से
जो हमें हर सुबह
ज़िन्दगी से
दो-चार होने के लिए
ज़िंदा रखते है ।
हमें इश्क है
हमारे सीनों में बची
उस आग से
जिसकी तपिश
आंदोलन की मशालों को
जलाए रखने में काम आती है ।
हमें इश्क है
अपने काम के औजारों से
जो हमें श्रम का
गर्वीला एहसास कराते हैं ।
हमें इश्क है
स्कूल जाते छोटे बच्चों से
जिनके मस्तिष्क
किसी साजिश में नहीं बल्कि
ज़िन्दगी की नई इबारत
सीखने में व्यस्त है ।
हमें इश्क है
बहती हुई हवा से
जो ऊंच-नीच का
फर्क किए बगैर
हमारी सांसों में आती-जाती है ।
हमें इश्क है
डॉ. अम्बेडकर के आंदोलन की
रोशनी से
जिसने साबित किया कि
प्रतिभाएं वर्ण की मोहताज नहीं होती ।
हमें इश्क है
लड़ते हुए अपने साथियों से
जो अस्पृश्यता
और गैरबराबरी के खिलाफ
चेतना की जमीन
तैयार करने की
रणनीति में जुटे हैं ।
मेरे दोस्तों
हमारे इश्क से अगर
तुमको भी है मोहब्बत
तो आओ चले मिलकर
अपने इश्क के घोषणा पत्र को
खंजर बनाकर
जाति-व्यवस्था के सीने में
अंदर तक गाड़ आए ।
***
८
अधूरे सपने
इतिहास की आंखों के सपने
अभी अधूरे है
इन्हें तलाश है
भविष्य के अपने
नायक और हमसफर की
उम्मीदवारी की
इस कतार में अगर
तुम भी हो एक
तो बधाई देता हूं तुम्हें
समाज की
घिनौनी व्यवस्थाओं को
अस्वीकृत कर
विद्रोह की चिंगारी
एक जरूरी कार्यवाही लगती हो
सिर पर मैला उठाना
इंसानियत को दी जाने वाली
सबसे बड़ी गाली लगती हो
तो बधाई देता हूं तुम्हें
हरिजन कहलाने पर
हृदय में टीस उठती हो
मंदिर से आने वाली आवाजें
शोषण का बीज लगती हो
हिन्दू परंपराओं की श्रृंखला
भौंडे पाखंड लगते हो
समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व
जीवन के सच्चे मूल्य लगते हो
तो बधाई देता हूं तुम्हें
राम कायर
शम्बूक निर्भय लगते हो
द्रोण षड्यंत्रकारी
एकलव्य बलिदानी लगते हो
झलकारी बाई वीरांगना
सावित्री बाई माता लगती हो
तो बधाई देता हूं तुम्हें
निर्गुण संत तार्किक
बुद्घ, फुले और अम्बेडकर आदर्श
शिक्षा
आंदोलन का हथियार
आरक्षण
भीख नहीं अधिकार लगते हो
तो बधाई देता हूं तुम्हें
परजीवी होने में शर्म हो
श्रम की गरिमा का एहसास हो
सामाजिक कर्तव्यों का बोध हो
अन्वेषण के राही हो
मानवीय समाज के वाहक हो
दलित चेतना से लैस हो
तो बधाई देता हूं तुम्हें
इतिहास की आंखों को
तुम्हारी ही तलाश है ।
***
९
संघर्ष के दस्तावेज़
अपने हकों की धरती से
बेदख़ल किए जाने के खिलाफ
संघर्ष की वैचारिकी
हमारी ज़िंदगी के
महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है
जिन्हें नष्ट करने की
नाकाम हरकतों के पागल कुत्ते
गोहाना, सालवन, झज्जर
और खैरलांजी में
ग़श खाकर गिर चुके हैं
सावधान ऐ तल्ख़ निगाह
इन दस्तावेज़ों पर
बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले
और अम्बेडकर के
अमिट हस्ताक्षर है
जो हमारे दिमाग की धमनियों में
रक्त बनकर बह रहे है
और इनके सुन्दर फूल
हमारे हिरावल दस्तों की
किताबों के बीच दबी
कोई मुर्दा निशानी नहीं
बल्कि
पहली मोहब्बत की तरह
आज भी ज़िंदा है ।
***
गुब्बारे
मैं गुब्बारे बेचता हूं
लाल, हरे, नीले, पीले, संतरी
हां, मैं बदरंग जिंदगी में
रंग भर देने वाले
गुब्बारें बेचता हूं
इन गुब्बारों में भरता हूं
अपनी जिंदगी की
बची हुई कीमती गर्म सांसे
जो मेरे शरीर में अभी बाकी है
बच्चे जब इन गुब्बारों को पाकर
मुस्कुराकर खुश होते हैं
तो मुझे लगता है जैसे
मैं एक फरिश्ता हूं
बुढ़ी दादी कहती थी
फरिश्ते बच्चों को खुशी देते है
बच्चे फिर बच्चे है
वो शैतान नहीं होते
गुब्बारों में कैद मेरी सांसों को
आजादी देकर वो
बिखरा देते है खुले आसमान में
मेरी सांसे तैरने लगती है
और मैं एक बार फिर से
जिंदा हो जाता हूं
मेरे लिए तो
बच्चे ही फरिश्ते हैं
हां, मैं गुब्बारे बेचता हूं
लाल, हरे, नीले, पीले, संतरी
मैं गुब्बारे बेचता हूं ...
***
अच्छी भा्वपूर्ण सारी कवितायें, बधाई। मेरा अनुभव ये कहता है कि एक बार में एक या अधिकतम दो कवितायें ही पोस्ट करनी चाहिये तब जाकर कमेन्ट करने वालों को सहूलियत होती है कि कविता के मटेरियल पर कुछ कह सकें अन्यथा अगर कुछ कमेन्ट भी हासिल होगा तो चलताऊ क़िस्म का होगा सिर्फ़ रस्म अदायगी के लिये।
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