कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्यों में भी कमी आने लगती है।...
कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्यों में भी कमी आने लगती है। भाषा और बोलियों को इस संकट से उवारने की दृष्टि से मध्यप्रदेश सरकार एक अच्छी पहल करने जा रही है। हाल ही में प्रदेश सरकार ने जो लोक सेवा गारंटी कानून लागू किया है उसके तहत कानून की जानकारी आदिवासियों बोलियों और भाषाओं में दी जावेगी, जिससे इस कानून को आदिवासी समाज आसानी से समझ सके और अपने अधिकार की वकालत अपनी मातृ-भाषा में ही कर सके। ऐसे उपाय फिलहाल गोड़ी, भीली और कोरकू भाषा में अधिनियम के प्रावधानों का अनुवाद कराकर किया जा रहा है।
क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं। कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में, भले कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारंपरिक ज्ञान के असीम खजाने की उम्मीद रहती है। ऐसी भाषाओं का उपयोग जब मातृभाषा के रुप में नहीं रह जाता है तो वे विलुप्त होने लगती हैं। सन् 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो विलुप्त हो सकती हैं।
जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने अपने शोध से भारत के भाषा और संस्कृति संबंधी तथ्यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था, उसी तर्ज पर अब नए सिरे से गंभीर प्रयास किए जाने की जरुरत है, क्योंकि हर पखवाड़े एक भाषा मर रही है। इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं हैं, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और ये पारंपरिक ज्ञान की कोष हैं। भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे हैं कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए। स्वाधीनता दिवस 26 जनवरी 2010 के दिन अंडमान द्वीप समूह की 85 वर्षीया बोआ के निधन के साथ एक ग्रेट अंडमानी भाषा ‘बो' भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थीं। इसके पूर्व नवंबर 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ ‘खोरा' भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया। किसी भी भाषा की मौत सिर्फ एक भाषा की ही मौत नहीं होती, बल्कि उसके साथ ही उस भाषा का ज्ञान भण्डार, इतिहास,संस्कृति,उस क्षेत्र का भूगोल एवं उससे जुड़े तमाम तथ्य और मनुष्य भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। इन भाषाओं और इन लोगों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है। ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं।
अंडमान द्वीप की भाषाओं पर अनुसंधान करने वाली जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की प्राध्यापक अन्विता अब्बी का मानना है कि अंडमान के आदिवासी को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किए गए इसके दुष्प्रभाव से अंडमान द्वीप क्षेत्र में 10 भाषाएं प्रचलन में थीं, लेकिन धीरे-धीरे ये सिमट कर ‘ग्रेट अंडमानी भाषा' बन गईं। यह चार भाषाओं के समूह के समन्वय से बनीं।
भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम है उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया।
यहां चिंता का विषय यह भी है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रहीं की ‘बो' और 'खोरा' भाषाओं की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाईं। ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाईं। दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिश थीं। अंग्रेजों ने जब भारत में फिरंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया। अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरु किया गया। इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब 10 जनजातियों के पांच हजार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे। बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरंतर रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफत में आने लगे। नतीजतन गिनती के केवल 52 लोग जीवित बच पाए। ये लोग ‘जेरु' तथा अन्य भाषाएं बोलते थे। बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा ‘बो' के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थी। लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण तजिंदगी उसने ‘गूंगी' बने रहने का अभिशाप झेला। भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग 65 हजार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे। ईसाई मिशनरियों द्वारा इन्हें जबरन ईसाई बनाए जाने की कोशिशों और अंग्रेजी सीख लेने के दबाव भी इनकी घटती आबादी के कारण बने।
‘नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजज' के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है। सन् 2100 तक भू-मण्डल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषाओं का लोप हो सकता है। इनमें से पूरी दुनिया में सात्ताईस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं में असम की 17 भाषाएं शामिल हैं। यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी,मिसिंग,कछारी,बेइटे,तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं। इसके बावजूद 28 हजार लोग देवरी भाषी, मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब 19 हजार लोग अभी भी हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं। घरों में, बाजार में व रोजगार में इन भाषाओं का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन भाषाओं को सीख-पढ़ नहीं रही है। दरअसल जिस भाषा का प्रयोग लोग माृतभाषा के रुप में करना बंद कर देते हैं, वह भाषा धीरे-धीरे विलुप्ति के निकट आने लगती है।
भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं। व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीन भावना भी पनप रही हैं। इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाओं की विलुप्ति पर अंकुश लगाना मुश्किल है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेषों में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफतरों में रोजगार दिए जाएं। इससे अंग्रेजी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं व बोलियों का सरंक्षण तो करेंगे ही उन्हें रोजगार का आधार बनाकर गरिमा भी प्रदान करेंगे। ऐसी सकारात्मक नीतियों से ही युवा पीढ़ी मातृभाषा के प्रति अनायास पनपने वाली हीन भावना से भी मुक्त होगी। अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और स्थानीय ज्ञान परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जरुरी है हम भाषाओं और उनके जानकारों की वंश परंपरा को भी अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता करें। इस दृष्टि से मध्यप्रदेश सरकार की भाषा एवं बोलियों को बचाने की यह पहल स्वागत योग्य है।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
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