अपनी राजनीतिक अकुशलता और प्रशासनिक अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए आखिरकार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी अलगाववदियों की जमात में शामिल ह...
अपनी राजनीतिक अकुशलता और प्रशासनिक अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए आखिरकार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी अलगाववदियों की जमात में शामिल हो गए हैं। विधानसभा में भाषण देते हुए उन्होंने पाकिस्तानपरस्ती का वही राग अलापा-जो अन्य कश्मीरी संगठन अलापते हुए कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग उठाते रहे हैं। उमर अब्दुल्ला से ऐसी उम्मीद इसलिए नहीं थी क्योंकि घाटी में सक्रिय दलों में से नेशनल कांफ्रेंस को ही सबसे ज्यादा भारत की अखंडता से जुड़ा राष्ट्रीय दल माना जाता रहा है। लेकिन उन्होंने कश्मीर के विलय पर ही सवाल उठाते हुए कह दिया कि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय उस तरह नहीं हुआ, जैसा कि हैदराबाद और जूनागढ़ रियासतों का विधिवत हुआ था। यह तो मात्र एक सशर्त समझौता था, जिस पर जम्मू-कश्मीर रियासत ने भारत में विलय होने के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए थे। घाटी तो इस समझौते के सम्मान में तत्पर है, लेकिन केन्द्र इसकी ओट में राज्य को कमजोर करने में लगा है। उमर अब्दुल्ला के इस वक्तव्य से साफ हो गया है कि घाटी में आर्थिक पैकेज और स्वायत्तता का विस्तार अंततः पाकिस्तानपरस्त ताकतों को ही मजबूती देंगे। उमर ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए पाकिस्तानी हस्तक्षेप की वकालात भी की है।
फौरी तौर से हम मान लेते हैं कि उमर ने यह बयान अपने राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासनिक अकुशलताओं से ध्यान हटाने के लिए दिया है। क्योंकि 20 माह पहले घाटी में जब चुनाव हुए थे तब उम्मीद की जाने लगी थी कि कश्मीर में अब पूरी तरह अमन-चैन कायम हो जाएगा। कुछ समय के लिए आतंकवादी घटनाओं पर अंकुश भी लगा रहा और कश्मीर में पर्यटकों की तादाद बढ़ने से रौनक भी लौटना शुरू हुई और अर्थव्यवस्था का चक्र भी घूमने लगा। एक युवा के हाथ प्रदेश की कमान आई तो स्थानीय बेरोजगार युवाओं को लगा कि रोजगार के नए साधन उत्सर्जित होंगे और राज्य में विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।
लेकिन चुनावी मंचों से उमर ने युवाओं को जो सपने दिखाए थे और युवाओं ने उनसे जो उम्मीदें पाली थीं, वे अफलातूनी साबित हुईं। उमर में शायद कोई राजनीतिक दृष्टि नहीं थी इसलिए न तो वे शिक्षित व अशिक्षित युवा बेरोजगारों को रोजगार से जोड़ने की किसी नीति पर ठोस कार्य कर पाए और न ही समाज में सरकारी दखल से कोई ऐसा कार्यक्रम लागू कर पाए जिससे हाथ पर हाथ धरे बैठे लोगों को रोजगार मिलता और उनका मन बंटता। आखिर में अपनी कमजोरियों पर आवरण डालने के लिए वे अलगाववादियों की जमात में जा बैठे।
उमर अब्दुल्ला ने अपना बयान विधानसभा में दिया था इसलिए वह इतिहास का हिस्सा हो गया। इस बयान का अर्थ निकलता है, जम्मू-कश्मीर के विलय को अभी तकनीकी वैधता प्राप्त नहीं है। इसलिए वह न तो भारतीय संविधान का अंग है और न ही अखण्ड भारत का हिस्सा। राज्यों के विलीनीकरण के दौरान जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराज हरिसिंह ने 5 मार्च 1948 को विलय के दस्तावेजों पर ठीक उसी तरह दस्तखत किए थे, जिस तरह से विलय की तहरीर पर हैदराबाद, जूनागढ़ और भोपाल रियासतों ने दस्तखत किए थे। इस आधार पर ये रियासतें पूरी तरह भारतीय अखण्डता का हिस्सा हो गई। हालांकि इसके पहले ही आजादी के बाद 26 अक्टूबर 1947 को ही जम्मू-कश्मीर का भारत में विधिवत विलय हो चुका था और इसी दिन देश की अन्य रियासतों व राजे-रजवाड़ों का विलय हो गया था। बाद के कुछ सालों में जो दस्तावेज तैयार हुए उनमें समझौतों के तहत इन रियासतों की संपत्तियों का बंटवारा हुआ था। जिनमें घोषित किया गया था कि राजाओं की निजी संपत्तियों में कौन-कौन सी संपत्तियां रहेंगी और राज्य अथवा केन्द्र के अधीन कौन-सी संपत्तियां आएंगी।
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि नेहरू की नादानी से नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच जो संधि हुई थी, उसमें कुछ ऐसे प्रावधान हैं जो जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों की तुलना में अलग करते हैं। इस राज्य के यही विशेषाधिकार हैं। इसी समय संविधान में धारा 370 जोड़ी गई थी और जम्मू कश्मीर को धारा 238 के तहत केन्द्र को कुछ अलग शर्तों का प्रावधान रखते हुए इस राज्य को अलग कर दिया गया था। इस कारण एक ऐसी मर्यादा निर्मित हुई, जिसके तहत भारत सरकार तब तक अन्य कानूनों का इस राज्य में पालन नहीं करवा सकती जब तक जम्मू-कश्मीर राज्य की विधानसभा में उसे मंजूरी न मिले जाए। ऐसे ही विशेषाधिकार हिमाचल, अरूणाचल और नागालैण्ड को भी दिए गए थे। लेकिन इन्हें बाद में खत्म कर दिया गया।
धारा 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को अपना पृथक संविधान और झण्डा बनाने तक का अधिकार मिला हुआ है। इसके तहत इस राज्य का जो संविधान है भी उसकी भी धारा 3 से 5 के तहत कश्मीर भारत का अटूट हिस्सा हे। वैसे भी धारा 370 एक अस्थायी धारा है। भारत के राष्ट्रपति एक अधिसूचना के जरिये इसे जब यह समझें कि जम्मू-कश्मीर में इसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है, तब इसे खत्म कर सकते हैं। यह धारणा एक भ्रम है कि यह धारा तभी खत्म की जा सकेगी जब जम्मू-कश्मीर विधानसभा इसे समाप्त करने के प्रस्ताव को दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दे। संविधान के कई जानकार तो इसे एक रद्दी का टुकड़ा भर मानते हैं।
लेकिन इन संवैधानिक तथ्यों को नकारते हुए उमर अब्दुल्ला ने बोल दिया कि जम्मू-कश्मीर विलय का यह एक ऐसा समझौता है जो भारतीय संप्रभुता और संविधान के दायरे में नहीं आता है। इसलिए उमर अब्दुल्ला ने कश्मीरी अलगवादियों के इस दुष्टिकोण की पुष्टि कर दी कि कश्मीर एक अंतराष्ट्रीय विवाद है और अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप से ही इस समस्या का समाधान संभव है। उमर ने कह भी दिया इस विवाद के हल में पाकिस्तान की रायशुमारी भी जरूरी है। उमर का यह बयान आठ सूत्री उस पैकेज को ठेंगा दिखाया है जिसके जरिए कश्मीर शांति खरीदने की तात्कालिक कवायद की गई है। लिहाजा कालांतर में केन्द्र के सदप्रयासों को तो पलीता लगेगा ही, असंतोष की आग भी कब भड़क उठे कुछ कहा नहीं जा सकता ? क्योंकि जम्मू-कश्मीर के जिस क्षेत्रिय दल को भारत की संप्रभुता के प्रति निकट मानते हुए राष्ट्रीय दल माना जाता था उसी दल ने भारत की अखण्डता को खंडित मान लिया है। लिहाजा अब यहां सवाल उठता है कि कश्मीर में अब राष्ट्रीय सोच की उम्मीद किस दल से की जाए ?
प्रथम तो कश्मीर, धारा ३७० की तथा उमरअब्दुला क़ी हकीकत बताने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकेन्द्रीय सरकार को चाहिय कि वह उमर अब्दुल्ला को भारतीय संविधान की शक्ति का अनुभव करावे और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागु करे, कश्मीर स्थित पाकिस्तान की सीमा पर सेना को तेनात कर बाहरी आतंकवादियों की प्रभावी रोकथाम भी करे और कश्मीरी पंडितो की घाटी में पुन: बसाने के साथ ही धारा ३७० के इस रद्दी कागज़ को फाड़ फेंके ताकि अन्य भारतीय राज्यों की तरह वहां भी पंचायती राज की स्थापना होवे ताकि आम नागरिक की विकास व शासन में भागीदारी सम्भव हो और उन्हें स्वशासन का अनुभव हो सके |