उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद जनता जर्नादन ने इसका सम्मान किया। मुद्दे से जुड़े प्रमुख पक्षकारों ने भी मर्यादित बयान देकर संयम व व...
उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद जनता जर्नादन ने इसका सम्मान किया। मुद्दे से जुड़े प्रमुख पक्षकारों ने भी मर्यादित बयान देकर संयम व विवेक की परिपक्वता दर्शाई। लेकिन अब संकट उन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों की ज्ञान दक्षता को हैं जो बाबरी विवाद में मुसलिम पक्ष को हर तरह का गोला बारूद मुहैया कराने में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। चुनौती व दिक्कत उन राजनीतिकों को भी हैं जो इस विवाद के जरिए अपनी राजनीति चमकाने में लगे रहे हैं। इसलिए एक और आहत बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि इस फैसले में इतिहास, साक्ष्य, तार्किकता और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नजरअंदाज कर घार्मिक आस्था व दिव्यता को मान्यता दी गई। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिघि ने तो इस विवाद को ‘‘आर्य षड्यंत्र‘‘ ही घोषित कर दिया। इन बयानबाजियों से तो ऐसा लगता हैं कि फैसले के बाद जब शरारती तत्व अपनी मांदो में शांत हैं, तब कथित बुद्धिजीवी व इक्का - दुक्का राजनेता आम लोगों को बहकाने, उकसाने व भड़काने की कवयाद में लग गए है।
कोई भी देश इतिहास की किताब नहीं होता। लेकिन देश की ऐतिहासिकता होती है। पुरातत्वीय साक्ष्य और सांस्कृतिक मूल्य होते हैं। जिनसे ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। जरूरी नहीं कि इतिहास, पुरात्व, साहित्य और दर्शन जैसे विषयों से जुड़े शिक्षक इतिहासकार लेखक और दार्शनिक हों ? इसलिए उनकी ही दी दलीलें सर्वमान्य हों ? दरअसल इस फैसले से वामपंथी बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों की पूर्वग्रही सोच को करारा झठका लगा है। उनकी सारे तर्कों, साक्ष्यों और ऐतिहासिक समझ पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। वे इतिहास को मात्र प्रगतिशील विचारधारा मानकर चल रहे थे। जबकि इतिहास की सत्य के उद्घाटन के अतिरिक्त न तो कोई वैचारिक और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता होती है और न ही इतिहास में पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष सोच का समावेश हो सकता है। दरअसल इतिहास तो होता ही घर्मनिरपेक्ष है। वैसे भी अयोध्या विवाद से जुड़ा यह फैसला हाईकोर्ट की देखरेख में विवादित परिसर में कराई खुदाई में निकले पुरातत्वीय साक्ष्यों, शिलालेखों और उपलब्ध दस्तावेजी प्रमाणों का आधार बनाकर दिया गया है न कि केवल धार्मिक आस्था की बिना पर ? बावजूद इसके मार्क्स और लेनिन की दुम थामे रखने वाले इतिहासज्ञ फैसले को झुठलाने के थोथे दावे करने में लगे हैं।
इन इतिहासकारों की दलिलों को ठेस इसलिए भी पहुंची हैं, क्योंकि इस फैसले की संयोग से यह विलक्षणता रही कि इस विवाद से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण सवाल, क्या किसी मंदिर या धार्मिक स्थल को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई थी, का जवाब शत-प्रतिशत के बहुमत से दिया गया है। तीनों न्यायमूर्तियों ने निर्विवाद रूप से माना है कि राम के बालरूप में ढांचे के जिस केन्द्रीय स्थल पर राम की मूर्ति स्थापित है ,वही स्थल राम जन्म भूमि है और यहां तोड़े गए मंदिर के अवशेष मिले हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अदालत को उपलब्ध कराए सक्ष्यों के समक्ष वामपंथी बौद्धिकों की न तो दलीलें ठहर पाईं और न ही अदालत ने उनके साक्ष्यों को मान्य किया।
न्यायालय ने न केवल एएसआई से अपनी देखरेख में खुदाई कराई, बल्कि विवाद से जुड़े सभी पक्षकारों को अपना पर्यवेक्षक नियुक्त करने का भी आग्रह किया। नतीजतन 29 मुसलिमों सहित 131 मजदूरों के समूह ने खुदाई शुरू की। खुदाई में विवाहित स्थल पर मस्जिद से पहले दसवीं सदी का एक ढांचा होने के प्रमाण मिले जिसकी हिंदु मंदिरों जैसी समरूपता थी। मिले पुरावशेषों में शिवमूर्ति, खम्बे, कमल, कौस्तुभ, आभूषण जैसे हिन्दु प्रतिक चिन्ह भी मिले। यहां मिली ईटें बाबर के भारत आने से पहले की पाई गईं। कुछ पुरावशेष जमीन से 20 फुट नीचे तक मिले। जिन्हें एएसआई ने 1500 साल पुराना माना। विवादित स्थल की मूल सतह और नींव 30 फुट की गहराई तक नहीं मिली, जिससे अनुमान लगाया गया की उस स्थान पर ढाई हजार साल पहले तक कोई न कोई ढांचा रहा है।
यही नहीं उत्खनन निर्विवाद व निष्पक्ष रहे इसके लिए उच्च न्यायालय के आदेश पालन में एएसआई ने सर्वेक्षण के लिए आधुनिकतम तकनीक का सहारा भी लिया। इस मकसद पूर्ति के लिए जापान और कनाडा की कंपनियों ने संयुक्त रूप से ‘ग्राउंड पेनेटेटिंग राडार सिस्टम‘ से विवादित परिसर व इससे जुड़े क्षेत्र के 4000 फोटो भी लिए। इससे जमीन के नीचे मंदिर की बुनियाद दबी होने के रहस्य का खुलासा हुआ। यह राडार एक भू-भौतिक प्रणाली है। इसमें राडार स्पंदन विधि का प्रयोग करके जमीन के भीतर के चित्र लिए जा सकते हैं। इस प्रणाली में इलेक्टोमेग्नेट रेडिएशन का रेडियो स्पेक्ट्रम के माइक्रोवेब बैंड में उपयोग किया जाता है और रिफलेक्टेड सिग्नल इमेज बनाते हैं। इससे विभिन्न फ्रिक्वेंसी का उपयोग कर 30 मीटर से लेकर एक एक किलोमीटर तक की गहराई की जांच की जा सकती है। यह पूरी प्रणाली एक माइक्रो कंप्यूटर से संचालित होती है। आखिरकार खुदाई की पुरातन और आधुनिक तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल करने के बाद एएसआई ने अगस्त 2003 में 574 पृष्ठों की रिपोर्ट इलाहबाद हाईकोर्ट की लखनउ खण्डपीठ को सौंपी। इस रिपोर्ट में अनेक राजपत्रों, पुस्तकों और विदेशी यात्रियों के संस्मरणों का हवाला भी दिया गया है। इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट होने के बाद ही शायद पुरातात्विक सर्वेक्षण से जुड़ी यह ऐसी पहली रिपोर्ट है जिसे न्यायालय ने किसी फैसले का निर्णायक आधार माना।
इसके बावजूद वामपंथी इतिहासकार इस फैसले को हिंदू आस्था का आधार मान रहे हैं। ये निराधार आशंकाएं हाईकोर्ट और एएसआई दोनों पर ही बेवजह सवाल उठाती हैं। जबकि तमाम कुशंकाओं का जवाब पुरातत्वविद् अरुणकुमार शर्मा ने प्रमाणों के सत्यापन के साथ दिया है। सवाल उठाया गया है कि चूना-सुर्खी का गारा किसी पुराने हिंदू मंदिर का हिस्सा नहीं हो सकता ? इस बाबत् शर्मा का तर्क है कि भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के समय से ही चूने और सुर्खी से जुड़े भवनों के प्रमाण मिलते हैं। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने इसे मस्जिद साबित करने के नजरिए से ढांचे में लगी महराबों को आधार बनाया। जवाब में अरुण शर्मा ने लोहे से लोहा काटने' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए 1462 में अरबी भाषा में लिखी गई किताब ‘तारीखे-फरिस्ता' की मिसाल अदालत में पेश की। इसके अनुसार 90 हिजरी से ही हिंदू मंदिरों में मेहराबों का इस्तेमाल होने लगा था। खुदाई में मिले पुरावशेषों ने यह भी निर्धारित कर दिया है कि वे केवल धार्मिक स्थल के ही अवशेष हैं न कि किसी आवासीय बस्ती अथवा घर के।
अयोध्या और सरयू नदी के किनारे बने विवादित ढांचे को हिंदू स्थापत्य की संरचना सिद्ध करने के लिए ‘ मयमत्म' जैसे प्राचीन ग्रंथ का भी सहारा लिया गया । इस ग्रंथ के सिलसिले में मान्यता है कि इसकी रचना रावण के ससुर मय राक्षस ने की थी। विवादित ढांचा इसी पुस्तक में दर्ज वास्तुशिल्प के आधार पर बना है। डेढ़ हजार से भी ज्यादा पन्नों के इस मूल संस्कृत ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेजी में बेल्जियम के ब्रूनों डेगन्स ने किया है। ब्रूनों अंतराष्टीय ख्याति प्राप्त वास्तुविद और संस्कृत के प्राध्यापक हैं। साहित्यकार मदन मोहन शर्मा शाही के उपन्यास ‘लंकेश्वर' में मयदानवों के वास्तुविद् होने का विस्तार से वर्णन दर्ज है।
जब विचारधारा आडंबर साबित हो रही हो और तुष्टिकरण से राजनीति चमकाने वालों को नकारा जाना लगा हो, ऐसे स्थिति में अनेक गलतियां और विसंगतियों होने के बावजूद यह फैसला स्वागत योग्य है। जो मुलायम सिंह इस फैसले से मुसलिमों को ठगे जाने का अहसास करा रहे हैं, दरअसल यहां मुस्लिम नहीं मुलायम खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। मुकदमे के प्रमुख पक्षकार हाशिम अंसारी ने तो कह भी दिया कि मुलायम वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं और उनसे बड़ा मक्कार कोई नेता नहीं है। वे फैसले के मुताबिक एक तिहाई हिस्सा भी हिंदू भाई जहां चाहें वहां लेने को तैयार है। दूसरी तरफ अयोध्या के प्रमुख संस महंत नृत्य गोपालदास ने उदारता का शंखनाद करते हुए कहा है कि यदि मुसलमान भाई मस्जिद का निर्माण बाबर का नाम हटाकर यदि किसी इस्लाम के सूफी संत या पैंगबर के नाम करते हैं तो वे खुद मस्जिद निर्माण में कार सेवा करेंगे। इससे देश में राम-रहीम-रसखान की संस्कृति का विस्तार होगा।
नवाचार के इन सद्भावों को प्रोत्साहित करने की बजाय वामपंथी बुद्धिजीवी भावनाओं को उकसाने का काम कर कट्टरतावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। दरअसल जनवादी कभी व्यक्ति से जुड़े ही नहीं रहे। उनके अंतर्मन में अपने मध्यवर्गीय अस्तित्व को लेकर हमेशा या तो संरक्षण का भाव रहा या अपराध बोध का। इसलिए अपने वर्गचरित्र के प्रति आत्मग्लानि प्रच्छन्न बनी रहे इस हेतु इन धर्मनिरपेक्षतावादियों ने मार्क्सवादी वामपंथ को सुरक्षा कवच बनाया हुआ है। इसलिए ये इतिहास को इतिहास के रुप में विकसित होने देने में हमेशा रोड़ा बने रहे। भाजपा शासित राज्य सरकारों ने जब कभी इतिहास के पुनर्लेखन की बात उठाई भी तो इन्होंने इतिहास के भगवाकरण का हौवा खड़ा किया। जब उपनिषद् महाभारत, रामायण, और पुराणों के रचनात्मक भाष्य लेखन की बात उठती है तो ये इन ग्रंथों और इनसे जुड़े पात्रों को मिथकीय जताकर उनकी खिल्ली तक उड़ाते हैं। जब देश का साधु समाज, काजी और मौलवी कट्टरता से छुटकारे के लिए उदारता दिखा रहे हों तब जरुरी हो जाता है कि ये बुद्धिजीवी अंग्रेजपरस्त उस औपनिवेशिक मानसिकता की केंचुल से बाहर निकलें जो इतिहास की सोच को खंडित बनाती है। देश के बुद्धिजीवियों को अब मार्क्स के बुत के समक्ष दण्डवत बने रहने की बजाय इतिहास को आधुनिक दृष्टि से देखने की जरुरत है जिससे मानवीय जीवन सरल और भयमुक्त हो। अन्यथा बुद्धिजीवियों की यह कट्टरता उनकी निष्पक्षता को संदेह के दायरे में ला खड़ा करेगी ?
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
निर्विवाद सत्य!!
जवाब देंहटाएं"दरअसल इस फैसले से वामपंथी बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों की पूर्वग्रही सोच को करारा झठका लगा है। उनकी सारे तर्कों, साक्ष्यों और ऐतिहासिक समझ पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। "
बुद्धिजीवियों की यह कट्टरता उनकी निष्पक्षता को संदेह के दायरे में ला खड़ा करेगी ?
जवाब देंहटाएंखड़ा करेगी से क्या मतलब है. अब उन्हे निष्पक्ष मानता कौन है?
सही कहा संजय जी,
जवाब देंहटाएंअब उन्हे निष्पक्ष मानता कौन है?
प्रमोद जी ने कहा……
"बावजूद इसके मार्क्स और लेनिन की दुम थामे रखने वाले इतिहासज्ञ फैसले को झुठलाने के थोथे दावे करने में लगे हैं।"
इस सब से पता चलता है कि आम हिन्दू कितना सहिष्णु है और इस सहिष्णु हिन्दुत्व के दुश्मन हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्षी हिन्दू ही हैं...
जवाब देंहटाएं"दरअसल इस फैसले से वामपंथी बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों की पूर्वग्रही सोच को करारा झठका लगा है। उनकी सारे तर्कों, साक्ष्यों और ऐतिहासिक समझ पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। " तथा--
जवाब देंहटाएं""नवाचार के इन सद्भावों को प्रोत्साहित करने की बजाय वामपंथी बुद्धिजीवी भावनाओं को उकसाने का काम कर कट्टरतावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। दरअसल जनवादी कभी व्यक्ति से जुड़े ही नहीं रहे। उनके अंतर्मन में अपने मध्यवर्गीय अस्तित्व को लेकर हमेशा या तो संरक्षण का भाव रहा या अपराध बोध का। इसलिए अपने वर्गचरित्र के प्रति आत्मग्लानि प्रच्छन्न बनी रहे इस हेतु इन धर्मनिरपेक्षतावादियों ने मार्क्सवादी वामपंथ को सुरक्षा कवच बनाया हुआ है। ""--
------बहुत सुन्दर व सटीक व्याख्या है बामपन्थी नासमझी व मानसिकता की , वे सदैव भारतीयता के विरोध में ही रहते हैं।