''चा चाजी....!‘‘ सुबह-सुबह दरवाजा पीटने से मेरी नींद खुल गई थी। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि गुड्डा इस उकताहट के साथ मुझे क्य...
''चाचाजी....!‘‘
सुबह-सुबह दरवाजा पीटने से मेरी नींद खुल गई थी। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि गुड्डा इस उकताहट के साथ मुझे क्यों पुकार रहा है। मैंने तत्परता से उठकर दरवाजा खोला। गुड्डा मुझे और द्वार को ठेलता हुआ दो कदम कमरे में घुसकर बोला, ''चाचाजी-चाचाजी....टिल्लू के पापा ने गले में फांसी लगा ली....।‘‘
''क्या...?‘‘
एकाएक मैं यह कैसे हो सकता है की संभावना करते हुए चौंक पड़ा।
''अभी मैं डेयरी पर दूध लेने गया था तो सब लोग यही बात कर रहे थे। फिर मैं उनकी गली से ही होकर आया हूं, उनके घर पर बहुत भीड़ इकट्ठी हो गई है।‘‘
गुड्डा ने अपनी बात प्रमाणित करने के लिए दो सबूत दे दिए थे। अब उसकी बात पर शक करने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी। गुड्डा की खबर सुनते ही मेरी पत्नी भी बिस्तर छोड़कर मेरे बगल में आकर खड़ी हो गई थी। खबर की सत्यता महसूसते ही वह निढाल होकर जहां की तहां बैठ गई।
मैंने अविलम्ब कुर्ता-पाजामा डाला और पत्नी से कहा-''जल्दी आओ।‘‘
बाहर निकलने पर मैंने अनुभव किया कि गुड्डा ने खोजी रिपोर्टर की तरह खबर सारे मोहल्ले में फैला दी है। मेरे मकान की सभी औरतें आंगन में इकट्ठी होकर चर्चा में जुट गई थीं। गली की तमाम औरतें भास्कर मास्टर तथा कोयले वाले लालाजी के द्वार पर खड़ी खुसर-फुसर करने लग गई थीं।
मेरे गली से गुजरते वक्त सबकी चौकन्नी निगाहें मुझ पर टिक गई थीं- कुछ-कुछ शंकित-सी। मैंने किसी से कोई जानकारी प्राप्त करने की कोशिश नहीं की, क्योंकि मैं जानता हूं इस तरह के लोगों पर ज्यादातर कच्ची और मनगढंत जानकारियां होती हैं। अक्सर इस तरह के मामलों में सही और उचित धारणाओं की बजाय गलत और अवैधानिक धारणाएं गढ़ ली जाती हैं। मैं तीर के निशाने की तरह टिल्लू के पापा गली में मुड़ गया।
टिल्लू के पापा यानी सतीश भार्गव। सतीश से मेरी बहुत गहरी अथवा बहुत पुरानी दोस्ती नहीं थी। लेकिन नयी होते हुए भी हम घनिष्ठ मित्र बन गए थे। उसका साहित्य पढ़ने में रूझान था, जबरदस्त रीडिंग हैबिट थी उसमें। मैं थोड़ा-बहुत लिखने के कारण साहित्यिक पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का नियमित ग्राहक तथा पाठक था, इसलिए मेरे निजी पुस्तकालय में चुनी हुई पुस्तकों का अच्छा भंडार था। मार्क्सवादी विचारधारा का उस पर अतिरिक्त प्रभाव था। कुछ मार्क्सवादी साहित्य वह अपने ड्राइंग-रूम की अलमारी में डेकोरेशन पीस की तरह सजाकर रखता था। एक बार उसने मुझसे कहा भी था, ''तुम प्रतिबद्ध होकर मार्क्सवादी लेखन क्यों नहीं करते ?‘‘
''प्रतिबद्धता लेखन को ईमानदार नहीं बनाती। हम बे-वजह रचना को प्रतिबद्धता के कारण विचारधारा के चौखटे में डाल देते हैं। इस कारण रचना की यथार्थता समाप्तप्रायः हो जाती है। फिर....कोई भी वाद या विचारधारा किसी राष्ट्र को समृद्धिशाली नहीं बनाते, राष्ट्र समृद्धिशाली बनता है-व्यक्ति की निजी ईमानदारी और राष्ट्रीय दायित्व बोध से''।
उस दिन मुझे अहसास हुआ था कि सतीश की मानसिकता पर मेरी बात ने कहीं गहरा असर किया है। उसके बाद उसने मुझसे कभी प्रतिबद्ध लेखन करने का आग्रह नहीं किया।
सतीश को इस शहर में आये हुए यह चौथा वर्ष था। अपनी जन्मभूमि शाजापुर से स्थानांतरित होकर वह शिवपुरी आया था। शिवपुरी का अपना यह आकर्षण है कि जो भी अधिकारी, कर्मचारी एक बार यहां आ जाता है, फिर स्थायी तौर पर बसने की उसकी तमन्ना बलवती हो उठती है। भ्रष्ट लोगों को नम्बर दो का पैसा खपाने की और किसी काम में कोई ठीक-ठाक गुंजाइश नहीं दिखती, सो वे किसी अच्छी कॉलोनी में मुंहमांगे दाम देकर प्लॉट खरीद लेते हैं और आलीशान कोठी या बंगला तान देते हैं। इन भ्रष्टाचारियों के भवनों की आधारशिला रखने के लिए, इस रमणीय शहर से जुड़े खेतिहरों को थोड़ा बहुत आर्थिक लाभ मुहैया कराकर पूंजीपतियों ने बे-दखल किया ओर वैध-अवैध कॉलोनियों का निर्माण कर डाला। सीमित व्यवस्थाओं एवं साधनों के बीच अत्याधिक बसीगत होने के कारण यह शहर तमाम बुनियादी समस्याओं एवं प्रदूषण का शिकार होता जा रहा है।
मेरे घनिष्ठ मित्र सतीश ने भी चार माह पूर्व 6 लाख का प्लाट 95 हजार की रजिस्ट्री कराकर खरीदा था और वर्तमान में वह प्लॉट पर अच्छे नक्शे का मकान बनवा रहा था। कभी-कभी मैं भी अचंभित होकर सोचता कि यह कैशियर जैसी छोटी-सी पोस्ट पर काम करने वाला आदमी कैसे अच्छे ढंग से रह लेता है और कैसे मकान बनवा रहा है ? इस रहस्य के बारे में न कभी उसने बताया और न कभी मैंने जानने की कोशिश की। किसी व्यक्ति के निजी जीवन की अंदरूनी परतें खोलना मेरे स्वभाव में नहीं था।
सतीश के घर वाली गली में पहुंचते ही मैंने देखा, गली में ठसाठस जन मानस उमड़ रहा है। पैर रखने को भी जगह नहीं है। मकानों की बालकनियां भी औरतों-बच्चों से भरी हुई हैं। मृतक की लाश को एक बार देख लेने की सबकी गहरी लालसा है।
जब भी इस शहर में कोई दुर्घटनाग्रस्त होकर अकाल मौत मरता है, तब इस शहर के लोग मृतक की डेड बॉडी के दर्शन करने के लिए बेहद उतावले हो जाते हैं। शहर के अच्छे-अच्छे जीनियस लोगों में मैंने यह उतावलापन देखा है। ऐसे लोगों का व्यक्तित्व भले ही देश-समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा हो अथवा न रहा हो, महत्वपूर्ण होता है सिर्फ मृत्यु का कारण-हत्या है, आत्महत्या है, पुलिस का शिकार है। अभी पुलिस ने कुछ दिन पूर्व मुठभेड़ में डाकू मारे थे-फिर उनकी लाशों को खाटों से बांधकर पोलोग्राउंड में प्रदर्शन भी किया। बिना किसी ऐलान के पुलिस की बहादुरी की खबर हवा की तरह सारे शहर में फैल गई। जन-समूह उमड़ पड़ा। पोलोग्राउंड के पास में जितने भी सरकारी कार्यालय थे, उनके सभी कर्मचारी अपने-अपने काम छोड़कर पोलोग्राउंड भागे। ऐसा लग रहा था मानों डाकूओं की नहीं, किसी महान देश-भक्त की मृत्यु हुई हो।
इस घटना के कुछ दिन ही बाद महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मिश्राजी की स्वाभाविक मृत्यु हुई थी। आजादी की लड़ाई में उनका सराहनीय योगदान रहा था। नेताजी सुभाषचंद बोस के भाषणों से प्रभावित होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के बिल्ले-तमगों को उतार फेंककर पैरों से रौंद दिया था। और ब्रिटिश आर्मी के मेजर जनरल पद को ठोकर मारकर नेताजी की शरण में पहुंच आजाद हिन्द फौज के साधारण सिपाही बन गए थे। कई मोर्चों पर उन्होंने जमकर ब्रिटिश हुकूमत से युद्ध किया था। बायीं बाजू में गोली भी लगी, जिससे उनका एक हाथ सदा के लिए बेकार हो गया था। बाद में दिल्ली के लालकिले पर मुकदमा भी चला। वहां से मुक्ति के बाद उन्होंने घर-गृहस्थी के बंधनों में बंधने की बजाय आजीवन देश-सेवा का व्रत ले लिया और शिवपुरी जैसी छोटी-सी जगह में आकर बस गये। लेकिन उनकी अंतिम क्रिया में बमुश्किल बीस आदमी रहे होंगे।
ऐसी परिस्थिति में मुझे अपने शहर के लोगों की ही नहीं, पूरे देश की मानसिकता विकृत लगती है। जिस व्यक्ति के निर्वाण-उत्सर्ग के प्रति हमें श्रद्धांजलि अर्पित कर कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए, उनकी तो हम अवहेलना करते हैं और जो देश समाज के लिए जीवन भर घातक रहते है। उनके हम अनावश्यक महत्व देते हैं।
जैसे-जैसे भीड़ को ठेल-टालकर मैं सतीश के घर तक पहुंचा। दरवाजे पर दो सिपाही खड़े हुए थे। बगल में ही कुर्सी पर पसरे-पसरे दरोगाजी सिगरेट फूंक रहे थे, इस सारे मातमी माहौल से निर्लिप्त होकर। मुझे देखते ही सतीश के दोनों बच्चे- 'अंकलजी...अंकलजी‘ कहते हुए मेरे पैरों से लिपट गए। मेरा पूरा शरीर अजीब-सी कंपकंपा देने वाली सिहरन से भरकर रोमांचित हो उठा और मैंने मन में ही कहा- क्या कायरतापूर्ण हरकत की तुमने, सतीश ? बच्चों के सिर पर मैंने स्नेह-भरा हाथ फेरा, गालों पर दुलार-भरे चुम्बन दिए और उन्हें छाती से चिपका लिया।
ड्रेसिंग-रूम में अनके औरतें सतीश की पत्नी को संभाले हुए विलाप कर रही थीं। वे बेहोश थीं, उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। बाल बिखरकर रूप को विकराल बना रहे थे। जब एकाएक उनकी बेहोशी टूटती तो वे अपनी पूरी ताकत से चिल्ला पड़ती, ''कहां गए तुम....? इन दुधमुंहों को लिये मै। किस-किस के द्वार पर भटकूंगी...? हाय, बच्चों का तो जरा ख्याल करते.....? हे भगवान, तू भी कितना निष्ठुर हो गया है....‘‘
मेरे शरीर का रोम-रोम सिहर उठा था। मैं अपने को बहुत भारी महसूस कर रहा था। अचानक फुसफुसाहट के साथ कुछ शब्द मेरे कानों से टकराए-''यही बैठा रहता था रात-रात भर...।‘‘ मुझे अपने पैरों तले की जमीन खिसकती-सी लगी मगर मै। जैसे-तैसे संयत रहते हुए स्टोर-रूम के द्वार पर था।
मेरी आंखों के सामने सतीश की झूलती हुई लाश थी। इस तरह के भयावह दृश्य से साक्षात्कार करने का यह मेरा पहला अवसर था, सकते में आकर कुछ क्षणों के लिए मैं जड़ हो गया था। फोटोग्राफर विभिन्न एंगिल्स पर कैमरा केन्द्रित कर फ्लैश फेंक रहा था। इस चकाचौंध में मैं सतीश को विस्फरित नेत्रों से घूरता रहा। सुख और सुविधाओं के उपकरणों से भरे इस कमरे की एक-एक वस्तु कितनी खामोश, जड़ और निष्क्रिय-सी हो गई थी, बस, शून्य अंधेरे के विवर बन-मिट रहे थे।
लड़खड़ाते कदमों से बाहर निकलते हुए फिर कुछ शब्द मेरे कर्णपुटों से टकराये, ''आज रात भी आधी रात तक यहीं था....। राम जाने का खिचड़ी पकाते रहे रात भर, अब देखो रांड खसम खाकर कैसी सत्ती भई जा रही है...‘‘ मैंने उस औरत की ओर पलटकर देखा-मेरी आंखें मिलते ही उसने नजरें झुका ली थीं और घूंघट खींचकर चेहरा ढंक लिया था। उसकी यह हरकत सफेद झूठ पर पर्दा डालने की कोशिश थी। मेरे शरीर में क्षणिक उत्तेजना आई और फिर क्षणिक व्यंग्यात्मक सोच। और मैं बाहर निकल गया।
मेरे बाहर आते ही मेरी पत्नी अंदर प्रविष्ट हो गई थी। मैं समझ गया था यहां की कुचर्चाओं का पत्नी के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और शाम को अंतर्द्वन्द्व से मेरा सामना करना मुश्किल हो जाएगा। पर मैं जानता था कि मैं कहीं गलत नहीं हूं। इसीलिए किसी प्रकार की अस्थिरता या घबराहट मेरे अंदर पैदा नहीं हुई।
और फिर व्यस्तताओं में खड़े-खड़े पूरा दिन ही गुजर गया। पोस्टमार्टम के लिए लाश को अस्पताल ले जाना, रिपोर्ट लेना, फिर लाश को लाना, फिर अंतिम क्रिया के तमाम सामान जुटाना। इस बीच मेरी आंखों के सामने जो भंयकर विद्रूप दृश्य था-अर्थी पर सतीश की पत्नी की कलाइयां पटकवाकर चूड़ियां फुड़वाना। कितनी अमानवीय परंपरा...! तमाम जगहों से उसकी कलाइयों से खून रिसने लगा था। अंततः आर्त चीखों के बीच यह दुखत प्रक्रिया मुझसे देखी नहीं गई थी और मैंने आंखे मींच ली थीं। शाम लगभग छः बजे हम बारह पंद्रह लोग अर्थी लेकर श्मशान भूमि गए थे और कपाल-क्रिया करने के बाद रात लगभग दस बजे लौटे थे।
अपनी गली आज मुझे कुछ ज्यादा ही सन्नाटे में डूबी हुई प्रतीत हो रही थी। गली के दोनों ओर खड़े बहुमंजिले मकान दैत्याकार लग रहे थे। अजीब दार्शनिक चिंतन-मनन की अंर्तव्यथा के बीच मैंने अपने घर के मुख्यद्वार का शटर खींचा और पत्नी को आवाज दी ''प्रभा...!‘‘
कोई जवाब नहीं आने पर मैंने पुनः गुहारा, ''प्रभा.....!‘‘
किंतु इस बार भी कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। मैंने सोचा, शायद प्रभा ऊपर हो...किन्तु ऊपर वह हमेशा ताला लगाकर जाती है और इस समय दरवाजे पर ताला नहीं लगा था। यहां तक कि बाहर से कुंडी भी नहीं चढ़ी थी। किवाड़ों को मैंने जैसे ही धकियाया, खुलते चले गए। कमरे में घुप्प अंधेरा था। लाइट जलाने पर देखा तो प्रभा पलंग पर सोयी हुई थी। सीलिंग फैन अपनी पूरी गति से चल रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ, आज के दुख और विषाद भरे माहौल में प्रभा इतनी गहरी नींद सो कैसे गई, जबकि आज तो हमारे पास चर्चा करने के लिए ताजा विषय था। ताजा विषय नहीं होने पर भी हम रोज सोते समय घंटे-दो घंटे किसी न किसी विषय पर प्रेम पूर्वक बातें करते। हालांकि इस तरह की रोज-रोज की बातों में पुनरावृत्ति के अलावा कुछ नहीं होता था। लेकिन हमारा एक-दूसरे के प्रति आकर्षण इतना था कि हम गलबहियां डाले घंटों बतियाते रहते।
''प्रभा, उठो न, देखो मैं कितनी देर से खड़ा हूं...।‘‘
''क्यों चिल्ला रहे हो बेकार में...आंगन में बाल्टी, साबुन, कपड़े रखे हैं.....जाकर नहा लो और सो जाओ।‘‘
मैं एकाएक चौंककर सन्न रह गया। यह रौब.....यह रूतबा...नहीं-नहीं, यह प्रभा नहीं हो सकती! लोच और मधुरिमा से बिद्ध उसकी वाणी एकदम खरीखोटी कैसे हो सकती है ? वह भी मेरी प्रति। खैर, मैं फिलहाल स्वयं को अशुद्ध और क्लांत महसूस कर रहा था सो मैंने कुछ बोलना उचित नहीं समझा। चुपचाप आंगन में पहुंच नल के नीचे बाल्टी लगाई और स्नान करने लगा। पानी की तरलता ने पूरे शरीर में शीतलता का संचार किया और मैंने शरीर में एक नयी ताजगी का अनुभव किया।
अब मैं प्रभा के निकट था। प्रभा के सिर के पास बैठकर मैंने उसका सिर अपनी गोदी में रखा और बालों में हाथ फिराने लगा। प्रभा ने बेदर्दी से मेरा हाथ झटक दिया और गोदी से उठाकर तकिये पर रखते हुए बोली, ''बहुत हो गया नाटक...! तुम कितने नीच और कमीने हो, यह तो आज पता लगा ? ‘‘
प्रभा का यह परिवर्तित आचरण निःसंदेह मुझे चौंकाने वाला था। उसकी आंखों में क्रोधाग्नि के लाल डोरे देखकर मैंने अंदाज लगाया-जरूर कहीं कोई गड़बड़ है! अब मुझे शांत रहकर उसकी मनःस्थिति को समझना था। हमारे सफल दांपत्य जीवन का यह मनोवैज्ञानिक कारण था कि किसी के गुस्सा होने पर एक शांत रहकर मुस्कराता रहता था। ऐसा नहीं था कि आज पहली बार मुझे प्रभा ने नीच-कमीना कहा हो। एक-दूसरे को हमने खूब-खूब गालियां दी हैं- गंदी-गंदी। लेकिन इस तरह का माहौल हमेशा ही बनावटी तथा गढ़ा हुआ होता था। हम मनोरंजन के लिए, एक दूसरे से आत्मसात बनाये रखने के लिए लड़ते-झगड़ते थे। हमारा यह झगड़ा जितना ज्यादा लंबे समय तक चला, समाप्त होने पर उससे भी ज्यादा लंबे समय तक हम प्यार करते। सिर्फ प्यार। अमृतमय स्वच्छंद सरोवर में डूबते-उतारते प्रेम के इन क्षणों के लिए हमारा यह प्रयास रहता कि ये क्षण सदा-सदा के लिए ऐसे ही वर्तमान बने रहें।
''आखिर बात क्या है प्रभा ?.....‘‘ ''पूछो मेरी सौत से जाकर.....‘‘
प्रभा के मुंह से सड़क छाप औरतों की तरह बात सुनकर मेरा माथा ठनका। सतीश के घर पर मुझे लेकर औरतें जिस तरह की चर्चाएं कर रही थीं, उन्हीं का प्रभाव प्रभा पर स्पष्ट परिलक्षित था। मैं समझ गया सतीश की पत्नी और मुझे लेकर अवैध संबंधों की कथाएं गढ़कर प्रभा को गलतफहमी का शिकार बनाया गया है और फिलहाल प्रभा शंकालु तीरों की शिकार हो गई है। जरूर इस तरह की झूठी महिमा गढ़ने में हमारे समाज की औरतें आगे रही होंगी। क्योंकि हमारे समाज कोई अपना चरित्र है न निश्चित दृष्टिकोण और न कोई राष्ट्रव्यापी लक्ष्य। पति-पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रहने वाले इस समाज के लोग जब कोई श्रेष्ठ उपलब्धि हासिल नहीं कर पाते तब उनके लिए सारी श्रेष्ठता, चरित्रता, शारीरिक चरित्र पर केन्द्रित होकर रह जाती है। वह भी स्त्री के चरित्र को लेकर कुछ ज्यादा ही मर्यादित और कठोर होती है जबकि मेरे लिए शारीरिक चरित्र गौण है, राष्ट्रीय चरित्र श्रेष्ठ !
ऐसे नाजुक क्षणों में मुझे संतुलित दिमाग से काम लेना था, वरना दाम्पत्य-जीवन के दरक जाने का भय था।
''प्रभा, आखिर बात क्या हुई, कुछ मुझे भी बताओ न....?‘‘
''मैं क्या बताऊंगी...? पूछ लो मोहल्ले की सारी औरतों से, सारे समाज की औरतों से, जिनमें तुम और तुम्हारा कुनबा नाक चढ़ाये घूमता है।‘‘ वह मोर्चा संभालते हुए मेरे सामने बैठ गई थी।
''देखो...अब बहुत हो गया। व्यर्थ मुंह फुलाने की बजाय जो भी कहना है, ठीक-ठीक कहो !‘‘ मैं डपटते हुए बोला था।
''जानते हो, सारी की सारी औरतें इस दुर्घटना का कारण तुम्हें मान रही हैं।...बल्कि कुछ तो...‘‘
''हां-हां, बोलो, कुछ तो क्या ?‘‘
''कुछ तो यहां तक कह रही थीं कि यह आत्महत्या नहीं, हत्या है... और इसमें तुम्हारा हाथ है।‘‘
प्रभा की आंखे भर आईं थीं। उसने सिसकते हुए मेरी गोदी में सिर रख दिया था। कुछ क्षणों के लिए मेरी सांस जहां की तहां थम गई थी। अंधेरे के वृत मेरी आंखों के सामने मंडरा रहे थे। सिसकते हुए ही वह पुनः बोली, ''मेरा तो वहां एक-एक क्षण बैठना दूभर हो गया, राज......!‘‘
मेरी समझ में नहीं आ रहा था, लोग मृतात्मा के प्रति शोक-संवेदना प्रकट करने जाते हैं या उसका अपनी कुत्सित मानसिकता के अनुरूप मनगंढ़त चरित्र गढ़ने। अभी किसी कहने वाले व्यक्ति से कह दिया जाये कि आपकी बातें सही हैं तो चलिए थाने में चलकर बयान लिखाइये....सब-के-सब बगलें झांकने लगेंगे। कायर चरित्रता अटकलबाजियों के अलावा और कोई साहसपूर्ण सराहनीय कदम नहीं उठा सकती।
'प्रभा...!‘‘
''हां....।‘‘
''मैं कल रात कितने बजे घर आ गया था ?‘‘
''यही कोई साढ़े दस-ग्यारह बजे के बीच।‘‘
‘‘फिर तो मैं सारी रात तुम्हारे साथ था न ?‘‘
''हां...फिर तो हम गुड्डा के पुकारने पर ही सोकर उठे थे ?‘‘
''पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक सतीश ने डेढ़ और दो बजे के बीच आत्महत्या की है। रिपोर्ट में यह स्पष्ट है कि मौत गला कसने के कारण ही हुई है।‘‘
''फिर ये औरतें तुम पर क्यों शक कर रही हैं ?‘‘
प्रभा चुप हो गई थी। उसकी बौखलाहट संयम और धैर्य में परिवर्तित हो रही थी। मुझे अनुभूति हो रही थी कि प्रभा की लौटी चेतना मेरे प्रति आश्वस्त होती जा रही है।
''देखो, अब किसी की जुबान तो मैं पकड़ नहीं सकता। लेकिन एक बात जरा गौर से सोचो-कल तक तो ये औरतें मेरे बारे में कुछ नहीं कहती थीं, आज अचानक परिस्थिति बदल जाने के कारण इनकी भावना ही बदल गई। विचारधारा ही बदल गई।‘‘
''हां, ये तो है। लेकिन उन्होंने आत्महत्या की क्यों ?‘‘
''हां, यह एक सोचने का कारण हो सकता है। फिर पत्रादि भी तो वह कोई लिखकर नहीं छोड़ गया। लेकिन जहां तक मैं उसे और उसके परिवार के बारे में जानता हूं तो ऐसा महसूस करता हूं कि कारण जो भी रहा हो, ऑफिशियल या अन्य होना चाहिए। देखो, शायद डाक में कोई चिट्ठी डाली हो। लोकल डाक होगी तो बहुत कल नहीं तो परसों तक मिल ही जाएगी।‘‘ ''मेरा तो दिमाग सारे दिन से न जाने कैसा-कैसा हो रहा था। लग रहा था, नसें अब फटीं......अब फटीं। अब जाकर कुछ शांति मिली है।‘‘
प्रभा को मानसिक रूप से संतुलित होते देख मैंने चैन की सांस ली और कहा, ''अब तुम सो जाओ। दिन भर गहरे तनाव से गुजरी हो।‘‘
''अरे, मैं भी कैसी पागल हूं, तुमने सारे दिन से कुछ खाया-पीया भी नहीं होगा और मैं बिना सोचे-विचारे मूर्खाओं की बातों में आकर अपना रोना लेकर बैठ गई। अभी आधा घंटे में फटाफट खाना बनाये देती हूं।‘‘
प्रभा के शरीर में सामान्य फुर्ती और प्रफुल्लता देखकर मेरे शरीर और मन की थकान लुप्त होने लगी थी।
दूसरे दिन का सवेरा और दिनों की भांति ही सामान्य था। प्रभा मुझसे कुछ समय पूर्व उठ गई थी। उसने चाय से भरा गिलास मेरे पास रखते हुए दुलार से कहा था,
''अब उठो न, चाय ठंडी हो जाएगी।‘‘
मैं उठ गया था। प्रभा के साथ चाय पी। फिर दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर सतीश के घर की ओर चल दिया।
सतीश के माता-पिता और भाई तो कल ही आ गए थे। उनसे मैं पूर्व से ही परिचित था। एक माह पूर्व ही तो जब सतीश ने अपने मकान की आधार शिला रखी थी, तब वे आये थे और लगभग एक सप्ताह रूके थे। गृह प्रवेश से पूर्व उन्हें बेटे की अंतिम क्रिया में आना पड़ेगा।
घर पहुंचने पर मैं सतीश के पिता को मौन अभिवादन करता हूं। वे मुझे सोफे पर बैठने का संकेत करते हैं। मैं बैठ जाता हूं। उनके चेहरे पर धैर्य, शांति, गांभीर्य और दृढ़ता का अद्भुत सामंजस्य है। इस दर्दनाक दुखांत परिस्थिति में मैंने एक क्षण के लिए भी उनका मानसिक संतुलन विचलित होते हुए नहीं देखा। उन्होंने आते ही सबसे पहले सतीश की पत्नी का ख्याल किया। उसके सिर पर हाथ फिराते हुए सांत्वना दी, ''सब भाग्य का खेल है, बेटा.....! धैर्य रख। मैं जब तक जिंदा हूं तुझे अपनी और बच्चों की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।‘‘ फिर उन्होंने अपने हाथों से बच्चों की कसम दिलाकर उन्हें एक गिलास जूस पिलाया।
मुझे लगा था, इस पूरे जनसमूह में सतीश की पत्नी के प्रति सही संवेदना-सहानुभूति रही है तो वह सतीश के पिता की। बुजुर्गियत, बड़प्पन और स्नेह से भरा यही वरदहस्त सतीश की पत्नी में जीवनी-शक्ति का संचार कर सकता है। बाकी आर्त चीखें तो एक कायराना मातमी माहौल पैदा भर करने के लिए ही थीं। तिस पर भी संदिग्ध परिस्थिति। पूरा माहौल क्षुद्र औरतों ने सतीश की पत्नी के विरूद्ध रच दिया था। लगभग सभी रिश्तेदार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सतीश की हत्या अथवा आत्महत्या का कारण सतीश की पत्नी का चरित्रहीन होना ही मान रहे थे। साथ में यह दलील भी दे रहे थे, ''वरना क्या जरूरत थी ऐसे धीर-गंभीर कमाऊ सपूत को मरने की। लोग सारा जीवन किराये के मकान में गुजार देते है। सर ढंकने के लिए अपनी एक झोंपड़ी तक नहीं बना पाते। और उसे देखो, पॉश कॉलोनी में क्या शानदार मकान बनवा रहा था। रहता भी क्या ठाट-बाट से था.......कोई खानदानी रईस भी क्या रहेगा ? पुरूष के भाग्य और स्त्री के चरित्र को देव भी नहीं जान सके।‘ सतीश की मां तो चिल्ल-चिल्ला कर कई बार ताने मार चुकी थीं, 'हे भगवान, इस कुलच्छनी का काला मुंह देखने से पहले तूने मेरी आंखें क्यों नहीं मूंद दीं ? यह बुढ़ापा खोटा होने से पहले मुझे उठा लेता.......।‘
सतीश के पिता को यह सब सुनना कतई बरदाश्त न होता। वे मां जी को डांटते हुए कहते, 'चुप भी रहो, सतीश की मां....! क्या दुनिया की बातों में आकर उल्टा-सीधा बके जा रही हो। तुम्हारा क्या है, तुम्हारी तो चार दिन की जिंदगी शेष है। उस बेचारी की सोचो, उस पर क्या गुजर रही होगी...?उसके सामने तो अभी पहाड़ जैसी जिंदगी है....और नन्हें-मुन्नों का साथ....। अभी तो उसकी उम्र ही खेलने-खाने की है....?
उनकी फटकार से कुछ समय के लिए मौन सन्नाटा छा जाता। पर उनके जरा देर के लिए इधर-उधर होते ही द्वेष-विद्वेष, आरोप-प्रत्यारोप की पुनरावृत्ति होने लगती।
सारा दिन ऐसे ही गुजर गया। उम्मीद थी डाक से शायद सतीश का काई पत्र प्राप्त हो, पर हुआ नहीं।
आज भी मेरी पत्नी की मन-स्थिति तनावपूर्ण रही। हालांकि आज उसके किसी प्रकार की आशंका जाहिर नहीं की थी, पर उसके हाव-भाव से ऐसा जाहिर हो रहा था कि अभी भी वह मेरे पाक-चरित्र होने के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसके चेहरे की व्यथा स्पष्ट संकेत दे रही थी कि वह अजीब कशमकश की मनःस्थिति से गुजर रही है। मैंने उसे कुरेदना कतई उचित नहीं समझा। चुप रहने में ही मैंने दोनों की भलाई समझी।
अगले दिन अचानक अप्रत्याशित रूप से वस्तुस्थिति स्पष्ट हो गई...... बैंक खुलने के साथ ही, बैंक के एक चपरासी ने जो दो दिन से छुट्टी पर था, बैंक मैनेजर के सामने तीन लिफाफे रखते हुए कहा, 'ये तीनों लिफाफे मुझे नरसों भार्गव साहब ने रजिस्टर्ड डाक से भेजने के लिए दिए थे। साथ में पचास रूपये का एक नोट भी दिया था। किंतु नरसों देर से पोस्ट ऑफिस पहुंचने के कारण रजिस्ट्रियां नहीं ली गईं। अतः मैं अगले दिन रजिस्ट्रियां करने की सोच घर चला गया। उसी रात मुझे अपने एक रिश्तेदार के साथ किसी बहुत जरूरी काम से ग्वालियर जाना पड़ गया। उस दिन हड़बड़ाहट में रजिस्ट्रियों की बात भूल ही गया। ग्वालियर से लौटने पर मुझे भार्गव साहब के साथ घटी दुर्घटना के बारे में समाचार मिला, जब मैंने इन लिफाफों की शंका की दृष्टि से देखा और डाक से भेजने की बजाय सीधे आपके पास ले आया।‘
उन तीन लिफाफों में एक बैंक मैनेजर के नाम और एक-एक एसपी तथा कलेक्टर के नाम थे। मैनेजर ने तुरंत एसपी को सूचना दी। कुछ समय बाद पुलिस कस्टडी में तीनों लिफाफे खोले गए। उन तीनों लिफाफों में सतीश की हस्तलिपि में लिखा एक ही प्रकार का मजमून था-''मैं अपने संबंधितों और साथियों में अपनी प्रतिष्ठा बनाना चाहता था। इस प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए मैंने बैंक से नकली ड्राफ्ट्स के जरिये दो लाख की हेरा-फेरी की। प्रतिष्ठा तो मेरी बनने लगी थी....किंतु चोरी पकड़ी जाने का डर मेरे मन-मस्तिष्क पर बुरी तरह हावी हो गया। एक-एक पल मेरा चैन में गुजारना दुर्लभ हो गया। अंततः मैंने इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या का उपाय ही ठीक समझा है और आज रात मैंने अपनी जिंदगी को समाप्त करने का निश्चय कर लिया है.....
मेरी पत्नी पर किसी प्रकार का शक न जाए। वह इस घोटाले में किसी भी रूप में शरीक नहीं है।‘
नीचे सतीश के हस्ताक्षर और तारीख थी। सभी हतप्रभ रह गये।
सतीश के लिखे पत्रों से विवाद खुलासा हो जाने के बाद मेरी पत्नी का व्यवहार मेरे प्रति बिल्कुल सामान्य हो गया था, बल्कि सगर्व मुझसे बोली थी, ''मुझे तो पहले ही विश्वास था, राज तुम ऐसे हो ही नहीं सकते।‘‘ अब हमारा दांपत्य जीवन तोड़ देने वाले खबरों से मुक्त हो गया था।
सतीश की तेहरवीं के बाद उन्होंने यह शहर छोड़कर शाजापुर में ही रहने का निश्चय कर लिया था। पत्रों द्वारा मृत्यु का खुलासा हो जाने के बाद सतीश के पिता बेहद टूट गये थे। पत्र पढ़ते ही उन्होंने कहा था, ''राष्ट्र के साथ विश्वासघात, धोखाधड़ी सबसे बड़ा पाप है। इस उम्र में देशद्रोह कर मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा गया। इस स्थिति से अब शायद ही में उभर पाऊं।‘‘ उन्होंने मकान की रजिस्ट्री बैंक के हवाले कर दी थी।
सतीश की पत्नी की अब चेतना लौट आई थी। वे स्वस्थ दिखने लगी थीं। घरेलू कार्यों में हाथ बंटाने के साथ-साथ उन्होंने घर आने वालों से बोल-चाल भी प्रारंभ कर दी थी। मात्र समाज में ऊंचा दिखने के लिए भोग विलास की वस्तुएं जुटाने के लिए सतीश द्वारा किया गया गबन उन्हें नितांत निम्न हरकत लगी। उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे पूरे आत्मबल और साहस के साथ स्वयं के बल-बूते पर जायेगी और बच्चों को उचित शिक्षा देगी।
उनके निर्णय से अवगत होने के बाद उनके प्रति मेरे अंदर श्रद्धा पैदा हो गई। मैंने सोचा-मेरे संपर्क की तमाम औरतों में मात्र सतीश की पत्नी ही चरित्रवान और सम्माननीय स्त्री है। मेरी इच्छा हुई, झुककर उनकी चरण-रज ले लूं।
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प्रमोद भार्गव
शाही निवास शंकर कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) 473-551
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प्रमोद जी आपकी कहानी एक बार जो पढ़ना शुरू की तो फिर अंत तक पढ़ ही लिया। आमतौर पर ब्लाग पर कहानी पढ़ने का बहुत मन नहीं होता है। बहरहाल कहानी में बांधकर रखते हैं। फिर भी एक दो बातें कहनी हैं। यह बहुत उभरता नहीं है कि आपके और सतीश के बीच ऐसा क्या था जिससे तमाम लोगों को शंका होती है। दूसरी बात सतीश की पत्नी की चरण रज लेने की बात भी कुछ समझ नहीं आती।
जवाब देंहटाएंकहानी के पहले ही पैरा में गुड्डा का दरवाजा खटखटाते हुए पुकारना आपको उकताहट भरा क्यों लगा। संभवत: आप उतावलापन कहना चाहते होंगे।
कहानी ने शुरु से अन्त तक बाँधे रखा………………अच्छी कहानी है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और नसीहत देती कहानी ...
जवाब देंहटाएंachhi kahani hai apki
जवाब देंहटाएंmai bhi blog likhti hu or usme apni kuch rachnaye likhti hu kripya aap use ek bar dekhe or mujhe meri galtiya bataye
link hai
www.deepti09sharma.blogspot.com
m bahut kuch likhna chahti hu
bas apke margdasan ki jarurat hai