यशवंत कोठारी का व्यंग्य – आपकी तोंद का घेरा और आपकी वर्जिश…

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  व्यंग्य मैंने भी वर्जिश की यशवन्‍त कोठारी आखिर मुझे गुस्‍सा आ ही गया, सहनशक्‍ति की भी हद होती है, रोज-रोज सवेरे उठते ही पत्‍नी टोकती ...

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व्यंग्य

मैंने भी वर्जिश की

यशवन्‍त कोठारी

आखिर मुझे गुस्‍सा आ ही गया, सहनशक्‍ति की भी हद होती है, रोज-रोज सवेरे उठते ही पत्‍नी टोकती है, तुम्‍हारा शरीर । इससे तो सींकिया पहलवान ही अच्‍छा होता है, दर्पण देखता तो उसमें भी वही शरीर आखिर मैंने तय किया कि शरीर सुधार का राष्‍ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया जाय और इसी बीच मैं गुस्‍से में भरकर वर्जिश संबंधी साहित्‍य का पारायण करने लग गया ।

योग, प्राकृतिक चिकित्‍सा, शरीर को स्‍वस्‍थ रखने के सौ उपाय, बुलवर्कर, स्‍प्रिंगों तथा कमर को कमरा बनने से रोकने के सौ उपायों आदि पुस्‍तकों से निपटकर मैंने तय किया, स्‍वस्‍थ शरीर के लिए आवश्‍यक है- नियमित वर्जिश ।

और वर्जिश की शुरूआत में ही मेंरी समझ में यह आ गया कि क्‍यों लोगबाग आराम कुर्सी पर पड़े-पड़े पुस्‍तक चांटना बेहतर समझते हैं लेकिन वर्जिश नहीं करते । क्‍यों लोग बाग वेट लिफ्‍टिंग के बजाय कैलोरियों की गणना करने में कोताही करते हैं । दरअसल, पड़े-पड़े सोते रहने से तथा अनियोजित विहार से शरीर बिल्‍कुल बेकार हो गया था । जाहिर है कि मुझे अपना शरीर पसन्‍द नहीं था, अन्‍य कई पाठक भी मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उन्‍हें भी अपना शरीर पसन्‍द नहीं हैं लेकिन अब क्‍या किया जा सकता है । कुल मिलाकर अपन यही तो कर सकते है कि शरीर को सुधारने हेतु कुछ महत्‍वपूर्ण कसरतों के नियमित रूप से करे ।

चुनांचे, मैंने भी वर्जिश करने की ठानी और परिणाम क्‍या रहा । आप शायद सोच रहे होंगे कि मैं बहुत जल्‍दी ही दारासिंह या किंगकांग को पछाड़ने काबिल हो गया होऊंगा, क्षमा करें आप गलती पर हैं मुझे चन्‍द रोज अस्‍पताल में रहना पड़ा और यह व्‍यंग्‍य आपकी खिदमत में अस्‍पताल से ही नजर कर रहा हूं ।

अपनी चालीस साल की जिन्‍दगी में पहली बार मैंने अपने कसरत करने के निर्णय पर अमल करते हुए कभी वजन उठाया तो कभी दंड पेले, कभी कसरत की तो कभी ब्रह्मा मुहूर्त में दौड़ लगायी, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात, शरीर को ना सुधरना था, न सुधरा मेरी स्‍थिति हास्‍यापद और हो गयी ।

जब दण्‍ड बैठकों से कोई सुधार के संकेत दिखाई नही दिये तो मैंने तय किया कि अब मुझे पांवों में जूते बांध कर नेशनल हाइवे पर दौड़ लगानी चाहिए, लेकिन भारतीय सड़के कैसी हैं सौ तो आप जानते ही हैं, उस कारण एक रोज ही दौड़ कर मैंने अपने इस निर्णय को बदल डाला ।

अब मुझे बुलवर्कर वाला विज्ञापन आकर्षित कर रहा था, मांसल, सुदर्शन शरीर की तमन्‍ना मुझे ही हमेशा ही रही है, अतः मैंने स्‍प्रिेंगों की मदद से बुलवर्कर पर काम करने की कोशिश की ।

इस क्रम में सबसे पहले मेरी मुठभेड़ पोस्‍टमैन से हुई, वह पूछ रहा था, आप ही ने ये काठ कबाड़ मंगवाया है, मेरे हां कहने पर उसने हिकारत से मेरी ओर देखा और उस जंजाल को वहीं बरामदे में डालकर यह जा, वह जा, मैंने सोचा, हे प्रभु तुम इसे माफ करना, यह नहीं जानता कि इसने क्‍या किया है । अब प्रश्‍न था इसे अपने कमरे में पहुँचाने का, मैंने और बच्‍चों ने मिलकर इसे ऊपर पहुँचाया । इसी क्रम में मैं और बच्‍चे इतने ज्‍यादा थक चुके थे कि अब वर्जिश की कोई गुंजाइश नहीं थी, मैंने तय किया कि कल सुबह जल्‍दी उठकर वर्जिश का काम करूंगा । दूसरे दिन सुबह उठ तो गया, लेकिन बिजली रानी ने सब गुड़ गोबर कर दिया, वह रात से ही गायब थी ।

मैंने इस मौके का फायदा उठाना उचित समझा, खूब डटकर खाया पीया और दोपहर तक सोया, शाम को उठने पर शरीर इतना ज्‍यादा अलसाया हुआ था कि मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सका, अतिरिक्‍त कैलोरी के कारण मैं फिर सो गया, उठने के बाद रेडियो, टी․वी․ फिर रात के भोजन का इंतजार करने लगा, बच्‍चों के गपशप की, पड़ोसी की बीमारी के बारे में सुना, उसे सांत्‍वना दी और फिर भी समय बच गया तो बरामदे में बैठ कर अखबार पढ़ने लग गया, कसरत का काम रविवार तक के लिए मुल्‍तवी हो गया ।

रविवार आया । मैं फिर जल्‍दी उठा और कुछ करने के लिए जल्‍दी से बुलवर्कर ढूंढने लग गया, वह तो मिल गया, लेकिन उसे दबाने में जो ताकत लगी, उससे मांशपेशियां अकड़ गयी, मैं दर्द से दोहरा हो गया, बड़ी मुश्‍किल से एक स्‍थानीय पहलवान से मालिश कराने पर ही हाथ ठीक हो सका, अभी भी बादल होने पर दर्द बढ़ जाता है ।

बुलवर्कर और स्‍प्रिंगों से हार चुकने के बाद मैंने वैटलिफ्‍टिंग की और ध्‍यान दिया, हिम्‍मत करके मैंने एक रोज सौ पाउन्‍ड वजन चढ़ा दिया और उसे एक झटके से ऊपर उठाने लगा, लेकिन आश्‍चर्य । महान्‌ आश्‍चर्य । वेट के पाये तो जैसे अंगद के पांव हो गये थे, मैंने भी हिम्‍मत नहीं हारी और अपनी कोशिश जारी रखी, मेरा पूरा शरीर पसीने से तरबतर था, होठ सूख रहे थे, तालु चिपक गया था, वेट था कि जहां का तहां स्‍थिर था, आखिर मैं ही हारा और लस्‍तपस्‍त होकर कमरे से बाहर निकला, मेरी लंगड़ी चाल देखकर देवीजी कह उठी ।

क्‍यों, क्‍या हुआ, कसरत, कैंसिल ।

तुम मुझे समझती क्‍या हो, मैं अवश्‍य फौलादी बन जाऊंगा, इट इज ए स्‍लौ प्रोसेस, अब पत्‍नी मजाक पर उतर आयी थी, कहो तो आर्थोपैडिक वार्ड में एक खाट सुरक्षित करवा लूँ ।

मैंने इस बात का जवाब देना कतई जरूरी नहीं समझा और फिर शाम को कसरत के चक्‍कर में व्‍यस्‍त हो गया ।

इस बार मैंने वजन उठाने का इरादा छोड़ दिया और कुछ मुग्‍दर घुमाने की कोशिश की, मैंने मिनी मुग्‍दर मंगाये और उनसे कुश्‍ती लड़ने लगा, लेकिन यह काम और भी कठिन था, एक बार जो घुमाया तो मेरा हाथ कंधे से उतर गया, लम्‍बे समय तक प्‍लास्‍टर रहा और अब वापस लिखने काबिल बना है ।

कुल मिलाकर स्‍थिति वही है कि लौटकर बुद्धु घर को आये, मैं वैसे अभी भी आशावान हूँ, यह एक लम्‍बी योजना है और खोजबीन-शोध करने पर ही पूरी हो पाएगी, तब तक उत्त्‍ाम स्‍वास्‍थ्‍य की चाह वाले अपना-अपना निष्‍कर्ष निकालने को स्‍वतंत्र हैं ।

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यशवन्‍त कोठारी

86, लक्ष्‍मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर,

जयपुर 302002 फोन 2670596

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. सही कहा जनाब हम भी कुछ ऐसे ही है .... ....

    यहाँ भी अपने विचार प्रकट करे ---
    ( कौन हो भारतीय स्त्री का आदर्श - द्रौपदी या सीता.. )
    http://oshotheone.blogspot.com

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रचनाकार: यशवंत कोठारी का व्यंग्य – आपकी तोंद का घेरा और आपकी वर्जिश…
यशवंत कोठारी का व्यंग्य – आपकी तोंद का घेरा और आपकी वर्जिश…
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रचनाकार
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