खासतौर से स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा भारत के कालेधन की वापसी अब और मुश्किल हो गई है। क्योंकि स्विस सरकार से दोहरे कराधान समाप्त ...
खासतौर से स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा भारत के कालेधन की वापसी अब और मुश्किल हो गई है। क्योंकि स्विस सरकार से दोहरे कराधान समाप्त करने के लिए संशोधित प्रोटोकॉल पर दस्तखत करते वक्त भारत सरकार वह वह सख्ती नहीं दिखा पाई जो कालाधन वापिसी के लिए जरूरी थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले ऐसे किसी भी दोहरे समझौते में राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होने चाहिए। ऐसे हालात में भारत सरकार शर्त रख सकती थी कि भारतीयों के जमा कालेधन की सूची भारत को सौंपी जाए। लेकिन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा लोकसभा में दिये बयान से साफ हो गया है कि स्विस बैंकों में इस समझौते से पूर्व जमा कराये धन पर इस संधि की कोई शर्त लागू नहीं होगी।
जबकि स्विस बैंकों से अमेरिका और जर्मनी जैसे देशों ने वहां की सरकार को हड़का कर अपने देशों का बड़ी मात्रा में जमा कालाधन वसूल लिया है। इससे जाहिर होता है कि देश की केन्द्र सरकार स्विट्जरलैण्ड सरकार पर वाजिब दबाव बनाना नहीं चाहती क्योंकि उसके लिए धन वापिसी की कार्रवाई हवन करते हाथ जलाने वाली कहावत की तरह है।
कुछ समय पहले संयोगवश विदेशी बैंकों में जमा काले धन की वापसी की उम्मीदें जगी थीं। जर्मनी के वित्तमंत्री ने तो फरवरी 2008 में भारत सरकार को आगाह कर दिया था कि जर्मनी के बैंकों में भारतीय-खाता धारकों की सूची देने के लिए वह तैयार है। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चुप्पी साध गए। अलबत्ता वे जानते थे कि कांग्रेस के लिए यह मामला मधुमक्खी के छत्तों में हाथ डालने वाला साबित होगा। क्योंकि विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वाली जो जानकारियां आ रही हैं, वे यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि यह सिलसिला आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरु के कार्यकाल से ही शुरु हो गया था और इसके बाद केन्द्र में 50-55 साल कांग्रेस की ही सरकार रही। लिहाजा तय है विदेशों में जमा काले धन की सूची सार्वजनिक होती है तो उसमें सबसे ज्यादा नाम कांग्रेस सरकार में रहे मंत्रियों, उनसे जुड़े आला-अधिकारियों, उद्योगपतियों और हथियार व दवाओं के दलालों के होंगे।
इसके पूर्व भारत-स्विट्जरलैंड मैत्री संधि के अवसर पर भारत में स्विट्जरलैंड के राजदूत ने पत्रकारों के समक्ष मंजूर किया था कि बड़ी मात्रा में भारत का कालाधन उनके यहां के बैंकों में जमा होता है। लेकिन केन्द्र सरकार इतनी पुख्ता जानकारी मिलने के बावजूद नीम-बेहोशी में बनी रही। स्विस और जर्मनी ही नहीं दुनिया में ऐसे 37 ठिकाने हैं जहां काला धन जमा करने की आसान सुविधा हासिल है।
दुनिया में काले धन की वापसी का जो सिलसिला शुरु हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि में भी दुनिया में आई आर्थिक मंदी है। मंदी के काले पक्ष में छिपे उज्जवल पक्ष ने ही पश्चिमी देशों को समझाइश दी कि काला धन ही उस आधुनिक पूंजीवाद की देन है जो विश्वव्यापी वित्तीय संकट का कारण बनी। 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका की आंखें खुलीं कि दुनिया के नेता, नौकरशाह, कारोबारी और दलालों का गठजोड़ ही नहीं आतंकवाद का पर्याय बना ओसामा बिन लादेन भी अपना धन खातों को गोपनीय रखने वाले बैंकों में जमा कर दुनिया के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
इस सुप्त पड़े मंत्र के जागने के बाद ही आधुनिक पूंजीवाद के स्वर्ग माने जाने वाले देश स्विट्जरलैंड के बुरे दिन शुरु हो गए है। नतीजतन पहले जर्मनी ने ‘वित्तीय गोपनीयता कानून‘ शिथिल कर काला धन जमा करने वाले खाताधारियों के नाम उजागर करने के लिए दबाव बनाया और फिर इसी मकसद पूर्ति के लिए इटली, फ्रांस, अमेरिका एवं ब्रिटेन आगे आ गए। अमेरिका की बराक ओबामा सरकार ने स्विट्जरलैंड पर इतना दबाव बनाया कि वहां के यूबीए बैंक ने काला धन जमा करने वाले 17 हजार अमेरिकियों की सूची तो दी ही 78 करोड़ डॉलर काले धन की वापिसी भी कर दी। अब तो मुद्रा के नकदीकरण से जूझ रही पूरी दुनिया में बैंकों की गोपनीयता समाप्त करने का वातावरण निर्मित हो चुका है। ऐसा लगने भी लगा है कि कालातंर में इस अंतर्राष्ट्रीय कानून को खत्म कर दिया जाएगा। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत ने अभी तक वित्तीय प्रणाली में गोपनीयता को नेस्तनाबूद करने वाली विश्व स्तरीय मुहिम में भागीदारी के सुनहरे अवसर को गंवा दिया ? इससे जाहिर होता है कि केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार की नीयत में खोट और मन में कोई न कोई खुटका जरुर है।
एक अनुमान के मुताबिक भारत का जो काला धन विदेशी बैंकों में जमा है, उसे जाने-माने अर्थशास्त्री ई वैद्यनाथन 75 लाख करोड़ रुपये बताते हैं। वहीं अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि काले धन की अर्थव्यवस्था भारत के सकल घरेलू उत्पाद की 50 प्रतिशत है। मसलन इस पूंजी का औसत अनुपात 25-26 लाख करोड़ वार्षिक है।
ग्लोबल फाइनेशिंयल इंटीग्रिटी ;जीएफआई संस्था ने विदेशी बैंकों में जमा काले धन का जो अनुमानित ब्यौरा पेश किया है, उसके अनुसार 2002 से 2006 की अवधि में भारत से प्रतिवर्ष 27.3 अरब डॉलर मूल्य की काली पूंजी विदेश भेजी गई। इस तरह से पांच साल के भीतर 137.5 अरब डॉलर पूंजी काले धन के रुप में विदेशी बैंकों में जमा की गई। यदि आजादी के 62 साल में काले धन का विदेश जाने का यही औसत रहा है तो यह पूंजी 25 से 70 लाख करोड़ रुपये बैठती है। वैसे भी खातों को गोपनीय रखने वाले विदेशी बैंकों का नियम है कि उनमें खाता खोलने के लिए न्यूनतम धन राशि 50 करोड़ डॉलर होना जरुरी है।
यदि यह राशि येने-केन-प्रकारेण वापिस आ जाती तो भारत का महाशक्ति बनने का रास्ता प्रशस्त हो जाता। इस काले धन के कुछ प्रतिशत से ही भारत पर जो 220 अरब रुपये का विदेशी कर्ज है वह चूकता हो जाता। डॉलर की कीमत 50 रुपये से घट कर 10-15 रुपये के बीच रह जाती। देश का आधारभूत ढांचा तो पूरा होता ही, ऊर्जा के क्षेत्र में भी भारत आत्मनिर्भर हो जाता। लेकिन अब इस धन के वापिसी के सभी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। स्विस बैंक लेन-देन संबंधी न तो किसी नाम को उजागर करेंगे और न ही बैंकों में कितनी धनराशि जमा है इसका खुलासा करेंगे। जबकि भारत सरकार इस द्विपक्षीय मैत्री समझौते का दोहन करते हुए धनराशि वापिसी की शर्त रख सकती थी। आनाकानी करने पर सरकार अमेरिका और जर्मनी का उदाहरण ही देकर स्विस सरकार को विवश कर सकती थीं। अब तो लग रहा है कि सरकार की इच्छा में ही खोट था।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं।
आपका विश्लेषण पूरी तरह सही है. कांग्रेस इसीलिये उजागर नहीं करेगी क्योंकि उसमें कई ऐसे नाम आयेंगे जिससे उसकी छवि तार-तार हो जायेगी...
जवाब देंहटाएंbahut sahi kaha hai apne
जवाब देंहटाएंdeepti sharma
bahut hi sahi kaha hai apne
जवाब देंहटाएंdhanyvad
deepti sharma
mene ek blog banaya hai kripya aap ek bar dekh le
जवाब देंहटाएंlink hai www.deepti09sharma.blogspot.com
dhanyvad