हिन्दी दिवस पर विशेष ये कौन सी हिन्दी है , जिसे हम अपना रहे हैं ? · श्याम यादव हिन्दी को ले कर इस तथ्य को रेखांकित करने में कोई अत...
हिन्दी दिवस पर विशेष
ये कौन सी हिन्दी है, जिसे हम अपना रहे हैं?
· श्याम यादव
हिन्दी को ले कर इस तथ्य को रेखांकित करने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के आगमन के बाद से हिन्दुस्तान में एक खास तरह की भाषा का प्रयोग बढ़ा ही नहीं,बल्कि उसने साहित्यिक नहीं, आम आदमी को भी अपनी पकड़ में जकड़ लिया है।
इस नई इलेक्ट्रॉनिक भाषा की वाक्य संरचना तो बिल्कुल हिन्दी की ही भांति ही है,मगर शब्द अंग्रेजी के हैं, और इस हिन्दी-अंग्रेजी का यह घालमेल इतनी खूबसूरती और तीव्रता के साथ किया जा रहा है कि इस तरह के वाक्यों-शब्दों की प्रकृति,अर्थ और विशलेषण सब पता नहीं कहाँ खोते जा रहे हैं।
भाषा और साहित्य महज सूचना ढ़ोने भर के लिए नहीं होते। भाषा-संस्कृति और साहित्य एवं काल विशेष का प्रतिनिधित्व भी करते है,उस समाज और देश का। भाषा की यही भावना हिन्दी में भी थी और है भी। इसे इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों ने महज एक सूचना देने या ढ़ोने का साधन बना दिया ,वह भी अपने लाभार्थ, इसमें बदलाव करके ।
ध्वनि और दृश्य के संयोजनों के द्वारा दर्शक के दिमाग में नई शैली की इस भाषा को इस तरह से घुसेड़ने की कोशिश और प्रक्रिया अपनाई जा रही है कि वह बेचारा तो समझ ही नहीं पा रहा कि इसे क्या और कैसे,और क्यों दिखाया-पढ़ाया या सुनाया जा रहा है। बार-बार नहीं, बल्कि हर बार ही उसके दिमाग पर यह छाप गढ़ी जा रही है, ताकि वह दिग्भ्रमित हो, वही समझे,सोचे और विश्वास कर ले कि उसके सामने जो भी परोसा जा रहा है,वही दुनिया की सर्वोत्तम भाषा है और यही वह हिन्दी है जिसका गौरवशाली सांस्कृतिक इतिहास है और वह युगों युगान्तर से कालजयी है। हिन्दुस्तान के आम आदमी की आवाज के रूप में पहचाने जाने वाली भाषा हिन्दी यही है और इसे के सहारे ही उसकी आवाज बुलन्द की जा सकती है। उसकी ऐतिहासिकता,प्रांसगिकता,संवेगत्मकता से इन इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों को कोई सरोकार नहीं रहता क्योंकि वे कोई सर्जनात्मकता की भूमिका निबाहने के लिए नहीं होते, बल्कि उनका मकसद तो सिर्फ और सिर्फ ऐन केन प्रकारेण अपने आप को स्थापित करना और अपनी टी․ आर․पी․ को बढ़ना होता है।
यह भाषाई विकार जो आज हमारे समाज में उपग्रह तन्त्र के माध्यम से घर-घर में समा गया है कैसे उस भाषा को पीछे धकेलेने में कामयाब हो गया और भी होता जा रहा है जिसकी हजारों साल की अपनी संस्कृति रही हो ,अपनी सभ्यता रही है? यह प्रश्न यक्ष है?
इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने के लिए हमें उन बातों पर गौर करना होगा जिनके कारण भाषा का विस्तार होता है । भौतिकतावादी विस्तार के साथ साथ भाषाई विस्तार का होना लाजमी है,और होता भी है। परिस्थियों के अनुरूप भौतिक बदलाव आए और बदलाव का यह दौर महानगर,नगर ओर देहाती कस्बों तक फैलता गया। नई परिस्थियों में गॉव कस्बों से पलायन हो कर लोग महानगरों की ओर भागे । भाषाई संस्कृति को सहेजने वाले इन लोगों के साथ भाषा भी आई। महानगरीय व्यवस्था में इनकी भाषा बजाय इनकी अभिव्यक्ति में सहायक होने के इनके कामकाज में बाधा पैदा करने लगी। कारण महानगरों में विभिन्न प्रांतीय भाषा के साथ साथ खुद महानगर की पैदा की हुई एक ऐसी मिश्रित थी जो कामकाज में संवाद का जरिया बनी हुई थी । गड्डमड्ड हुई भाषा को अपनाना, उसे कामकाज की भाषा मानना आम आदमी की मजबूरी थी और उसने अपनी भाषाई संस्कृति को परे रख कर उसे बेहिचक अपना लिया। इस अपमिश्रित भाषा को अपना कर उसे लगा यही उसके जीने की भाषा है। यह अपमिश्रित भाषा महानगरों तक ही सीमित नहीं रही उसने खुद को विस्तार देते हुए शहर और गॉव तक अपने पैर पसार लिए। इनका साथ देने के लिए मध्यमवर्ग का वो तबका तैयार बैठा था,जिसका एकमात्र लक्ष्य नौकरी करना था। उन्हीं की चाहतों के अनुरूप गली मोहल्लों में इतने अंग्रेजी कान्वेन्ट स्कूल खुल गए,जितनों की कल्पना मैकाले ने भी नहीं की होगी। उससे अंग्रेजी का स्तर तो सुधरा नहीं,उलटा हिन्दी का नुकसान अधिक हो गया।
आजादी के पूर्व तो अंगे्रजी केवल इसलिए स्वीकार थी कि वह अंग्रेजों से संवाद का जरिया थी। हमारे नेता इसके माध्यम से अंग्रेंजों से बात भी करते रहे मगर आजादी के बाद हमने अपनी भाषा के लिए जो प्रयास किए वे नाकाफी थे। राजभाषा का कानून बनाने के बाद भी दूसरी और तीसरी भाषाई नीति भी जवाबदार रही है वर्तमान दशा हेतु। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के आने के बाद तो भाषाई स्वरूप ही बदल गया। हिन्दी का थोड़ा बहुत स्वरूप जो बचा था उसे समाप्त करने की कहीं कोई कसर नहीं रखी छोड़ी गई। शब्द तक तो ग्राह्य था क्योंकि कहा जाता है हमारी हिन्दी विशालता का स्वरूप धारण करे हुए है। किन्तु अब तो शब्द नहीं वाक्य संरचना भी ओैर वाक्य भी। इस अपमिश्रण के कारण शब्द अपना अर्थ प्रांसिगता, ऐतिहासिकता सब कुछ खोते जा रहे है । चाहे वह किसी भी भाषा का क्यों न हो। एक अंग्रेजी स्कूल के छात्र से जो दसवीं की परिक्षा दे रहा है मैंने ऐसे ही पूछ लिया - गीता के बारे में क्या जानते हो? जवाब जो उसने दिया,उससे मेरी धारणाएं ध्वस्त हो गई। जवाब था -गीता टोल्ड बाय लार्ड कृष्णा इन समरग्राउन्ड टू अर्जुन। श्रीमद्भागवतगीता के बारे में ऐसा उत्तर! जीवन दर्शन के सारे सिद्धान्त कहाँ गए जो गीता में दर्ज है या जिस कारण गीता का अपना महत्व है।
उससे वह छात्र कहाँ अवगत हो पाएगा। भाषा के साथ संस्कृति भी तो लुप्त होती जा रही है।
इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के आने के बाद जो भाषाई स्वरूप बदला है,उसके लिए ऐसा जताया जा रहा है कि यही वह भाषा है जिसके बिना आपकी प्रगति,उन्नति,विकास सब कुछ इस लिए विश्व के अनुकूल नहीं हो पाया कि आपकी भाषा उनके अनुरूप नहीं थी। हिन्दी अंग्रेजी मिश्रित भाषा भी देश में इसलिए ग्राहय हो गई कि वे कतिपय आंग्लप्रेमी जो जरूरत पड़ने पर हिन्दी का उच्चारण करते हैं और हिन्दुस्तानी होते हुए भी मिलावटी हिन्दी बोलते हैं। इन्हीं की नकल करने के बेताब वो बचे लोग होते है। जो उस मिलावटी भाषा का उपयोग न कर पाने की हीन भावना से ग्रसित हो कर ऐसी नकल करने को मजबूर होते हैं। इन दो ध्रुवों ने भाषा का एक ऐसा तीसरा समीकरण तैयार कर लिया जिसने न केवल शहरी वरन् ग्रामीण अंचलों तक को अपनी पकड़ में जकड़ लिया।
इस समय यहाँ लार्ड मैकाले के उस वक्तव्य को भी याद दिलाना जरूरी समझता हूं। जो उन्होंने ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में 18 फरवरी 1835 को दिया था। उसने कहा था- मैने पूरा भारत देखा वहां मुझे न कोई भिखारी मिला न गिरहकट। वहां के लोग अपनी मिट्टी पर गर्व करते हैं। भारत की रीढ़ तोड़ने का एक ही ढंग है कि उसकी भाषा छीन ली जाए।
इस बात से भी यह साबित हो ही जाता है कि भाषा को कैसे हथियार बनाया जा सकता है। आज एक बार फिर दृश्य-श्रव्य विज्ञापनों के माध्यम से हमारी भाषा का अपहरण किया जा रहा है और हम देखते जा रहे है। मेरा मन्तव्य यहाँ हिन्दी बनाम अंग्रेजी का नहीं है। हिन्दी में बेमेल ओर जबरन किए जा रहे उस मिलावट से है जो हमारी आँखों के सामने किया जा रहा है और हम सब भी उसमें शामिल हो रहे है। नई तकनिकी में निश्चित ही अंग्रेजी की भूमिका है मगर प्रचलित हिन्दी शब्दों को हटा कर उनकी जगह अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ने की कवायद क्यों?और किसलिए?
यह अपमिश्रित भाषा जिसका न सिर है न पैर। न संस्कृति है न इतिहास। यह देश को कहाँ ले जाएगी, कहा नहीं जा सकता। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि देश को भाषा और संस्कृति से दूर अवश्य ले जाएगी। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के आने के बाद जो भाषाई स्वरूप बदला है वह निश्चित ही हमारी आने वाली पीढियों के लिए कोई धरोहर नहीं होगी।
;श्याम यादव ‘‘श्रीविनायक'' 22 बी संचारनगर एक्सटेंशन इन्दौर 452016
बढ़िया लेख है अभी पूरा तो नहीं पढ़े है लेकिन बुक मार्क कर लिया है .....
जवाब देंहटाएंइसे पढ़कर अपनी राय दे :-
(आपने कभी सोचा है की यंत्र क्या होता है ....?)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html
श्याम भाई ,
जवाब देंहटाएंबहुत सारवान लेख है .
आपको पढ़ कर हमेशा ही कुछ नई
नया हासिल होता है .
बधाई
हम में से अधिकतर बच्चों के सिर्फ अंगरेजी ज्ञान से संतुष्ट नहीं होते बल्कि उसकी फर्राटा अंगरेजी पर पहले चमत्कृत फिर गौरवान्वित होते हैं. चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के नाम और 1 से 100 तक की क्या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्चा कहता है, क्या पापा..., पत्नी कहती है आप भी तो... और हम अपनी 'दकियानूसी' पर झेंप जाते हैं. आगे क्या कहूं.
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