आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव रजनी प्रकाशन आईएसबीएन नं 978.81.88515.06. सर्वाधिकार @ प्रमोद भार्गव प्रकाशक : रजनी प्रकाशन 5/288,...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
रजनी प्रकाशन
आईएसबीएन नं 978.81.88515.06.
सर्वाधिकार @ प्रमोद भार्गव
प्रकाशक : रजनी प्रकाशन
5/288, गली नं 5, वैस्ट कान्तीनगर
दिल्ली-110051
प्रथम संस्करण : 2010
मूल्य - 250.00
शब्दांकन : राजेश लेजर प्रिंट्स
शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. वे+. ऑफसेट, शाहदरा, दिल्ली-110032
समर्पण
अपनी बड़ी बहन
मुन्नी (श्रीमती उषा भार्गव)
को
जिसने मुझे अंगुली पकड़कर
लिखना-पढ़ना सिखाया
और
अपने बहनोई
श्री हरिगोपाल जी भार्गव
को
जिनके असीम स्नेह का
मैं ऋणी हूं...।
- प्रमोद भार्गव
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समीक्षा 1
आम आदमी के बहाने
डॉ․ परशुराम ‘विरही'
भारत जब स्वतंत्र हुआ, तब आम आदमी को बड़े सब्जबाग दिखाए गए थे। उसे देश का मलिक कहा गया था। कविवर दिनकर ने कहा था- ‘‘सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है।'' सिंहासन तो खाली हुआ लेकिन उस तक जनता नहीं पहुंच सकी। गोरे अंग्रेज सिंहासन छोड़ का गए तो जनता के नाम पर काले अंग्रेज उस पर काबिज हो गए। जनता जहां थी वहीं रही। उसकी जो हालत पराधीन भारत में थी स्वाधीन भारत में उससे अधिक खराब हो गई। आम आदमी की दशा सुधारने की योजनायें बनाई जाती हैं, कार्यक्रम तय किए जाते हैं, विदेशी सहायता ली जाती है और कर्ज लिया जाता है, किन्तु आम आदमी के जीवन की स्थिति में अभी तक कोई सुधार नहीं हुआ। उसे आज भी भरपेट भोजन नहीं मिलता, उसके पास मकान नहीं है, बीमारी में वह इलाज नहीं करा सकता, आज भी उसके बच्चे निरक्षर हैं और मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।
आम आदमी की चिन्ता को लेकर श्री प्रमोद भार्गव की पुस्तक आई है जिसका शीर्षक है ‘‘आम आदमी और आर्थिक विकास'' ख्यात कहानीकार प्रमोद भार्गव मूलतः पत्रकार हैं। दिल्ली के समाचार पत्र ‘जनसत्ता' से अनेक वर्षों तक जुड़े रहने के बाद आजकल वे न्यूज चैनल ‘आजतक' का प्रतिनिधित्व करते हैं। पुस्तक में समय-समय पर लिखे गए उनके 45 आलेख संकलित हैं।
देश के विकास की नीति निर्धारण के काम में लगे हुए लोग किस प्रकार एकांगी सोच से स्वस्थ परम्पराओं को ध्वस्त कर विकास को विनाश की ओर ले जा रहे हैं, इसका खुलासा पहले ही आलेख ‘कृषि से जुड़ा बाल श्रम मजदूरी नहीं' में किया गया है। देश के आर्थिक विकास में चरखा कोई भूमिका निभा सकता है, इस विषय में लोगों' ने सोचना ही छोड़ दिया है। महात्मा गांधी ने चरखा चलाकर और चलवाकर जिस अर्थ व्यवस्था को स्थापित करने की चेष्टा की थी, स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में वह काफी हद तक सफल हुई थी और खादी भण्डारों ने कपड़ा मिलों के शो-रूम्स को कारगर चुनौती थी। खेद का विषय है कि स्वाधीन भारत में नेता गांधी को भूल गए और गांधी की अर्थ-नीति को भी। अर्मन मूल के ब्रिटिश अर्थ-शास्त्री की एक पुस्तक है ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल' जिसमें लेखक ने माहत्मा गांधी की घरेलू उद्योग और लघु उद्योग वाली अर्थ-नीति की सराहना ही नहीं की, वरन विकासशील विश्व को उसे अपनाने की सलाह भी दी है। चरखा उस अर्थ-नीति का प्रमुख अंग है। समीक्ष्य पुस्तक का लेख-‘वैश्विक बाजार में ‘चरखा' इस विषय में कुछ नई जानकारियों के साथ यह सूचना भी देता है कि चरखे का निर्यात करोड़ों रूपयों का होने लगा है, जिसकी हम उपेक्षा कर रहे हैं उसे अन्य देश अपना रहे हैं।
देश की आर्थिकी के विविध रूपों पर लेखक ने विचार किया है। इस विविधता को रोटी को खतरे में डालता विकास, विदेशी पूंजी का कसता शिकंजा, आर्थिक मंदी के लाभ, बाजारवाद की मण्डी में राष्ट्र, फसलों के घटते मूल्य और दम तोड़ता किसान, भूख से भयभीत देश, मुसीबत का मानसून, आर्थिक विकास से जुड़ा पानी, लोक लुभावन नारा और सस्ता अनाज, आर्थिक संकट बढ़ाते क्रेडिट कार्ड, आर्थिक सुधारों के दौरान घटा रोजगार, आर्थिक मंदी और घटता औद्योगिक उत्पाद आदि लेखों में प्रमुखता से देखा जा सकता है। इस सूची में एक लेख है ‘‘अर्थिक समृद्धि की भारतीय परम्परा'' जिसके अंत में ई․एफ․ शुभाखर की तरह प्रमोद भार्गव भी महात्मा गांधी की आर्थिक कार्य-योजना को राष्ट्र के विकास में हितकर मानते हैं-‘‘उत्पादन में कृषि जैसे आन्तरिक स्रोतों की मजबूती और गांधीवादी आर्थिकी के अमलीकरण में ही आर्थिक समृद्धि के पुरातम निहितार्थ हैं। बहुसंख्यक समाज की शोषण से मुक्ति और सामाजिक समरसता ही भारत को समृद्ध व सुखी बना सकती है।'' कृषि के क्षेत्र में आनुवंशिक फसलों की ओर बढ़ती हुई सरकारी अभिरूचि को खेती, किसान और आम आदमी के लिए चातक सिद्ध करते हुए लेखक ने यह मांग की है कि आनुवंशिक बीजों और तज्जन्य फसलों के लिए दबाव डालने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाय।
पुस्तक में आर्थिक विकास के साथ आम आदमी से सम्बन्धित अन्य समस्याओं को भी विवेचित किया है। इसमें प्रमुख समस्या है पानी की। जीवन के लिए पानी नितांत आवश्यक है। आदमी भूख सहन कर सकता है, प्यास नहीं। पीने की समस्या चतुर्दिक व्याप्त है। खेती के लिए पानी की अनिवार्यता को सभी जानते हैं। मानसून धोखा देता है, नदियां सूख रहीं हैं, तालाबों का संग्रह उतना नहीं हो पा रहा है जितना होना चाहिये। पुस्तक में चार आलेख पानी के बारे में हैं, जिसमें पानी के बारे में रूढि.वादी सोच से हटकर विचार किया गया है। लेखक की मान्यता है कि पानी की उपलब्धता का अधिकार आम आदमी को है एवं जिसे नल कूप क्रांति कहा जा रहा है वह वास्तव में तबाही की पूर्व सूचना है।
पर्यावरण-प्रदूषण की बड़ी भयावह स्थिति है। औद्योगीकरण और शहरीकरण के आर्थिक विकास के द्वारपाल इसके लिए विशेष रूप जो जिम्मेवार हैं। इस विषय के लेख पुस्तक में अच्छी संख्या में हैं। सात लेखों में प्रदूषण की चर्चा के साथ उसके कारण और भ्रष्टाचार के कारण स्वास्थ्य की समस्या से जुझते आम आदमी की पीड़ा का विवेचन चार लेखों में पाठक को मिलता है। घटती हुई वन सम्पदा, प्रकृति की विकृति, शिक्षा की समस्या, मानवाधिकार और वन्य-जीवों के संरक्षण संबंधी समस्याओं पर विचार करने के साथ ही लेखक ने एक महत्वपूर्ण आर्थिक समस्या को पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत किया है-वह है कालेधन की समस्या।
ब्रिटिश राज में जब देश का धन विदेश में चला जाता था, तब ‘भारत दुर्दशा' नाटक में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने बड़ी चिन्ता व्यक्त की थी। अब देश के लोग ही विदेशों में धन ले जा रहे हैं। यह धन कालाधन होता है। इसकी इतनी बड़ी राशि है कि यदि यह भारत सरकार प्राप्त कर सके तो देश की तस्वीर ब्लैक एण्ड व्हाइट से रंगीन बन सकती है।
सारांशतः कहें तो आम आदमी के बहाने से प्रमोद भार्गव ने देश के जन-जीवन की अनेक समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान खींचने का प्रयास किया है। विषय के अनुसार लेखक ने सांख्यिकीय और विशेषज्ञों के कथनों के प्रमाण देकर अपनी बात को प्रभावपूर्ण बनाया है। लेखों की भाषा सरल-परिनिष्ठित है, जिसमें सृजनात्म लेखन और पत्रकारीय रिपोटिंग की प्रतिभा को समन्वय मिलता है। पुस्तक पठनीय है।
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‘समीक्षा 2
विकास' के आडंबरों की दस्तावेजी पड़ताल
डॉ․ पुनीत कुमार
‘विकास' का वही स्वरूप शाश्वत एवं सर्वजनहिताय सुनिश्चितकारक हो सकता है जो आर्थिक उपलब्धियों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का भी संरक्षक हो। इक्कीसवीं शताब्दी का मानव जिस प्रकार उन चुनौतियों से ग्रस्त है जो स्वयं मनुष्य की प्रायोजित अज्ञानता, लोभ, स्वार्थ एवं वासना द्वारा प्रस्तुत हो रही हों तो सर्वप्रथम विकास एवं विकास के नाम पर प्रस्तुत होने वाली शासकीय श्लाघाओं को प्रश्नचिन्हों के कठघरे में खड़ा होना स्वाभाविक है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह भी नितान्त अनिवार्य प्रतीत होता है कि प्रगति के उसी अवतार के प्रति निष्ठापूर्वक अनुष्ठान संपन्न किया जाये, जो प्रत्येक स्थिति में सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् का वर देने में सक्षम हो क्योंकि यह क्रूर यथार्थ है कि तथाकथित विकास की मर्यादाहीन दौड़ ने वर्तमान विश्व को उस स्थान पर पहुंचा दिया है, जहां यह निर्णय कर पाना कठिन प्रतीत होता है कि मानव ने इक्कीसवीं शताब्दी तक आते-आते अपना विकास किया है या सर्वनाश। अर्थात वांछनीय प्रगति के परिप्रेक्ष्य में उस सामरिक व्यूह रचना की अनिवार्यता प्रासंगिक प्रतीत होती है जो आर्थिक उपलब्धियों के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और अंततः मानवीय मूल्यों के भी संरक्षण की गारंटी देती हो।
स्वातंत्र्योत्त्ार भारतवर्ष की कतिपय त्रासदियों में यह एक त्रासदी भी संलग्न की जानी चाहिए कि नीति-नियंताओं को जमीनी यथार्थ से अनभिज्ञ होकर योजनाओं और कार्यक्रमों के असफल क्रियावयन का दर्द कभी नहीं हुआ है। फलतः असफल योजना पुनः जिस नवीन नियोजन का आधार बनी, उसका संक्रमित होना अवश्यंभावी प्रारब्ध सिद्ध होता रहा है। स्पष्ट है कि स्वतंत्र आर्यावर्त में ‘प्रति-उत्त्ारदायित्व' के सिद्धांत की सत्तारूपी मठों में वांछनीय प्राण-प्रतिष्ठा कभी नहीं की गयी। परिणामस्वरूप प्रत्येक नीति-नियंता एवं उनके कारिन्दे प्रयोगधर्मी होने का संबोधन प्राप्त करने तक ही वास्तविक रूप से ‘पराक्रमी' रहे। प्रयोग के फलस्वरूप प्रस्तुत होने वाले दुष्प्रभावों के उपचार के प्रति निश्चय ही निष्ठावान नीति निर्धारक कदाचित लेशमात्र भी नहीं रहे हैं। गोया, स्वातंत्र्योत्त्ार भारतवर्ष पिछली सदी के सातवें दशक से ही इन विडंबनाओं का साक्षी रहा है।
इस दृष्टि से प्रमोद भार्गव की समीक्षित पुस्तक ‘आम आदमी और आर्थिक विकास' इन्हीं सब बिन्दुओं का पड़ताल करने का एक सशक्त व सार्थक प्रयास है। बीसवीं सदी के पांचवें दशक से ही योजनाओं, कार्यक्रमों, महोत्सवों, पर्वों, प्रयोगों और अंततः उदारीकरण एवं निजीकरण के नाम पर जिस प्रकार आम आदमी को आश्वासनों और स्वर्णिमकाल का झुनझुना थमा कर उसकी आकांक्षाओं को परिवारवाद, वंशवाद, जातिवाद, भाषावाद एवं क्षेत्रवाद की राजनीति का अभ्यस्त बनाया गया, उसी का यह परिणाम हुआ की जनगण और विशेषकर मध्यम वर्ग ‘कोऊ नृप होये हमें का हानि' की भावना के प्रति जाने-अंजाने सहमत हो गया है। फलतः भारतीय राजनीति सम्मिलित सरकारों की क्षुद्रताओं एवं अस्थिर शासन का ज्वलंत उदाहरण बन गया है।
स्थापित साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद भार्गव की यह पुस्तक स्वतंत्र भारतवर्ष के विकास के प्रपंच का दस्तावेजी शव-विच्छेदन करती है। इस पुस्तक में विभिन्न विषयों पर केन्द्रित लगभग पैंतालीस आलेख हैं। इनमें से तीस लेख आम आदमी के विभिन्न अर्थिक मुद्दों से संबद्ध हैं, दस लेख पर्यावरण संकट की समस्या से एवं पांच आलेख मानव अधिकारों और समानता के अधिकारों की चुनौती से रूबरू हैं। निस्सन्देह, वर्तमान मानव जीवन इन सभी समस्याओं से कुंठित होने की सीमा तक व्याधिग्रस्त है। प्रमोद भार्गव के ये आलेख पूरी संवेदनशीलता के साथ इन चुनौतियों से मुठभेड़ करते हैं। प्रथम आलेख ‘कृषि से जुड़ा बाल श्रम मजदूरी नहीं' में लेखक ने भारतीय कृषि क्षेत्र की इस परंपरा, जिसमें बाल्यावस्था से ही बालकों को कृषि कार्यों में दक्ष बनाने का प्रयास प्रारंभ हो जाता है, का अपेक्षित सम्मान किये जाने का समर्थन किया है क्योंकि एक तो इस श्रम के माध्यम से प्राप्त होने वाली कुशलता किसी युवा में आत्मविश्वास बढ़ाने का साधन हो सकती है, दूसरे वहीं रोजगारमूलक कृषि दक्षता व्यक्ति को आर्थिक स्वावलंबन से भी जोड़ती है। लेखक यहां यह सवाल खड़ा करते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में रियलटी-शोज के द्वारा जिस प्रकार अभिजात्य वर्ग कई-कई घंटों का श्रम करा रहा है क्या वह बाल्यावस्था का हरण नहीं है ?
चरखा आज भी गांधीवादी संवेदनशील भारतीय हृदय में आत्मबल का एक समर्थ स्त्रोत है। इस तथ्य को ‘वैश्विक बाजार में चरखा' आलेख में लेखक ने तार्किक ढंग से स्थापित किया है। इस लेख में उल्लेख है कि ‘दरअसल आर्थिक उन्नति का अर्थ हम प्रकृति के दोहन से मालामाल हुए अरब-खरबपतियों की ‘फोर्बस' पत्रिका में छप रही सूचियों से निकालने लगे हैं। आर्थिक उन्नति का यह पैमाना पूंजीवादी मानसिकता की उपज है, जिसका सीधा संबंध भोगवादी लोग और उपभोगवादी संस्कृति से जुड़ा है।' प्रमोद भार्गव की लेखनी तब और पैनी हो जाती है जब वह पाते हैं की राष्ट्र की पवित्रता और संप्रभुता बाजारवाद की भेंट चढ़ायी जा रही है। ‘बाजारवाद' की मण्डी में राष्ट्र शीर्षक से संबद्ध आलेख में उन्होंने सांसदों-विधायकों की खरीद फरोख्त की ऐतिहासिक पड़ताल पूरी पत्रकारीय दक्षता से की है और यह सिद्ध करने में सफल भी हुए हैं कि अधिकांश जन-प्रतिनिधि ‘सेवाभाव' को तिलांजलि देकर ‘लाभ की मानसिकता' के दास होना चाहते हैं। इसी आलेख में लेखक बाजारवाद की बढ़ती वंशबेल के आधार पर ही कदाचित पूरी दृंढ़ता से यह भविष्यवाणी करते हैं कि ‘․․․․․मंहगाई तो अभी और परवान चढ़ेगी'। और इस अमरबेली सच्चाई को आज हम भयावह रूप में फलीभूत होते देख रहे है।
इस पुस्तक के कई आलेखों में लेखक की साहित्यिक संवेदना पत्रकारीय दायित्व की तटस्थ एवं तथ्यात्मक विशलेषण के अद्भुत मिश्रण में अनुभूत हुई है। साक्ष्यस्वरूप ‘नमक के नुक्स और न्यायालय' आलेख में जन सामान्य की अत्यावश्यक खाद्यसामग्री नमक को जिस प्रकार लाभ कमाने मात्र की दृष्टि से विभिन्न व्याधियों का हौवा खड़ाकर मंहगा किया जा रहा है, के षड़यंत्र का वैज्ञानिक ढंग से तो पर्दाफाश किया ही है, साथ ही ऐलान करते हैं कि ‘․․․․․सरकार की संवेदनाओं का नमक भले ही मर गया हो लेकिन आम आदमी की लड़ाई लड़ने वाले गांधी अभी भी जिंदा हैं।' इसी अध्याय में उन्होंने एक रोचक जानकारी भी दी है कि ‘सेलरी' शब्द की उत्पत्ति नमक के विनिमय से हुई है।
लेखक को पत्रकारिता का एक लंबा अनुभव है। उनके इस अनुभव की परिपक्वता तब प्रकट होती है जब वे ‘मानव अधिकारों का हनन और भ्रष्टाचार' शीर्षक के आलेख में अनेक तथ्यों के आधार पर भ्रष्टाचार की सशक्तता के तईं ‘सूचना का अधिकार' जैसे कानूनों की निर्बलता को रेखांकित करते हैं। इस आलेख में लेखक ने नौकरशाही के अडियलपन को बड़े सटीक तरीके से निशाने पर लिया है। लेखक की चैतन्य लेखनी तब और मुखर हो जाती है जब वे अपने एक आलेख में यह रेखांकित करते हैं कि किसान जीवन के बदले मृत्यु को अपनाना उचित समझ रहे हैं क्योंकि जिस प्रकार अपना सब कुछ दॉव पर लगाकर कृषक उपज प्राप्त करता है, उस अनुपात में उसे समुचित मूल्य नहीं मिलता है। लेखक ने सभी दलों की सरकारों की भूमिहीन एवं सीमांत किसान विरोधी नीतियों की प्रासंगिक आलोचना की है।
‘रोटी को खतरे में डालता आर्थिक विकास' आलेख में प्रमोद भार्गव ने आर्थिक विकास की उस प्रवृत्ति की चिकित्सकीय निष्ठुरता से शल्यक्रिया की है जिसमें आम आदमी, आदिवासी, छोटे किसान और मजदूर सम्मानजनक स्थान पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि आर्थिक विकास गरीब की रोजी-रोटी की गारंटी बनता परंतु विडंबना यह है कि तथाकथित आर्थिक विकास के जिस स्वरूप को विभिन्न अभिकरणों द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है वह जल, जंगल और जमीन को हड़पने का माध्यम बन रहा है। अतः लेखक यह लिखने से नहीं चूकता है कि ‘․․․․․किसी भी बड़े समाज (कृषक, मजदूर, आदिवासी, दलित) की रोटी को संकट में डाल देंगे तो कानून व्यवस्था दूर-दूर तक दूरबीन से भी दिखाई देने वाली नहीं है। ․․․․․दरअसल अब आर्थिक सुरक्षा और रोटी का संकट ग्रामीण अंचलों में संगठित उग्रवाद के रूप में विस्तार पाता जा रहा है।․․․․․गरीबों की रोटी की ये बुनियादी जरूरतें, यदि औद्योगिक विकास की जरूरतें पूरी करने के लिए छीनी जायेंगी तो उनके समक्ष रोटी का संकट मुंह बाए खड़ा होगा। और इस संकट से उबरने का जब कोई समाधान सामने नहीं होगा तो लाचार जन समूह आक्रोश, अराजकता और उग्रवाद का रास्ता नहीं अपनायेंगे तो क्या करेंगे?' नक्सलवाद की यही आधारभूमि है। पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान विश्व की सर्वाधिक प्रमुख समस्या है। इस पुस्तक में कई अध्याय इस समस्या पर केन्द्रित हैं। ‘प्रकृति के लिए संकट बनता आधुनिक विकास' लेख में इस प्रमुख समस्या के समाधान हेतु लेखक स्पष्ट करते हैं कि ‘․․․․․अब औद्योगिक विकास को सकल घरेलू उत्पाद की स्केल अथवा वाणिज्यिक लाभ-हानि के गुणाभाग से परे इस कथित आर्थिक विकास का मूल्यांकन जल, जंगल और जमीन का कितना दोहन किया जा रहा है इस माप से हो।
पुस्तक की भाषा शैली पत्रकारीय बेवाकपन की सुगंध से ओत-प्रोत है और अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए लेखक ने सामान्य बोल-चाल के शब्दों का सहारा लिया है। अतः उर्दू, अंग्रेजी और कहीं-कहीं आंचालिक शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। पुस्तक में भाषाई प्रांजलता के चलते पठनीय रोचकता और प्रवाहमान हुई है। पुस्तक में कुछ कमियां भी रेखांकन योग्य हैं, यथा-परिचय प्राक्कथन की आवश्यक परंपरा का इस पुस्तक में पालन नहीं किया गया है। प्राक्कथन को किसी भी पुस्तक में दिग्दर्शक माना जाना चाहिए। इससे पुस्तक की विषय-वस्तु व भाव भूमि को समझने में सरलता होती है। इस किताब में एक कमी यह भी अखरती है कि इसमें प्रयुक्त आलेख वे हैं जो पूर्व में विभिन्न राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं के छप चुके हैं। यदि पुस्तक में प्रत्येक आलेख के साथ उसके छपने की तिथि एवं पत्र-पत्रिका का उल्लेख किया गया होता तो पाठक को लेख के विषय के साथ स्वयं के अद्यतन होने अथवा न होने का संदेह न होता। पुस्तक ‘आम आदमी और आर्थिक विकास' में आधिकांश आलेख उन नकारात्मक नीतियों पर केन्द्रित हैं जो वर्तमान भारत के जनगण की नियति बनती जा रही हैं। कदाचित लेखक के अंदर का संवेदनशील पत्रकार इस विचार का समर्थक है कि यदि नकारात्मक विकास का उन्मूलन हो जाता है तो प्रगति की वह राह स्वयमेव स्पष्ट होगी जो समाज के कोने में खडे अंतिम मनुष्य तक स्वयं पहुंचेगी।
‘विकास' यद्यपि तीन शब्दों की एक रचना है, परन्तु यह अत्यंत सारगर्भित व अर्थवान भाव प्रस्तुत करता है। इस भाव में ज्ञान, नियोजन, तकनीकी और प्रौद्योगिकी कौशल तथा आर्थिक एवं मानव संसाधन की रचनात्मक भूमिका आदि सभी तत्व समाहित होते हैं। ‘विकास' एक गतिशील धारणा भी है, जो कि देश व काल सापेक्ष है। वस्तुतः ‘विकास' ही वो आकांक्षा तथा माध्यम है जिसने सभ्यता को आदिम युग से वर्तमान कम्प्यूटर काल तक, उत्त्ारोत्त्ार प्रगति के वांछनीय मानकों से परिचित कराया है। परंतु ‘विकास' को मानवीय स्पर्श तभी प्राप्त हो सकता है जब उसके पटल पर आम आदमी को सम्मानीय स्थान प्राप्त हो। समीक्षित पुस्तक ‘आम आदमी और आर्थिक विकास' इस यथार्थ से पूर्णतः परिचित है। इक्कीसवीं शताब्दी में जब पत्रकारिता पीत होने के आरोप से अशेष नहीं हो पा रही और साहित्यकार भी पद और पुरस्कार प्राप्त करने की प्रतिद्वंद्रिता में सम्मिलित हो चुके हैं, उस वातावरण में लेखनी की धार से रचनात्मक विकास के कैनवास से जनगण के जर्जर हो रहे सरोकारों को वांछनीय रंग देने का जो जोखिम भरा कार्य प्रमोद भार्गव ने इस पुस्तक के माध्यम से किया है वह निश्चित ही मात्र साहसिक ही नहीं, प्रशंसनीय भी है। ‘जोखिम' इस अर्थ में कि सम्पूर्ण पुस्तक सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रत्येक प्रपंच का कच्चा चिट्ठा है।
डॉ․ पुनीत कुमार
आकाशवाणी के पीछे
साइंस कॉलेज हॉस्टल
शिवपुरी (म․प्र․) पिन-473-551
विषय-सूची
1. कृषि से जुड़ा बाल श्रम मजदूरी नहीं 9
2. वैश्विक बाजार में चरखा 13
3. रोटी को खतरे में डालता आर्थिक विकास 17
4. विदेशी पूंजी का कसता शिकंजा 20
5. बाजारवाद की मंडी में राष्ट्र 24
6. आर्थिक मंदी के लाभ 28
7. फसलों के घटते मूल्य और दम तोड़ता किसान 31
8. नमक में नुक्स और न्यायालय 35
9. प्राकृतिक आपदाओं में आदमी 38
10. मानवाधिकारों का हनन और भ्रष्टाचार 42
11. भूख की मारी महिलाएं 45
12. बढ़ते तापमान से डूबता किसान 48
13. आर्थिक समृद्धि की भारतीय परंपरा 51
14. भूख से भयभीत देश 55
15. जल समाधि लेता भारतीय उपमहाद्वीप 59
16. औद्योगिक क्रांति के पर्यावरणीय दुष्परिणाम 62
17. सिंह बनाम आदिवासी संघर्ष 65
18. मुसीबत का मानसून 69
19. व्यापार के लिए एड्स का हौवा 73
20. संकट बनता इलेक्ट्रोनिक कचरा 76
21. अम्लीय प्रदूषण से दूषित होती नदियां 78
22. विकासशील देशों का कूड़ाघर बनता भारत 82
23. पेट्रोलियम पदार्थ बने पर्यावरणीय संकट 86
24. सेहत के लिए संकट बनती दवाएं 89
25. शिक्षा में समानता की पहल 92
26. पाठ्यक्रम में मानवाधिकार शिक्षा के औचित्य 95
27. नस्लभेद बढ़ाता शिक्षा का अर्थशास्त्र 99
28. खेती को खतरे में डालती आनुवंशिक फसलें 102
29. विदर्भ की राह पर बुंदेलखंड 105
30. पानी की उपलब्धता का अधिकार 108
31. नदियों को संकट में डालते पिघलते हिमनद 111
32. आर्थिक विकास से जुड़ा पानी 114
33. वनों को संकट में डालते वन कानून 117
34. लोक लुभावन नारा और सस्ता अनाज 120
35. सुरसामुख बनती भूख 123
36. आर्थिक संकट बढ़ाते क्रेडिट कार्ड 127
37. विदेशी बैंकों में काले धन का विश्व कीर्तिमान 130
38. प्रकृति के लिए संकट बनता आधुनिक विकास 133
39. आर्थिक सुधारों के दौरान घटा रोजगार 136
40. आर्थिक विकास ने बढ़ाया भूख का दायरा 139
41. संकट में है जैव विविधता 142
42. तबाही की पूर्व सूचना है नलकूप क्रांति 145
43. प्राकृतिक संसाधनों की घटती उपलब्धता 150
44. जैव विविधता के विनाश से जुड़ा भोजन का संकट 154
45. आर्थिक मंदी और घटता औद्योगिक उत्पाद 157
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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