मि ट्ठन मियां सुबह से सहन में चहलकदमी करते हुए बड़बड़ा रहे थे। चेहरे पर गुस्सा, बेचैनी और झल्लाहट के तमाम रंग एक साथ दिखाई दे रहे थे। क...
मिट्ठन मियां सुबह से सहन में चहलकदमी करते हुए बड़बड़ा रहे थे। चेहरे पर गुस्सा, बेचैनी और झल्लाहट के तमाम रंग एक साथ दिखाई दे रहे थे। कभी-कभी जब बेचैनी छलक पड़ती तो बारीक सुर्मा लगी गोल-गोल आंखें तरेर कर कहते, ‘‘देख लूंगा, देख लूंगा ! अपने आप को बड़ा तीसमार खां समझता है। सारी हेकड़ी भुला दूंगा। समझ क्या रखा है? मिट्ठन नाम है मेरा।''
और मिट्ठन मियां हांफने लगते। पर अगले ही पल ताकत इकट्ठा करके फिर चिल्लाते, ‘‘समझता है ताकत के बल पर मेरी जमीन हड़प लेगा। अपनी पहलवानी का बड़ा गुमान है? ऐसा सबक सिखाऊंगा कि हमेशा याद रहेगा।''
दड़बे में बंद मुर्गे उनकी बड़बड़ाहट पर बार-बार कुड़कुड़ा उठते।
मिट्ठन मियां की बीबी, जो मुहल्ले भर में नवाबिन के नाम से मशहूर थीं, बड़ी देर से उनकी बड़बड़ाहट सुन रहीं थीं, एकाएक झल्लाकर बोलीं, ‘‘ऐ है, चीख तो ऐसा रहे हैं कि आसमान में सूराख कर देंगे। भला तुम्हारी आवाज पहलवान के कानों तक पहुंचती भी है? अरे कहना है तो जाकर उसके मुंह पर कहो। यहां बड़बड़ाने से क्या फायदा? जंगल में मोर नाचा किसने देखा?''
नवाबिन की भरी-भरकम आवाज सुनकर मिट्ठन मियां पल भर को सिटपिटा उठे। उनकी आवाज पर वह वैसे भी पंख समेट लेते थे। वही क्या, मुहल्ले वाले भी नवाबिन के सामने पड़ने से कतराते थे। मगर आज नवाबिन ने मिट्ठन मियां के जमीर को ललकारा था। वह कमर पर दोनों हाथ रखकर तन गए और पहली बार ऊंची आवाज में बोले, ‘‘क्या समझती हो, मैं पहलवान के बच्चे से डरता हूं? अभी जाता हूं। उसके मुंह पर तमाचा मार कर वापस न आऊं तो मेरा नाम भी मिट्ठन नहीं।''
मिट्ठन मियां तमतमाते हुए ड्योढ़ी से बाहर निकल गए और नवाबिन रोज-मर्रा के कामों में लग गईं।
हुआ दरअसल यों था कि मिट्ठन मियां के पिछवाड़े थोड़ी-सी जमीन खाली पड़ी थी। न तो उनके पास इतना पैसा था कि चहारदीवारी घेर पाते और न ही इतनी सलाहियत कि साग-सब्जी ही उगा लेते। बगल में रहने वाले पहलवान मन्ने ने जमीन खाली पाकर उसमें अखाड़ा जमा लिया था। मिट्ठन मियां भी कुछ न बोले कि चलो पहलवान की करीबी से मुहल्ले वालों पर रोब बना रहेगा।
पर कुछ दिनों बाद लोगों ने मिट्ठन मियां को समझाना शुरू किया कि क्यों अपनी जमीन बरबाद कर रहे हो? कहीं हाथ से निकल गई तो पछताओगे। पहलवान के हाथों पड़ने से तो बेहतर है इसे बेच डालो। कम से कम चार पैसे तो हाथ आ जाएंगे।
मिट्ठन मियां को बात जम गई। वह पहलवान के पास जा पहुंचे और उससे जमीन खाली करने को कहने लगे। पहले तो पहलवान ने आनाकानी की और बात टालता रहा, पर जब मिट्ठन मियां अड़ गए तो वह असलियत पर आ गया। उसने जमीन खाली करने से इंकार कर दिया। बस, तभी से मिट्ठन मियां कमरे में टहल-टहलकर पहलवान को गालियां दे रहे थे।
थोड़ी देर बाद घर से तमतमाकर निकले मिट्ठन मियां वापस लौट आए।
दरवाजे पर आहट पाकर नवाबिन ने पूछा,‘‘आ गए? क्या कहा पहलवान ने?''
‘‘कहता क्या मैंने उसे एक हफ्ते का वक्त दिया है।'' मिट्ठन मियां दृढ़ निश्चय से भरी आवाज में बोले।
‘‘क्या मतलब...?'' नवाबिन ने हैरत से पूछा।
‘‘एक हफ्ते बाद मेरे रुस्तम का उसके लाले से मुकाबला होगा। देखना मेरा रुस्तम लाले की हवा निकाल देगा।'' कहकर मिट्ठन मियां मुर्गखाने की ओर बढ़ गए।
नवाबिन ने माथा ठोंक लिया, ‘‘या अल्लाह, गए थे जमीन वापस लेने और लौटे मुर्गे की बाजी लेकर।''
‘‘अरे बेगम,'' मुर्गों की कुकड़ूंकूं के बीच मिट्ठन मियां की आवाज सुनाई दी, ‘‘जमीन गई तो जाए खुदा की मर्जी, लेकिन मुर्गे की बाजी न ले जाने दूंगा''
नवाबिन कुछ न बोलीं, बस खा जाने वाली नजरों से उन्हें घूरती रहीं।
मिट्ठन मियां के पास यही एक शौक बचा था। उनके पास अच्छी नस्लों के असील मुर्गे मौजूद थे। खुद भले ही एक वक्त फाका कर लें पर मुर्गों की गिजा में कमी न आने देते थे।
वैसे तो पहले भी मिट्ठन मियां का अच्छा-खासा वक्त मुर्गों की देखभाल में बीतता था, पर अब तो पूरा का पूरा दिन इसी में गुजरने लगा। न खाने का होश रहता, न पीने का। नवाबिन का खौफ न होता तो शायद रात भी इसी में बीतती। बिस्तर पर लेटकर भी वह आधी रात तक मुर्गबाजी के नए-नए पेंच ईजाद किया करते।
पहले सुबह से ही उनके मुर्गे घूरे पर चोंचें लड़ाया करते थे, पर अब मिट्ठन मियां उन्हें घर से निकलने तक न देते थे। निकालते भी तो छड़ी लेकर पीछे-पीछे निगरानी में फिरा करते। पहले दड़बा बीटों से भरा काला-सफेद बना रहता था। पानी की कटोरी और दानों की थाली भी मैली-कुचैली औंधी पड़ी रहती थी। पर अब मिट्ठन मियां ने ऐसी मेहनत की थी कि मुर्गों का दड़बा एकदम चमचमा उठा था।
एक रात शेख घसीटा मिलने आए। मिट्ठन मियां को कोने में ले जाकर फुसफुसाते हुए बोले, ‘‘अमां मिट्ठन, जब से इस बाजी के बारे में सुना है, तब से फिक्रमंद हूं। मैंने पता किया है गोलागंज में एक हकीम साहब हैं जो कैफ (नशे) की गोलियां बेचते हैं। वैसे तो अस्सी की एक देते हैं पर मैं सत्तर की ला दूंगा।''
मुर्गबाज अक्सर अपने मुर्गों को कैफ की गोलियां खिला दिया करते थे। इन गोलियों की खासियत यह थी कि इन्हें खाने के बाद मुर्गे होश में न रहते थे। चोट और दर्द भूलकर वे तब तक लड़ते रहते थे जब तक उनमें से कोई एक जीत न जाए या फिर मर न जाए।
शेख घसीटा की बात सुनकर मिट्ठन मियां तैश में आ गए, ‘‘खुदा कसम, शेख साहब, मुर्गबाजी में आज तक हमारे खानदान ने बेइमानी का सहारा न लिया। हमारा और आपका साथ तो बरसों का है, फिर आपने ऐसा कैसे सोच लिया?''
‘‘अजी छोड़िए,'' शेख घसीटा बेहयाई से बोले, ‘‘सच्चाई-ईमानदारी सब बीते जमाने की बातें हैं। हमने तो यहां तक सुना है कि पहलवान अपने मुर्गों के पंजों पर जहर लगा रहा है। तुम्हारे रुस्तम का तो अल्लाह ही भला करे।''
मिट्ठन मियां भीतर ही भीतर थरथरा गए, पर चेहरे पर उसकी झलक तक न आने दी, बोले, ‘‘यह उसका ईमान जाने, पर मैं बेइमानी का रास्ता अख्तियार नहीं कर सकता।''
‘‘कोई बात नहीं मियां, मैं तो अजीज समझकर चला आया था। आगे तुम्हारी मर्जी।'' शेख घसीटा वापस लौट पड़े। पर जाते-जाते चौखट पर ठहर गए और किसी मायूस व्यापारी की तरह बोले, ‘‘सोच लो, साठ में दिलवा दूंगा।''
मिट्ठन मियां ने कोई जवाब न दिया, पर दिल ही दिल में मसोसकर रह गए कि काश साठ रुपए होते तो एक गोली खरीद लेते।
आखिरकार बाजी वाला दिन भी आ गया। मिट्ठन मियां और पहलवान अपने-अपने शागिर्दों को लेकर पुराने किले के खंडहर में आ जुटे। भीड़ ने चारों तरफ गोल घेरा बना लिया।
मिट्ठन मियां अगर पुराने मुर्गबाज थे तो पहलवान भी कुछ कम न था। उसके लाले ने कई बाजियां जीतीं थीं। लाल भूरे पंखों वाला वह एक मोटा-ताजा मुर्गा था। पहलवान अपने मुर्गों में उसका खासा ख्याल रखता था।
मिर्जा छंगा को रेफरी बनाया गया। वह हाथ उठाकर बोले, ‘‘तो हाजिरीने महफिल, मुकाबला शुरू हो?''
‘‘हां...,'' भीड़ इस कदर जोर से चिल्लाई कि मुर्गे सिटपिटा उठे और कुड़कुड़ाने लगे।
‘‘तो ठीक है, एक...दो...तीन...'' मिर्जा छंगा गिनने लगे।
मिट्ठन मियां और पहलवान एकदम तैयार हो उठे। मुर्गों की लड़ाई में जीत बहुत बार इससे भी तय होती है किसका मुर्गा पहले उतर कर वार करना शुरू करता है।
...और तीन कहे जाने के साथ ही मुर्गे छोड़ दिए गए। पहलवान के मुर्गे ने उछल-उछलकर वार करने शुरू कर दिए। उसकी नुकीली चोंच और तीखे पंजों से मिट्ठन मियां का मुर्गा हलकान होने लगा। हालांकि मुकाबले की रात मिट्ठन मियां ने भी चाकू से तराशकर मुर्गे की चोंच और पंजों को खब नोंकदार बना दिया था। यहां तक कि वह अपनी चोंच को नुकसान न पहुंचा ले इसलिए दाने भी हथेली पर डालकर खिलाए थे।
लेकिन पहलवान का मुर्गा जैसे पूरे जोश में था। वह उछल-उछलकर मिट्ठन मियां के मुर्गे को लहूलुहान किए डाल रहा था।
पहलवान की तरफ दाद देने और जोश बढ़ाने वालों का हुजूम भी कम न था। खुद पहलवान भी ‘वाह बेटा, शाबाश ! घूम के मार ! वाह-वाह, उछल के, खूब।' कह-कहकर अपने मुर्गे का जोश बढ़ा रहा था।
मिट्ठन मियां का दिल बैठने लगा। उन्हें लगा कि बाजी ज्यादा देर तक नहीं चल पाएगी। तभी मिर्जा छंगा हाथ उठाकर जोर से बोले, ‘‘पानी...''
और पानी कर दिया गया। यानी मुर्गों को पानी पिलाने, उनके जख्म सहलाने औरा उनमें फिर से जोश भरने के लिए अंतराल कर दिया गया। लड़ाका मुर्गों की बाजी तो कई-कई ‘पानियों' तक चलती रहती है। कई-कई बार तो दो-दो तीन-तीन दिन तक लग जाते हैं।
मिट्ठन मियां की जान में जान आई। वह मुर्गे की गर्दन सहलाने लगे और जख्मों पर केवड़ा डालने लगे।
‘पानी' के बाद दोनों मुर्गे फिर भिड़ गए। मगर अबकी शुरू से ही पहलवान का मोटा-ताजा मुर्गा थका-थका सा नजर आ रहा था। उसमें पहले जैसा जोश भी नजर नहीं आ रहा था। जबकि मिट्ठन मियां का दुबला-पतला मुर्गा फुर्ती से पैंतरा बदल रहा था। पहले तो वह अपने ऊपर आए वारों को बचाता रहा, पर जब उसे दुश्मन की कमजोरी का एहसास हो गया तो वह पूरी ताकत से पिल पड़ा। सारा हुजूम जो अब तक पहलवान की तरफ था, मिट्ठन मियां के पाले में आ गया। ‘वाह-वाह' का शोर बुलंद होने लगा।
मिट्ठन मियां अपनी खुशी छिपाए चीख रहे थे, ‘‘शाबाश मेरे रुस्तम ! और जोर से, हां-हां, क्या कहने !''
बाजी पलटते देख पहलवान ने मिर्जा छंगा को डपटा, ‘‘अरे मिर्जा, पानी करो।''
पर मिर्जा ठहरे पुराने रेफरी। उन्होंने नवाबों का जमाना देखा था। वह इस तरह की धौंस में आने वाले नहीं थे। अपनी पुरानी घड़ी पर निगाह डालकर खामोश बैठे रहे।
आखिरकार जब वक्त हो गया तो हाथ उठाकर बोले, ‘‘पानी...''
अपने मुर्गे की पस्ती देख पहलवान बौखला गया था। वह अपने चेलों पर गरजने लगा, ‘‘अबे सत्ते, पानी की छींट दे ! नब्बन केवड़ा ला...''
और खुद चाकू निकालकर मुर्गे की चोंच और नाखून तराशने बैठ गया।
‘पानी' के लिए तय वक्त के बाद बाजी फिर से शुरू हुई। इस बार भी मिट्ठन मियां का असील बीस पड़ रहा था और घूम-घूमकर लाले के सिर और डैनों पर वार किए जा रहा था।
पहलवान के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं जबकि मिट्ठन मियां फूले न समा रहे थे।
तभी मिट्ठन मियां के मुर्गे ने उछलकर लाले के पोटे पर ऐसा वार किया कि वह बेचैन होकर जोर से फड़फड़ाया और भीड़ के पैरों के बीच जगह बनाता हुआ भाग खड़ा हुआ। उसे पकड़ने के बहाने पहलवान भी भाग निकला।
मिट्ठन मियां उछल पड़े। लोगों ने उन्हें कंधों पर उठा लिया। बड़ी देर तक गुलगपाड़ा मचता रहा। लोग मिट्ठन मियां को उछालते हुए मुहल्ले तक ले आए। लेकिन मुहल्ले में घुसते ही तितर-बितर हो गए। भला नवाबिन के सामने पड़कर कौन अपना पानी उतरवाता? मिट्ठन मियां अकेले ही मुर्गे को बगल में दबाए गाजी की तरह घर की ओर बढ़ चले।
उधर, इन बातों से बेखबर नवाबिन सोटा लिए पिछवाड़े की जमीन पर चौकी डाले भभक रही थीं, ‘‘इनसे कुछ नहीं होगा। मैं देखती हूं कौन माई का लाल यहां अखाड़ा बनाता है।''
डा0 मोहम्मद अरशद खान
hamdarshad@gmail.com
बहुत बढ़िया मजेदार कहानी.... आभार
जवाब देंहटाएंरोचक और मज़ेदार........
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा
VERY ATTRACTIVE STORY.
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