कि सी भी देश की आर्थिक ताकत उसके सकल घरेलू उत्पादों की दर से नापी जाती है, लेकिन गैर आनुपातिक ढंग से बढ़ते बूढ़े किसी देश की आर्थिक व्यव...
किसी भी देश की आर्थिक ताकत उसके सकल घरेलू उत्पादों की दर से नापी जाती है, लेकिन गैर आनुपातिक ढंग से बढ़ते बूढ़े किसी देश की आर्थिक व्यवस्था किस तरह को चौपट कर सकते हैं इसका ताजा उदाहरण जापान है। कुछ समय पहले तक जापान की आर्थिक विकास दर अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर थी, लेकिन अब 11.2 जीडीपी दर के साथ चीन ने जापान की हैसियत को एक पायदान नीचे खिसका दिया है। जापान के बाद भारत अब चौथे स्थान पर है। जापान में अवाम को बेहतर जीवन स्तर व स्वास्थ्य सुविधा हासिल कराने से एक ओर तो जापन में बूढ़ों की आबादी इस स्तर तक बढ़ती चली गई कि उन्हें वहां की युवा शक्ति ‘काम के न काज के दुश्मन अनाज के‘ जैसी लोकोक्तियों से नवाजने लगे। दूसरे, आबादी पर निंयत्रण के कृत्रिम साधनों और सरकारी नीतियों के चलते एक स्वस्थ आबादी के आयु समूहों में जो संतुलित अनुपात होना चाहिए था वह विषंगति का शिकार हो गया। नतीजतन आधुनिक,औद्योगिक व प्रोद्यौगिक विकास को जो उर्जा युवाओं की सामूहिक नई सोच और शक्ति से मिलती है उसका क्षरण की पृष्ठभूमि पहले ही जापान में निर्मित हो चुकी थी लिहाजा जापान आर्थिक विकास के मामले में पिछड़ गया। कालांतर में चीन और भारत भी इसी दुरभिसंधि का शिकार होने जा रहे हैं।
अब तक जनसंख्या का असंतुलित विकास किसी देश की आर्थिक हैसियत मापने का मान्य अर्थशास्त्रीय सिद्धांत नहीं है। लेकिन आबादी अर्थव्यवस्था की दर को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक तो है ही इसे नकारा नहीं जा सकता है। क्योंकि सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देश चीन ने जब अपनी युवा आबादी को उत्पादन की तकनीक से जोड़कर निर्यात के जरिये उत्पादों को वैश्विक बाजार दिया तो चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया। आज चीन इतनी बड़ी ताकत हो गया है कि उसके आयात-निर्यात की जरूरतें विश्व बाजार को प्रभावित करने वाली साबित हो रही हैं। चीन ने अमेरिका समेत अनेक एशियाई देशों में अपने सस्ते उत्पादों को खपाने के लिए बढ़ी संख्या में उपभोक्ता तैयार किए हैं। इसी कारण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अमेरिका में चीन का सर्वाधिक निवेश है। चीन इस निर्यात से जो धन कमाता है, उसे वह अमेरिकी डॉलर खरीदने में खर्च रहा है, लिहाजा वह विदेशी पूंजी संचय में भी अग्रणी देश है। कमोबेश यही हैसियत जर्मनी की थी, लेकिन अब चीन ने उसे पछाड़ दिया।
औद्योगिक उत्पादन व निर्यात की इसी निरंतरता के बूते विश्व बाजार का सूचकांक चीन के संकेतों से उपर - नीचे होने लगा। चीन आज तमाम वस्तुओं के निर्माण का नाभिकेन्द्र बना हुआ है। इसलिए जब चीन लोहा, खनिज, तांबा आदि धातुओं का आयात करता है तो इन उत्पादक धातुओं के भाव विश्व बाजार में बढ़ जाते हैं और जब चीन आयात कम कर देता हैं तो भाव घट जाते हैं। चीन की आर्थिक समृद्धि इस बात से भी आंकी जाती है कि आज चीन में कारों की खपत सबसे ज्यादा है जबकि वैश्विक आर्थिक मंदी से पहले यह दर्जा अमेरिका को हासिल था। अमेरिका में बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ने से भी ये हालात बने हैं। अमेरिका में बेरोजगारी की दर बढ़कर 9.5 फीसदी तक पहुंच गई है। ये हालात इस बात के संकेत हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था बर्बादी के कगार पर है। चीन ने संतुलित विकास व हर हाथ को काम देने की इतनी कुशल रणनीति अपनाई की चीन बुनियादी जरूरतों से वंचित साठ करोड़ लोगों को गरीबी के अभिशाप से छुटकारा दिलाने में सफल रहा। हालांकि अभी भी चीन में करीब 130 करोड़ लोग देश के ग्रामीण इलाकों व महानगरों की गगनचुंबी इमारतों की तलहटी में बद्हाली की जिंदगी गुजारने को मजबूर है। लगातार बढ़ रही बूढ़ी आबादी भी यह संकट पैदा करती है कि जापान की तरह चीन भी एक दिन बूढ़ों का देश बनकर रह जाएगा और उसने जो आज आर्थिक कामयाबी हासिल की है उसे कोई और देश हथिया लेगा। कमोबेश ऐसे ही हालात भारत के बनने जा रहे हैं। लगातार बढ़ रहे बूढ़े पैंशनधारियों की संख्या औद्योगिक विकास की निरंतरता और युवाओं को नए रोजगार दिलाने के बीच एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रही है। इसके बावजूद हम हैं कि वर्तमान नौकरीपैशाओं की नौकरी की उम्र बढ़ाने और सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें अनुभव के बूते सेवा-विस्तार देने में लगे हैं। हालातों का ऐसा निर्माण और जनसंख्या नियंत्रण के उपाय कई देशों की अर्थव्यव्स्था को प्रभावित कर रहें हैं।
जनसंख्या वृद्धि के असंतुलित और गैर आनुपातिक विकास से जापान, कनाडा, स्वीडन और आस्ट्रेलिया तो पहले से ही जूझ रहे हैं अब चीन और भारत भी इनके पीछे हैं। जनसंख्या दृष्टि से एक स्वस्थ व प्रगतिशील समाज में बच्चों, किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ो और बुजुर्गों की संख्या के बीच एक निश्चित औसत अनुपात होना चाहिए। किसी भी एक आयुसमूह का औसत के विपरीत बढ़ना मानव समाज के नैसर्गिक विकास को अवरूद्ध तो करता है ही, अन्य अनेक तरह की समस्याएं भी समाज को जकड़ लेती हैं। भारत व चीन समेत अनेक देशों में बढ़ती बूढ़ों की आबादी जहां नई आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को पैदा कर रही हैं वहीं इनकी सुरक्षा का संकट भी गहरा रहा है ? विश्व पटल पर जापान की आर्थिक हैसियत का ग्राफ नीचे लाने में अर्थ व समाजशास्त्री बूढ़ों को पृष्ठभूमि में मानकर चल रहें हैं।
जनता का उच्च जीवन स्तर और उपचार की बेहतर सुविधाएं किसी भी देश की संपन्नता के मानक संकेत हैं। लेकिन ये हालात जहां एक ओर मृत्युदर घटाते हैं वहीं औसत उम्र बढ़ाते हैं। लिहाजा सरकारें सकल जनसंख्या वृद्धि पर काबू पाने के लिए जन्मदर को नियंत्रित करने में लग जाती हैं। नतीजतन गैर आनुपातिक आयु समूह के लोगों का बेतरतीब ढॉचा समाज में विकसित हो जाता है। विवाह की बढ़ती जा रही औसत उम्र ने भी मानव आबादी को इस दुष्चक्र में डालने का काम किया है। इन विपरीत हालातों की गिरफ्त से बाहर आने के लिए जरूरी है कि दूरदर्शिता से काम लिया जाए। इसलिए जन्मदर इस अनुपात में घटाने के प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाए कि गैर आनुपातिक मानव आबादी विकसित न हो। इसके लिए जरूरी उपायों में युवा हो रही पीढ़ी को उच्चतर शिक्षा हासिल करते ही स्थायी रोजगार से जोड़ने की जरूरत है। क्योंकि युवा निश्चित आय के स्त्रोत से जुड़ेंगे तो वे दापंत्य बंधन भी जल्दी स्वीकार करेंगे। इसके साथ ही भारत व चीन जैसे देशों में नौकरी की आयु बढ़ाने की नहीं घटाने की जरूरत हैं, जिससे नए रोजगार सृजित हों और युवाशक्ति राष्ट निर्माण में जुटे। आज भारत जैसे देश में लिंगानुपात बिगड़ने से बड़ी संख्या में युवक अविवाहित रह जाने को विवश हो गए हैं, इसलिए स्त्री-पुरूष के बीच बिगड़े औसत लिंगानुपात को भी प्रोत्साहित कर सुधारने की जरूरत है। क्योंकि कालांतर में किसी भी देश की आर्थिक विकास दर तभी तक स्थिर रह सकती है जब तक उस देश में संतुलित आबादी विकसित होती रहे। आर्थिक विकास को सकल घरेलू उत्पाद की दर के होती रहे। आर्थिक विकास को सकल घरेलू उत्पाद की दर को जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न आयु समूहों के औसत अनुपात की दर से भी देखने की जरूरत है ?
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
COMMENTS