भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की विवशता के चलते केवल कागजी...
भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की विवशता के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ज्ञानी और परंपरागत ज्ञान आधारित कार्य प्रणाली में कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल ही माना जाता है। यही कारण है कि हम देशज तकनीक व स्थानीय संसाधनों से तैयार उन आविष्कारों और आविष्कारकों को सर्वथा नकार देते हैं जो ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणालियों से जुड़े होते हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय इन्हीं देशज तकनीकों में अंतर्निहित हैं। औद्योगिक क्रांति ने प्राकृतिक संपदा का अटाटूट दोहन कर वायुमण्डल में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बढ़ाकर दुनिया के पर्यावरण को जिस भयावह संकट में डाला है उससे मुक्ति के स्थायी समाधान अंततः देशज तकनीकों से वजूद में आ रहे उपकरणों व प्रणालियों में ही तलाशने होंगे। भारतीय वैज्ञानिक संस्थाएं और उत्साही वैज्ञानिकों को नौकरशाही के चंगुल से मुक्ति भी इन्हीं देशज मान्यताओं को प्रचलन का बढ़ावा देने से ही मिलेगी।
हमारे समाज में ‘घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध' कहावत बेहद प्रचलित है। यह कहावत कही तो गुणी-ज्ञानी महात्माओं के संदर्भ में है किंतु विज्ञान संबंधी नवाचार प्रयासों के प्रसंग में भी खरी उतरती है। उपेक्षा की ऐसी ही हठवादिताओं के चलते हम उन वैज्ञानिक उपायों को स्वतंत्रता के बाद लगातार नकराते चले आ रहे हैं जो समाज को सक्षम और समृद्ध करने वाले हैं। नकार की इसी परंपरा के चलते हमने आजादी के पहले तो गुलामी जैसी प्रतिकूल परिस्थितियां होने के बावजूद रामानुजम, जगदीशचंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस जैसे वैज्ञानिक दिए लेकिन आजादी के बाद मौलिक आविष्कार करने वाला अंतराष्ट्रीय ख्याति का एक भी वैज्ञानिक नहीं दे पाए। जबकि इस बीच हमारे संस्थान नई खोजों के लिए संसाधन व तकनीक के स्तर पर समृद्धशाली हुए हैं। इससे जाहिर होता है कि हमारी ज्ञान-पद्धति में कहीं खोट है।
दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने की दृष्टि से भारत का तीसरा स्थान है। लेकिन विज्ञान संबंधी साहित्य सृजन में केवल पाश्चात्य लेखकों को जाना जाता है। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आविष्कारों से ही यह साहित्य भरा पड़ा है। इस साहित्य में न तो हमारे वैज्ञानिकों की चर्चा है और न ही आविष्कारों की। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हम खुद न अपने आविष्कारकों को प्रोत्साहित करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। इन प्रतिभाओं के साथ हमारा व्यवहार भी कमोबेश अभद्र ही होता है। समाचार-पत्रों के पिछले पन्नों पर यदा-कदा ऐसे आविष्कारकों के समाचार आते हैं जिनके प्रयासों को यदि प्रोत्साहित किया जाए तो हमें राष्ट्र-निर्माण में बड़ा सहयोग मिल सकता है।
उत्तरप्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है। उसने यह जानकारी आला-अधिकारियों को भी दी। सराहना की बजाय उसे हर जगह मिली फटकार। लेकिन जिद् के आगे किसकी चलती है। आखिरकार रामपाल ने अपना घर साठ हजार रूपये में गिरवी रख दिया और गंदे पानी से ही दो सौ किलो वॉट बिजली पैदा करके दिखा दी। रामपाल का यह कारनामा किसी चमत्कार से कम नहीं है। जब पूरा देश बिजली की कमी से बेमियादी कटौती की हद तक जूझ रहा है, तब इस वैज्ञानिक उपलब्धि को उपयोगी क्यों नहीं माना जाता ? जबकि इस आविष्कार के मंत्र में गंदे पानी के निस्तार के साथ बिजली की आसान उपलब्धता जुड़ी है।
इसके बाद रामपाल ने एक हेलिकॉप्टर भी बनाया। लेकिन उसकी चेतना को विकसित करने की बजाय उसे कानूनी पचड़ों में उलझा दिया गया। अपने सपनों को साकार करने के फेर में घर गिरवी रखने वाला रामपाल अब गुमनामी के अंधेर में है। जबकि समाजोपयोगी ऐसे उत्साही का मनोबल नगर पालिका और समाज सेवी संस्थाएं भी बड़ा सकती थीं ?
बिहार के मोतिहारी के मठियाडीड में रहने वाले सइदुल्लाह का आविष्कार भी किसी करिश्मे से कम नहीं है। उन्होंने जल के तल पर चलने वाली साइकिल बनाने का कारनामा कर दिखाया। उनके इस मौलिक सोच की उपज यह थी कि उनका गांव हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है। नतीजतन लोग जहां की तहां लाचार अवस्था में फंसे रह जाते हैं। सइदुल्लाह इस साइकिल का सफल प्रदर्शन 1994 में मोतिहारी की मोतीझील में, 1995 में पटना की गंगा नदी में और 2005 में अमदाबाद में कर चुके हैं। इसके लिए उन्हें तत्कालिन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने सम्मानित और पुरष्कृत भी किया था।
इस पुरस्कार से उत्साहित होकर सइदुल्लाह ने पानी पर चलने वाले अद्भुत रिक्शे का भी निर्माण कर डाला। यह रिक्शा पानी पर बड़े आराम से चलता है। पुरस्कार की सारी राशि नए अनुसंधान के दीवाने इस वैज्ञानिक ने रिक्शा निर्माण में लगा दी। बाद में नए अनुसंधानों के लिए सइदुल्लाह ने अपने पुरखों की जमीन भी बेच दी और चाबी वाले पंखे, पंप, बैटरी-चार्जर और कम ईंधन खर्च वाले छोटे ट्रेक्टर का निर्माण करने में सारी जमा पूंजी खर्च दी। पर सरकारी सहायता और सइदुल्लाह द्वारा निर्मित उपकरणों को वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिली। बेचारा कंगाल हो गया। नवाचार के नए उपक्रम भी बाधित हो गए। लिहाजा उसका हौसला पस्त हो गया। जबकि ऐसे जिज्ञासु अनुसंधित्सुओं को आर्थिक मद्द के विशेष प्रावधान होने चाहिए।
यहां गौरतलब यह भी है कि जब एक नवाचारी वैज्ञानिक के अविष्कारों को डॉ. कलाम जैसे वैज्ञानिक और राष्ट्रपति भी मान्यता दे चुके हों, वह वैज्ञानिक भी अफसरशाही के चलते बौना तो साबित हुआ ही कालांतर में उसने घर की पूंजी लगाकर नई खोजों से भी तौवा कर ली।
बिहार के वैशाली जिले में मंसूरपुर गांव के एक मामूली विद्युत उपकरण सुधारने वाले कारीगर राघव महतो ने मामूली धन राशि की लागत से अपने कम्युनिटी रेडियो स्टेशन का निर्माण कर डाला। और फिर उसका सफल प्रसारण भी शुरू कर दिया। 15 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में यह केन्द्र स्थानीय लोगों का मनोरंजन कर रहा है। एकाएक विश्वास नहीं होता कि इस प्रकार के प्रसारण के लिए जहां कंपनियां लाखों रूपये खर्च करती हैं, इंजीनियर-तकनीशियनों को रखती हैं, वही काम एक मामूली पढ़ा-लिखा विद्युत-मिस्त्री अपनी खोज के बूते कर रहा है। लेकिन अंग्रेजों से उधार ली हमारी अकादमिक व्यवस्था ऐसी है कि विज्ञान के प्रायोगिक व व्यावहारिक रूप को बढ़ावा नहीं मिलता। लिहाजा प्रसारण कंपनियां तो लाखों-करोड़ों कमाकर बारे न्यारे करने में लगी हैं लेकिन मौलिक प्रतिभाएं विकसित होने की बजाय सरकारी प्रोत्साहन व वैज्ञानिक मान्यता न मिलने के कारण कुंठित व हतोत्साहित हो रही हैं।
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के भैलोनी लोध गांव में मंगल सिंह नाम का एक ऐसा ग्रामीण अन्वेषक है जिसने ‘मंगल टर्बाइन' नाम से एक ऐसा आविष्कार किया है जो सिंचाई में डीजल व बिजली की कम खपत का बड़ा व देशज उपाय है। मंगल सिंह ने अपने इस अनूठे उपकरण का पेटेंट भी करा लिया है। यह चक्र उपकरण जल-धारा के प्रवाह से गतिशील होता है और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई व चारा कटाई मशीन आसानी से चला सकते हैं। इस चक्र की धुरी को जेनरेटर से जोड़ने पर बिजली का उत्पादन भी शुरू हो जाता है। अब इस तकनीक का विस्तार बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो हो ही रहा है, उत्तराखण्ड में भी इसका इस्तेमाल शुरू हुआ है। यहां की पहाड़ी महिलाओं को पानी भरने की समस्या से छूट दिलाने के लिए नलजल योजना के रूप में इस तकनीक का प्रयोग सुदूर गांव में भी शुरू हो गया है।
उत्तर-प्रदेश के गोण्डा के सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ने वाले छात्र ऋृशीन्द्र विक्रम सिंह, अजान भारद्वाज, निखिल भट्ट और हिदायतुल्ला सिद्धीकी ने मिलकर दीमक से बचाव का स्थायी समाधान खोज निकालने का दावा किया है। इन बाल वैज्ञानिकों ने इस कीटनाशक का बाल विज्ञान कांग्रेस में प्रदर्शन भी किया।
इन छात्रों ने विज्ञान कांग्रेस के बैनर तले गोण्डा जिले में किसानों पर किए एक अध्ययन में पाया कि भारत-नेपाल तराई क्षेत्र में दीमकों के प्रकोप से हर साल पैदावार का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। दीमकों पर नियंत्रण के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला रसायन क्लोरो पाईरीफास दीमकों पर प्रभावी नियंत्रण में नाकाम साबित हो रहा है। साथ ही इसका इस्तेमाल मिट्टी के परितंत्र को भी खत्म कर देता है जिससे जमीन की उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसके इस्तेमाल से किसानों के मित्र कीट (केंचुआ आदि)भी नष्ट हो जाते हैं।
इन बाल वैज्ञानिकों ने कीटनाशी कवक बवेरिया वैसियाना के प्रयोग से दीमकों की समस्या से स्थायी समाधान की खोज की है। रसायन रहित कवक होने के कारण बवेरिया वैसियाना सभी तरह के दुष्प्रभावों से मुक्त है। इसका एक बार प्रयोग खेत में छह इंच नीचे बैठी अण्डे देने वाली रानी दीमक को कुनबा-समेत खत्म कर देता है। नतीजतन इनके भविष्य में फिर से पनपने की संभावना समाप्त हो जाती है। यह कवक दूसरे रसायनों से ज्यादा असरदार और सस्ता होने के कारण बेहद फायदेमंद है। इसकी उपयोगिता साबित हो जाने के बावजूद इस बाल अनुसंधान को प्रयोग को व्यावहारिक मान्यता कब मिलती है यह कहना मुश्किल है।
हालांकि कुछ सवेदशील वैज्ञानिक व इंजीनियर ग्रामीणों की मद्द के लिए आगे भी आ रहे है। बिहार के हजारीबाग जिले के 30 ग्रामों का विस्थापन कर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना उद्योग लगाने की जोड़तोड़ में हैं। ग्रामीण इन उद्योगों का विरोध कर रहे हैं। इनकी मदद के लिए कुछ इंजीनियर व तकनिशियन भी तैयार हो गए हैं। इन कारीगरों ने इन्हें कोयले से बिजली बनाने की छोटी मशीनें मुहैया कराई और इनके समूह बनाकर संस्थाएं पंजीकृत कर दीं। नतीजतन केन्द्र सरकार से आर्थिक मदद भी मिलने लगी है। इस बिजली का उपयोग खेती में हो रहा है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक रहे बनवारीलाल शर्मा भी उत्तराखण्ड में किसानों की व्यावहारिक मद्द के लिए आगे आए हैं। उन्होंने नदियों के पानी से छोटे पैमाने पर बिजली उत्पादन का सिलसिला शुरू किया है। लोग इससे स्थानीय स्तर पर लाभान्वित हो रहे हैं। इन तकनीकियों की खासियत यह है कि इनसे न तो लोगों को उजड़ना पड़ रहा है और न ही पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।
समूचे मध्य-प्रदेश में एक ओर जहां बिजली को लेकर हाहाकार मचा है, वहीं गुना जिले में बरौदिया नाम का एक ऐसा अनूठा गांव भी है। जिसने ऊर्जा के क्षेत्र में इतनी आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है कि अब इस गांव में कभी अंधेरा नहीं होता। यह करिश्मा बायोगैस तकनीक अपनाकर प्राप्त किया गया है। यहां के लोग बायो गैस से अपने घरों को तो रोशन कर ही रहे हैं, साथ ही महिलाएं चूल्हे चौके का सारा काम भी इसी गैस से कर रही हैं। तकरीबन सात सौ की आबादी वाले इस गांव के ग्रामीण गोबर गैस को रोशनी और रसोई में ईंधन के रूप में उपयोग करते हैं, साथ ही जैविक खाद बनाकर उपजाऊ फसल भी अन्य ग्रामों की तुलना में ज्यादा प्राप्त करते हैं। तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस गांव में गोबर गैस संयंत्र स्थापित होने के कारण वन संपदा पर भी दबाव कम हुआ है।
ग्राम पंचायत सिंघाड़ी के इस बरौदिया गांव में करीब पचास गोबर गैस संयंत्र स्थापित कर ग्रामीण ऊर्जा के क्षेत्र में स्बावलंबी हुए हैं। इस सफल प्रयोग ने मवेशियों की महत्ता भी उजागर की है। गांव के सरपंच कल्याण सिंह का कहना है कि जब वे अन्य गांवों में जाते हैं तो उन्हें उस गांव को बिजली समस्या से जूझते देखकर अपने गांव पर गर्व होता है। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए ग्रामीणों ने सरकार एवं कृषि विभाग से कोई मद्द भी नहीं ली की।
जरूरत है नवाचार के इन प्रयोगों को प्रोत्साहित करने की। इन्हीं देशज विज्ञानसम्मत टेक्नोलॉजी की मद्द से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैं। लेकिन देश के होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता मिलने की राह में प्रमुख बाधा है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। क्योंकि हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग व विश्लेषण की छूट की बजाय तथ्यों आंकड़ों और सूचनाओं की घुट्टी पिलाई जा रही है जो वैज्ञानिक चेतना व दृष्टि विकसित करने में सबसे बड़ा रोड़ा है। ऐसे में जब विद्यार्थी विज्ञान की उच्च शिक्षा हासिल करने लायक होता है तब तक रटने-रटाने का सिलसिला और अंग्रेजी में दक्षता ग्रहण कर लेने का दबाव, उसकी मौलिक कल्पना शक्ति का हरण कर लेते हैं। ऐसे में सवाल उठता है विज्ञान शिक्षण में ऐस कौन से परिवर्तन लाए जाएं जिससे विद्यार्थी कीसोचने-विचारने की मेधा तो प्रबल हो ही, वह रटने के कुचक्र से भी मुक्त हो ? साथ ही विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद शैक्षिक उपाधि से नवाजने व सीधे वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान हों।
हालांकि हम भारत की आधुनिक शिक्षा पद्धति की जडें लार्ड मैकाले द्वारा प्रचलन में लाई गई अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में देखते हैं। जबकि मैकाले ने कुटिल चतुराई बरतते हुए 1835 में ही तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक को अंग्रेजी व विज्ञान की पढ़ाई को बढ़ावा देने के निर्देश के साथ यह भी सख्त हिदायत दी थी कि वे भारत की संस्कृत समेत अन्य स्थानीय भाषाओं तथा अरबी भाषा से अध्ययन-अध्यापन पर अंकुश लगाएं। इसकी पृष्ठभूमि में मैकाले का उद्देश्य था कि वह भारत की भावी पीढ़ियों में यह भाव जगा दें कि ज्ञानार्जन की पश्चिमी शैली उनकी प्राचीन शिक्षा पद्धतियों से उत्तम है। यहीं अंग्रेजी हुक्मरानों ने बड़ी चतुराई से सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य को धर्म और अध्यात्म का दर्जा देकर उसे ज्ञानार्जन के मार्ग से ही अलग कर दिया। जबकि हमारे उपनिषद् प्रकृति और ब्रह्माण्ड के रहस्य, वेद विश्व ज्ञान के कोष, रामायण और महाभारत विशेष कालखण्ड़ों का आख्यान और पुराण राजाओं का इतिहास हैं। अब बाबा रामदेव ने आयुर्वेद और पातंजलि योग शास्त्र को आधुनिक एलोपैथी चिकित्सा पद्धति से जोड़कर यह साबित कर दिया है कि इन ग्रंथों में दर्ज मंत्र केवल आध्यात्मिक साधना के मंत्र नहीं हैं। कम पढ़े लिखे एवं अंग्रेजी नहीं जानने वाले बाबा रामदेव आज दुनिया के चिकित्साविज्ञानियों के लिए चुनौती बने हुए हैं ?
देश की आजादी के बाद शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव के लिए कई आयोग बैठे, शिक्षा विशेषज्ञों ने नई सलाहें दीं लेकिन मैकाले द्वारा अवतरित जंग लगी शिक्षा प्रणाली को बदलने में हम नाकाम ही रहे हैं। जबकि आजादी के बासठ सालों में तय हो चुका है कि यह शिक्षा जीवन की हकीकतों से रूबरू नहीं कराती। तमाम उच्च डिग्रियां हासिल कर लेने के बावजूद विद्यार्थी स्वयं के बुद्धि-बल पर कुछ अनूठा नहीं दिखा पा रहे हैं। इस कागजी शिक्षा के दुष्परिणाम स्वरूप ही हम नए वैज्ञानिक, समाज शास्त्री, मनोवैज्ञानिक इतिहासज्ञ लेखक व पत्रकार देने में असफल ही रहे हैं।
शैक्षिक अवसर की समानता से दूर ऐसे माहौल में उन बालकों को सबसे ज्यादा परेशानी से जूझना होता है, जो शिक्षित और मजबूत आर्थिक हैसियत वाले परिवारों से नहीं आते। समान शिक्षा का दावा करने वाले एक लोकतांत्रिक देश में यह एक गंभीर समस्या है, जिसके समाधान तलाशने की तत्काल जरूरत है। अन्यथा हमारे देश में नौ सौ से अधिक वैज्ञानिक संस्थानों और देश के सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञान व तकनीक के अनुसंधान का काम होता है, इसके बावजूद कोई भी संस्थान स्थानीय संसाधनों से ऊर्जा के सरल उपकरण बनाने का दावा करता दिखाई नहीं देता है। हां, तकनीक हस्तांतरण के लिए कुछ देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से करीब बीस हजार ऐसे समझौते जरूर किए हैं जो अनुसंधान के मौलिक व बहूउपयोगी प्रयासों को ठेंगा दिखाने वाले हैं। इसलिए अब शिक्षा को संस्थागत ढांचे और किताबी ज्ञान से भी उबारने की जरूरत है, जिससे नवोन्मेषी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन व सम्मान मिल सके।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
आईआईएम अहमदाबाद के प्रो अनिल कुमार गुप्ता ने 'सृष्टि' नामक एक संस्था का सूत्रपात किया है जिसने किसानों, मजदूरों, कामगारों, आदि के नवोन्मेषों का पैटेन्ट कराया है। उन्होने लगभग ३०० ऐसे पैटेन्ट पाप्त किये हैं जबकि भारत की बड़ी-बड़ी शोध संस्थान एक-एक पैटेन्ट के लिये रोते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सम्यक विचार है। ऐसे लेखों से उत्साह और प्रेरणा मिलती है।
उम्मीद करूंगी कि उच्च पदस्थ लोग इस आलेख से कुछ सीख ले सके .. भारतवर्ष में जहां एक ओर आज की शिक्षा किसी व्यक्ति की प्रतिभा को समाप्त करने के लिए काफी है .. वहीं दूसरी ओर बडी बडी डिग्री न होने से किसी की प्रतिभा का कोई मूल्य ही नहीं !!
जवाब देंहटाएंइन लोगों को प्रोत्साहन की आवश्यकता है. लाल फीताशाही को खत्म करना परमावश्यक है...
जवाब देंहटाएंमैकाले की शिक्षा पद्धति ही त्रुटिपूर्ण है, ऊपर से भ्रष्टाचार....
आपकी रचना कई भारतवासियों की वर्त्तमान सामाजिक-राष्ट्रीय परिवेश में उत्पन्न मेधावरोध के भयावह स्थिति को दर्शाता है। उच्च पदस्थ पदा./व्यष्टि सिस्टम (व्यवस्था) से बंधे क्रांतिकारी कदम की ओर कम ही अग्रसर होते हैं जबकि दायित्व उसका सबसे ज्यादा होता है जो ज्यादा समर्थ हो। रामदेव बाबा क्या अकेले पड़ जायेंगे या हम सबों को छोटे-छोटे बाबा बनकर अलग-अलग क्षेत्रों में सामर्थ्यानुसार प्रकाश फैलाते जाना होगा । आपकी रचना वास्तव में समयानुकूल है।
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