एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य – व्याह की चाह

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आ ज के समय में व्याह की चाह न होना कोई ताजुब की बात नहीं है। बहुत से लड़के और लड़कियों के अंदर व्याह की चाह नहीं होती। चाह तो रहती ही है। भले ...

ज के समय में व्याह की चाह न होना कोई ताजुब की बात नहीं है। बहुत से लड़के और लड़कियों के अंदर व्याह की चाह नहीं होती। चाह तो रहती ही है। भले ही व्याह की चाह न हो। ऐसे स्त्री और पुरुष भी मिल ही जाते हैं। जिन्होंने व्याह नहीं किया। जाहिर सी बात है चाह नहीं रही होगी। दीगर है कुछ लोगों का चाह के बावजूद भी नहीं होता। बाद में ‘जब नाक कट ही गयी है तो कहो न भगवान के दर्शन हो रहे हैं’ के तर्ज पर भले ही क्यों न कहें कि चाह ही नहीं थी। नहीं तो एक क्या दो-दो कर लेता। वैसे इनकी आत्मा ही जानती है या फिर अन्तर्यामी परमात्मा ही जानते हैं। शायद इनकी पीड़ा से पीड़ा को भी पीड़ा होती होगी। कुछ तो ऐसी कारस्तानी कर गुजरते है कि जिसे देख-सुनकर पीड़ा को भी पीड़ा होती है। लेकिन इनको नहीं होती। उपर से कहेंगे कि चाह ही नहीं थी।

कुछ लोग व्याह की चाह न होने पर लड़के-लड़कियों को बुरा मानते हैं। लेकिन प्राचीन काल में तो अधिकांश लोगों में व्याह की चाह नहीं होती थी। कुछ लोगों के यदि व्याह की चाह रहती थी अथवा उत्पन्न हो जाती थी, तो दूसरे समझा-बुझा देते थे। ऐसे लोगों को समाज में अच्छा स्थान प्राप्त था। इस दृष्टि से आज के युवक-युवतियों को बुरा मानना तर्क संगत नहीं लगता। मगर पहले जिनके व्याह की चाह नहीं होती थी। उन्हें चाह भी नहीं रहती थी। उन्हें किसी की राह देखने अथवा किसी के राह में पड़ने की या किसी को राह में छेड़ने की जरूरत नहीं होती थी।

लड़के-लड़कियों के भले ही व्याह की चाह उत्पन्न न हो। लेकिन माता-पिता के सबसे पहले यानी बचपन में ही उत्पन्न हो जाती है। लड़का है तो व्याह करके सुघड़ बहू लाने का सपना बुनते हैं। रही बात सपने की तो सपना अपना हो भी सकता है और नहीं भी। आज के समय में असम्भव नहीं तो नामुमकिन जरूर होता जा रहा है-सुघड़ बहू का सपना। खैर लड़की है तो व्याह करके भेजने की बात तो जेहन में आती ही है। लड़की भले ही यह अवसर न दे। आज वैसे ही अवसरों की कमी है और दिनों-दिन बढती जा रही है। ऐसे में किसी का क्या दोष ?

जहाँ एक ओर कुछ लोगों के व्याह की चाह ही नहीं होती। वहीं दूसरी ओर तमाम लोग ऐसे हैं जिनके सदा व्याह की चाह बनी रहती है। कुछ लोग तो चाह को हकीकत में बदलते भी हैं और कुछ लोग तो बदलते ही रहते हैं। अधिकांश लोग दबाए रखने और दबे रहने में ही भला समझते हैं। व्याह की चाह न होना अथवा बार-बार होना, कब होना और किस उम्र में होना, इसके लिए कोई नियम नहीं है। करने का तो कुछ नियम भी है। नियम तो बहुत हैं। मगर नियम बनाने से क्या होता है ? खैर चाह के लिए कोई नियम नहीं है। कब, कौन, किसे, किससे क्या और कहाँ चाहे ? क्या पता ?

हास्यरसिकों का कहना है कि इसे चाहो, उसे चाहो जिसे मर्जी उसे चाहो। इसके लिए अर्जी देने की भी तो जरूरत नहीं होती। एक को चाहो अथवा अनेक को चाहो। जाकर बोल भी देते हैं कि हम तुमसे चाहते हैं। अज्ञानता बस लड़की समझती और कहती कि यह मुझे चाहता है यानी प्यार करता है। मगर हास्यरसिक की चाह या प्यार कुछ भी कह लो क्या हो सकती है ? नयन-बयन से शुरू करके आगे की यात्रा, वो भी जल्दी-जल्दी से। बस यही और कुछ नहीं। इनके पास समय कम होता है, क्योंकि इन्हें कई यात्राएं करनी होती है। खैर चाह तो चाह होती है। दीगर है इसके लिए राह बनानी पड़ती है। जो सबके बस की बात नहीं होती।

कुछ लोग तो राह बनाने में चूहों को भी धता बता दें। ऐसे लोगों की चाह पूरी होती रहती है। उम्र के किसी भी पड़ाव में क्यों न हों, खास फर्क नहीं पड़ता। वैसे उमर और व्याह की चाह में बहुत गहरा सम्बन्ध है। कहते हैं कि नसीब अपना-अपना। किसी- किसी की तो पैंतीस-चालीस के बाद चाह मर जाती है अथवा चाह के बावजूद भी कोई बात नहीं पूंछता। वहीं कुछ लोगों के सत्तर-अस्सी के उम्रमें भी व्याह की चाह उत्पन्न होती है। और कोई न कोई मिल भी जाता है। कारण कुछ भी हो। धन, बल मन न ही सही। इनकी चाह पूरी होती देख कुछ लोगों की नाहक ही आह निकल जाती है। कुछ लोगों की आह लग भी जाती है।

हमारे गांव में दो लोग परस्पर विरोधी थे। जबकि दोनों में कम से कम एक समानता थी। दोनों ने व्याह नहीं किया था। अथवा हुआ ही नहीं था। वे दार्शनिक भी थे अथवा हो गए थे। अक्सर कहते थे कि ममता सबको नचाती है। कौन ममता ? कोई पूछ ले तो नाराज हो जाते थे। उनका कहना था कि इस कलियुग में जो बचा ले जाय उसके समान कोई नहीं है। लोग माया, मोह और ममता में नाहक ही फंसे हैं। लेकिन समय का कुछ ऐसा चक्र चला कि जीवन के उत्तरार्ध में ये लोग कहीं से स्त्री ले आये। अथवा खुद ही आ गयी थीं। ये लोग कहते कि गाँव वाले जो चाहते थे वही हुआ। चलो कोई बात नहीं अब व्याह भी कर लेंगे। वो भी अपने ही घर पर। न कहीं आना न जाना। लेकिन भाग्य ने साथ नहीं दिया और दोनों चली गयीं। अपने साथ कुछ ले भी गयीं। लेकिन इस घटना का ऐसा असर हुआ कि ये दोनों लोग मित्र बन गए। अब आपस में कहते कि गाँव वाले ही फंसा दिए थे। घर लुटाने के लिए। वैसे जानकार बताते थे कि ये लोग एक दिन में दार्शनिक नहीं बने हैं। कई बार लुट चुके हैं। कर्ज लिया, खेत बेचा लेकिन व्याह की चाह पूरी नहीं हुयी। लोगों ने बहुत ठगा। एक बार तो इनमें से एक लोग एक स्त्री को ला रहे थे, काफी खर्च करने के बाद। लेकिन रास्ते में ही वह स्त्री पुरुष बन गयी। बेचारे किसी तरह बात को दबाए रखे, मगर ऐसी बातें दबती कहाँ हैं ?

जब नारदजी जैसे ब्रम्हज्ञानी भी व्याह कि चाह नहीं रोक पाए। तब किसी आदमी के बारे में क्या कहा जाय ? व्याह कि चाह हो, लेकिन समय रहते तो ठीक है। समय जाने पर पहले जोगी बाद में भोगी वाली बात हो जाती है। जिसे लोग कम पसंद करते हैं। पहले भोगी और बाद में जोगी तो कुछ ठीक ही है। परन्तु आज साथ-साथ का चलन है। जोग और भोग परस्पर विरोधी थे, लेकिन समय फिरने से इनमें भी मित्रता हो गयी है।

व्याह की चाह न होना अथवा न रखना आज कोई बड़ी बात थोड़े है। आम बात हो गई है। बड़ी बात तो तब होगी जब न व्याह की चाह हो और न ही चाह हो। मतलब किसी की चाह न हो। लेकिन लोग सलमा-सलमा वाला गीत गाते फिरते हैं। अच्छे हास्यरसिक होते हैं। नयन-बयन तक पहुँच होते ही, जो आज आसानी से हो जाती है, आगे की यात्रा के लिए जुगत भिड़ाते-भिड़ाते जीवनयापन करते हैं। तजुर्बेकार अनुभवी बताते हैं कि हिंदुस्तान में बिना जुगाड़ के कुछ नहीं होता। जुगाड़ी सफल तो होते ही हैं। आज नहीं तो कल मेहनत का फल मिल ही जाता है। आवश्यकता होती है तो बस लगे रहने की।

कहते हैं कि रिकार्ड बनाने के लिए भी कुछ लोगों में व्याह की चाह उत्पन्न होती है। समाचारपत्रों में ऐसी खबरे मिल जाती हैं कि वे सत्तर बार व्याह की चाह पूरी कर चुके हैं। और शतक लगाने की तमन्ना रखते हैं। कहीं कोई साठ के, तो कोई सत्तर के, तो कोई अस्सी के उमर में व्याह की चाह पूरी करते हैं। कोई-कोई तो नब्बे और सौ की उमर में बीस साल की लड़की से व्याह करके व्याह की चाह पूरी करते हैं।

सुना है कि बहुत लोग इतनी बार व्याह की चाह पूरी कर लेते हैं कि उन्हें खुद ही पता नहीं होता कि उनकी पत्नियां कहाँ हैं। जीवित हैं अथवा मर गयीं। नहीं जानते। अथवा जानने की जरूरत ही नहीं समझते। जैसे जंगल में पशु रहते हैं और मंगल करते रहते है। बाद में कोई कहीं अलग चला जाय तो फिर अता-पता नहीं। मंगल से मतलब, अब दूसरे से करेंगे। ये ऐसे लोग होते हैं जो व्याह करना बहुत जरूरी समझते हैं। इनका मानना होता है, जो करना है सो करना है तो क्यों न कुछ फेरे कर लें, दो-चार लोगों को बुला लें, पार्टी हो जाय, नाच-गाना हो जाए तथा लोग जान भी जाएं कि कमी नहीं है। जब चाहे, जितनी बार चाहे व्याह की चाह पूरी कर सकता है। पार्टी करने में, पीने-पिलाने में क्या बुरा है ? वैसे ही अक्सर चलती ही रहती है।

मंगल करते रहने वालों का दो ग्रुप है। एक जिनका वर्णन उपर आया। दूसरे वे जो मंगल तो करेंगे, लेकिन फेरे-सेरे के चक्कर में नहीं पडेंगे। इन्हें व्याह से चिढ़ है। सही कहावत है- ‘दूध पियेंगे छक कर, लेकिन भैंस घर में नहीं रखेंगे’। दौलत के बल पर अथवा प्यार करके। लेकिन व्याह नहीं, एक बार नहीं, हजार बार नहीं-नहीं। व्याह की चाह नहीं है। न ही जरूरत है। पत्नी का क्या करना है ? व्याह करो पत्नी लाओ, गवारों का काम करो। ये नहीं होता। और सब होता रहता है।

लेकिन किसी की व्याह की चाह या चाह पूरी हो अथवा न हो। यह लड़कियों तथा महिलाओं पर निर्भर करता है। ये लोग ही इसमें कुछ कर सकती हैं। क्योंकि जूती इन्हीं के पास होती है। उसका सही और उचित समय पर प्रयोग होना चाहिए। लेकिन महिलाएं इसका प्रयोग नहीं करती। कम से कम व्याह की चाह के मामले में। जब सत्तर साल के बूढ़े के व्याह की खबर बीस साल के लड़की से सुनाई पड़ती है। तब कितने ही लोग जो सालों से प्रतीक्षा सूची में अपना नाम डाले बैठे होते हैं। हार्ट अटैक होने से बाल-बाल बचते हैं। क्या तन, मन, धन व अनुभव में अनुभव भारी पड़ जाता है ? अथवा सबसे भारी धन ही पड़ता है।

किसी पहुंचे हुए कवि ने बहुत ही नेक सलाह दिया है और हम भी इसका समर्थन करते हैं -

“व्याह की चाह उठे मन माहि तो अठारह, बीस, पचीस में कीजै।

तीस भये तो खीस भये अरु चालीस-पचास में नाम न लीजै।

साठ की उमर में जो काम सतावै तो काढि के जूती कपार पे दीजै।।

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एस. के पाण्डेय।

समशापुर (उ. प्र.)।

URL: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/

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रचनाकार: एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य – व्याह की चाह
एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य – व्याह की चाह
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