(1) ग़ज़ल जब मुझसे मुखातिब थे , औराक़े वज़ीफाई। हालात के होठों पर , उस वक्त हँसी आई॥ खुद क़त्ल भी करते हैं और खुद ही मुदावा भी। ...
(1)
ग़ज़ल जब मुझसे मुखातिब थे, औराक़े वज़ीफाई।
हालात के होठों पर, उस वक्त हँसी आई॥
खुद क़त्ल भी करते हैं और खुद ही मुदावा भी।
सीखे तो कोई उनसे अन्दाज़े-मसीहाई॥
ऐ काश! मेरे हँसते अश्कों से कोई पूछे।
क्या भाव पड़ी होगी शबनम से शनासाई॥
मांगी थी दुआ लेकिन बदले में बुज़ुर्गों से।
इस वक़्ते-तिज़ारत में जीने की सज़ा पाई॥
सब अहले-जुनूं कबके इस पार चले आये।
साहिल पे बचे हैं कुछ डरपोक तमाशाई॥
‘राजेश' तेरी आँखें हैं आज भी लासानी।
देखी है बहुत हमने दरियाओं की गहराई।
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(2)
दुश्मनों से दिन ब दिन यारी करें।
आइनों की भी तरफ़दारी करें॥
बढ़ रही मतलब परस्ती हर तरफ।
फिर किसी जोगी को घरबारी करें।
सच को सच कहना नहीं कोई गुनाह।
ये मुनादी मुल्क में जारी करें॥
सादगी से ही गुज़र हो जाये तो।
क्या जरुरी है अदाकारी करें॥
माफियां उनके लिए हर्गिज ना हो।
जो भी इस गुलशन से गद्दारी करें॥
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(3)
लहरों की रुनझुन गायब है सहमे हुए सिकारों से।
रह रह कर धुंआ उठता है अब भी सब्ज चिनारों से॥
रावी के तट पर लाशों की गंध हवा में तारी है।
लोहू के छींटे आते हैं झेलम के फ़व्वारों से॥
बिन मौसम फिर बर्फ़ गिरी है शाखों पर सन्नाटा है।
सर्द लहू कैसे टपकेगा, कटे हुए कुहसारों से॥
कोई क्या तो आस लगाये, क्या कोई उम्मीद करे।
गरियाते नेता निकले हैं संसद के गलियारों से॥
अग़र हो सके बचके रहना, बड़े बुजुर्ग बताते हैं।
राजनीति के नन्दन वन में काबिज रंगे सियारों से॥
जब से पंडित और बरहमन ने मालिक को बांट लिया।
मंदिर-मस्जिद अटे पड़े है मज़हब के हक़दारों से॥
मंदिर-मस्जिद के मसलों से कब तक मुक्त करा दोगे?
कोई तो ये पूछे आखिर कौमी खिदमतगारों से॥
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(4)
न छेड़ो सितम आफ़ज़ाई की बातें।
है सरगोशियों में रिहाई की बातें॥
निज़ामे-चमन खामुशी चाहता है।
न छेड़ो ये नग्मा़सराई की बातें॥
लुटा क़ाफिाला उनके दस्ते क़रम से।
जो करते रहे रहनुमाई की बातें॥
उन्हें आज अपनी से फ़ुर्सत नहीं है।
जो करते थे सारी खुदाई की बातें॥
शरारों से ज़ुल्मत में घबरा रहे हैं।
जो करते थे शोला नवाई की बातें॥
अज़ब फ़लसफा है तुम्हारे शहर का।
जवाँ दौर में पारसाई की बातें॥
बहुत कुछ है कहने को ‘राजेश' लेकिन।
मुनासिब नहीं खुदनुमाई की बातें॥
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(5)
अमीरों से शुरु होकर फ़क़ीरों तक चला आया।
अदब का सिलसिला हमसे दबीरों तक चला आया॥
विरासत में मिला मुझको सलीका साफ़गोई का।
मग़र ये फ़लसफ़ा मेरे ज़हीरों तक चला आया॥
भले वेता में ये रीतें फ़क़त रघुवशियों तक थी।
मग़र द्वापर में वो जौहर अहीरों तक चला आया॥
‘अनहलक़' का अमर उद्घोष जो ‘मंसूर' से चलकर।
सुनो साधों ये अफसाना ‘कबीरों' तक चला आया॥
हम उस पागल जहाजी का सदा उपकार मानेंगे।
जो पहली मर्तबा सूने ज़ज़ारों तक चला आया॥
मुहब्बत का जुनूं मजनूं महीवालों के क़िस्सों से।
न जाने कितने रांझों और हीरों तक चला आया॥
अज़ब है ऐ मेरे मालिक तेरे अवतार का फ़न भी।
चतुर्भुज रूप ‘वामन' से कसीरों तक चला आया॥
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(6)
दुनियादारी की छलनी से, छने हुए थे राम क़सम।
या फिर जाने किस माटी के बने हुए थे राम क़सम॥
बिगड़ा कुछ भी नहीं ‘भाड़' का क्योंकि सभी अकेले थे।
हमसे पहले जाने कितने ‘चने' हुए थे राम क़सम॥
वैसे तो तारीक समाँ था लेकिन सबके बारिश में।
कुद मटमैले इन्द्रधनुष भी तने हुए थे राम क़सम॥
नागफनी का जंगल बेशक फैल गया है आज मगर।
एक वक्त था आम्र कुंज जब घने हुए थे राम क़सम॥
नागासाकी के आंगन में हिरोशिमा की धरती पर।
तब की कुछ मासूम घरौंदे बने हुए थे राम क़सम॥
कुछ पेशेवर लोग अमन के नारे जो लगवाते थे।
सुर्ख लहू से हाथ उन्हीं के सने हुए थे राम क़सम॥
समझौतों की बातें करना आम बहुत था ‘राज' मगर।
जाने कितने जंग परस्पर ठने हुए थे राम क़सम॥
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(7)
भटकी हुई कश्ती को मंजिल का इशारा हूँ।
साहिल ना समझ लेना इक गिरता कगारा हूँ॥
बहते हुए दरिया में साहिल ना समझ बैठें।
पंहुची जो ना साहिल पे सागर की वो धारा हूँ॥
ग़र्दिश में पड़े हैं वो अम्बर पे जो रोशन थे।
सूरज की निगाहों में धुंधला सा सितारा हूँ॥
महफिल में तमन्ना की जलते जो रहे शब भर।
उन बुझते चिरागों का लर्ज़िश में इशारा हूँ॥
छाई है अज़ब यारों माहौल में मायूसी।
मैं आखिरी लम्हों का ग़मग़ीन नज़ारा हूँ॥
देखा न करे कोई हसरत की निगाहों से।
समझा था जिसे सूरज जुगनू का इशारा हूँ॥
मंजर में जुदाई के आंसू न कभी लाना।
याद आये कभी क्योंकर गर्दिश का सितारा हूँ॥
इम्दाद ना कर पाऊँ ‘राजेश' किसी की मगर।
हर डूबने वाले को तिनके का सहारा हूँ॥
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(8)
अब किसी भी बात पर बेशक नहीं अड़ते हैं लोग।
दफ़्अतन दीवार से भी किन्तु लड़ पड़ते हैं लोग॥
कुछ दीनारों, चंद सिक्कों, चन्द तमगों के लिए।
चाबियों वाले खिलौनों की तरह लड़ते हैं लोग॥
चुल्लुओं में डूब मरने का चलन कब का गया।
अब किसी भी बात पर ना शर्म से गड़ते हैं लोग॥
राम, की गंगा ना मैली है ना मैली थी कभी।
अपने मतलब के लिए क्या क्या नहीं जड़ते हैं लोग॥
एहतियातन शहर में, कर्फ्यू कुछेक घण्टों लगा।
कैसे कैसे वाकये घुटनों पे अब घड़ते हैं लोग॥
कारखाने जब से कायम हैं हमारे शहर में।
झुग्गियों में तबसे कीड़ों की तरह सड़ते हैं लोग॥
चुल्लुओं में डूब मरने का चलन कब का गया,अब किसी भी बात पर ना शर्म से गड़ते हैं लोग। ख़ूबसूरत शे'र।
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